कलम, तलवार और त्याग/४-अकबर महान
बाबर की महत्त्वाकांक्षा ने चारों ओर से निराश होकर पठानों के आपस के लड़ाई-झगड़े की बदौलत हिन्दुस्तान में पाँव रखने की जगह पाई थी कि जनश्रुति के अनुसार पुत्र-प्रेम के आवेश में अपनी जान बेटे के आरोग्य-लाभ पर न्यौछावर कर दी और उसका लाड़ला बेटा राज्यश्री को अंक में भरने भी न पाया था कि पठानों की बिखरी शक्ति शेरखाँ सूर की महत्त्वाकांक्षा के रूप में प्रकट हुई। हुमायूँ की अवस्था उस समय विचित्र थी। राज्य को देखो तो बस इने-गिने दो-चार शहर थे, और शासन भी नाम का ही था। यद्यपि वह स्वयं उच्च मानव-गुणों से विभूषित था, पर इसमें ठीक राय कायम करने की योग्यता और निश्चयशक्ति का अभाव था जो संपूर्ण राज्यकार्य के लिए आवश्यक है। घर की हालत देखो तो उसी गृहकलह को राज था जिसके कारण पठानों की शक्ति उसके बाप के वीरत्व और नीति-कौशल के सामने न टिक सकी। भाई भाई की आँख का काँटा बन रहा था। मन्त्री और अधिकारी यद्यपि अनुभवी और वीर पुरुष थे, पर इस गृहकलह के कारण वह भी डाँवाडोल हो रहे थे। कभी एक भाई का साथ देने में अपना लाभ देखते थे, कभी दूसरे की
- अल्लाह अकबर। तेरे नाम की क्या महिमा है कि हर अर्जी में दाखिल और हर तौर-में शामिल है।
ओर हो जाते थे। सार यह कि बिगाड़ और विनाश की सारी सामग्री
एकत्र थी। ऐसी अवस्था में वह शेरखाँ की मचलती महत्त्वाकांक्षा,
प्रौढ़ नीतिकौशल और दृढ़ संकल्प के सामने टिकता तो क्योंकर।
नतीजा वही हुआ जो पहले से दिखाई दे रहा था। शेरखाँ का बल-
प्रताप बढ़ा, हुमायूँ को घटा। अन्त को इसे राज्य से हाथ धोकर जान
लेकर भागने में ही कुशल दिखाई दी। वह समय भी कुछ विलक्षी
विपद और असहायता का था। हुमायूँ कभी घबराकर बीकानेर और
जैसलमेर की मरुभूमि में टकराती फिरता था, कभी क्षीण-सी आशा
पर जोधपुर के पथरीले मैदानों की ओर बढ़ता था, पर विश्वासघात
दूर से ही अपना डरावना चेहरा दिखाकर पॉव उखाड़ देता था।
दुर्भाग्य की घटा सब ओर छाई हुई हैं। खून सफेद हो गया है।
भाई भाई के खाने को दौड़ता है। नाम के मित्र बहुत हैं, पर सहायता का समय आया और अनजान बने, आशा की झलक भी कभी-कभी दिखाई दे जाती हैं, पर सुरत ही नैराश्य के अन्धकार में लुप्त
हो जाती है। हद हो गई कि जब रास्ते में हुमायूं का घोड़ा चल बसी
तो वज्रहृदय तरदी बेग ने जो उसके बाप का मित्र और खुद इसका
मन्त्री था, इस विपदा के मारे बादशाह को अपने अस्तबल से एक
घोड़ा देने में भी इनकार किया, जिसके कारण उसको उँट की उबर
खाबड़ सवारी नसीब हुई। स्पष्ट है कि एक तुर्क के लिए जो मानो
मा के पेट से निकलकर घोड़े की पीठ पर आँख खोलता है, इससे
बढ़कर क्या विपत्ति हो सकती है। गनीमत हुई कि उसके एक दोस्त
महीमखाँ को जो बेचारा अपनी बूढी मा को अपने धोड़े पर सवार
करके खुद पैदल जा रहा था, दया आ गई और उसने अपना
थोड़ी हुमायूँ की नज़र करके उसके ऊँट पर अपनी माँ को बिठा दिया।
गजब यह है कि हालत तो ऐसी हो रही है कि रोंगटा रौंगटा दुश्मन
मालूम होता है, धरती-आकाश फाड़ खाने को दौड़ता है, पर इस
परदेश और विपकाल में हुमायूँ की चहेती बीबी हमीदा बानू बेगम
भी साथ है। वह भी इस हाल में कि पूरे दिन हैं और हर कदम
पर डर है कि कहीं प्रसवपीड़ा का सामना न करना पड़े।
खैर, ख़ुदा-ख़ुदा करके किसी तरह यह असहाय क़ाफ़िला सिंध के सपाट जंगलों को पार करता हुआ अमरकोट पहुँचा और वहाँ पाँव रखने को जगह भी मिली, पर भेड़िया बने हुए भाई सब ओर से ताक में लगे हुए थे। इस कारण उसे पत्नी को वहीं छोड़ उनके मुकाबले के लिए रवाना होना पड़ा। इस समय बेचारी हमीदा बानू की जो दशा होगी, ईश्वर दुःसमन को भी उसमें न डाले। न तन पर कपड़ा, न पेट के लिए खाना, न कोई मित्र, न सहायक, यहाँ तक कि पति भी ज्ञान के सौदे में लगा हुआ, उस पर पराया देश और पराये लोग। पर जिस तरह गहरे सूखे के समय सब ओर से काली घटाए” उठकर क्षणभर में तृण-से रहित धरती को शस्य-श्यामला बना देती हैं या अचानक घनघोर अन्धकार में दल-बादल फटकर भूमण्डल को प्रभाकर की प्रखर किरणों से आलोकित कर देता है या जिस तरह-
सितारा सुबहे इशरत का शबे मातम निकलता है। *[१]
उसी तरह तारीख ५ रजब सन् ५४४ हिज्री (१४ अक्तूबर १५४२ ई॰) रविवार की रात्रि में उस मंगल नक्षत्र का उदय हुआ जो अन्त में दुनिया पर सूरज बनकर चमका।
अकबर जैसे दुर्दिन में जन्मा था वैसी ही असहाय अवस्था में उसका बचपन भी बीता। अभी पूरा एक बरस का भी न होने पाया था कि मिरजा असकरी के विश्वासघात के भय से माँ-बाप का साथ छूटा और निर्दय चचा के हाथ पड़ा। पर भगवान भला करें उसकी बीवी सुलतान बेगम और अकबर की दाइयों माहम बेगम और जीजी अक्का की कि बच्चे को किसी प्रकार का कष्ट न होने पाया। जब अकबर दो साल से कुछ ऊपर हुआ तो हुमायूँ ने फिर काबुल को विजय किया और उसे पिता के दर्शन नसीब हुए। पर अभी पाँच बरस का न हुआ था कि फिर जालिम कामरान के हाथ पड़ गया और जब हुमायूँ काबुल के क़िले
पर घेरा डालने में लगा हुआ था, एक मोरचे पर, जहाँ जोर-शोर से गोले बरस रहे थे, इस नन्ही-सी बात को बिठा दिया गया कि काल
का आस बन जाय। पर धन्य हैं माहम के स्नेह और कर्तव्यनिष्ठा को
कि उसको अपनी देह से छिपाकर मोरचे की ओर पीठ करके बैठ गई।
स्पष्ट है कि ऐसी विपत्ति और परेशानी की हालत में पढ़ाई-लिखाई तो क्या किसी भी बात का प्रबन्ध नहीं हो सकता, और इसी लिए अकबर पिता की शिक्षाप्रद छाया से पृथक होकर साक्षरता से भी वंचित
रह गया। पर जिस प्रकार असहायता की गोद में उसका पालन-पोषण
हुआ उसी प्रकार उसकी शिक्षा-दीक्षा भी विपद के महाविद्यालय में
हुई। और यह उसी का फल है कि आरंभ में ही उसमें वह उस
मानवगुण उत्पन्न हो गये जो जीवन-संघर्ष में विजयलाभ के लिए
अनिवार्य आवश्यक हैं। बारह बरस आठ महीने की उम्र में वह सरहिन्द की लड़ाई में शरीक हुआ, और अभी पूरे १४ साल का न होने
पाया था कि हुमायूँ के अचानक परलोक सिधार जाने से उसको अनाथत्व का पद और राज्य का छत्र मिला। तारीख २ रबी उरसानी सन्
९६३ छिज्त्री (१५५६ ई०) को वह राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हुआ है।
बादशाह बालक और राज्य–विस्तार नहीं के बराबर थे, पर उनके शिक्षक और संरक्षक बैरम खाँ की स्वामिभक्ति और कार्यकुशलता हर समय आड़े आने को तैयार रहती थी। आरंभ के युद्ध में बैरम खाँ ने बड़ी ही नीलि-कुशलता और वीरता का परिचय दिया। यह इसी का फल था कि अफगान षड्यन्त्रों की जड़ उखड़ गई और हिन्दुस्तान का काफ़ी बड़ा हिस्सा मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित हो गया है। पर चार बरस की खुद मुख्तारी ने कुछ तो बैरम खाँ का सिर फिराया और इधर वयोवृद्धि के साथ अकबर ने भी पर-पुरज़ निकाले और कुछ
- राज्यारोहण के पहले ही वर्ष में जब पठानों का प्रसिद्ध सेनानायक हैमू (हेमचन्द्र) गिरफ्तार होकर आया, तो बैरम खाँ के आग्रह करने पर भी चञ्चमा अकबर ने अपनी तलवार को एक असहाय कैदी के रक्त से रंगना पसन्द न किया।
दूसरे सरदारों के हृदय में ईष्र्या की आग सुलगी, और उन्होंने तरह-
तरह से बादशाह को शासन की लगाम अपने हाथ में लेने के लिए उभारा। नतीजा यह हुआ कि बैरम खाँ के प्रभाव का सूर्य अस्त हो गया और अकबर ने प्रत्यक्ष रूप से देश का शासन आरंभ किया। करीब १० साल तक अकबर हिन्दुस्तान के भिन्न-भिन्न सुबों को जीतने, अपने बागी सरदारो की साजिशो को तोड़ने और बगावतों को दबाने में लगा रहा है यहाँ तक कि पंजाब और दिल्ली के सूबो के सिवा, जो उसे विरासत में मिले थे, काबुल, कंधार, काश्मीर, सिंध, मेवाड़, गुजरात, अवध, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, अहमदनगर, मालवा और खानदेश सब उसकी राज्य-परिधि के भीतर आ गये। अर्थात् पच्छिम में उसके राज्य का डाँड़ा हिन्दूकुश से मिला हुआ था, और पूरब में बंगाल की खाड़ी से उत्तर में हिमालय से टकराता था, तो दक्षिण में पच्छिमी घाट से। ये विजयें केवल अकबर के सेना-नायको की रण- कुशलता का ही सुफल न थीं, बल्कि इनमें पूरे तौर से खुद भी उसने अपनी बुद्धिमानी, दूरदर्शिता, मुस्तैदी, अथक परिश्रम, निर्भीकता और जागरूकता को प्रमाण दिया था। उसके सेनापति जब सुदूर प्रदेशों की चढ़ाई में लगे होते थे और वह जरा भी उनको गलत रास्ते की ओर झुकता हुआ देखता या उनकी कोशिश में ढिलाई पाता, तो अचानक बिजली की तरह, एक-एक हफ्ते की राह एक-एक दिन में तै करके उनके सिर पर जा धमकता था। मालवा, गुजरात और बंगाल की चढ़ाइयाँ आज तक उसकी मुस्तैदी और जवाँमद की गवाही दे रही हैं। उसकी दैव-दत्त प्रतिभा ने युद्ध-विद्या को जहाँ पायी वहीं नहीं छोड़ा, किन्तु उसकी प्रत्येक शाखा को और आगे बढ़ाया। आज के युग में तोपों के बनाने और उनसे काम लेने में जितनी प्रगति हुई है, उसे बताने की आवश्यकता नहीं है, पर अकबर उस पुराने जमाने में ही उनकी अवश्यकता को जान गया था, और उसने एक ऐसी तोप ईजाद की थी जो एक शिताबे में १७ फैर करती थी। कुछ ऐसी तोपें भी बनवाई थीं, जिनके टुकड़े-टुकड़े करके एक जगह से दूसरी जगह आसानी
से ले जा सकते थे। हिन्दुस्तान में बहुत पुराने जमाने से सेनानायकों
और मनसबदारो की धांधली के कारण सेना की विचित्र अवस्था हो रही थी। सिपाहियों और सवारों की तनखाओं के लिए सरदारों को बड़ी-बड़ी जागीरें दी गई थीं। पर सेना को देखो तो पता नहीं, और जो थी भी उसकी कुछ अजीब हालत थी। किसी सैनिक के पास घोड़ा है तो जीत नहीं, हथियार है तो कपड़े नहीं; अकबर ने, सबसे पहले अपनी सुधारक दृष्टिं इसी ओर डाली और सिपाहियों को सरदारो के पोषण से निकालकर राज्य की छत्रछाया में लिया। उनकी नक़द तनख्वाहें बाँध दीं और चेहरानबीसी तथा घोड़ों के द्वारा के द्वारा उनको बदनीयती के चंगुल से छुटकारा दिलाया और इस प्रकार समय पर काम देनेवाली स्थायी सेना (Standing Army) की नींव डाली। इस प्रकार अकबर ही पहला व्यक्ति है जिसने प्राचीन समस्त पद्धति को तोड़कर राज्य की शक्ति तथा अधिकार की स्थापना की है।
यद्यपि दुनिया के महान विजेताओं की श्रेणी में अकबर को भी,
अयनी चढ़ाइयों की सफलता और विजित भूखण्ड के विस्तार की
दृष्टि से, विशिष्ट पद प्राप्त है, पर जिस बात ने वस्तुतः अकबर को अकबर बनाया, वह उसका जंगी कारनामा नहीं है, किन्तु वह अधिभूत की सीमा को पार कर अध्यात्म तक फैली हुई है। उसने जीवन के आरंभ में ही विपद् के विद्यालय में जो शिक्षा पाई थी, वह ऐसी उथली न थी कि अपने बाप की तबाही और खड़े खड़े हिन्दुस्तान निकाले जाने और दर-दर ठोकरें खाते फिरने से प्रभावकारी उपदेश ने ग्रहण करता और यह बात सच हो या न हो कि उसके पिता को ईरान के बादशाह तहमास्प सफवी ने हिन्दुस्तान लौटते समय दो उपदेश दिये थे- एक यह कि पठानो को व्यापार में लगाना, दूसरा यह कि भारत की देशी जातियों को अपना बनाना, पर समय ने स्वयं उसको बता दिया था कि राज्य को टिकाऊ बनाने का कोई उपाय हो सकता है तो वह यही है कि उसकी नींव तलवार की पतली धार के बदले लोक-कल्याण के द्वारा प्रज्ञा के हृदयों में स्थापित की जाय। अतः पहले ही साल
उसने एक ऐसा आदेश निकाला, जो इंगलैंड की आज सारी उन्नति-समृद्धि का रहस्य है, पर जो सैकड़ो साल तक ठोकरे खाने के बाद उसको सूझ गया। अर्थात् व्यापार-वाणिज्य को उन सब करो से मुक्त कर दिया जो उसकी उन्नति में बाधक हो रहे थे। और यद्यपि आरम्भ में उनकी अल्पवयस्कता और असहायता के कारण वह पूरी तरह
कार्यान्वित न हो सका, पर जब शासन का सुत्र उसके हाथ में आया
तो वह उसको जारी करके रहा। यह तो वह बर्ताव है जो भीतरी
व्यापार के साथ किया गया। विदेशी व्यापार को भी कुछ भारी करों
से बाधा पहुँच रही थी जो मीर बहरी या समुद्री कर (Sea costums) कहलाते थे। अकबर ने इन करों को भी इतना घटा दिया कि वह नाम मात्र के अर्थात् २।। प्रतिशत रह गये और इससे देश के विदेशी व्यापार को जितना लाभ हुआ उसे बताने की आवश्यकता नहीं। यद्यपि ‘फ्री ट्रेड' अर्थात् 'अबाघ वाणिज्य' 'ब्रिटिश सरकार का ओढ़ना-बिछौना हैं, पर इस जमाने में भी समुद्री करों की दुर अकबर की बाँधी हुई से कहीं अधिक है।
सारी दुनिया के कानूनों का यह झुकाव रहा है कि आरंभ में
छोटे-छोटे अपराधों के लिए भी अति कठोर दण्ड की व्यवस्था की
जाती है, पर जब सभ्यता में उन्नति और जाति की स्थिति में प्रगति
होने लगती है तो सजा में भी नरमी होती जाती है। भारतवर्ष में भी
पुरातन-काल से कुछ जंगली सजाओं का रिवाज, चला आता था जैसे
हाथ-पाँव काट देना, अंधा कर देना आदि। अकबर के जाग्रत विवेक
ने इनकी अमानुषिकता को समझ लिया और राज्यारोहण के छठे
साल में ही इनको बिल्कुल बंद कर दिया। पुराने जमाने में यह रीति
थी कि युद्ध में जो कैद होते थे, वह जीवन भर के लिए
स्वतन्त्रता से वंचित होकर विजेता के दास बन जाते थे। रणनीति और राजनीति की दृष्टि से इसका कैसा ही असर क्यों न पड़ता हो,
पर मानवता के विचार से यह प्रथा जितनी क्रूर और अत्याचारपूर्ण है, उसे बताने की आवश्यकता नहीं। इसलिए अकबर के लिए
यह गर्व करने योग्य बात है कि उसने सन् ७ जुल्स(राज्यारोहण संवत्) में ही यह नियम बना दिया कि जो आदमी लड़ाई में कैद हो वह गुलाम न बनाया जाय। जो पहले से यह अवस्था प्राप्त कर चुके थे,
उनका भी गुलामी का दास इस हद तक धो दिया कि उनके कुछ विशेष
अधिकार निश्चित कर दिये और उनका नाम भी दास या गुलाम से
बदलकर चेला कर दिया। इसी के साथ गुलामों की आम खरीद,
बिक्री भी एकदम बन्द कर दी। इसके अगले साल यात्रियों से जो एक जबर्दस्ती का कर लिया जाता था, उसको उठा दिया। यह मानो प्रथम बार इस बात की घोषणा थी कि हर आदमी अपने धर्म-विश्वास की दृष्टि से स्वाधीन है और उसके स्वधर्माचरण में किसी प्रकार की रोक
टोक न होनी चाहिए।
सन् ७ जुल्स में जो विचार कुछ दबी जबान में प्रकट किया गया
था, अगले साल खूब जोर-शोर से उसकी घोषणा की गई, और अकबर ने ऐसा काम किया जसने वस्तुतः शासक और शासित का पद
राज्य के सामने एक कर दिया। अर्थात् जिजिया माफ कर दिया।
जिजिया वस्तुतः कोई वैसा कुत्सित कर नहीं था जैसा कि यूरोपियन
इतिहासकारों ने समझा है, किन्तु वह विजित जाति से इसलिए लिया
जाता था कि वह सैनिक सेवा से मुस्वसना होती थी। उद्देश्य यह
था कि देश रक्षा के लिए विजेता जाति जिस प्रकार अपनी जान उड़ाती थी, विजित जाति उसी तरह अपने माल से उसमें मदद करे। भारत के इतिहास का ध्यान पूर्वक अध्ययन किया जाय तो मालूम होगा कि आरंभ में सरकार कंपनी बहादुर देशी राज्यों में जो सहायक सेना था
काँटिजेंट (Contingant) के नाम से कुछ पलटने रखकर उनका खर्च
वसूल किया करती थी, वह भी एक तरह का जिजिया ही था। और
आज भी जो सैनिक या साम्राज्य-संवन्धी (इम्पीरियल) व्यय कहलाते हैं और जिनमे देशवासियों का कोई अधिकार या आवाज़ नहीं उनका नाम कुछ ही क्यों न रखा जाय, जिजिया की परिभाषा उन पर भी घटित हो सकती है। मुसलमानों में बहुत पुराने समय से अनिवार्य
भरती (Conseription) अर्थात् आवश्यकता के समय सैनिक रूप से काम करने की बाध्यता चली आ रही है। इस कारण मुस्तसना होने का अधिकार एक बहुत बड़ा हक़ था और संभव होता तो शायद
बहुत-से मुसलमान भी उससे लाभ उठाते। पर चूँकि अकबर को
उद्देश्य विजेता और विजित का भेद मिटाकर अपने शासन को
स्वदेशी भारत की राष्ट्रीय सरकार बनाना था, जिसकी सच्ची उन्नति के
लिए हिन्दुओं की प्रखर बुद्धि और शौर्य-साहस की वैसी ही आवश्यकता थी जैसी मुसलमानों की कार्य-कुशलता और वीरता की,
और देश की शान्ति के रक्षण-पोषण में हिन्दू भी उसी प्रकार
भाग लेने के अधिकारी थे, जिस प्रकार मुसलमान। इसलिए
विजित और विजेता में जिजिया के द्वारा जो भेद स्थापित किया
गया था, वह वास्तव में बाकी न रहा था और जिजिया वस्तुतः
उत्पीड़क कर हो गया था, इसलिए उसने उसको उठाकर प्रजा के सब
वर्गों की समानता की घोषणा की, यद्यपि अकबर ने हमारी उदार
सरकार की तरह इस बात की घोषणा नहीं की थी कि राज्यकार्य में
जाति, रंग या धर्म का कोई भेद-भाव में रखा जायगा, पर व्यवहारतः
वह नियुक्तियों में, चाहे वह शासन विभाग की हों, चाहे सेना या
अर्थ-विभाग की, अब्दुल्ला और रामदास में कोई भेद न करता था।
यहाँ तक कि कोई भी पद ऐसा न था, जो हिन्दू मुसलमान दोनों के
लिए समान रूप से खुला हुआ न हो। उसकी निष्पक्षता का इससे
बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है कि मानसिंह को खास सूबे
काबुल की गवर्नरी को गौरव दिया जहाँ की आबादी सोलह आने
मुसलमान थी। इसी प्रकार फौजी चढ़ाइयो का सेनापतित्व अगर
खानखाना और खाँ आज़म को सौंपा जाता था तो भगवानदास और
मानसिंह का दरजा भी उनसे कम न होता था, और शासन तथा
अर्थ-प्रबन्ध के मामलों में अगर मुजफ्फर खाँ की सलाह से काम किया जाता था तो दोडरमल की सम्मति उससे भी अधिक दर की दृष्टि से देखी जाती थी। इसी तरह फैज़ी और अबुलफज़ल यदि दरबार
की शोभा थे तो बीरबल भी अकबर के राज-मुकुट का एक अमूल्य रत्न था। यही वह वस्तु थी जिसने राजपूतों और ब्राह्मणों को राज्य का इतना शुभचिन्तक बना दिया था कि उन्हें अपने बाग़ी देशवासियों और सधर्मियों के मुकाबले लड़ने और जान देने में भी आगा-पीछा न होता था।
जान पड़ता है कि अकबर को रात-दिन यही चिन्ता रहती थी, कि किसी तरह भारत की विभिन्न जातियों-संप्रदायों को एक में मिलाकर शक्तिशाली स्वदेशी राज्य की स्थापना करे। इसी लिए उसने पुराने राजपूत घरानों से नाता जोड़ने की रीति चलाई, जिसमें राजकुल को वे गैर की जगह अपनी समझने लगें। इसी उद्देश्य से सन २३ जुल्स में फतहपुर सीकरी के 'इबादतखाने’% (उपासनागृह) में इन धार्मिक शास्त्रार्थों की योजना की जिनमें प्रत्येक जाति तथा धर्म के विद्वान् सम्मिलित होते थे और बिना किसी भय संकोच के अपने- अपने धर्म के तत्वों की व्याख्या करते थे। इन्ही शास्त्रार्थों और ज्ञान- चर्चाओं का यह फल हुआ कि अकबर जो बिल्कुल अनपढ़ था, विचारों की उस ऊँचाई पर पहुँच गया जो केवल दार्शनिकों के लिए सुलभ हैं, और जहाँ से सभी धर्मों के सिद्धान्त आध्यात्मिकता का रंग लिये हुए आते हैं। इनका एक बड़ा लाभ यह भी हुआ कि जो लोग इनमें सम्मिलित होते थे उनकी दृष्टि अधिक व्यापक हो जाने से धर्मगत संकीर्णता और कट्टरपन अपने आप घट गया। उस काल में इसलाम धर्म की भी शताब्दियौ की गतानुगतिकता और धर्माचार्यों के
- एलफिंस्टन, ब्राकमैन आदि अंग्रेज़ इतिहासिक में इस सम्मेलन में बहुत
महत्व दिया है। पर वस्तुतः यह कोई नई बात न थी। चारों आरम्भिक कालोफो़ के अतिरिक्ष इमैया और अब्बासौ भर्ती के अली को भी कार्मिक विषय में नेतृत्व इमाम को पद सर्वे-स्वीकृत भी। इस प्रकार से मैं तुर्की मैं शैकुल इसलाम।
तक मुजतहिद (धर्माध्यक्ष) का दरजा रखते हैं और शीया लोगों में ऐसा कोई उस समय नहीं होती और दो-चार मुजतहिद मौजूद न हों।
पाण्डित्यप्रदर्शन से विचित्र दुशा हो रही थी। सरलतां जो इस लाभ
की विशेषता है, नाम को बाकी न रही थी और धर्म अन्धविश्वासों
और गतानुगतिक विचारों की गठरी बन रहा था। आलियों और
मुल्लाओं की हालत इससे भी गईबीती थी। यद्यपि ये लोग मक्कारी
का लबादा हर समय ओढ़े रहते थे, पर पद और प्रतिष्ठा के
लिए धर्म के विधि-निषेधों को बच्चो का खेल समझते थे, और
जैसा मौका देखते वैसा ही फतवा तैयार हो कर देते थे। इस सबन्ध
में मखदूमुल मुल्क और सदरजहाँ के कारनामें और ज़माना साजी जानने योग्य हैं। इन्ही कारणो से अकबर का वह आरंभिक
धर्मोंत्साह. जिससे प्रेरित हो वह पैदल अजमेर शरीफ की यात्रा या
दिन रात ‘यो मुईन' का जप किया करता था, ठंडा होता गया है और
वह यह नतीजा निकालने को लाचार हुआ कि जब तक अंधानुकरण
के उस मजबूत जाल से, जिसने मनुष्यों में बुद्धि-विवेक को कै़द कर
रखा है, छुटकारा न मिले, किसी स्थायी सुधार की आशा नहीं हो
सकती है। अतः उसने सन् जुल्स के २४ वें साल में उलेमा से इमाम
आदिल अर्थात् प्रधान धर्म-निर्णायक की सनद हासिल की और दीने
इलाहीं की नींव डाली जिसका दरवाजा सब धर्मवालों के लिए समान
रूप से खुला हुआ था। इसमें संदेह नहीं कि यह कार्य एक अपढ़ तुर्क
की सामथ्र्य और अधिकार के बाहर की बात थी, और इस कारण
अबुलफजल जैसे प्रकाण्ड पण्डितों को अपना सारा बुद्धिबल लगा
देने पर भी जैसी सफलता चाहिए थी, वैसी न हुई, बल्कि एक खेल-
तमाशा बनकर रह गया। पर इसका इतना प्रभाव अवश्य हुआ कि
धर्म-गत असहिष्णुता की बुराई जो देश-वासियों को पारस्परिक वैमनस्य के कारण सिर न उठाने देती थी, एक दम दूर हो गई और संकीर्णता की जगह लोगों के विचारों में उदारता आ गई। अकबर यद्यपि
स्वयं कुछ पढ़ा-लिखा न था, पर वह भली-भाँति जानता था कि धार्मिक द्वेष का कारण अज्ञान हैं। और उसे हटाने तथा अधीन जातियों पर ठीक प्रकार से शासन करने का सर्वोत्तम उपाय यही है कि उनके
इतिहास, साहित्य और रीति-व्यवहार की अधिक जानकारी प्राप्त की जाय। इसी विचार से बगदाद के खलीफों की तरह उसने भी एक
भाषान्तर-विभाग स्थापित कर बीसियों संस्कृत ग्रन्थो का उलथा करा डाला। दाढ़ी मूंडाने, गोमांस और लहसुन प्याज न खाने, और ग़मी के मौकी पर भद्र कराने का उद्देश्य भी यही था कि शासक और शासित के विचारों का भेद मिट जाय। अक़बर भली भाँति जानता था कि वह मुसलमान तो है ही, इसलिए मेल और एकता स्थापित करने के लिए उसको आवश्यकता है तो हिन्दुओं की रीति-भाँति ग्रहण करने की है।
जातियों और धर्मों का बिलगाव-विरोध दूर करने के बाद अकबर
ने उन सुधारों की ओर ध्यान दिया जो मानव-समाज की उन्नति के
लिए आवश्यक हैं। समाज-संघटन का आधार विवाह-यवस्था है और
इस सम्बन्ध में आये दिन झगड़े पैदा होते रहते है जो कुल-कुटुम्ब का
नाश कर देते या स्वयं पति-पत्नी के जीवन को मिट्टी में मिला देते हैं।
और आरम्भ में ही पूरी सावधानी न बरती जाये तो इनका असर•
वर्तमान पीढ़ी से लगाकर आनेवाली पीढ़ी तक पहुँचता है। अकबर
नै बड़ी दूरदर्शिता से काम लेकर निश्चय किया कि निकट संबन्धियो
में ब्याह न हुआ करे। इसी प्रकार किसी का ब्याह बालिरा होने के
पहले या स्त्री उम्र में पुरुष से १२ साल से अधिक बड़ी हो तो भी न
हुआ करे। बहुविवाह भी अनुचित बताया गया और इन बातों की
निगरानी के लिए यह नियम बना दिया गया कि सब ब्याह सरकारी
दफ्तर में लिखे जाया करें। हिन्दुओं की ऊँची जातियों में विधाओं
के पुनर्विवाह की प्रथा न होने से समाज-व्यवस्था में जो खराबियाँ
पड़ती हैं वे किसी से छिपी नहीं हैं। और यद्यपी ऐसे मामलों में
क़ानूनी हस्तक्षेप उचित नहीं है। पर अकबर ने इस विषय में भी बड़ी
दूरदर्शिता से काम लिया और यह अति हितकर नियम बना दिया
कि अगर कोई विधवा पुनर्विवाह करना चाहे तो उसको रोकना अपराध होगा। इनमें से अधिकतर वह महत्वपूर्ण सुधार हैं, जिनके
लिए आजकल के समाज-सुधारक जोर दे रहे हैं, पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कोई नहीं सुनता। सती की क्रूर-कुत्सित प्रथा के अन्त का श्रेय भी अकबर को ही प्राप्त है। और अपने विधानों में उसको ऐसा प्रेम था कि जब राजा जयमल बंगाल की चढ़ाई में
रास्ते में चाँसा पहुँचकर गत हो गया और उसके संबन्धियों ने उसकी
रानी को सती होने पर विवश किया तो अकबर खुद लंबी मंजिलें 'मारकर वहाँ जा पहुँचा और उनको इस कुत्सित कार्य से बाज रखा।
विद्या आत्मा का आहार और जाति की उन्नति का आधार है।
इसलिए अक़बर ने इस ओर भी पूरा ध्यान दिया और उपयुक्त पाठ्यक्रम निद्धरित करके शिक्षा-प्रणाली में भी ऐसे हितकर सुधार किये
कि बक़ौल अबुलफजल के जो बात बरसों में हो पाती थी, वह महीनों
में होने लगी। शराब, ताड़ी आदि पर कर लगाकर जनसाधारण के
अनाचार को उसने अपना खजाना भरने का साधन नहीं बनाया,
पर इसके साथ-साथ लोगों के वैयक्ति के जीवन में हस्तक्षेप न करने
की नीति के अनुसार यह भी ताकीद कर दी कि अगर कोई छिपा-छिपाकर नशीली चीजों का इस्तेमाल करे तो उससे रोक-टोक न की
जाय। वर्तमान काल में हमारे राजनीतिक सुधारक आबकारी कर
और मादक द्रव्यों पर जैसी आपत्तियाँ किया करते हैं, उसकी व्याख्या
करने की आवश्यकता नहीं, और न यह बताने की ही कि अकबर
के प्रबन्ध पर वह कहाँ तक चरितार्थ हो सकती है। धान्य और पशुओं की वृद्धि तथा कला-कौशल की उन्नति के लिए उसने यह उपाय किया कि एक एक वस्तु की उन्नति के लिए एक-एक अधिकारी को जिम्मेदार बना दिया। और इस बात की निगरानी के लिए कि उन्होंने अपने उस विशेष कर्तब्य के पालन पर कहाँ तक ध्यान दिया, नौरोज के उत्सव के बाद खास शाही महल में एक बड़ा बाजार लगता था, जिसमें खुद बादशाह, प्रमुख अधिकारी और दरबारी तथा राज्ञकुल की महिलाएं खरीद-बिक्री करती थीं। हर आदमी अपना कमाल दिखाने की कोशिश करता था। इस बाजार को वर्तमान काल
की प्रदर्शनियों का मूल मान सकते हैं। और प्रकार से भी उसे व्यापार व्यवसाय की उन्नति का अत्यधिक ध्यान रहता था, जिसका एक बहुत छोटा-सी प्रमाण दलालों की नियुक्ति है। गरीबों की मदद के लिए राजधानी के बाहर दो विशाल भवन ‘खैरपुरा' और 'धर्मपुरा के नाम से बनवाये गये, जिनमें से एक मुसलमानों के लिए था, दूसरा
हिन्दुओं के लिए है इनमें हर समय हर आदमी को तैयार खाना मिलता
था। इन मकानों में जब जोगी बहुत ज्यादा जमा होने लगे जिससे
दूसरों को तकलीफ़ होने लगी, तो उनके लिए एक अलग मकान जोगी
पुरा' के नाम से बनवाया गया।
राज्य-प्रबन्ध की उत्तमता इन्हीं दो-चार बातों पर अवलंबित होती
है---वैयक्तिक स्वाधीनता, शान्ति और व्यवस्था, करों का नरम होना
और बँधी दर से लिया जाना, रास्तों का अच्छी हालत में रहना आदि।
और इस दृष्टि से अकबर के राज्य-काल पर विचार किया जाये तो
वह किसी से पीछे न दिखाई दे। वैयक्तिक स्वाधीनता की तो यह
स्थिति थी कि हर आदमी को अख्तियार था कि जो धर्मं चाहे स्वीकार करे। इस विषय में यहाँ तक व्यवस्था थी कि कोई हिन्दू बालक बचपन में मुसलमान हो जाय, बालिरा होने पर अपने पैतृक धर्म को पुनः गृहण कर सकता था। और कोई हिन्दू स्त्री किसी मुसलमान के
घर में पाई जाय, तो अपने वारिसों के पास पहुँचाई जाय। आज के समय में पदरी लोग व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की आड़ में विभिन्न जातियों को
अनाथ बच्चों के साथ जो बर्ताव किया करते हैं या कहीं जनाना
मिशनों के जरिये अपढ़ स्त्रियों के मन में अपने पैतृक धर्म के प्रति विरक्ति उत्पन्न करके जिस तरह घर बिगाड़ने का कारण हुआ करते
हैं, उसके वर्णन की आवश्यकता नहीं। शान्ति-रक्षा के लिए भी
अकबर ने बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण आदेश निकाले थे, जैसे कि जरायम पेशा लोगों और अन्य जातिवालों की निगरानी के लिए हर महल्ला
मैं एक-एक आदमी को, जो ‘मीर महल्ला' कहलाता था, जिम्मेदार
बना देते, और कोतवाल व चौकीदारों के कर्तव्यों की जिम्मेदारियों की
सूची से प्रकट होता है, लोगों को फ़रियाद सुनने और उनके आपस
के झगड़े निबटाने के लिए क़ाजी और मीर अदल नियुक्त थे, जिनमें
क़ाजी का काम जाँच करना और मीर अदल का निर्णय सुनाना था। सत्र की निगरानी के लिए एक उच्च अधिकारी सदरजहाँ नाम से नियुक्त था। कर्तव्यों के इस विभाग से प्रकट होता है कि न्याय-दान का काम कैसी सावधानी से होता होगा। और खूबी यह है कि अदने से अदना
आदमी बिना किसी खर्च के इस व्यवस्था से लाभ उठा सकता था।
क्योंकि उस जमाने में न कोई स्टाम्प क़ानून था, और न वकील-
मण्डली। कर-व्यवस्था की ओर आरंभ से ही अकबर का जो ध्यान
था, उसकी चर्चा पहले आनुषांशिक रूप से हो चुकी है। उसने बड़ी
ही दृढ़ता और बुद्धिमत्ता के साथ उन सब करों को एकबारगी उठा
दिया जो राष्ट्र की उन्नति में बाधक थे या लोगों का दिल दुखाते थे।
और जो कर बहाल रखे उनके संबन्ध में भी सीधे और साफ़ कायदे
बना दिये। मालगुजारी के बन्दोबस्त के मुख्य सिद्धान्त यह हैं कि
जोती-बोयी जानेवाली भूमि की रक़व़ा निश्चित हो। लगान कुछ साल
की औसत पैदावार के विचार से ज़मीन के उत्तम-मध्यम होने का
ध्यान रखकर ऐसी मध्यम दर से नियत किया जाय जिसमें अच्छी
बुरी दोनों तरह की फसलों के लिए ठीक पड़े, और किसान को अपनी
जोत की जमीन के अतिरिक्त परती जमीन को भी लेने की प्रवृत्ति हो,
यह सिद्धान्ततः तो सरकार के लाभ की दृष्टि से आवश्यक है, पर
किसान (यल्मी अधिकार) का लाभ इसमें हैं कि ज़मीन पर उसको
क़ब्ज़ा रखने का हक़ हासिल हो, जिसमें वह मन लगाकर उसको
जोते-बोये और उसकी उर्वरता बढ़ाने की भी यत्न करे, लगान की दर
निश्चित और ज्ञात हो जिसमें अहलकारों को उसे जयादा सताने को
मौकों ने मिले, और इतनी नरम हो कि हर साल उसे कुछ बचत होती
रहे, जिसमें फसले मारी जाने पर आसानी से गुजर कर सके। यही
वह सिद्धान्त थे, जिन पर टोडरमल और मुजफ्फ़र खाँ का मालगुजारी
का बन्दोबस्त आश्रित था और वही आज तक मालगुजारी के कारिंदों
के आधार हैं। जिले का माल अफसर 'आलिम गुजार' कहलाता था, जिसे अच्छी-बुरी फसल का ध्यान रखते हुए मालगुजारी वसूल करने के संबन्ध में विस्तृत अधिकार प्राप्त थे, और सूबे का गवर्नर सेनापति होता था।
गणना-शास्त्र (Stats tics) की इस जमाने में इतनी उन्नति हुई कि भारत सरकार ने उसका एक स्वतन्त्र विभाग ही बना दिया है। और सब सरकारी दफ्तरों का बड़ा समय नक़शे तैयार करने में जाता है। और जो नतीजे उनसे निकलते हैं, उनसे निरीक्षण तथा प्रबन्ध में बड़ी सहायता मिलती है। पर इसकी नींव भी हिन्दुस्तान में अकबर ही ने डाली थी, और मुफस्सिल के अफसरान जो दैनिक, साप्ताहिक और मासिक रिपोर्ट भेजा करते थे, उनसे केन्द्रीय अधिकारियों को निगरानी का अच्छा मौका मिलता था।
अत्ब गमनागमन की सुविधा की दृष्टि से अकबर के प्रबन्ध को
देखा जाय तो दिखाई देगा कि यात्रा-कर तो उसने एक दम उठा दिया था, और सुप्रबन्ध के कारण हर आदमी निर्भय एक से दूसरी जगह आ जा सकता था। इसके सिवा आरंभिक राज्य-काल मैं मुईनुद्दीन चिश्ती के प्रति अपनी सविशेष श्रद्धा के कारण आगरे से अजमेर शरीफ तक एक पक्की सड़क बनवा दी थी जिस पर कोस-कोस भर पर छोटे छोटे मीनार और कुएँ और हर मंजिल पर सराय थी जिनमें मुसाफिरों को पका खाना मिलता था। सन् जुल्स के ४२वें साल में लोककल्याण की दृष्टि से इस हुक्म को आय कर दिया, पर जान पड़ता है कि अकबर को इस योजना को पूरी कराने का मौक़ा नहीं मिला।
सन् ५१ में अकाल पड़ा और अकबरनामे को देखने से मालूम होता
है कि अकबर ने गरीब मुहताजों की सहायता का विशेष प्रबन्ध
किया था, और इस काम के लिए विशेष कर्मचारी भी नियुक्त किये
थे। इससे प्रकट है कि उस अभिनन्दनीय व्यवस्था का प्रवर्तक भी
अकबर ही था जिसकी बिृटिश सरकार के शासन में, अनेक अकाल
कमीशनों की बदौलत बहुत कुछ उन्नति हुई है। हमने केवल उन बड़े
बड़े विभागों का संक्षिप्त परिचय दिया है जिनका प्रभाव जन-साधारण के सुख-दुःख पर पड़ता। इनके सिवा और भी जितने महकमे थे, जैसे टकसाल, खजाना, ऊँटखाना; हाथीखाना आदि, उनके नियम भी बड़ी सूक्ष्मदर्शिता के साथ बनाये गये थे। सारांश, राज्य की कोई भी विभाग ऐसा न था, जिसको अकबर की बुद्धिमानी से लाभ न पहुँचा हो।
अब राज्य-प्रबंध से आगे बढ़कर अकबर के निजी जीवन पर
दृष्टि डाली जाय तो वह बड़ा ही प्यार करने योग्य व्यक्ति था।
विनोदशीलता इतनी थी कि कैसा ही ‘शुष्कं काष्ठ' व्यक्ति उसकी
गोष्ठी में संभलते हो, मजाल नहीं हास्य रस में शराबोर न हो जाय।
सौजन्य और दया का तो पुतला था। जिस आदमी की उस तक पहुँच हो जाती, उम्र भर के लिए अर्थ-चिन्ता से मुक्त हो जाता। और जिस शत्रु ने उसके सामने सिर झुका दिया, उसके लिए उसकी क्षमा और अनुग्रह का स्रोत उमड़ अठा और उसको अपने खास दरबारियों में दाखिल किया। भोजन एक ही समय करती और विषय वासना के भी वश में न था। यद्यपि पढ़ा-लिखा न था, पर अपना समय प्रायः शास्त्र-चर्चा तथा सब प्रकार के ग्रंथो को पढ़वाकर सुनने में
लगाया करता था। और विद्वानों का चाहे वे किसी भी धर्म या जाति के
हों, बड़ा आदर करता था। उसमे आदमियो की पहचान जबर्दस्त थी
और चुनाव की यह खूबी थी कि जो आदमी जिस कार्य के लिए
विशेष योग्य होता था, वही उसके सिपुर्द किया जाता था। यही कारण
था कि उसकी योजनाएँ कभी विफल न होती थीं। इसी योग्यता की
बदौलत वह अमूल्य रत्न उसकी दरबार की शोभा बढ़ा रहे थे जो
विक्रमादित्य के नवरत्न को भी मात करते थे। शिकार का बेहद शौक़
था, और हाथियों को तो आशिक़ ही था। संगती-शास्त्र के तत्वों से
भी अपरिचित न था। इमारतें बनवाने की ओर भी बहुत ध्यान था और बहुत से शानदार क़िले और भव्य प्रसाद आज तक उसकी सुरुचि और राजोचित उत्कांक्षा के साक्षी स्वरूप विद्यमान हैं। ईश्वर
ने उसे गुण-राशि के साथ-साथ रूप निधि भी प्रदान की थी। जहाँगीर ने “तुज्के जहाँगीर में बेटे की मुहब्बत और चित्रकार की क़लम से उसकी तस्वीर खींची है, जिसका उलथा पाठकों के मनोरंजन के लिए
नीचे दिया जाता है-
"बुलंदबाला, मँझोला क़द, गेहुआँ रंग, आँखों की पुतलियाँ और भवें स्याह, रंगत गोरी थी, पर उस मैं फीकापन न था, नमकीनी अधिक थी। सिंह की ऐसी छाती चौड़ी और उभरी हुई, हाथ और बाँहें लंबी, बायें नथने पर चने के बराबर एक मस्सा जिसको सामुद्रिक के पंडित बहुत शुभ मानते थे। आवाज ऊँची और बोली मैं एक खास लोच तथा सहज माधुर्य था। सजधज मैं साधारण लोगों की उनसे कोई समानता न थी, उनके चेहरे पर सहज तेज विद्यमान था।”
आखिरी उम्र में कपूत बेटों ने इस देश-भक्त बादशाह को बहुत-से दगा़ दिये और इसी दुःख मैं वह २० जमादो-उल-आखिर (:: सितम्बर सन् १६०५ ई०) को इस नाशवान् जगत्, को छोड़कर परलोक सिधारा और सिकन्दर के शानदार मक़बरे में अपने उज्ज्वल कीर्ति- कलाप का अमर स्मारक छोड़कर, दफन हुआ।
अकबर में यद्यपि चंद्रगुप्त की वीरता और महत्वाकांक्षा, अशोक
की साधुता और नियम-निष्ठा और विक्रमादित्य की महत्ता तथा गुण-
ज्ञता एकत्र हो गई थी, फिर भी जिस महत्कार्य की नींव उसने डाली
थी, वह किसी एक आदमी के बस का न था, और चूँकि उसके
उत्तराधिकारियों में कोई उसके जैसे विचार रखनेवाला पैदा न हुआ,
इसलिए वह पूरी तरह सफल न हो सका। फिर भी उसके सच्ची
लगन से प्रेरित प्रयास निष्फल नहीं हुए और यह उन्हीं का सुफल
था कि सामयिक अधिकारियों की इस ओर उपेक्षा होते हुए भी हिन्दू
मुसलमान कई शताब्दुियों तक बहुत ही मेल-मिलाप के साथ रहे।
और आज के समय में भी जब बिगाड़-विरोध के सामान सब ओर
से जमा होकर और भयावनी बाढ़ का रूप धारण कर राष्ट्रीय नौका
को डुबाने के लिए भायँ-भायँ करते बढ़ रहे हैं, यदि कोई आशा है तो
उसी के मंगल नाम से, जो हमारे बेड़े को पार लगाने में महामंत्र
का काम करेगा। अतः हे हिन्दु-मुसलमान भाइयो! मोहनिद्रा को
त्यागकर उठो और सिकन्दरे की राह लो, जिसमें उनकी पवित्र
समाधि पर मुसलमान अगर दो फूल चढ़ायें तो हिन्दू भाइयो, तुम भी
थोड़ा पानी डालकर उसकी आत्मा को प्रसन्न कर दिया करो। कोई
आश्चर्य नहीं कि उसके आशीर्वाद से हमारे बेबुनियाद झगड़े और मतभेद
मिटाकर फिर मेल और एकता की सूरत पैदा हो जाय। खेद और लज्जा
की बात है कि ब्रिटिश सरकार परदेशी होते हुए भी अपने को उसका स्थानापन्न और उसके अनुकरण में गौरव माने और तुम अपने देशभक्त राष्ट्रीय सम्राट् की बहुमूल्य विरासत की ओर आँख उठाकर भी न देखो।
- ↑ * दुःख-निशा के अवसान पर सुख-सूर्य का उदय होता है।