अतीत-स्मृति/१२ बौद्धकालीन भारत के विश्वविद्यालय
१२-बौद्धकालीन भारत के विश्वविद्यालय
इस लेख मे बौद्धकालीन भारतवर्ष के विश्वविद्यालयो का सिलसिलेवार संक्षिप्त इतिहास लिखा जाता है। श्रीयुत रवीन्द्र- नारायण घोष, एम॰ ए॰, ने डॉन् सोसाइटी को मैगज़ीन में इस विषय का लेख अंगरेज़ी में प्रकाशित किया है। उसी के आधार पर यह लेख लिखा जाता है।
बौद्धकाल तीन युगो मे बाँटा जा सकता है। पहला युग गौतम बुद्ध के समय से शुरू होता है और पाँच सौ वर्ष तक
रहता है। इस युग के बौद्ध साधुचरित्र और सच्चे त्यागी होते थे। दूसरा युग ईसवी सन् के साथ प्रारम्भ होता है और ईसा की छठी शताब्दी में समाप्त हो जाता है। इस युग मे बौद्धों ने पहले युग के गुण अक्षुण्ण रखने के साथ साथ शिल्पकला मे भी अच्छी उन्नति की थी। सातवीं शताब्दी से तीसरा युग लगता है। उसे तान्त्रिक युग भी कह सकते है। उसमे बौद्ध महन्तो के चरित्र बिगड़ने लगे थे और पहले को जैसी त्यागशीलता जाती रही थी। परन्तु उन लोगों ने आयुर्वेद और रसायन शास्त्र में खूब उन्नति की थी। उनमें से प्रत्येक युग के विशेषत्व की झलक उस समय के विश्वविद्यालयो मे अच्छी तरह पाई जाती है। तक्षशिला का विश्वविद्यालय
पहले युग का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय तक्षशिला नगर में था। यह नगर वर्तमान रावलपिण्डी के पास था। सूक्त और विनय-पीठ आदि प्राचीन बौद्ध-ग्रन्थों में इसका कई जगह उल्लेख पाया जाता है। प्राचीन काल में यह एक अत्यन्त विख्यात नगर था। एरियन, स्ट्राबो, प्लोनी आदि प्राचीन लेखकों ने इस नगर की विशालता और वैभव-समपन्नता की प्रशंसा जी खोल कर की है। अशोक के राजत्वकाल में उसका प्रतिनिधि यहां रहता था। बौद्ध-ग्रन्थों से पता लगता है कि यह अपने समय में विद्या-सम्बन्धी चर्चा और पठन-पाठन का केन्द्र था। यह विश्वविद्यालय बुद्ध के पहले ही स्थापित हो चुका था। इसमें वेद, वेदांग, उपांग आदि के सिवा आयुर्वेद, मूर्तिकारी, चित्रकारी, गृहनिर्माण विद्या आदि भी पढ़ाई जाती थी।
विज्ञान, कलाकौशल और दस्तकारी के सब मिलाकर कोई अठारह विषय पढ़ाये जाते थे। इनमें से प्रत्येक विषय के लिए अलग अलग विद्यालय बने हुए थे और भिन्न भिन्न विषयों को भिन्न भिन्न अध्यापक पढ़ाते थे। जगद्विख्यात संस्कृत-वैयाकरण पाणिनि और राजनीतिज्ञ-शिरोमणि चाणक्य ने इसी विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई थी। आत्रेय यहाँ वैद्यक-शास्त्र के अध्यापक थे। मगध-नरेश बिम्बसार के दरबारी चिकित्सक और महात्मा बुद्ध के प्रिय मित्र तथा मतानुयायी वैद्यराज जीवक ने तक्षशिला ही के अध्यापकों से चिकित्सा-शास्त्र का अध्ययन किया था। विनय-पीठक में महावग्ग नामक एक मनुष्य का हाल है, जिससे प्राचीन भारत की शिक्षा-प्रणाली का अच्छा पता लगता है। कई वर्ष अध्ययन करने के बाद महावग्ग ने अपने गुरु से पूछा कि शिक्षा समाप्त होने में अभी कितने दिन बाक़ी है। गुरु ने उत्तर में कहा कि तक्षशिला के चारों तरफ, एक योजन भूमि मे, जड़ी बूटियों के सिवा जितने व्यर्थ पौधे मिलें उन सब को जमा करो। बेचारे विद्यार्थी ने नियत स्थान के प्रत्येक पौधे को परीक्षा की, परन्तु उसे कोई भी व्यर्थ पौधा न मिला। शिक्षक महाशय ने अपने परिश्रमी विद्यार्थी को खोज का हाल सुना तो बड़े प्रसन्न हुए और महावग्ग से बोले कि तुम्हारी शिक्षा समाप्त हो गई अब तुम अपने घर जाव।
तक्षशिला वैदिक-धर्मावलम्बियों को विद्या का केन्द्र-स्थान था; पर बौद्ध-धर्म का प्रचार होने पर वहाँ बौद्ध लोग भी पढ़ने पढ़ाने लगे थे। यहां से कई बौद्ध विद्यार्थी ऐसे निकले जो समय पाकर खूब विख्यात हुए। बौद्ध-धर्म के सौत्रान्तिक-सम्प्रदाय के स्थापक कुमारलब्ध भी इन्हीं में थे। इनके विषय में हुएनसंग लिखते हैं-"सारे भारत के लोग उनसे मिलने आते थे। वे नित्य बत्तीस हजार शब्द बोलते और बत्तीस हजार अक्षर लिखते थे। उन्होने कई शास्त्रो की रचना की थी। उस समय पूर्व मे अश्वघोष, दक्षिण में देव, पश्चिम में नागार्जुन और उत्तर में कुमारलब्ध अत्यन्त प्रसिद्ध विद्वान थे। ये चारो पंडित संसार को प्रकाशित करने वाले चार सूर्य्य कहलाते थे।" जिस समय तक्षशिला में वैदिक-धर्मावलम्बियो की प्रबलता थी उस समय तीन बातें ऐसो थीं जिनको यहाँ पर लिख देना हम उचित समझते है। एक तो यह कि उस समय की शिक्षाप्रणाली नियमबद्ध विश्वविद्यालयो की जैसी न थी; किन्तु ऐसी थी जैसे कि वर्तमान काल में बनारस की है। पर बौद्ध विहारो की पढ़ाई इससे ठीक उलटी थी। वहाँ की शिक्षाप्रणाली वैसी ही थी जैसी नियमबद्ध विश्वविद्यालयों की होनी चाहिए। दूसरी बात यह कि बौद्ध विहारों की तरह यहाँ पर केवल सन्यासियों ही को शिक्षा न दी जाती थी; किन्तु गुरु और शिष्य दोनो ही गृहस्थ होते थे। यह बात असतमन्त जातक की एक कहानी से और भी स्पष्ट हो जाती है। एक ब्राह्मण ने अपने पुत्र से पूछा कि तुम कैसा जीवन बिताना चाहते हो। यदि तुम ब्राह्मण-राज्य में प्रवेश करना चाहते हो तो बन को जाओ और वहाँ अग्निहोत्र करो। यदि गृहस्थ बनना चाहते हो तो तक्षशिला जाकर किसी विख्यात पंडित से विद्याध्ययन करो, जिसमें सुखपूर्वक गृहस्थ जीवन बिता सको। पुत्र ने उत्तर दिया:-"मैं वानप्रस्थ बनना नहीं चाहता; मेरी इच्छा गृहस्थ बनने की है"। तक्षशिला के वैदिक विद्यालयो में ध्यान देने योग्य तीसरी बात यह थी कि उनमें केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय बालक ही भर्ती किये जाते थे।
नालन्द का विश्वविद्यालय
बौद्धकाल के दूसरे युग में सब से बड़ा विश्वविद्यालय नालन्द मे था। यह स्थान मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह से सात मील उत्तर की ओर, और पटना से चौतीस मील दक्षिण की ओर था। आज कल इस जगह पर बारगाँव नामक ग्राम बसा हुआ है, जो गया जिले के अन्तर्गत है। नालन्द की प्राचीन इमारतों के खँडहर यहाँ अभी तक पाये जाते हैं। सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसंग ने नालन्द की शान व शौकत का बड़ा ही मनोहर वृत्तान्त लिखा है। चीन ही में उसने नालन्द का हाल सुना था तभी से इसे देखने के लिए वह ललचा रहा था। इधर उधर घूमते-घामते जब वह गया पहुंचा तब विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने उसे नालन्द में आने के लिए निमंत्रण दिया। इससे उसने अपने को धन्य समझा। नालन्द में पहुंचते ही उसके दिल पर ऐसा असर पड़ा कि वह तुरन्त विद्यार्थियो मे शामिल हो गया।
नालन्द की बाहरी टीमटाम
विद्यालोलुप चीनी सन्यासी नालन्द की भव्यता और पवित्रता देख कर लव हो गया। ऊँचे ऊँचे विहार और मठ चारों ओर खड़े थे। बीच बीच में सभागृह और विद्यालय बने हुए थे। वे सब समाधियो, मन्दिरो और स्तूपो से घिरे हुए थे। उनके चारों तरफ बौद्धशिक्षको और प्रचारको के रहने के लिए चौमंजिला इमारतें बनी हुई थी। उनके सिवा ऊँची-ऊँची मीनारो और विशाल भवनो की शोभा देखने ही योग्य थी। इन भवनों में नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे। रंग बिरंगे दरवाजों, कड़ियो, छतों और खम्भों की सजावट को देख कर लोग लोट-पोट हो जाते थे। विद्या-मन्दिरों के शिखर आकाश से बातें करते थे और हुएनसंग के कथनानुसार उनकी खिड़कियों से वायु और मेघ के जन्मस्थान दिखाई देते थे। मीठे और स्वच्छ जल की धारा चारों ओर बहा करती थी और सुन्दर खिले हुए कमल उसकी शोभा बढ़ाया करते थे।
नालन्द का आन्तरिक जीवन
विशालता, नियमबद्धता और सुप्रबन्ध के विचार से नालन्द का विश्वविद्यालय वर्तमान काशी की अपेक्षा आक्सफ़र्ड से अधिक मिलता-जुलता था। विश्वविद्यालय के विहारों में कोई दस हजार भिक्षु विद्यार्थी और डेढ़ हजार अध्यापक रहते थे। केवल दर्शन और धर्मशास्त्र ही के सौ अध्यापक थे। इससे संबंध रखनेवाला पुस्तकालय नौ-मंजिला था, जिसकी ऊँचाई करीब तीन-सौ फुट थी। उसे महाराज बालादित्य ने बनवाया था। इसमें बौद्ध-धर्म-सम्बन्धी सभी ग्रन्थ थे। प्राचीन काल में इतना बड़ा पुस्तकालय शायद ही कहीं रहा हो। दुनिया में आजकल जितने विश्वविद्यालय हैं सब में विद्यार्थियों से फीस ली जाती है। पर नालन्द के विश्वविद्यालय की दशा इससे ठीक उलटी थी। केवल यही नहीं कि विद्यार्थियों से कुछ न लिया जाता था, किन्तु उलटा उन्हें प्रत्येक आवश्यक वस्तु मुक़्त दी जाती थी-अर्थात् भोजन, वस्त्र, औषध, निवास-स्थान आदि सब कुछ सेंतमेत मिलता था। यह प्रथा हिन्दोस्तान में बहुत प्राचीन काल से चली आई है। गृहस्थ लोग गाँव, खेत, बाग़, वस्त्र अथवा नक़द रुपये इन विद्यालयो को दान करते थे। इसीसे उनका सम्पूर्ण खर्च चलता था। इस प्रकार विद्यार्थियों का बहुत समय और मानसिक शक्ति पेट-पूजा के लिए धनोपार्जन करने में नष्ट होने से बच जाती और वे इस समय और शक्ति को विद्याध्ययन में लगाते थे। इसका फल यह होता था कि गम्भीर विचार वाले और मननशील विद्वान इन विद्यालयों से निकलते थे। इसीसे वे लोग बौद्ध धर्म, संस्कृत-साहित्य और संसार का अनन्त उपकार कर गये हैं।
नालन्द के विश्वविद्यालय में आजकल की तरह परीक्षायें न होती थी। किन्तु विद्यार्थियों की योग्यता शाखार्थ द्वारा जांची जाती थी। विद्यालय में भर्ती होने के नियम भी बड़े कड़े थे। जोललोग दाखिल होने के लिए आते थे उनसे द्वारपंडित कुछ कठिन प्रश्न करता था । यदि वे उनका उत्तर दे सकते थे तो भीतर जाते पाते थे, नहीं तो लौट जाते थे। इसके बाद शास्त्रार्थ के द्वारा उनकी योग्यता की परीक्षा ली जाती थी। जो उसमे भी अपनी योग्यता प्रमाणित कर सकते थे वही विद्यालय में दाखिल हो सकते थे। बाकी अपना-सा मुँह लेकर अपना रास्ता लेते थे। मतलब यह कि अच्छे बुद्धिमान, विद्वान्, योग्य और गुणवान् मनुष्य ही विश्वविद्यालय मे प्रवेश करते थे।
द्वारपंडित के पद पर वही नियत किया जाता था जो ऊँचे दर्जे का विद्वान् होता था। यह पद उस समय बहुत प्रतिष्ठित समझा जाता था। विश्वविद्यालय के सभागृह में सवेरे से शाम तक शास्त्रार्थ हुआ करता था। दूर-दूर देशो से पंडित अपनी शङ्कायें दूर करने के लिए वहाँ आते थे। नालन्द के विद्यार्थियों का देश भर में आदर, सत्कार, सम्मान होता था। जहाँ वे लोग जाते थे वहीं उनकी इज्जत होती थी। यों तो नालन्द-विश्वविद्यालय के प्रायः सभी अध्यापक उत्कृष्ट विद्वान थे, पर उनमें से नौ मुख्य थे। हुएनसंग ने उनकी सीमारहित विद्वत्ता, योग्यता, देश-व्यापी ख्याति, अद्भुत प्रतिभाशालिता की खूब प्रशंसा की है। उन नौओ अध्यापकों के नाम ये हैं-धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानचन्द्र, शीघ्रबुद्धि और शीलभद्र। इनमें से शीलभद्र, हुएनसंग के समय में, विश्वविद्यालय के अध्यक्ष थे। बौद्धधर्म्म के महायान-सम्प्रदाय के जगद्विख्यात संस्थापक नागार्जुन का सम्बन्ध भी किसी समय नालन्द-विश्वविद्यालय से था।
नालन्द के प्रायः सभी अध्यापक और विद्यार्थी धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे। असल में धार्मिक जीवन बिताने के लिए ही इसकी सृष्टि हुई थी। इसीलिए इसका नाम "धर्मगंज" पड़ा था। परन्तु पीछे इसकी काया पलट गई थी। दर्शन और धर्मशास्त्र के साथ साथ व्याकरण, ज्योतिष, काव्य, वैद्यक आदि व्यावहारिक और सांसारिक विद्यायें भी पढ़ाई जाने लगी थी। तमाम हिन्दुस्तान के विद्यार्थी इन विद्याओं को पढ़ने के लिए यहाँ आते थे। श्री धन्यकटक का विश्वविद्यालय
इस युग का दूसरा प्रसिद्ध विश्वविद्यालय श्री धन्यकटक में था। यह स्थान दक्षिण भारत मे, कृष्णा नदी के किनारे, वर्तमान अमरावती के स्तूपों के निकट था।
बौद्धधर्म के महायान-सम्प्रदाय के चौदहवें धर्मगुरु, विख्यात रसायन-शास्त्रवेत्ता और चिकित्सक, नागार्जुन के समय में यह सब उन्नत दशा मे था और देश-देशान्तरों में प्रसिद्ध हो गया था। चीन यात्री इत्सिंग के कथनानुसार नागार्जुन महाशय ईसा की चौथी शताब्दी में थे।
यहां पर वैदिक और बौद्ध दोनों प्रकार के ग्रन्थ पढ़ाये जाते थे। तिब्बत की राजधानी लासा के निकट डायंग-विश्वविद्यालय इसी के नमूने पर बनाया गया था। पठन-पाठन-विधि वहाँ भी वैसी ही थी जैसे कि नालन्द मे।
ओदन्तपुरी और विक्रमशिला के विश्वविद्यालय
यह हम लिख चुके है कि बौद्ध काल का तीसरा युग सातवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है। इस समय के बौद्ध महन्तों में पहले का जैसा धार्मिक उत्साह बाकी न था, परन्तु वैज्ञानिक खोज करने का जोश खूब बढ़ गया था। वैद्यक और रसायन शास्त्र में उन लोगो ने अच्छी उन्नति की थी। इस तान्त्रिक बौद्ध धर्म का प्रचार बंगाल और विहार में बहुत था। उन दिनों मगध में पालवंश के राजा राज्य करते थे। उन्हीं के समय में बौद्ध उपदेशकों
१० ने तिब्बत जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इस युग में दो मुख्य विश्वविद्यालय थे एक ओदन्तपुरी में, दूसरा विक्रमशिला में। ये दोनों स्थान बिहार-प्रान्त में हैं। मगध में पालवंश का राज्य होने के बहुत दिन पहिले ओदन्तपुरी में एक बड़ा भारी विहार बनाया गया था। इसी विहार के नाम पर कुल प्रान्त का नाम विहार पड़ गया और पुराना नाम मगध लुप्त हो गया। महाराज महीपाल के पुत्र महापाल के समय में ओदन्तपुरी-विश्वविद्यालय मे बौद्ध धर्म के हीनयान-सम्प्रदाय के एक हजार और महायान-सम्प्रदाय के पाँच हजार महन्त रहते थे। पालवंश के राजों ने ओदन्तपुरी-विश्वविद्यालय मे एक बड़ा भारी पुस्तकालय स्थापित किया था। उसमें वैदिक और बौद्ध दोनों प्रकार के हजारो ग्रन्थ थे। सन् १२०२ ईसवी में मुसलमानों ने इस पुस्तकालय को जला दिया और महन्तों का कत्लेआम करके विहार को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। श्रीधन्यकटक-विश्वविद्यालय की तरह ओदन्तपुरी के नमूने पर भी तिब्बत में शाक्य नामक एक विश्वविद्यालय खोला गया था।
पाल राजे बड़े ही विद्यारसिक और विद्वानों के संरक्षक थे। उनका सम्बन्ध एक और विश्वविद्यालय से भी था। उसका नाम था विक्रमशिला। यह विद्यालय भागलपुर जिले के अन्तर्गत सुलतानगंज गाँव के निकट, गंगा के दाहिने किनारे, एक पहाड़ी की चोटी पर था। सब मिलाकर कोई एक सौ आठ भवन थे। इस विश्वविद्यालय के अधीन छः महाविद्यालय थे, जिनमें एक सौ साठ पंडित पढ़ाते थे। इन सब पंडितों तथा अन्य अतिथि विद्वानों का खर्च पूर्वोक्त महाराज के दिये हुए गाँवों की आमदनी से चलता था। बीच का भवन विज्ञान-मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध था। उसमे बिहार के महन्त उन पंडितों से बौद्ध-प्रन्थ पढ़ते थे जो विश्वविद्यालय के प्रथम और द्वितीय स्वम्म कहलाते थे। राजा जयपाल के शासन काल में विश्वविद्यालय की देखभाल के लिए छः द्वार-पंडित नियत थे। इसी समय महात्मा जेतारि ने एक सत्र स्थापित किया था। उसमें विक्रमशिला के विद्यार्थियों को मुक्त भोजन मिलता था। विद्यालय के स्थायी विद्यार्थियों को भोजन देने के लिए चार सत्र पहले ही से थे। इनके सिवा वारेन्द्र के अधीश महाराज सनातन ने दशवी शताब्दी के आदि मे एक सत्र और भी खोला था। विश्वविद्यालय के प्रबंध के लिए छः विद्वानो की एक सभा थो, जिसका सभापति सदा राजपुरोहित होता था। महाराज धर्मपाल के समय में अध्यक्ष के पद पर श्रीबुद्धज्ञानपादाचार्य्य नियुक्त थे। ग्यारहवी शताब्दी में इस पद पर श्रीयुत दीपांकुर या दीपंकर महाशय नियत थे। अपने समय के ये बड़े विख्यात विद्वान थे। इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा सुन कर तिब्बतवालों ने इन्हें अपने यहाँ बुलवाया था। इस विश्वविद्यालय से पढ़कर जो विद्यार्थी निकलते थे उनको पंडित की पदवी दी जाती थी। अपने समय के सबसे बड़े नैयायिक पंडित जेतारि ने इसी विश्वविद्यालय के पंडित की पदवी और राजा महापाल का हस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र पाया था। महाराज उनकी गहरी विद्वत्ता से इतने प्रसन्न हुए थे कि उन्होंने उनको द्वारपंडित के प्रतिष्ठित पद पर नियत किया था। सन् १८३ ईसवी में काश्मीर-निवासी रत्नवज्र नामक एक प्रसिद्ध विद्वान् ने भी यहाँ से पंडित की पदवी और राजा चणक का हस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र पाया था। इस विश्वविद्यालय में व्याकरण, अभिधर्म (बौद्ध-मनोविज्ञान), दर्शन-शास्त्र, विज्ञान, वैद्यक आदि कई विषय पढ़ाये जाते थे। तिब्बत के लामा विक्रमाशिला में आते थे और वहाँ के पंडितों की सहायता से संस्कृत-ग्रंथो का अनुवाद तिब्बतो भाषा में करते थे। सन १२०३ ईसवी में बख्तियार खिजली ने इस विहार पर आक्रमण किया और इसे लूट-पाट कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। भारतवर्ष के अन्य बौद्ध-विहारों की भी यही दशा हुई।
[जनवरी १९०९