लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ ५४

 
 

तुम आये,
अमा-निशा थी,
शशधर-से नभ में छाये।

फैली दिङ् मण्डल में चाँदनी,
बँधी ज्योति जितनी थी बाँधनी,
खुली प्रीति, प्राणों से प्राणों में भाये।

करती हैं स्तवन मन्द पवन से
गन्ध-कुसुम-कलिकाएँ भवन से,
किञ्चन के रस-सिञ्चन से तुम लहराये।

आने को भी है फिर प्रात सहज,—
सजने को नवजीवन से रज-रज,
तुमको व्यञ्जित या रञ्जित कर दे जाये।