अतीत-स्मृति
महावीरप्रसाद द्विवेदी

प्रयाग: लीडर प्रेस, पृष्ठ १०० से – १२२ तक

 

प्राचीन आर्यों की सब से प्यारी चीज सोमलता थी। सोम, सोम-रस, सोम-लता, सोम-सुरा आदि के गुणगान से वैदिक साहित्य भरा पड़ा है। वैदिक समय में सोम-लता और सोम-रस का यज्ञादिक मे इतना काम पड़ता था जितना शायद ही और किसी चीज का पड़ता रहा हो । सोम-याग, सोम-याजी, सोमपायी आदि शब्द सोम ही की महिमा के सूचक हैं। शुक्ल-यजुर्वेद- संहिता के उन्नीसवें अध्याय में, जहाँ सौत्रामणी यज्ञ का विधान है, सर्वत्र सोम ही सोम और सुराही सुरा का साम्राज्य देख पड़ता है। उसकी स्तुति, प्रार्थना, प्रशंसा, गुणकीर्तन, पान, विधान आदि के विषय मे अनेक मंत्र हैं। ऋग्वेद का नवां मण्डल भी सोम-गुण-गान से भरा है । पर यह सोम-लता आज कल ही क्यों, बहुत पहले से अप्राप्य हो रही है। अब जहाँ कहीं यज्ञादि में उसका काम पड़ता है वहाँ उसका स्थान किसी और ही चीज को देना पड़ता है।

सुश्रुत ने सोम को एक प्रकार की अमृतात्मक दिव्य औषधि माना है । उसको उत्पत्ति, नाम, गुण और सेवन की क्रिया का जो वर्णन सुश्रुत ने किया है, सुनने लायक है। सुश्रुत के कथन का भावार्थ हम नीचे देते हैंकिसी बहुत पुराने जमाने में ब्रह्मादिक देवताओ ने सोम नाम का अमृत उत्पन्न किया। क्यों? इसलिए कि लोगों को ज़रा और मृत्यु का भय न रहे-"जरामृत्युविनाशाय" अर्थात् उसके सेवन से आदमी अजरामर हो जाय। उसका सेवन ज़रा और मृत्यु के विनाश के लिए है।

सच पूछिए तो सोम-नामक औषधिरूपी अमृत एक ही है, पर स्थान, नाम, आकार और वीर्य के अनुसार वह चौबीस प्रकार का होता है। यथा-(१) अंशुमान् (२) मुञ्जवान (३) चन्द्रमा (४) रजतप्रभ (५) दूर्वा सोम (६) कनीयान् (७) श्वेताक्ष (८) कनकप्रभ (९) प्रतानवान् (१०) तालवृन्त (११) करवीर (१२) अंशवान् (१३) स्वयंप्रभ (१४) महासोम (१५) गरुड़ाहृत (१६) गायत्र्य (१७) त्रैष्टम (१८) पांत (१९) जागत (२०) शाङ्कर (२१) आग्निष्टोम (२२) रैवत (२३) यथोक्त (२४) त्रिपदा-गायत्रीयुक्त (उडुपति) विद्यावारिधि श्रीमत्पण्डित ज्वालाप्रसाद जी मिश्र ने अपने यजुर्वेदीय मिश्र-भाष्य के पीछे सोमविषयक एक परिशिष्ट दिया है। उसमे आपने त्रिपदा-गायत्री-युक्त और उडुपति ये दो नाम पृथक पृथक् माने हैं। परन्तु ऐसा करने से सुश्रुत की लिखी हुई चौबीस संख्या नही रहती; पच्चीस हो जाती है।

पाठक देखेंगे, इन नामो में कुछ नाम तो वैदिक छन्दो के नामानुसार है और कुछ चन्द्रमा के गुण-नामानुसार। परन्तु कनीयान्, तालवृन्त आदि में दोनों बाते नहीं हैं। वे स्वतन्त्र नाम है शायद वे सोमलता की छुटाई बढ़ाई के अनुसार रक्खे गये हो। सुश्रुत के कथनानुसार सब नाम वैदिक हैं। पर सब के सेवन की विधि और गुण एक ही है। अब सोम का उपयोग किस तरह करना चाहिए सो सुनिए।

जिसे सोम-सेवन की इच्छा हो वह एक अच्छी जगह ढूंढ़ कर वहाँ एक त्रिवृत्त-तीन पौठ या घेरे का घर बनावे। फिर सामग्री और नौकर-चाकर लेकर वहाँ जाय। वमन और विरोचन आदि से शरीर के सब दोषो को दूर कर दे। खाना-पीना सब नियमानुकूल होने दे। फिर अच्छे महूर्त में अंशुमान् नामक सोम को वैदिक विधि से लाकर ऋत्विजों के द्वारा उसे परिष्कृत करावे-धुलवाये, छिलवाये, साफ़ कराये। यह हो चुकने पर उसका हवन कराकर मङ्गल-पाठपूर्वक घर के भीतर यथा-स्थान सोम की जड़ (कन्द) को सोने की शलाका से फाड़े। उससे जो दूध (रस) निकले उसे सोने के वर्तन मे रख कर उसमें से अन्जुली चुपचाप एक ही दफ़े में गले से उतार दे। पीते समय उस रस का स्वाद न ले; वह जीभ में न लगने पावे। फिर आचमन कर बचे हुए रस को पानी में डाल दे। यम-नियमो द्वारा चित्त-वृत्तियो को काबू में रक्खे। बोले नहीं। मकान ही के भीतर अपने इष्ट-मित्रो सहित रहे। निर्वात स्थान में रहे-जहाँ रहे वहाँ हवा न आती हो। चित्त औषधि ही की तरफ लगाये रहे। जी चाहे बैठे, जी चाहे घूमे; पर सो न जाय।

शाम को भूख मालूम हो तो भोजन करे। पर क्या भोजन करे, यह न तो सुश्रुत ही महाराज ने लिखा, न उनके टीकाकार डल्लन ही ने। इसके बाद शान्तिपाठ सुनकर मित्र जनो से सेवा किया गया वह मनुष्य कुश-शय्या*[] के ऊपर काला मृगचर्म बिछा कर सो जाय। प्यास लगे तो ठण्डा जल पिये। सवेरे उठ कर‌ शान्तिपाठ सुने और मांगलिक कार्य या मंगलाचरण करके गऊ का स्पर्श करे। अनन्तर पहले की तरह बैठे। यहां पर "तथैवा-सीत्" का अर्थ पण्डित ज्वालाप्रसाद जो "पूर्व की ओर बैठे" लिखा है। पर हमने डल्लनाचार्य के अर्थ का अनुगमन किया है। दोनों में जो अर्थ ठीक हो पाठक उसे ही स्वीकार करे। सोमरस के पच जाने पर कै शुरू होती है। कै मे रुधिर निकलता है। उसमें कीड़े रहते हैं। के होने पर शाम को गरम करके ठंडा किया दूध पीना चाहिए। तीसरे दिन विरेचन होता है और मल के साथ भी कीड़े निकलते हैं। इस वमन-विरेचन से शरीर शुद्ध हो जाता है। अनिष्ट भोजनों से पैदा हुआ दोष दूर हो जाता है‌ इसके बाद, अर्थात् तीसरे दिन, शाम को स्नान करके फिर दूध ही पीना चाहिए। रात को क्षौम वस्त्र बिछाकर शय्या पर सोना चाहिए। किसी की राय मे क्षौम वस्त्र रेशमी कपड़ो को कहते हैं और किसी की राय में सन या अलसी की छाल से बने हुए कपड़ों को।

चौथे दिन वदन मे सूजन आ जाती है। सब अंगो से कीड़े


टपकने लगते हैं। तब सोमपायी को धूल बिछा कर शय्या पर सुलाना चाहिए और पूर्ववत् दूध पिलाना चाहिए। पांचवें और छठे दिन भी यही उपचार करना चाहिए। दोनों वक्त सिर्फ दूध पिलाना चाहिए। सातवें दिन उसका मांस और त्वचा गल कर गिर जाती है। हड्डी मात्र शेष रह जाती है। पर सोमपान के प्रभाव से वह मरता नहीं; श्वासोच्छृास जारी रहता है। उस दिन गुनगुना दूध उसके अस्थि-पञ्जर पर छिड़कना चाहिए और नित्य मुलहटी और चन्दन का लेप लगाना चाहिए। यह करके फिर दूध पिलाना चाहिए। पर शरीर का मांस गल जाने से दूध उसके पेट तक पहुँचेगा कैसे और वहाँ आमाशय मे ठहरेगा किस तरह, यह समझ में नहीं आता।

आठवें दिन बड़े सवेरे ही शरीर पर दूध छिड़क कर चन्दन लेप करे। पूर्ववत् शय्या से धूल उठा ले। उस पर क्षौम वस्त्र बिछा कर सोमपायी को सुलावे। उस दिन से नया मांस उत्पन्न होने लगता है और त्वचा भी उसी के साथ निकलने लगती है। दाँत, नरब और रोम सब गिर जाते हैं। नवें दिन उसके शरीर पर अणु नामक तेल लगाना चाहिए और नाम की छाल के काढ़े से सेचन कराना चाहिए। दसवें दिन भी यही उपचार करे। तब तक त्वचा जरा कड़ी हो जाती है। ग्यारहवें और बारहवें दिन भी पूर्ववत् बर्ताव करें। तेरहवें दिन से सोलहवें दिन तक सिर्फ सोम की छाल के काढ़े से शरीर सेचन करे। सत्रहवें और अठारहवें दिन नये दाँत निकलते हैं। दाँत खूब चिकने, नोकदार और चम कीले होते है-ऐसे चमकीले जैसा हीरा, स्फटिक या वैडूर्य होता है। सब दाँत एक से होते हैं। छोटे बड़े नहीं होते। खूब मज़बूत और बड़ी से बड़ी चीज तोड़ सकने योग्य होते हैं। उस दिन से पच्चीसवें दिन तक पुराने चावलो का भात, दूध और यवागू के साथ मजे मे खाता रहे।

छब्बीसवें दिन से दोनों वक्त चावल का नरम भात, सिर्फ दूध के साथ, खाय। तब नये नाखून निकलते हैं। वे मूँगा, बीरबहूटी और प्रातः कालीन सूर्य के सदृश सुर्ख होते है। चिकने भी होते है और "स्थिर" भी होते है। केश भी नये निकल आते है। त्वचा भी उत्पन्न होकर सम्पूर्णता को पहुँच जाती है। रङ्ग विष्णु भगवान् की त्वचा के रङ्ग् का जैसा होता है-नील कमल, अलसी के फूल और वैडूर्य्य मणि का जैसा रङ्ग होता है वैसा।

एक महीने बाद सिर के बाल मुँडवा देने चाहिए और उस पर उशीर, चन्दन और काले तिल का लेप लगाना चाहिए। अथवा दूध से स्नान कराना चाहिए। मुँडवाने के सात दिन बाद नये केश निकलते है। वे भ्रमर और काजल के समान काले होते हैं; घुँघराले भी होते है और खूब चिकने भी होते है। याद रहे, अब तक सोमपायी महाशय तीन कक्षा (तीन पौठ) के घर के भीतर तीसरी कक्षा ही में रहे है। पर अब तीन रातें और बीत जाने पर, भीतरी कमरे से निकल कर दूसरे मे आवें और जरा देर रह कर फिर भीतर ही उसी कमरे में घुस जायँ। इसके बाद वल नामक तैल बदन पर मलने के लिए, जौ के आटे का उबटन कृष्ण के लिए गुनगुना दूध शरीर-सेचन के लिए, अजकर्ण नाम की औषधि का काढ़ा "उत्सादन" के लिए, खस पड़ा हुआ कुएँ का पानी स्नान के लिए, चन्दन लेप के लिए दिया जाय। खाने के लिए आँवले का रस मिला हुआ यूष और दाल आदि दे। दूध और मुलहटी से सिद्ध किये हुए तिल "अवचारण" के लिए दे। दस रातों तक यह काम जारी रक्खे।

इसके बाद सब से भीतर के कमरे को छोड़ कर दूसरे कमरे या दरजे में आवे। उसमें भो दस रात पूर्ववत् रहे। फिर सब से बाहर के, अर्थात् पहले, कमरे मे आवे और आत्मा को स्थिर करके उस रातों तक वहाँ रहे। थोड़ी देर धूप और वायु का सेवन करके भीतर चला जाया करे। परन्तु भूल करके भी कभी अपना मुँह आईने मे न देखे। क्योंकि उस समय सोमपायी के मुँह पर अद्भुत सौन्दर्य आ जाता है। इसके बाद १० रात क्रोध आदि विकारो के वशीभूत न हो। सब प्रकार के सोमामृत के सेवन की यही विधि है। विशेष करके बल्ली प्रतान और क्षुप जाति के सोम का सेवन करना चाहिए। उनके सेवनीय रस की मात्रा कोई पाव भर है। परन्तु ऊपर सोम के जो २४ प्रकार गिनाये हैं उनमें बल्ली और क्षुप नाम नही आया। शायद उन्हीं में से किसी दो के ये नामान्तर हैं।

अंशवान् नाम के सोम का रस सोने के पात्र में निचोड़े, चन्द्रमा का चाँदी के पात्र में। उनके सेवन से मनुष्य को अणिमादिक आठ सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। यही नहीं, किन्तु वह ईशान देव (शिव) मे लीन हो जाता है। बाक़ी के जो सोम हैं उनके रस को तांबे, मिट्टी या लाल चमड़े के पात्र मे निचोड़े। शूद्रो के लिए यह रस नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, इन्ही तीनो को इसे पीना चाहिए। सोम-रसायन पिये जब चार महीने हो जाय तब पौर्णमासी के दिन किसी पवित्र स्थान में ब्राह्मणो की पूजा कर के मङ्गलपाठ-पूर्वक उस घर के बाहर निकले और फिर मजे मे जहाँ चाहे घूमे फिरे।

जो मनुष्य औषधियों के स्वामी सोम का सेवन करता है उसका नया शरीर, दस हजार वर्षों तक बना रहता है। आग, पानी अस्त्र, शस्त्र और विषाद एक भी उसे बाधा नहीं पहुँचा सकते-उसको मारने मे वे कोई समर्थ नहीं होते। साठ वर्ष की उम्र वाले महामदोन्मत्त हजार हाथियो का इतना बल उसके शरीर में आ जाता है। उत्तर कुरु ही नही, क्षीरसागर और अमरावती तक वह बेखटके जा सकता है। कोई उसका रोकने वाला नहीं। अर्थात् जहाँ वह चाहे जा सकता है। रूप उसका कन्दर्प तुल्य हो जाता है; कान्ति उसकी चन्द्रमा के समान हो जाती है। उसके शरीर में ऐसी अपूर्व धुति आ जाती है कि उसे देख कर प्राणिमात्र परमानन्द में मग्न हो जाते है। उसको सांगोपाङ्ग वेद भी आ जाते है। वह देवताओ के समान हो जाता है। उसका कोई सङ्कल्प व्यर्थ नहीं जाता। जो चाहे कर सकता है।

जितने प्रकार के सोम है सब मे पन्द्रह ही पत्ते होते है। वे शुक्ल पक्ष के १५ दिनों मे एक एक करके पैदा होते हैं और कृष्ण
पक्ष में एक एक करके गिर जाते है । पूर्णिमा के दिन पूरे १५ पत्ते हो जात है और अमावस्या को एक भी नहीं रहता।

अंशुमान सोम मे घो के सहश सुगन्ध होती है। राजतप्रभ में कन्द होता है। मुञ्जवान् में केले की तरह का कन्द होता है। उसके पत्ते लहसुन के पत्तों के समान होते है । चन्द्रमा नाम के सोम में सोने के सदृश चमक होती है। वह हमेशा जल में होता है। गरुडाहत और श्वेताक्ष सफेद रंग के होते हैं । आकार उनका सांप की केंचुली के सहश होता है। पेड़ों के अग्र-भाग में वे लिपटे रहते हैं । इन दोनों सोमों में अनेक प्रकार के चित्रविचित्र मण्डल (घेरे) बने रहते हैं । जितने सोम हैं सब मे १५ ही पत्ते होते हैं। किसी में मोटी जड़ होती है; किसी में दूध होता है; किसी की लता होती है। किसी के पत्ते किसी प्रकार के होते हैं, किसी के और किसी प्रकार के ।

हिमालय, अबुद (आबू), सह्याद्रि, महेन्द्र, मलयांचल श्रीपर्वत, देवगिर, देवसह, पारियात्र, विन्ध्याचल आदि पर्वतो में सोम अत्यन्त होते हैं। देवसुन्द नाम के सरोवर मे भी वे होते हैं।

व्यास नदी के उत्तर में जो पांच बड़े बड़े पर्वत है उनके मध्य और अधोभाग में सिन्धु नाम की महानदी है। उसमें चन्द्रमा नाम का उत्तम सोम पानी पर तैरा करता है । * उसी के पास


  • मूल पाठ यह है-उत्तरेण वितस्ताया. प्रद्धा ये महीधराः ।
    अंशुमान् और मुञ्जवान् सोम भी होते हैं। काश्मीर में क्षुद्र

मानसरोवर नाम का एक दिव्य तालाब है। उसमें गायत्र्य, त्रैष्टुभ, जागत, पक्ति और शंकर नाम के सोम होते है। चन्द्रतुल्य कान्ति वाले और सोम भी वहां होते है।

परन्तु ये सोम सब को नही देख पड़ते । अधर्मी, कृतघन्, ब्राह्मणद्वेषी मनुष्यों को इनके दर्शन अलभ्य है।

सुश्रुतजी के लेख का यही मतलब है। यद्यपि यह कलियुग है । अधर्म, कृतघ्नता और ब्राह्मणद्वेष का साम्राज्य है। यथापि धर्मिष्ठ, कृतज्ञ और ब्राह्मणो तथा वेदो की पूजा करने वाले भी पुरुष एक आध अब भी जहाँ तहाँ देखे जाते है। सोमो के नाम, लक्षण और उत्पचि—स्थान साफ साफ सुश्रुत मे दिये हुए है। सोमरस-पान और तत्सम्बन्धी उपचार भी बहुत कठिन नहीं है। और लोग नही, तो अमीर आदमी तो जरूर ही उन्हे कर सकते हैं। क्या ही अच्छा हो यदि कोई एक आध प्रकार के साम का पता लगाकर किसी अच्छे वैद्य से अपना कायाकल्प करा डाले और हज़ार हाथियो का बल प्राप्त कर के त्रिलोको मे आनन्द पूर्वक विचरण करे। यदि गवर्नमेंट को ऐसे ऐसे १०० आदमी भी




पञ्च तेवामघो मध्यं सिन्धु नामा महानद.।
कामवत्प्लवते तत्र चंद्रमाः सोमप्सत्तमः ॥

इसका भावार्थ पं० ज्वालाप्रसाद जी ने इस तरह लिखा है— "व्यास नदी के उत्तर पर्वतों में तथा जहां पंजाब की पांचो नदी सिन्धु में मिलती हैं वहां चन्द्र नामक सोम उत्पन्न होता है"। मिल जायँ तो मानो उसे एक लाख हाथी मिल गये। ऐसा होने से उसे जो लाखों सैनिक रखने पड़ते हैं उनकी कोई ज़रूरत न रहे। सिर्फ़ एक कम्पनी से सब काम निकल जाय। करोड़ों रुपये की बचत हो। मालूम होता है, अधर्म और कृतघ्नता आदि की बहुत वृद्धि होने से भगवान् सोम सदा के लिए इस देश से अन्तर्हित हो गये है। हम लोगों का अहोभाग्य है जो, सोम की तरह, भगवान् भी बिलकुल ही अदृश्य नहीं हो गये।

सुश्रुत जी के लेख से साफ़ तौर पर सिद्ध होता है कि उनके ज़माने मे, या उनके पहले, सोम जैसा पवित्र पदार्थ चमड़े के बर्तन में भी रक्खा जाता था। जिस चमड़े को छूकर, आजकल, इस अधर्मिष्ठता के ज़माने में, हम लोग हाथ धोते हैं वह उस समय अपवित्र नहीं माना जाता था। किसी सोमरस के लिए सोने के, किसी के लिए चांदी के किसी के लिए तांबे और मिट्टी के पात्रों का विधान किया गया है। यह पात्र-कल्पना या तो सोने के स्वभाव और गुण के अनुसार की गई होगी या पान करने वाले के सामर्थ्य के अनुसार। जिसके पास सोने का न हो वह चांदी के पात्र में निचोड़ा जाने वाला सोम पिये। वह भी न कर सके तो तांबे, मिट्टी या चमड़े के पान वाले को पिये। परन्तु ग़रीबो के लिए उसका पान शायद असम्भव था। क्योंकि तीन पौठ का घर और सोने का सिक्का मिलना उनके लिए कठिन समझना चाहिए। शुद्रो के लिए सोम रसायन पीने की जो मनाही है सो उचित ही है। वेदो का पढ़ना जब उनके लिए मना है तब कायाकल्प करके देवता बन जाना जरूर ही मना होना चाहिए। कौन सच्चा स्वदेश-भक्त अंग्रेज चाहेगा कि कोई हिन्दोस्तानी काला आदमी भारत का बड़ा लाट हो जाय?

जिस कायाकल्प का उल्लेख सुश्रुत जी ने किया है वह किसे किसे प्राप्त हुआ था, उसका पता पुराणादि प्राचीन ग्रन्थों से ढूंढ कर कोई लगावे तो बहुत अच्छा हो। सुश्रुत जी के बहुत पीछे के बने हुए ग्रन्थों में बाजीकरण आदि औषधियों के गुणो का वर्णन वैद्यों ने बड़ी ही आलंकारिक भाषा मे किया है। "चूर्णमिदं पयसा निशि पेयं यस्य गृहे प्रमदाशतमस्ति"-इस तरह के अत्युक्ति-पूर्ण लटके इन ग्रंथों मे हजारो भरे पड़े है। परन्तु सुश्रुत जी के कायाकल्प-विधान को ऐसा नहीं कह सकते। वे ऋषि थे। अतएव सत्यवादी थे। उन्होंने जो कुछ लिखा है, बढ़ाकर न लिखा होगा। यदि उनके जमाने में इस तरह का काया-कल्प किसी को भी न सिद्ध हुआ होगा, तो भी उन्होने उसका उल्लेख अपने पूर्ववर्ती ऋषियो के ग्रन्थो के आधार पर किया होगा। पर कुछ प्रमाण या कुछ आधार उनके पास रहा जरूर होगा।

सुश्रुत के बाद के ग्रन्थकारो ने इस सोम-रसायन के पान की प्रक्रिया का वर्णन नही किया। किसी ने किया भी है तो कुछ यों ही नाम मात्र के लिए लिख दिया है। इससे जान पड़ता है कि धीरे धीरे लोग इसे बिलकुल ही भूल गये। अथवा यह शास्त्रोक्त पान और विधान असम्भव समझा जाने लगा। चरक जी भी आयुर्वेदीय चिकित्सा-प्रणाली के आचार्य माने जाते हैं। उनके ग्रन्थ में लिखा है कि सोम (चन्द्रमा) की एक एक कला की वृद्धि के साथ साथ सोमलता का एक एक पत्ता नया होता जाता है और उसके हास के साथ साथ एक एक पत्ता गिरता भी जाता है। इसीसे इस लता का नाम सोम पड़ा। 'सोम' शब्द "सु" धातु से बना है। इस धातु का अर्थ प्रसव करना-पैदा करना है। सोम अमृत पैदा करता है-उसकी किरणों में अमृत रहता है-इसी से वह सोम नाम से प्रसिद्ध हुआ।

सुश्रुत जी के कथनानुसार सोमलता का रस भी अमृत ही के समान गुणकारी होता है। अतएव इस लता का भी सोम नाम यथार्थ है। यहां पर यह शंका हो सकती है कि सोमलता तो अदर्शनत्व को प्राप्त हो गई है; पर सोमोप नामक चन्द्रमा अब तक बना हुआ है। वह अमृत टपकाने के लिए प्रसिद्ध है। परन्तु उसकी किरणो से अमृत का एक कण भी टपकते किसी ने नहीं देखा। अतएव क्या आश्चर्य जो चन्द्रमा के अमृत टपकाने की कथा की तरह सोमरस के पान से अमृत-पान के गुण होने की कथा भी वाग्विलास मात्र हो? अथवा सोमलता की कथा चन्द्रमाही के पौराणिक गुणधर्मों का एक रूपक हो। बात यह है कि जिसे ऐसी कथाओं पर विश्वास नहीं वह यही क्या और भी सैकड़ो शंकायें कर सकता है। मानिए तो मान लीजिए, नहीं तो सशंक या निःशंक जैसे जी में आवे बैठे रहिए। आयुर्वेद-विषयक बातो को छोड़ कर अब सोम-विषयक वैदिक बातो का विचार कीजिए। वैदिक समय में सोम का बड़ा आदर था। ऋषि मुनि सब उसे प्रेम से पीते थे। वह बड़ी ही पवित्र चीज़ मानी जाती थी। देवताओं को उसका भोग लगाया जाता था। उसे खुद भी देवत्व प्राप्त था। वह यज्ञों में काम आती थी। ऋग्वेद के नवे मण्डल में सोम की बड़ी बड़ी स्तुतियां है। यजुर्वेद के उन्नीसवें अध्याय में सौत्रामणि यज्ञ का विषय है। वहां सोम की बड़ी ही महिमा गाई गई है। देवता के समान उसकी स्तुति की गई है। उससे वर मांगे गये है। परन्तु उसके साथ ही उसके मादक गुण की गाथा भी गाई गई है। यहां तक कि 'सुरा त्वमसि शुष्मिणी' कह कर वह सुरा-सोम के नाम से अभिहित किया गया है। ब्राह्मण-ग्रंथों मे तो सुरा-साम बनाने की विधि भी लिखी हुई है। उससे सूचित होता है कि सोमलता के रस में जौ, चावल, त्रिफला, शुण्ठी, पुनर्नवा, अश्वगन्धा, पिप्पली आदि चीजें डालकर रखी जाती थी। तब उसमें मादकता आ जाती थी। वही रस छान कर पिया जाता था।

विद्वानो की राय है कि यही सोम-सुरा पानकरनेवाले सुर नाम से आख्यात हुए, और जिन्हें उसका पीना पसन्द नहीं था, अथवा जो बहुत कम पीते थे, वे असुर कहलाये। सुर, प्राचीन आर्यों के पूज्य हुए और असुर प्राचीन पारसियो के। यजुर्वेद के उन्नीसवें अध्याय मे जिस सुरा का वर्णन है वह यदि एक प्रकार का मद्य ही था, जैसा कि वैदिक मंत्रो से सूचित होता है, तो उसे

आर्य लोग आदर-पूर्वक पीते थे। वाग्भट-कृत अष्टाङ्ग हृदय में भी यही लिखा है-"सौत्रामण्यां द्विजमुखे या हुताशे चहूयते।" अर्थात सौत्रामणी यज्ञ में सरा अग्नि में होमी भी जाती है और द्विजो को पिलाई भी जाती है। अतएव वाग्भट के अनुसार सौत्रामणी यज्ञ मे जो सुरा पान की जाती थी वह कोई असाधारण सुरा न थी। मामूली मदिरा थी।

वैदिक समय में लोग सोमरस को यों भी पीते थे और उसमें मादकता उत्पन्न करके उसको सुरा बना करके भी पीते थे। परन्तु एक बात समझ में नहीं आती। यदि सुश्रुत जी के कथनानुसार सोम-रस में वमन और विरेचन आदि उत्पन्न करने का गुण था तो बहुत पुराने वैदिक समय में तो सोमरस पान किया जाता था। उसमे यह बात क्यों न थी। इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि सोमरस पीने वाले को छर्दि होती थी, या उसका मांस गल जाता था, या और कोई बात वैसी होती थी। सोमरसायन पीने की जो विधि सुश्रुत में दी गई है उसमें सोम-रस के साथ और कोई औषधि मिलाने की बात नहीं है, जो यह कहे कि उसके कारण वमन, विरेचन आदि उत्पन्न करने की शक्ति सोम-रस मे आ जाती हो। इधर वैदिक सुरा में अन्यान्य ची पारूरत मिलाई जाती थीं। उनके कारण सोम का वह गुण यदि जाता रहता था तो यों ही जो लोग सोमरस पीते थे उनके शरीर में कोई विकृति क्यों न होती थी।

जिस औषधि का जो गुण है वह होना ही चाहिए। वेदों में
खालिस सोमरस-पान का भी उल्लेख है। पर, उसके पीने से क्या फल होता था-छर्दि आदि कुछ होती थी या नहीं इसका कहीं उल्लेख नहीं । ब्राह्मण-ग्रन्थो में खालिस सोम-पान की विधि नही लिखी । यज्ञो में जिस सोम का प्रयोग होता था उसमे और कितनी ही चीजें मिलाई जाती थीं। तब उसमें विशेष मादकता उत्पन्न होती थी।

डा० राजेन्द्रलाल ने गवर्नमेंट आव् इंडिया को एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने वादा किया था कि कुछ समय बाद हम सोम पर एक विस्तृत लेख प्रकाशित करेंगे। परन्तु डाक्टर साहेब का वह लेख हमारे देखने में नहीं आया। शायद वे लिख नही सके उसके पहले ही उनकी मृत्यु हो गई।

आपस्तम्ब-यज्ञ-परिभाषा मे सोमलता बेचने वाले जङ्गली आदमियो से उसके मोल लेने आदि की विधि लिखी हुई है। धूर्त * स्वामी की टीका मे सोमलता का जो लक्षण दिया हुआ है उसमे लिखा है कि सोम एक प्रकार की वल्ली है। उसका


  • इस विषय में हमारे मित्र पं० गिरधर जी शर्मा झालरा-पाटन से लिखते हैं "धूर्त स्वामी के बताये हुए सब लक्षण गिलवे में मिलते

है ; सिर्फ इसे छोड़ कर कि पत्ते नही होते । आयुर्वेद में सोमवल्ली कहने से उनका भी घोष होता है। इसमें दूध निकलता है और बड़ा गुण करता है। पित्त को दूर करता है। त्रिदोषघ्न है। दूध के साथ और विशेष कर बकरियों के दूध के साथ हितकारी है। सम्भव है, प्राचीन आर्य उसका उपयोग सोमलता के नाम से करते रहे हों। उसका एक नाम अमृता भी है। यह भी इसके अमृत-तुल्य गुण का शाक्षी है। यह प्रायः नहीं सूखती ।
रङ्ग काला होता है-उससे दूध निकलता है। लता में पत्तियां नहीं हीं होती । चखने मे वह कडुई मालूम होती है। उसकी त्वचा मांसल होती है । उसे खाने से केै़ होने लगती है। उससे इलेष्मा भी हो जाता है। उसे बकरियां खाती हैं । इस वर्णन के अनुसार सोम का कडुवा होना सुश्रुत के वर्णन से मिलता है। क्योंकि जीभ में छू गये बिना ही सोम-रस पीने का विधान सुश्रुत ने लिखा है। इसका कारण कडुवेपन के सिवा और क्या हो सकता है ? रसना मे लगने से अति-कटुता के कारण सोमरस पिया न जायगा, इस लिए सुश्रुत ने एक सॉस मे पाव भर रस गले से नीचे उतारने की विधि लिखी है। केै़ होना भी सुश्रत के दिये हुए लक्षण से मिलता है, और लता से दूध निकलना भी। परन्तु बिना पत्ती के लता का होना जो लिखा है सो सुश्रुत के लक्षण से नहीं मिलता । सूखने से यदि पत्तियो का गिर जाना माना जाय तो सूखी लता से दूध नहीं निकल सकता। सम्भव है, कोई सोमलता बेपत्ते की भी रही हो।


सूखी हुई भी फिर हरी हो सकती है। उसके कितने ही दुकड़े कर दिये जाँय सब टुकड़े फिर जिन्दा हो कर लग जाते हैं । अर्थात एक एक टुकड़े की एक एक वेल हो सकती है। यह झालरापाटन में मौजूद है और भी कई एक जगह है। इसे अमृत-वल्ली भी कहते हैं। इसका सूखा टुकड़ा पानी में भिगो कर निचोड़ा जा सकता है। वह रस भी काम में आता है ।"

-सम्पादक:
प्राचीन समय में सोम-रस का बहुत प्राचुर्य था। पुरातन आर्य उसे बहुत पीते थे। उससे दूध की तरह का रस निकलता

था। वह कुछ समय तक रक्खा जाता था; बाद में दूध और शहद मिला कर पिया जाता था। उसके पीने से कुछ थोड़ा सा नशा होता था, बहुत नहीं। उसमे विशेष मादकता उत्पन्न करने की युक्तियाँ पीछे से निकाली गई थी। धीरे धीरे सोम-पान का चसका आर्य्यों को लग गया और सोमलता का बहुत खर्च होने लगा। पीने और हवन करने में बेतरह खर्च होते होते वह अप्राप्य हो गई। तब उसकी जगह अन्यान्य औषधियाँ-पूतिका आदिक-काम में आने लगी। यही हाल और भी कितनी ही औषधियों का हुआ है। आयुर्वेदिक चिकित्सा-शास्त्र में कितनी औषधियाँ ऐसी हैं जो खर्च होते होते बिल्कुल ही नष्ट हो गई हैं। अब उनकी जगह और और औषधियां काम में लाई जाती है।

झांसी के पास एक जगह बरुवासागर है। वहां एक झोल है। उसके किनारे ब्राह्मी नाम की एक औषधि होती है। पर वह लता नही। एक छोटा सा पौधा है। एक दफ़े एक वैद्य महाशय‌ उसे वहां से लाये थे। ब्राह्मी भी सोमलता ही का एक पर्यायवाची नाम है। वे कहते थे कि यही सोमलता है और उसके रसायन की विधि भी आप बतलाते थे। पर वह विधि विलक्षण थी। वे‌ कहते थे कि गले तक जल के भीतर बैठकर उसे पीना चाहिए। उसके साथ और भी कितने ही झंझट आप बतलाते थे। पर हमारी समझ में वह सोमलता नहीं। उसके एक भी लक्षण सुश्रुत और धूर्तस्वामी के उद्धत लक्षणा से नहीं मिलते।

कुछ समय हुआ, इटावा-निवासी पं॰ भोमसेन शर्मा ने एक यज्ञ किया था। उसके लिए उन्होंने रीवां (बुँदेलखण्ड) के पहाड़ो से सोमलता के नाम से एक बल्ली मंगाई थी। उसके विषय में पण्डित जी लिखते हैं―“वास्तव में सोमलता नहीं मिलती, ऐसा हमारा अनुमान है। परन्तु सोमयागों में काशी के पंडित लोग जिसको सोम मानते हैं और काम में लाते हैं वह रीवाँ के राज्य में है।”

मानना और बात है, प्राचीन-ग्रंथों में दिये गये लक्षणों से मिलती हुई सोमलता ढूंढ़ लाना और बात है। यों तो शायद किसी दिन कोई भृङ्गराज को सोमलता मानने लगे। कुश और कास तक जब ब्राह्मणों, पितरों और देवताओ की जगह पर लिये‌ जाते हैं तब सोम की जगह पर कुछ रख लेना कौन बड़ी बात है।

आर्यों और पारसियो के पूर्वज किसी समय में एक ही थे। दोनों सोमरस पीते थे। इसी से सोम का नाम प्राचीन से भील प्राचीन माने गये वैदिक मन्त्रों में पाया जाता है। इधर पारसियों के प्राचीन ग्रन्थ “अवस्ता” में भी सोम का नाम विद्यमान है। पर वहाँ सोम का होम हो गया है। इस होम का व्यवहार भारतवर्ष के पारसी अब तक करते है। वे उसे बहुत पवित्र मानते है। यह सोम सूखी दशा में फारस से आता है। उसे देखकर लोगों का ख्याल हुआ था कि शायद यही आर्यों का सोम है। पर योरप के बनस्पति शास्त्र-वेत्ताओ ने जो उसकी खोज की तो पारसियो की होम एक और ही लता निकली। बलोचिस्तान के उत्तरी भाग से लेकर फारिस तक यह बल्ली अधिकता से पैदा होती है और हुम, हुमा, यहमा आदि नामो से प्रसिद्ध है। वहीं इस देश के पारसियों के लिए भेजी जाती है।

सुश्रुत में जहाँ जहाँ सोम की उत्पत्ति लिखी है वहाँ वहाँ बहुत ढूंढ़ने पर भी उसका पता नहीं चलता। अतएव यह निश्चय समझिए कि आर्यों का सोम भारत से हमेशा के लिये तिरोहित हो गया। परन्तु जलन्धर छावनी के लाला देवीदयालु साहब की राय मे सोमलता नष्ट नहीं हुई। वह अब भी अधिकता से पाई जाती है। आप अपनी "फूल" नाम की उर्दू-किताब में एक जगह लिखते हैं "जाबजा उसकी काश्त को जानिब खास तवज्जुह होनी चाहिए"। कृपा करके आप अपने फूल-बाग़ में थोड़ी सी सोमलता लाकर लगावें तो उसको खेती करने वालों को उसका रूप-रंग आदि देखने और उसका बीज या क़लम प्राप्त करने में सुभीता हो।

डाक्टर राक्सवर्ग, एम॰ डी॰, ने "ल्फोरा इंडिया" नाम की एक किताब बनाई है। उसमें सोमलता का कुछ हाल है। उसी के आधार पर पूर्वोक्त लालासाहेब सोम की खेती करने की सिफारिश करते हैं। डाक्टर साहब के कथन का मतलब लाला साहब ने अपनी किताब में इस प्रकार लिखा है-

"सोमलता के फूल छोटे-छोटे बहुत सफेद और निहा यत खुशबूदार होते है। इस खेल में से इन्तहा दरजे का साफ साफ और दूध के मानिन्द अर्क़ बरामद होता है। इससे उन्दा अर्क़ मैने कभी नहीं देखा। इसका ज़ायक़ा किसी क़दर तुर्शी मायल होता है। हिन्दुस्तान के मुसाफिर अक्सर इसी की नर्म शाखें रफातिश्नगी की गरज से चूस जाते है। यह बेल जङ्गलो में पाई जाती है। नीज़ इलाका बङ्गाल की झाड़ियों में भी पैदा होती है। जाबजा इसकी काश्त की जानिब खास तवज्जुह होनी चाहिए।"

डाक्टर साहब ने यह सब तो लिखा, पर सोम के प्राचीन वर्णन और गुणो को अपनी सोमलता से मिलाकर दोनों की एकवाक्यता करने का कष्ट नहीं उठाया। इसका क्या प्रमाण है कि डाक्टर साहब की सोमलता वैदिक सोमलता है। सम्भव है, आपकी लता मामूली गिलोय या उसी जाति की कोई लता हो।

पुरातत्वज्ञ विद्वानों का मत है कि शुरू में आर्य लोग हरी सोमलता को कूट कर रस निचोड़ लेते थे। या यदि हरी लता न मिलती थी तो पर्वतीय आदमियों से सूखी लता लेकर उसे पानी में भिगो देते थे। फिर उसे मलकर छान लेते थे। बाद में दूध और शहद मिला कर उसे कुछ काल रक्खा रहने देते थे। इससे वह रस कुछ नशीला हो जाता था। उसे ही वे पीते थे। उसके पीने से नशा होता था। इससे वे इस लता को एक अद्भुत गुण वाली समझते थे और उसे भक्ति भाव-पूर्ण दृष्टि से देखते थे।
उस समय घर-घर योग होता था, घर-घर अग्नि देव की पूजा होती थी। अग्नि एक विलक्षण प्रभाव-पूर्ण देवता मानी जाती थी। इससे सोमरस अग्नि में भी चढ़ाया जाता था। इसी कारण धीरे धीरे सोम का प्रभाव बढ़ गया। कुछ समय बाद इतने नशे से आर्यों को सन्तोष न होने लगा। तब उन्होने सोमरस में अन्यान्य पदार्थ मिला कर उसमे अधिक मादकता पैदा की और उससे सोमसुरा तैयार होने लगा। इसी तरह सोम का घर-घर खर्च होने और उसकी रक्षा का कोई प्रबन्ध न किया जाने से उसका सर्वथा नाश हो गया।

परन्तु सुश्रुत के अनुसार सोमरस पान करने से अलौकिक शक्ति, रूप, आयु आदि को प्राप्ति की बात आज कल के विद्वानों-वनस्पति-विद्या के पंडितों और पुरातत्व-प्रेमियो की समझ में नही आती। सूत्र और ब्राह्मण-प्रन्थों के समय में भी सोमलता दुष्प्राप्य हो गई थी। इस कारण सोम के स्थान मे और चीजो के प्रयोग इन ग्रन्थो मे लिखे हैं। यदि सुश्रुत जी का ग्रन्थ सूत्र-ग्रंथों के बाद माना जाय-और माना ही जाता है-तो उनके समय मे भी सोमलता अप्राप्य नहीं तो दुष्प्राप्य जरूर रही होगी। अधमिर्यों को सोमलता न दिखाई देने की जो वात सुश्रुत जी ने लिखा है, उससे भी यही सूचित होता है। अतएव, सम्भव है, सुश्रुत जी ने जो कायाकल्प की विधि लिखी है वह किसी बहुत पुराने ग्रन्थ के आधार पर लिखी हो और वह अन्य उस समय का हो जब अपने विलक्षण मादक गुण के कारण सोमलता एक अलौकिक चीज़ मानी जाती थी। क्योंकि सज्ञानता की प्रथमावस्था में छोटी छोटी बातें भी आश्चर्य-जनक मालूम होती हैं। घड़ी को आप ही आप खट-खट करते देख अथवा ग्रामोफोन के गाने सुन कर छोटे छोटे बच्चो को थोड़ा आश्चर्य नहीं होता।

[मई १९०८

  1. * श्रीमत्पंडित ज्वालाप्रसाद जी की राय में कुश-शय्या से मतलब कुश के तृणों से बनी हुई खाट से है।