अणिमा/१६. आदरणीय प्रसादजी के प्रति

लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ २७ से – ३२ तक

 

आदरणीय प्रसादजी के प्रति

हिन्दी के जीवन हे, दूर गगन के द्रुततर
ज्योतिर्मय तारा-से उतरे तुम पृथ्वी पर;
अन्धकार कारा यह, बन्दी हुए मुक्तिघन,
भरने को प्रकाश करने को जनमन चेतन;
जीना सिखलाने को कर्मनिरत जीवन से,
मरना निर्भेय मन्दहासमय महामरण से;
लोकसिद्ध व्यवहार ऋद्धि से दिखा गये तुम,
छोड़ा है छिड़ने पर सुघर कलामय कुंकुम;
उठा प्रसङ्ग-प्रसङ्गन्तर रें रंग-रंग से रँगकर
तुमने बना दिया है वानर को भी सुन्दर;
किया मूक को मुखर, लिया कुछ, दिया अधिकतर,
पिया गरल, पर किया जाति-साहित्य को अमर।
तुम वसन्त-से मृदु, सरसो के सुप्त सलिल पर
मन्द अनिल से उठा गये हो कम्प मनोहर,
कलियों में नर्तन, भौंरों में उन्मद गुञ्जन,
तरुण-तरुणियों में शतविध जीवन-व्रत-भुञ्जन,

स्वप्न एक आँखों में, मन में लक्ष्य एक स्थिर,

पार उतरने की संसृति में एक टेक चिर;

अपनी ही आँखों का तुमने खींचा प्रभात,

अपनी ही नई उतारी सन्ध्या अलस-गात,

तारक-नयनों की अन्धकार-कुन्तला रात

आई, सुरसरि-जल-सिक्त मन्द-मृदु बही बात,

कितनी प्रिय बातों से वे रजनी-दिवस गये कट,

अन्तराल जीवन के कितने रहे, गये हट,

सहज सृजन से भरे लता-द्रुम किसलय-कलि-दल,

जगे जगत के जड़ जल से वासन्तिक उत्पल,

पके खेत लहरे, सोना-ही-सोना चमका,

सुखी हुए सब लोग, देश में जीवन दमका,

हुआ प्रवर्तन, खुली तुम्हारी ही आँखों से

उड़ने लगे विहग ज्यों युवक मुक्त पाँखों से

खोये हुए राह के, भूले हुए कभी के

बढ़े मुक्ति की ओर भाव पा अपने जी के ।

फूटा ग्रीष्म तुम्हारे जीवन का, दिङमाराडल
 

तपा, चली लू, लपटें उठने लगीं, अमङ्गल
फैला, आहों से लोगों की पृथ्वी छाई,
बढ़ा त्रास, फिर अपलापों की बारी आई,
रहित वुद्धि से लोग असंयत अनर्गल,
किन्तु नहीं तुम हिले, तुम्हारे उमड़े बादल,
गरजे सारा गगन घेर बिजली कड़काकर,
काँपे वे कापुरुष सभी अपने अपने घर,
धारा झरझर झरी, घटा फिर फिर घिरआई,
सौ सौ छन्दों में फूटी रागिनी सुहाई
सावन की, निर्बल दवके दल-के-दल वे जन,
अपने घर में करते भला बुरा आलोचन;
भरी तुम्हारी धरा हरित साड़ी पहने ज्यों
युवती देख रही हो नभ को नहीं जहाँ क्यों ।

आई शरत तुम्हारी, आयत-पङ्कज-नयना,
हरसिंगार के पहन हार ज्योतिर्मय--अयना;
एक बार फिर से लोगों को सिन्धुस्नान कर
निकला हुआ दिखा काशी में इन्दु मनोहर--

 

विजय तुम्हारी, लिये हृदय में लान्छन सुन्दर
अस्त हो गया कीर्ति तुम्हारी गा अविनश्वर।

हे चतुरङ्ग, तुम्हारी विजयध्वजा धारणकर
खड़े सुमित्रानन्दन, देवी, मोहन, दिनकर,
माखनलाल, नवीन, भगवती, चन्द्र, पारसी,
कमल, प्रभात, सुभद्रा, अञ्चल, अशेयशशी
कितने रवि, केसरी, कुमार, नरेन्द्र, रमा, ये
रामविलास, प्रदीप, जानकीवल्लभ जागे,
भिन्न रूप-रँग के, पर एक लक्ष्य के सक्षम
कितने और तुम्हारी करते पूर्ति मनोरम
गद्य-पद्य की, प्रतिभा को, साहित्य-समर की,
सुमन, विनोद, उग्र, पाठक, बेढव बनारसी,
नन्ददुलारे, चन्द्र प्रकाश कुवँर, शिवमङ्गल,
इलाचन्द्र, बच्चन, हृदयेश, सुमित्रा, निर्मल
कोकिल, विनयकुमार, श्याम, शाखाल, मन्जु, छवि
नीलकण्ठ, सर्वदानन्द, गिरिजा, गुलाव काव,
शिवपूजन, गङ्गाप्रसाद, बलभद्र, अश्क, श्री

 

लली, उदयशङ्कर, द्विज, मुकुल, अरुण, सावित्री।
यौवन का हेमन्त तुम्हारा भर लहराया
एक छोर से अन्य छोर तक जीवन छाया,
गेहूँ की, अरहर की, जौ की, चने-मटर की
हरियाली-ही-हरियाली फैली, घर-घर की
खेती ज्वार-बाजरे की आई कट-कटकर,
सुखी हुए सब जन अपने अपने सुन्दर घर
खुशियाँ लगे मनाने, हुआ हृदय में निश्चय--
बदले दिन जो रहे हमारे, अब हम निर्भय,--
बढ़े हुए जो, उनकी आँखों पर आँखें रख
बातचीत कर सकते हैं हम, अब कोई पख
लगा नहीं सकता, दीनता हमारी पहली
नहीं रही वह; पुराङ्गनाओं ने हँस कह ली
श्री की कथा, दीप से ज्योतित कर अन्तःपुर,
नम्र देखती मधुर, प्रकाशित करती सी उर
अन्य जनों का, तरुणी पुस्तक पाठ में लगी
आदर करती-सी अतीत का, प्राण में जगी

 

वर्तमान की ओर बढ़ी।
अपने में निश्चल
युगप्रवर्तक, हुए शीत में व्याधि से विकल,
रहा साथ मैं नतमस्तक, सेवा को; अग्रेँज,
चले गये तुम धरा छोड़ गौरव-विजय-ध्वज!