अतीत-स्मृति/१७ प्राचीन भारत में जहाज़

प्रयाग: लीडर प्रेस, पृष्ठ १८८ से – १९८ तक

 

१७-प्राचीन भारत में जहाज़

वेदो में इस बात के यथेष्ट प्रमाण हैं कि वैदिक युग में भारतवासी आर्य्य व्यापार-वाणिज्य आदि के लिए समुद्र-यात्रा करते थे। भारतवासियों ने जहाज बनाने का काम विदेशियों से नहीं सीखा। जिस समय अन्य देशो में रहनेवाले लोग असभ्य और बर्बर थे उस समय भारतवासी सभ्यता के ऊँचे शिखर पर पहुँच गये थे। उन्होंने, उसी समय, संसार की सारी जातियों के सम्मुख अपना श्रेष्ठत्व सिद्ध कर दिया था। तरह तरह की व्यापारोपयोगी चीजें वे नौकाओं और जहाजों द्वारा, अपने देश के भिन्न भिन्न स्थानों को पहुँचाते थे। साथ ही द्रव्योपार्जन के निमित्त वे समुद्र-यात्रा करके विदेशों में भी पहुंचते थे। वैदिक साहित्य में जहाजों के आने जाने के मार्ग का, अनेक प्रकार के समुद्रगामी जहाज़ों का समुद्र में पैदा होनेवाली वस्तुओं का, तथा समुद्र-यात्रा और जहाज़ों के तबाह होने आदि का वर्णन है। इस से सष्ट है कि बहुत समय पहले वैदिक युग में भी हिन्दुओ को विदेश को व्यापारोपयोगिनी सब वस्तुओं का पूरा पूरा ज्ञान था। वेदों के अनेक सूक्तों में इस बात के अनेक प्रमाण मौजूद हैं। उदाहरण के लिए नीचे हम एक सूक्त उद्धृत करते हैं-

अरित्रं वां दिवस्पृथुतीर्थे सिन्धूना रथः। धिया युयुस्र इन्दवः।

(ऋग्वेद, तृतीय अध्याय, सूक्त ४६, ऋक् ८)

अर्थात्-तुम लोगों का आकाश से भी अधिक विस्तीर्ण यान, समुद्र के किनारे, मौजूद है भूमि पर रथ मौजूद हैं। साथ ही सोमरस तुम्हारे यज्ञ-कार्य के लिये विद्यमान है। यहाँ पर "अरित्र" शब्द का अर्थ है-नाव का डांड़"।

ऋग्वेद् (१-११६-५) और वाजसनेयी संहिता में एक सौ पतवारों वाले जलयान (नौका) का वर्णन है। (नौ) अर्थात् नौका का उल्लेख अरित्र-परण नाम से किया गया है। ऋग्वेद के दो सूक्तों (१-४६-८ और २-१८-१) में "अरित्र" का प्रयोग दूसरे अर्थ में भी किया गया है।

"नौ" शब्द ऋग्वेद में और अन्यत्र भी नौका या जहाज़ के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। बहुत जगहों में "न" या "नौका" का प्रयोग नदी पार करने ही के लिए किया गया है। यद्यपि गंगा-यमुना के सदृश बड़ी बड़ी नदियां पार करने के लिए बड़ी बड़ी नावों की ज़रूरत पड़ती थी, तथापि जहाज़ों का विशेष प्रयोग न होता था। "नौ" शब्द से लकड़ी की बनी हुई सब प्रकार की नौकायें समझी जाती थी। विलसन साहेब कहते है कि वैदिक युग में समुद्रगामी जहाज़ों का विशेष उल्लेख नहीं पाया जाता। यहां तक कि जहान के मस्तूल और पाल आदि उपकरणों का भी कोई वर्णन नहीं। उस समय जहाज़ों और नावों का एक मात्र आधार पतवार हो था। किन्तु उनकी यह बात हम किसी प्रकार स्वीकार नही कर सकते। वैदिक युग में सामुद्रिक व्यवसाय होता था। उस समय जहाज़ों के पात्र और मस्तूल आदि का भी अभाव न था। उदाहरण के लिए अथर्व-वेद का ५।१९।८ मन्त्र देखिए। इस मन्त्र में पीड़ित ब्राह्मणोंवाले राज्य के नाश की तुलना एक छिद्रयुक्त डूबते हुए जहाज से की गई है। ऋग्वेद १।५६।२ और ४५५।६ में भी धन-प्राप्ति के लिए समुद्र-यात्रा करनेवाले मनुष्यों का उल्लेख है। ऋग्वेद में यह भी लिखा है-

"मरता हुआ कोई मनुष्य जिस प्रकार धन का त्याग करता है उसी प्रकार तु्ग्र-भुज्जु को समुद्र में भेजा था। अश्विद्वय, तुम लोग अपने नोका-समूह पर चढ़ा कर उसे सकुशल लौटा लाये‌। वह नौका पानी के भीतर चली जाती है, पर उसके भीतर पानी नहीं जा सकता"।

उस समय सौ सौ पतवारों वाले बड़े बड़े जहाज़ समुद्र में आते जाते थे-यह बात इस सूक्त से अवश्य ही सिद्ध होती है। वेदों के बहुत से सूक्तों में ऐसी ऐसी बातें पाई जाती हैं। बौधायन-धर्मसूत्र यद्यपि बहुत प्राचीन ग्रन्थ नहीं तथापि उसमें बहुत पुरानी बातों का वर्णन अवश्य है। उसमें भी हम समुद्र-यात्रा के अनेक उदाहरण पाते हैं। ऋग्वेद में जहाज़ों और बड़ी बड़ी नावों से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक शब्दो का प्रयोग हुआ है।

ऋग्वेद के जिन मन्त्रों का उल्लेख हमने ऊपर किया है उनसे यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि वैदिक युग में भारतवर्ष की सौभाग्य-लक्ष्मी उस पर बहुत प्रसन्न थी। भारतवर्ष ने उस समय समुद्र में जानेवाले जहाज़ों की सहायता से व्यापार में बहुत उन्नति की थी। वैदिक युग के बाद के युग में मनु-संहिता में भी हम देखते हैं कि उस समय भी भारतवासी देश-देशान्तरों को जाकर वहां व्यवसाय-वाणिज्य करते थे। मनु के चार श्लोकों से तो समुद्रयात्रा का भली भांति प्रतिपादन होता है। इस सम्बन्ध में मनुस्मृति के कुछ श्लोक नीचे दिये जाते हैं-

सारासारञ्च भाण्डानां देशानाञ्च गुणागुणान्।
लाभालाभञ्च पण्यानां पशूनां परिवर्द्धनम्॥
भृत्यानाञ्च भृर्ति विद्यात् भाषाश्च विविधा नृणाम्।
द्रव्याणां स्थानयोगाँश्च क्रयविक्रयमेव यः॥
नवम अध्याय-३३१, ३३२
समुद्रयानकुशला देशकालार्थदर्शिनः
स्थापयन्ति तु यां वृत्तिं सा तत्राधिगमं प्रति॥
(अष्टम अध्याय-१५७)
दोर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं ततो भवेत्।
नदीतीरेषु तद्विद्यात् समुद्रे नास्ति लक्षणम्॥
(अष्टम अध्याय-४०६)
क्रयविक्रयमध्यानं मक्तञ्च सपरिव्ययम्।
योगक्षेमञ्च सम्प्रेक्ष्य वणिजो दापयेत् करान्॥
(सप्तम् अध्याय-१२०)
पञ्चाशद्भाग आदेयो राजा पशुहिरण्ययोः।
धान्यानामष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा॥
(सप्तम अध्याय-१३०)

आददीताथ षड्भागं द्रु-मांस-मधु-सर्पिषाम्
गन्धौषधिरसानाञ्च पुष्पमूलफलस्य च॥
यत्र शाकतृणानाञ्च वैदलस्य च चर्मणाम्।
मृण्मयानाञ्च भाण्डानां सर्वस्याश्ममयस्य च॥
(सप्तम अध्याय-१३१, १३२)
कारुकान् शिल्पिनश्चैव शुद्राश्चात्मोपजीविनः।
एकैकं कारयेत् कर्म्म मासि मासि महीपतिः॥
(सप्तम् अध्याय-१३८)

रामायण से हमें पता लगता है कि दक्षिण के अधिकांश प्रदेश उस समय बड़े बड़े जालों से परिपूर्ण थे। रामायण में दक्षिण-देश की नदियो और पर्वतों आदि का बहुत वर्णन है। उससे मालूम होता है कि रामायण की जिस समय रचना हुई थी उस समय हिन्दुओं का आवागमन दक्षिण में खूब था। साथ हो उस समय समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों के साथ उनका वाणिज्य-व्यापार भी था। किष्किन्धा-काण्ड के चालीसवें सर्ग में यवद्वीप (जावा) का वर्णन है-

यत्नवन्तो यवद्वीपं सप्तराज्योपशोभितम्।
सुवर्णसम्यकं द्वीपं सुवर्ण कायमण्डितम्॥

रामायण के कुछ श्लोकों में समुद्र-यात्रा का विशेष वर्णन है। देखिए

उदीच्याश्च प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च केरलाः
कोट्याः, परान्ताः सामुद्रा रत्नान्युपहरन्तु ते॥
(अयोध्याकाण्ड, सर्ग ६३, श्लोक ५४)
समुद्रमवगाढाँश्च पर्वतान् पत्तनानि च।
(किष्किन्धा-काण्ड, सर्ग ४०, श्लोक २५)
भूमिश्च कोषकारणां भूमिश्च रजताकराम्।
(किष्किन्धा-काण्ड, सर्ग ४०, श्लोक २३)
ततः समुद्रद्वीपांश्च सुभीमान् द्रष्टुमर्हत।
पतान् म्लेच्छान पुलिन्दांश्च xxx॥
काम्बोजयवनांश्चैव शकानां पत्तनानि च।
अन्विध्य बरदाँश्चैव हिमवन्तं विचिन्वय॥
(किष्किन्धा-काण्ड, सर्ग ४३)

इन श्लोकों से स्पष्ट मालूम होता है कि रामायण-युग में शक आदि विदेशी जातियां व्यापार-वाणिज्य से बहुत प्रेम रखती थीं। उनका यह कार्य विशेष करके भारतवासियों ही के साथ होता था। वाल्मीकीय रामायण से यवद्वीप, सुमात्रा- द्वीप और चीन में हिन्दुओं के आने-जाने आदि का भी पता लगता है।

महाभारत के निम्नोद्धृत श्लोक से मालूम होता है कि पाण्डवों के सब से छोटे भाई सहदेव ने समुद्र के मध्यवर्ती

कितने ही द्वीपो में जाकर वहां के अधिवासी म्लेच्छों को हराया था

सागरद्वीपवासांश्च नृपतीन् म्लेच्छयोनिजान्।
द्वीपं साम्राह्वयश्चैव वशे कृत्वा महामतिः॥

मिताक्षरा से यह सिद्ध होता है कि हिन्दू लोग व्यापार के लिए जहाज़ों द्वारा दूर दूर तक समुद्र-यात्रा करते थे। समुद्री जहाज़ों का वर्णन हमें वायुपुराण, हरिवंश, मार्कण्डेयपुराण, भागवतपुराण, हितोपदेश, शकुन्तला, रत्नावली, दशकुमारचरित, कथा-सरित्सागर आदि अनेक संस्कृत-ग्रन्थों में मिलता है। कथा-सरित्सागर मे तो अनेक जगह जहाजों का वर्णन है। यह ग्रन्थ ईसा की पाँचवीं शताब्दी का है। इस ग्रन्थ के बनने के समय आर्य्य लोग समुद्र-गामी जहाज़ों को बनाना अच्छी तरह जानते थे। यह बात इस अन्य के पञ्चीसवें तरङ्ग में स्पष्ट लिखी हुई है। इसी ग्रन्थ के पचासवें तरङ्ग में लिखा है कि चित्रकर नामक एक मनुष्य दो श्रमणो (बौद्ध-संन्यासियों) के साथ विस्तृत समुद्र-पार करके प्रतिष्ठान नगर मे पहुँचा। वहाँ शत्रुओं को जीत कर आठ दिन बाद वह मुक्तिपुर-द्वीप में उपस्थित हुआ। पाश्चात्य देश के प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता स्ट्राबो ने लिखा है कि भारतवासी गङ्गा-नदी के मुहाने से समुद्र पार करते थे। वे जहाज़-द्वारा पालि-बोथ्रा तक जाते थे!

म्यकफ़र्सन के "एनल्स भाव कामर्स" (Macpherson's' Annals of Commerce ) नामक ग्रन्थ में लिखा है कि भारतवासी अपना वाणिज्यव्यापार बहुत दूर दूर तक करते थे। यहाँ तक कि मिश्र देश के साथ भी जहाजों द्वारा उनका व्यापार होता था। प्लीनी नाम का इतिहास लेखक कहता है कि छठी शताब्दी में भारत के व्यापारी समुद्र पार करके फ़ारिस के बन्दरों में पहुँचते थे। "रायल एशियाटिक सोसायटी" के जर्नल का पांचवां भाग पढ़ने से पता लगता है कि फ़ा-हियान नामक प्रसिद्ध चीनी यात्री भारतीय कर्मचारियों द्वारा परिचालित जहाज पर बैठकर अपने देश को रवाना हुआ था। उस जहाज पर कितने ही ब्राह्मण भी सवार थे।

हम वराहपुराण से समुद्र-यात्रा सम्बन्धी कुछ श्लोक नीचे उद्धृत करते है-

पुनस्तत्रैव गमने वणिग्भावे मतिर्गता॥
समुद्रयाने रत्नानि महास्थौल्यानि साधुभिः
रत्नपरीक्षकैः सार्द्धमानयिज्ये बहूनि च ॥
एवं निश्चित्य मनसा महासार्थपुरःस्सरः।
समुद्रयायिभिर्लोकः संविदं सूच्य निर्गतः॥
शुकेन सह संप्राप्तो महान्तं लवणार्णवम्।
पोतारूदास्ततः सर्वे पोत वाहैरुपोषिताः
राजतरङ्गिणी में यह लोक मिलता है-
सान्धिविग्रहिकः सोऽय गच्छम् पोतच्युतोऽम्बुधौ।
प्राप पारं तिमिप्रासात्तिमिमुत्पाप्यनिर्गतः॥

इन सब श्लोकों से यह निश्चय-पूर्वक कहा जा सकता है कि बहुत पुराने समय से भारतवासी नाव, जहाज़ और जलयान का व्यवहार करते पाते थे। अब तक हमने केवल अपने ही पुराणो और शास्त्रों आदि से, अनेक श्लोक उद्धृत किये है। इन श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि भारतवासी बहुत पहले जमाने से ही जलयानों का व्यवहार करना जानते थे। किन्तु हमे अब यहाँ कुछ प्रमाण दूसरी सभ्य जातियों के ग्रंथों से भी देने चाहिए। इन ग्रन्थों और दक्षिण-समुद्रवत अनेक उपद्वीपों के पुरावृत्तों में इस विषय के अनेक प्रमाण मिलते हैं—

Periplus of the Erythian Sea (पेरिप्लस आव् दि एरीथियन सी) नामक ग्रन्थ में लिखा है कि अरब, ग्रीक और हिन्दू-व्यापारी सकोट्रा नामक उपद्वीप में व्यापार के लिए जाते और वहाँ ठहरते थे। क्राफर्ड नाम के लेखक ने बहुत प्रमाणो द्वारा सिद्ध किया है कि यवद्वीप (जावा) के प्राचीन निवासी हिन्दू थे। उन लोगों ने १८०० वर्ष पहले बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। यवद्वीप में जिस समय बौद्धों का प्रादुर्भाव हुआ उस समय वहाँ के हिन्दू उसे छोड़ कर निकटवर्ती वाली नामक एक छोटे द्वीप मे जा बसे। वे आज तक अपने प्राचीन धर्म्म का पालन करते हुए वहीं रहते हैं।

यवद्वीप के रहनेवाले हिन्दुओं ने १८०० वर्ष पहले बौद्ध-धर्म स्वीकार किया था। अतएव वे इसके पहले ही वहाँ पहुँचे थे, यह बात अवश्य माननी पड़ेगी। लगभग दो हजार वर्ष पहले भारत से जहाज़ों द्वारा हिन्दू लोग यवद्वीप पहुँचे और वहीं वे बस गये। इस विषय के भी यथेष्ट प्रमाण मौजूद हैं। इस प्रकार अनेक प्रमाणों द्वारा यह दिखाया जा सकता है कि हिन्दू लोग समुद्र-यात्रा में बड़े प्रवीण थे। रोम के टोसिट्स नामक इतिहासवेत्ता ने हिन्दुओं को समुद्र-यात्रा और उनके व्यापार-वाणिज्य के विषय में जो कुछ लिखा है उसका अँग्रेज़ी अनुवाद हम नीचे देते हैं―

Pliny, the elder, relates the fact, after Cornelius Nepos, who, in his account of a voyage to the North, says, that in the Consulship of Quintus Meteullus Celer, and Lucius Afranius [A.U.C.694, before Christ 60] certain Indians, who had embarked on the commercial voyage, were cast on the coast of Germany, and given as a present by the king of the Sulvians to Meteullus, who was at that time Governor of the Gaul. The work of Cornelius Nepos has not come down to us, and Pliny, as it seems, has abridged too much. The whole tract would have furnished a considerable event in the history of Navigation. At present we are left to conjecture whether the Indian adventurers sailed round the Cape of Good Rope, through the Atlantic Ocean, and thence into the Northern Seas, or whether they made a voyage still more extraordinary passing the Island of Japan, the coast of Siberia, Kamschtska, Zembla in the Frozen Ocean, and hence round Lapland and Norway, either into the Baltic or the German Ocean―Tacitus, translated by Murphy, Philadelphia, 1836, P, 606 Note 2.

भद्रास और बम्बई प्रदेश के व्यापारी और नाविक अब भी बिना किसी सङ्कोच के समुद्र-यात्रा करते हैं। यह बात सभी जानते हैं। इन दोनों प्रदेशों के व्यापारी अपने व्यापार-वाणिज्य में कितने प्रवीण हैं; इसका प्रमाण उनका उन्नत व्यापार ही है।

इस सम्बन्ध में प्राचीन काल की नौकाओं और जहाज़ो के चित्र भी देने का विचार था। पर दुःख का विषय है कि प्राचीन काल के जलयनों का चित्र मिलने का कोई साधन नहीं। केवल कहीं कहीं भित्तियों और मन्दिरों में अङ्कित कुछ चित्र मिले हैं। बरोबुदेर (जावा) की चित्रावली में सात प्राचीन जहाज़ो के चित्र हैं। सांची के स्तूपों पर दो, जगन्नाथपुरी में एक, भुवनेश्वर में एक और अजन्टा की गुफ़ाओं में पचास चित्र पाये जाते हैं—

"भारतवर्ष" से सङ्कलित]
[मई १९१६