हिन्द स्वराज
लेखक:मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी

अहमदाबाद - १४: हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ ७३ से – ८९ तक

 

सच्ची सभ्यता कौनसी?

पाठक : आपने रेलको रद कर दिया, वकीलोंकी निन्दा की, डॉक्टरोंको दबा दिया। तमाम कलकाम[]को भी आप नुकसानदेह मानेंगे, ऐसा मैं देख सकता हूँ। तब सभ्यता[] कहें तो किसे कहें?

संपादक : इस सवालका जवाब मुश्किल नहीं है। मैं मानता हूँ कि जो सभ्यता हिन्दुस्तानने दिखायी है, उसको दुनियामें कोई नहीं पहुँच सकता। जो बीज हमारे पुरखोंने बोये हैं, उनकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज देखनेमें नहीं आयी। रोम मिट्टीमें मिल गया, ग्रीसका सिर्फ़ नाम ही रह गया, मिस्रकी बादशाही चली गई, जापान पश्चिमके शिकंजेमें फँस गया और चीनका कुछ भी कहा नहीं जा सकता। लेकिन गिरा-टूटा जैसा भी हो, हिन्दुस्तान आज भी अपनी बुनियादमें मजबूत है।

जो रोम और ग्रीस गिर चुके हैं, उनकी किताबोंसे यूरोपके लोग सीखते हैं। उनकी गलतियां वे नहीं करेंगे ऐसा गुमान[] रखते हैं। ऐसी उनकी कंगाल हालत है, जब कि हिन्दुस्तान अचल है, अडिग है। यही उसका भूषण है। हिन्दुस्तान पर आरोप लगाया जाता है कि वह ऐसा जंगली, ऐसा अज्ञान है कि उससे जीवनमें कुछ फेरबदल कराये ही नहीं जा सकते। यह आरोप हमारा गुण[] है, दोष[] नहीं। अनुभव[]से जो हमें ठीक लगा है, उसे हम क्यों बदलेंगे? बहुतसे अक़ल देनेवाले आतेजाते रहते हैं, पर हिन्दुस्तान अडिग रहता है। यह उसकी खूबी है, यह उसका लंगर है।

सभ्यता वह आचरण[] है जिससे आदमीं अपना फ़र्ज अदा करता है। फ़र्ज अदा करनेके मानी है नीतिका पालन करना। नीतिके पालनका मतलब है अपने मन और इन्द्रियोंको बसमें रखना। ऐसा करते हुए हम अपनेको
(अपनी असलियतको) पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उलटा है वह बिगाड़ करनेवाला है।

बहुतसे अंग्रेज लेखक लिख गये हैं कि ऊपरकी व्याख्या[] के मुताबिक हिन्दुस्तानको कुछ भी सीखना बाकी नहीं रहता।

यह बात ठीक है। हमने देखा कि मनुष्यकी वृत्तियाँ[] चंचल हैं। उसका मन बेकारकी दौड़धूप किया करता है। उसका शरीर जैसे-जैसे ज्यादा दिया जाय वैसे-वैसे ज्यादा माँगता है। ज्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता। भोग भोगनेसे भोगकी इच्छा बढ़ती जाती है। इसलिए हमारे पुरखोंने भोगकी हद बाँध दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुख-दुःख तो मनके कारण हैं। अमीर अपनी अमीरीकी वजहसे सुखी नहीं है, गरीब अपनी गरीबीके कारण दुखी नहीं है। अमीर दुखी देखनेमें आता है और गरीब सुखी देखनेमें आता है। करोड़ों लोग तो गरीब ही रहेंगे। ऐसा देखकर उन्होंने भोगकी वासना[१०] छुड़वाई। हजारों साल पहले जो हल काममें लिया जाता था, उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोंपड़े थे, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा[११] थी वही चलती आई। हमने नाशकारक होड़को समाजमें जगह नहीं दी; सब अपना अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूरके मुताबिक दाम लिए। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैराकी खोज करना ही नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजोंने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैराकी झंझटमें पड़ेंगे, तो गुलाम बनेंगे और अपनी नीतिको छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझकर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरोंसे जो काम हो सके वही करना चाहिये। हाथ-पैरोंका इस्तेमाल करनेमें ही सच्चा सुख है, उसीमें तन्दुरुस्ती है।

उन्होंने सोचा कि बड़े शहर खड़े करना बेकारकी झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूर्तों[१२]की टोलियां और वेश्याओंकी[१३] गलियां पैदा होंगी; गरीब अमीरोंसे लूटे जायेंगे। इसलिए उन्होंने छोटे देहातोंसे संतोष माना।
उन्होंने देखा कि राजाओं और उनकी तलवारके बनिस्बत नीतिका बल ज्यादा बलवान है। इसलिए उन्होंनें राजाओंको नीतिवान पुरूषों-ऋषियों और फ़कीरों-से कम दर्जेका माना।

ऐसी जिस राष्ट्रकी गठन है वह राष्ट्र दूसरोंको सिखाने लायक है; वह दूसरा से सीखने लायक नहीं है।

इस राष्ट्रमें अदालतें थीं, वकील थे, डॉक्टर-वैद्य थे। लेकिन वे सब ठीक ढंगसे नियमके मुताबिक चलते थे। सब जानते थे कि ये धन्धे बड़े नहीं हैं। और वकील, डॉक्टर वगैरा लोगोंमें लूट नहीं चलाते थे; वे तो लोगोंके आश्रित[१४] थे। वे लोगोंके मालिक बनकर नहीं रहते थे। इन्साफ़ काफी अच्छा होता था। अदालतोंमें न जाना, यह लोगोंका ध्येय[१५] था। उन्हें भरमानेवाले स्वार्थी लोग नहीं थे। इतनी सड़न भी सिर्फ़ राजा और राजधानीके आसपास ही थी। यों (आम) प्रजा तो उससे स्वतंत्र रहकर अपने खेतका मालिकी हक भोगती थी। उसके पास सच्चा स्वराज्य था।

और जहाँ यह चांडाल[१६] सभ्यता नहीं पहुँची है, वहाँ हिन्दुस्तान आज भी वैसा ही है। उसके सामने आप अपने नये ढोंगोंकी बात करेंगे, तो वह आपकी हँसी उड़ायेगा। उस पर न तो अंग्रेज राज करते हैं, न आप कर सकेंगे।

जिन लोगोंके नाम पर हम बात करते हैं, उन्हें हम पहचानते नहीं हैं, न वे हमें पहचानते हैं। आपको और दूसरोंको, जिनमें देशप्रेम है, मेरी सलाह है कि आप देशमें-जहां रेलकी बाढ़ नहीं फैली है उस भागमें-छह माहके लिए घूम आयें और बादमें देशकी लगन लगायें, बादमें स्वराज्यकी बात करें।

अब आपने देखा कि सच्ची सभ्यता मैं किस चीजको कहता हूँ। ऊपर मैंने जो तसवीर खींची है वैसा हिन्दुस्तान जहाँ हो वहाँ जो आदमी फेरफार करेगा उसे आप दुश्मन समझिये। वह मनुष्य पापी है।

पाठक : आपने जैसा बताया वैसा ही हिन्दुस्तान होता तब तो ठीक था। लेकिन जिस देशमें हजारों बाल-विधवायें हैं, जिस देशमें दो बरसकी बच्चीकी
शादी हो जाती है, जिस देशमें बारह सालकी उम्रके लड़के-लड़कियां घर-संसार चलाते हैं, जिस देशमें स्री एकसे ज्यादा पति करती है, जिस देशमें नियोग[१७] की प्रथा है, जिस देशमें धर्मके नाम पर कुमारिकाएं बेसवाएं[१८] बनती हैं, जिस देशमें धर्मके नाम पर पाड़ों और बकरोंको हत्या[१९] होती है, वह देश भी हिन्दुस्तान ही है। ऐसा होने पर भी आपने जो बताया वह क्या सभ्यताका लक्षण[२०] है?

संपादक : आप भूलते हैं। आपने जो दोष बताये वे तो सचमुच दोष ही हैं। उन्हें कोई सभ्यता नहीं कहता। वे दोष सभ्यताके बावजूद कायम रहे हैं। उन्हें दूर करनेके प्रयत्न हमेशा हुए हैं, और होते ही रहेंगे । हममें जो नया जोश पैदा हुआ है, उसका उपयोग हम इन दोषोंको दूर करनेमें कर सकते हैं।

मैंने आपको आजकी सभ्यताको जो निशानी बताई, उसे इस सभ्यताके हिमायती खुद बताते हैं। मैंने हिन्दुस्तानकी सभ्यताका जो वर्णन[२१] किया, वह वर्णन नई सभ्यताके हिमायतियोंने किया है।

किसी भी देशमें किसी भी सभ्यताके मातहत सभी लोग संपूर्णता तक नहीं पहुँच पाये हैं। हिन्दुस्तानकी सभ्यताका झुकाव नीतिको मजबूत करनेकी ओर है; पश्चिमकी सभ्यताका झुकाव अनीतिको मजबूत करनेकी ओर है। इसलिए मैंने उसे हानिकारक कहा है। पश्चिमकी सभ्यता निरीश्वरवादी[२२] है, हिन्दुस्तानकी सभ्यता ईश्वरमें माननेवाली है।

यों समझकर, ऐसी श्रद्धा रखकर, हिन्दुस्तानके हितचिंतकोंको चाहिये कि वे हिन्दुस्तानकी सभ्यतासे, बच्चा जैसे माँसे चिपटा रहता है वैसे, चिपट रहें।

हिन्दुस्तान कैसे आज़ाद हो?

पाठक : सभ्यताके बारेमें आपके विचार मैं समझ गया। आपने जो कहा उस पर मुझे ध्यान देना होगा। तुरन्त सबकुछ मंजूर कर लिया जाय, ऐसा आप नहीं मानते होंगे; ऐसी आशा भी नहीं रखते होंगे। आपके ऐसे विचारोंके अनुसार आप हिन्दुस्तानके आज़ाद होनेका क्या उपाय बतायेंगे?

संपादक : मेरे विचार सब लोग तुरन्त मान लें, ऐसी आशा मैं नहीं रखता। मेरा फ़र्ज इतना ही है कि आपके जैसे जो लोग मेरे विचार जानना चाहते हैं, उनके सामने अपने विचार रख दूँ। वे विचार उन्हें पसंद आयेंगे या नहीं आयेंगे, यह तो समय बीतने पर ही मालूम होगा।

हिन्दुस्तानकी आज़ादीके उपायोंका हम विचार कर चुके। फिर भी हमने दूसरे रूपमें उन पर विचार किया। अब हम उन पर उनके स्वरूपमें विचार करें।

जिस कारणसे रोगी बीमार हुआ हो वह कारण अगर दूर कर दिया जाय, तो रोगी अच्छा हो जायगा यह जगमशहूर बात है। इसी तरह जिस कारणसे हिन्दुस्तान गुलाम बना वह कारण अगर दूर कर दिया जाय, तो वह बँधनसे मुक्त[२३] हो जायगा।

पाठक : आपकी मान्यताके मुताबिक हिन्दुस्तानकी सभ्यता अगर सबसे अच्छी है, तो फिर वह गुलाम क्यों बना?

संपादक : सभ्यता तो मैंने कही वैसी ही हैं, लेकिन देखनेमें आया है कि हर सभ्यता पर आफतें आती हैं। जो सभ्यता अचल है वह आखिरकार आफतोंको दूर कर देती है। हिन्दुस्तानके बालकोंमें कोई न कोई कमी थी, इसीलिए वह सभ्यता आफतोंसे घिर गई। लेकिन इस घेरेमें से छूटनेकी ताक़त उसमें है, यह उसके गौरव[२४]को दिखाता है। और फिर सारा हिन्दुस्तान उसमें (गुलामीमें) घिरा हुआ नहीं है। जिन्होंने पश्चिमकी शिक्षा पाई है और जो उसके पाशमें[२५] फँस गये हैं, वे ही गुलामीमें घिरे हुए हैं। हम जगत को अपनी दमड़ीके नापसे नापते हैं। अगर हम गुलाम हैं, तो जगतको भी गुलाम मान लेते हैं। हम कंगाल दशामें हैं, इसलिए मान लेते हैं कि सारा हिन्दुस्तान ऐसी दशामें है। दरअसल ऐसा कुछ नहीं है। फिर भी हमारी गुलामी सारे देशकी गुलामी है, ऐसा मानना ठीक है। लेकिन ऊपरकी बात हम ध्यानमें रखें तो समझ सकेंगे कि हमारी अपनी गुलामी मिट जाय, तो हिन्दुस्तानकी गुलामी मिट गई ऐसा मान लेना चाहिये। इसमें अब आपको स्वराज्यकी व्याख्या[२६] भी मिल जाती है। हम अपने ऊपर राज करें वही स्वराज्य है; और वह स्वराज्यहमारी हथेलीमें है।

इस स्वराज्यको आप सपने जैसा न मानें। मनसे मानकर बैठे रहनेका भी यह स्वराज्य नहीं है। यह तो ऐसा स्वराज्य है कि आपने अगर इसका स्वाद चख लिया हो, तो दूसरोंको इसका स्वाद चखानेके लिए आप ज़िन्दगी भर कोशिश करेंगे। लेकिन मुख्य[२७] बात तो हर शख्सके स्वराज्य भोगनेकी है। डूबता आदमी दूसरेको नहीं तारेगा, लेकिन तैरता आदमी दूसरेको तारेगा। हम खुद गुलाम होंगे और दूसरोंको आज़ाद करनेकी बात करेंगे, तो वह संभव नहीं है।

लेकिन इतना काफी नहीं है। हमें और भी आगे सोचना होगा।

अब इतना तो आपकी समझमें आया होगा कि अंग्रेजोंको देशसे निकालनेका मक़सद सामने रखनेकी ज़रूरत नहीं है। अगर अंग्रेज हिन्दुस्तानी बनकर रहें तो हम उनका समावेश यहाँ कर सकते हैं। अंग्रेज अगर अपनी सभ्यताके साथ रहना चाहें, तो उनके लिए हिन्दुस्तानमें जगह नहीं है। ऐसी हालत पैदा करना हमारे हाथमें है।

पाठक : अंग्रेज हिन्दुस्तानी बनें, यह नामुमकिन है।

संपादक : हमारा ऐसा कहना यह कहनेके बराबर है कि अंग्रेज मनुष्य नहीं हैं। वे हमारे जैसे बनें या न बनें, इसकी हमें परवाह नहीं है। हम अपना घर
साफ करें। फिर रहने लायक लोग ही उसमें रहेंगे; दूसरे अपने-आप चले जायेंगे। ऐसा अनुभव तो हर आदमीको हुआ होगा।

पाठक : ऐसा होनेकी बात तवारीख़में[२८] तो हमने नहीं पढ़ी।

संपादक : जो चीज तवारीख़में नहीं देखी वह कभी नहीं होगी, ऐसा मानना मनुष्यकी प्रतिष्ठामें अविश्वास करना है। जो बात हमारी अक़ल में आ सके, उसे आखिर हमें आजमाना तो चाहिये ही।

हर देशकी हालत एकसी नहीं होती। हिन्दुस्तानकी हालत विचित्र है। हिन्दुस्तानका बल असाधारण है। इसलिए दूसरी तवारीख़ोंसे हमारा कम संबंध है। मैंने आपको बताया कि दूसरी सभ्यतायें मिट्टीमें मिल गयीं, जब कि हिन्दुस्तानी सभ्यताको आँच नहीं आयी है।

पाठक : मुझे ये सब बातें ठीक नहीं लगतीं। हमें लड़कर अंग्रेजोंको निकालना ही होगा, इसमें कोई शक नहीं। जब तक वे हमारे मुल्कमें हैं, तब तक हमें चैन नहीं पड़ सकता। 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं' ऐसा देखनेमें आता है। अंग्रेज यहाँ हैं इसलिए हम कमजोर होते जा रहे हैं। हमारा तेज चला गया है और हमारे लोग घबराये-से दीखते हैं। अंग्रेज हमारे देशके लिए यम (काल) जैसे हैं। उस यमको हमें किसी भी प्रयत्नसे भगाना होगा।

संपादक : आप अपने आवेशमें[२९] मेरा सारा कहना भूल गये हैं। अंग्रेजोंको यहाँ लानेवाले हम हैं और वे हमारी बदौलत ही यहाँ रहते हैं। आप यह कैसे भूल जाते हैं कि हमने उनकी सभ्यता अपनायी है, इसलिए वे यहाँ रह सकते हैं? आप उनसे जो नफ़रत करते हैं वह नफ़रत आपको उनकी सभ्यतासे करनी चाहिये। फिर भी मान लें कि हम लड़कर उन्हें निकालना चाहते हैं। यह कैसे हो सकेगा?

पाठक : इटलीने किया वैसे। मैज़िनी और गेरीबाल्डीने जो किया, वह तो हम भी कर सकते हैं। वे महावीर थे, इस बातसे क्या आप इनकार कर सकेंगे?

इटली और हिन्दुस्तान

संपादक : आपने इटलीका उदाहरण[३०] ठीक दिया। मैज़िनी महात्मा था गैरीबाल्डी बड़ा योद्धा[३१] था। दोनों पूजनीय थे। उनसे हम बहुत सीख सकते हैं। फिर भी इटलीकी दशा और हिन्दुस्तानकी दशामें फ़रक है।

पहले तो मैज़िनी और गैरीबाल्डीके बीचका भेद जानने लायक है। मैज़िनीके अरमान अलग थे। मैज़िनी जैसा सोचता था वैसा इटलीमें नहीं हुआ। मैज़िनीने मनुष्य-जातिके कर्तव्यके बारेमें लिखते हुए यह बताया है कि हरएकको स्वराज्य भोगना सीख लेना चाहिये। यह बात उसके लिए सपने जैसी रही। गैरीबाल्डी और मैज़िनीके बीच मतभेद[३२] हो गया था, यह हमें याद रखना चाहिये। इसके सिवा, गैरीबाल्डीने हर इटालियनके हाथमें हथियार दिये और हर इटालियनने हथियार लिये।

इटली और आस्ट्रियाके बीच सभ्यताका भेद नहीं था। वे तो ‘चचेरे भाई’ माने जायेंगे। ‘जैसेको तैसा' वाली बात इटलीकी थी। इटलीको परदेशी (आस्ट्रियाके) जूएसे छुड़ानेका मोह गैरीबाल्डीको था। इसके लिए उसने कावूरके मारफ़त जो साजिशें[३३] की, वे उसकी शूरताको बट्टा लगानेवाली हैं।

और अन्तमें नतीजा क्या निकला? इटलीमें इटालियन राज करते हैं इसलिए इटलीकी प्रजा सुखी है, ऐसा आप मानते हों तो मैं आपसे कहूँगा कि आप अंधेरेमें भटकते हैं। मैज़िनीने साफ साफ बताया है कि इटली आज़ाद नहीं हुआ है। विक्टर इमेन्युअलने इटलीका एक अर्थ किया, मैज़िनीने दूसरा। इमेन्युअल, कावूर और गैरीबाल्डीके विचारसे इटलीका अर्थ था इमेन्युअल या इटलीका राजा और उसके हुजूरी। मैज़िनीके विचारसे इटलीका अर्थ था इटलीके लोग-उसके किसान। इमेन्युअल वगैरा तो उनके (प्रजाके) नौकर थे। मैज़िनीका इटली अब भी गुलाम है। दो राजाओंके बीच शतरंजकी बाज़ी लगी थी; इटलीकी प्रजा तो सिर्फ़ प्यादा थी और है। इटलीके मजदूर
अब भी दुखी हैं। इटलीके मजदूरोंकी दाद-फ़रियाद नहीं सुनी जाती, इसलिए वे लोग खून करते हैं, विरोध करते हैं, सिर फोड़ते हैं और वहां बलवा होनेका डर आज भी बना हुआ है। आस्ट्रियाके जानेसे इटलीको क्या लाभ हुआ? नामका ही लाभ हुआ। जिन सुधारोंके लिए जंग मचा वे सुधार हुए नहीं, प्रजाकी हालत सुधरी नहीं।

हिन्दुस्तानकी ऐसी दशा करनेका तो आपका इरादा नहीं ही होगा। मैं मानता हूँ कि आपका विचार हिन्दुस्तानके करोड़ों लोगोंको सुखी करनेका होगा, यह नहीं कि आप यामैं राजसत्ता ले लूँ। अगर ऐसा है तो हमें एक ही विचार करना चाहिये। वह यह कि प्रजा स्वतन्त्र[३४] कैसे हो।

आप कबूल करेंगे कि कुछ देशी रियासतोंमें प्रजा कुचली जाती है। वहाँके शासक नीचतासे लोगोंको कुचलते हैं। उनका जुल्म अंग्रेजोंके जुल्मसे भी ज्यादा है। ऐसा जुल्म अगर आप हिन्दुस्तानमें चाहते हो, तो हमारी पटरी कभी नहीं बैठेगी।

मेरा स्वदेशाभिमान[३५] मुझे यह नहीं सिखाता कि देशी राजाओंके मातहत जिस तरह प्रजा कुचली जाती है उसी तरह उसे कुचलने दिया जाय। मुझमें बल होगा तो मैं देशी राजाओंके जुल्मके खिलाफ़ और अंग्रेजी जुल्मके खिलाफ़ जूझूँगा।

स्वदेशाभिमानका अर्थ मैं देशका हित[३६] समझता हूँ। अगर देशका हित अंग्रेजोंके हाथों होता हो, तो मैं आज अंग्रेजोंको झुककर नमस्कार करूँगा। अगर कोई अंग्रेज कहे कि देशको आज़ाद करना चाहिये, जुल्मके खिलाफ़ होना चाहिये और लोगोंकी सेवा करनी चाहिये, तो उस अंग्रेजको मैं हिन्दुस्तानी मानकर उसका स्वागत करूँगा।

फिर, इटली की तरह जब हिन्दुस्तानको हथियार मिलें तभी वह लड़ सकता है; पर इस भगीरथ (बहुत बड़े) कामका तो, मालूम होता है, आपने विचार ही नहीं किया है। अंग्रेज गोला-बारूदसे पूरी तरह लैस हैं, इससे मुझे डर नहीं लगता। लेकिन ऐसा तो दीखता है कि उनके हथियारोंसे उन्हींके
ख़िलाफ लड़ना हो, तो हिन्दुस्तानको हथियारबन्द करना होगा। अगर ऐसा हो सकता हो, तो इसमें कितने साल लगेंगे? और तमाम हिन्दुस्तानियोंको हथियारबन्द करना तो हिन्दुस्तानको यूरोप-सा बनाने जैसा होगा। अगर ऐसा हुआ तो आज यूरोपके जो बेहाल है वैसे ही हिन्दुस्तानके भी होंगे। थोड़ेमें, हिन्दुस्तानको यूरोपकी सभ्यता अपनानी होगी। ऐसा ही होनेवाला हो तो अच्छी बात यह होगी कि जो अंग्रेज उस सभ्यतामें कुशल हैं, उन्हींको हम यहाँ रहने दें। उनसे थोड़ा-बहुत झगड़ कर कुछ हक हम पायेंगे, कुछ नहीं पायेंगे और अपने दिन गुजारेंगे।

लेकिन बात तो यह है कि हिन्दुस्तानकी प्रजा कभी हथियार नहीं उठायेगी। न उठाये यह ठीक ही है।

पाठक : आप तो बहुत आगे बढ़ गये। सबके हथियारबंद होनेकी ज़रूरत नहीं। हम पहले तो कुछ अंग्रेजोंका खून करके आतंक[३७] फैलायेंगे। फिर तो थोड़े लोग हथियारबंद होगे, वे खुल्लमखुल्ला लड़ेंगे। उसमें पहले तो बीस-पचीस लाख हिन्दुस्तानी ज़रूर मरेंगे। लेकिन आखिर हम देशको अंग्रेजोंसे जीत लेंगे। हम गुरीला (डाकुओं जैसी) लड़ाई लड़कर अंग्रेजोंको हरा देंगे।

संपादक : आपका ख़याल हिन्दुस्तानकी पवित्र भूमिको राक्षसी[३८] बनानेका लगता है। अंग्रेजोंका खून करके हिन्दुस्तानको छुड़ायेंगे, ऐसा विचार करते हुए आपको त्रास क्यों नहीं होता? खून तो हमें अपना करना चाहिये; क्योंकि हम नामर्द बन गये हैं, इसीलिए हम खूनका विचार करते हैं। ऐसा करके आप किसे आज़ाद करेंगे? हिन्दुस्तानकी प्रजा ऐसा कभी नहीं चाहती। हम जैसे लोग ही, जिन्होंने अधम सभ्यतारूपी भांग पी है, नशेमें ऐसा विचार करते हैं। खून करके जो लोग राज करेंगे, वे प्रजाको सुखी नहीं बना सकेंगे। धींगराने[३९] जो खून किया है उससे या जो खून हिन्दुस्तानमें हुए हैं उनसे देशको फायदा हुआ है, ऐसा अगर कोई मानता हो तो यह बड़ी भूल करता है
। धींगराको मैं देशाभिमानी मानता हूँ, लेकिन उसका देशप्रेम पागलपनसे भरा था। उसने अपने शरीरका बलिदान गलत तरीकेसे दिया। उससे अंतमें तो देशको नुकसान ही होनेवाला है।

पाठक : लेकिन आपको इतना तो कबूल करना ही होगा कि अंग्रेज इस खूनसे डर गये हैं, और लॉर्ड मॉर्लेने जो कुछ हमें दिया है वह ऐसे डरसे ही दिया है।

संपादक : अंग्रेज जैसे डरपोक प्रजा हैं वैसे बहादुर भी हैं। गोलाबारूदका असर उन पर तुरन्त होता है, ऐसा मैं मानता हूँ। संभव है, लॉर्ड मॉर्लेने हमें जो कुछ दिया वह डरसे दिया हो। लेकिन डरसे मिली हुई चीज जब तक डर बना रहता है तभी तक टिक सकती है।

१६

गोला-बारूद

पाठक : डरसे दिया हुआ जब तक डर रहे तभी तक टिक सकता है, यह तो आपने विचित्र बात कही। जो दिया सो दिया। उसमें फिर क्या हेरफेर हो सकता है?

संपादक : ऐसा नहीं है। १८५७ की घोषणा बलवेके अंतमें लोगोंमें शान्ति कायम रखनेके लिए की गई थी। जब शान्ति हो गई और लोग भोले दिलके बन गये तब उसका अर्थ बदल गया। अगर मैं सजाके डरसे चोरी न करूँ, तो सजाका डर मिट जाने पर चोरी करनेको मेरी फिरसे इच्छा होगी और मैं चोरी करूँगा। यह तो बहुत ही साधारण अनुभव[४०] है; इससे इनकार नहीं किया जा सकता। हमने मान लिया है कि डाँट-डपटकर लोगोंसे काम लिया जा सकता है और इसलिए हम ऐसा करते आये हैं।

पाठक : आपकी यह बात आपके ख़िलाफ़ जाती है, ऐसा आपको नहीं लगता? आपको स्वीकार करना होगा कि अंग्रेजोंने खुद जो कुछ हासिल किया है, वह मार-काट करके ही हासिल किया है। आप कह चुके हैं कि (मार-काटसे) उन्होंने जो कुछ हासिल किया है वह बेकार है; यह मुझे याद
है। इससे मेरी दलीलको धक्का नहीं पहुँचता। उन्होंने बेकार (चीज) पानेका सोचा और उसे पाया। मतलब यह कि उन्होंने अपनी मुराद पूरी की। साधन[४१] क्या था, इसकी चिन्ता हम क्यों करें? अगर हमारी मुराद अच्छी हो तो क्या उसे हम चाहे जिस साधनसे, मार-काट करके भी, पूरा नहीं करेंगे? चोर मेरे घरमें घुसे तब क्या मैं साधनका विचार करूंगा? मेरा धर्म[४२] तो उसे किसी भी तरह बाहर निकालनेका ही होगा।

ऐसा लगता है कि आप यह तो कबूल करते हैं कि हमें सरकारके पास अरजियाँ भेजनेसे कुछ नहीं मिला है और न आगे कभी मिलनेवाला है। तो फिर उन्हें मारकर हम क्यों न लें? ज़रूरत हो उतनी मारका डर हम हमेशा बनाये रखेंगे। बच्चा अगर आगमें पैर रखे और उसे आगसे बचानेके लिए हम उस पर रोक लगायें, तो आप भी इसे दोष नहीं मानेंगे। किसी भी तरह हमें अपना काम पूरा कर लेना है।

संपादक : आपने दलील तो अच्छी की। वह ऐसी है कि बहुतोंने उससे धोखा खाया है। मैं भी ऐसी ही दलील करता था। लेकिन अब मेरी आँखें खुल गई हैं और मैं अपनी गलती समझ सकता हूँ। आपको वह गलती बतानेकी कोशिश करूँगा।

पहले तो इस दलील पर विचार करें कि अंग्रेजोंने जो कुछ पाया वह मार-काट करके पाया, इसलिए हम भी वैसा ही करके मनचाही चीज पायें। अंग्रेजोंने मारकाट की और हम भी कर सकते हैं, यह बात तो ठीक है। लेकिन मार-काटसे जैसी चीज उन्हें मिली वैसी ही हम भी ले सकते हैं। आप कबूल करेंगे कि वैसी चीज हमें नहीं चाहिये।

आप मानते हैं कि साधन और साध्य-ज़रिया और मुराद-के बीच कोई संबंध नहीं है। यह बहुत बड़ी भूल है। इस भूलके कारण जो लोग धार्मिक[४३] कहलाते हैं, उन्होंने घोर कर्म किये हैं। यह तो धतूरेका पौधा लगाकर मोगरेके फूलकी इच्छा करने जैसा हुआ। मेरे लिए समुद्र पार करनेका साधन जहाज ही हो सकता है। अगर मैं पानीमें बैलगाड़ी डाल दूँ तो वह गाड़ी और मैं दोनों समुद्रके तले पहुँच जायेंगे। जैसे देव वैसी पूजा-यह वाक्य[४४] बहुत सोचने
लायक है। उसका गलत अर्थ करके लोग भुलावेमें पड़ गये हैं। साधन बीज है और साध्य-हासिल करनेकी चीज-पेड़ है। इसलिए जितना सम्बन्ध चीज और पेड़के बीच है, उतना ही साधन और साध्यके बीच है। शैतानको भजकर मैं ईश्वर-भजनका फल पाउँ, यह कमी हो ही नहीं सकता। इसलिए यह कहना कि हमें तो ईश्वरको ही भजना है, साधन भले शैतान हो, बिलकुल अज्ञानकी बात है। जैसी करनी वैसी भरनी।

अंग्रेजोंने मार-काट करके १८३३ में वोटके (मतके) विशेष अधिकार पाये। क्या मार-काट करके वे अपना फ़र्ज समझ सके? उनकी मुराद अधिकार पानेकी थी, इसलिए उन्होंने मार-काट मचाकर अधिकार पा लिये। सच्चे अधिकार तो फ़र्जके फल[४५] हैं; वे अधिकार उन्होंने नहीं पाये। नतीजा यह हुआ कि सबने अधिकार पानेका प्रयत्न किया, लेकिन फ़र्ज सो गया। जहाँ सभी अधिकारकी बात करें, वहाँ कौन किसको दे? वे कोई भी फ़र्ज अदा नहीं करते, ऐसा कहनेका मतलब यहाँ नहीं है। लेकिन जो अधिकार वे मांगते थे उन्हें हासिल करके उन्होंने वे फ़र्ज पूरे नहीं किये जो उन्हें करने चाहिये थे। उन्होंने योग्यता प्राप्त नहीं की, इसलिए उनके अधिकार उनकी गरदन पर जूएकी तरह सवार हो बैठे हैं। इसलिए जो कुछ उन्होंने पाया है, वह उनके साधनका ही परिणाम[४६] है। जैसी चीज उन्हें चाहिये थी वैसे साधन उन्होंने काममें लिये।

मुझे अगर आपसे आपकी घड़ी छीन लेनी हो, तो बेशक आपके साथ मुझे मार-पीट करनी होगी। लेकिन अगर मुझे आपकी घड़ी खरीदनी हो, तो आपको दाम देने होंगे। अगर मुझे बख्शिशके तौर पर आपकी घड़ी लेनी होगी, तो मुझे आपसे विनति[४७] करनी होगी। घड़ी पानेके लिए मैं जो साधन काममें लूंगा, उसके अनुसार वह चोरीका माल, मेरा माल या बख्शिशकी चीज होगी। तीन साधनोंके तीन अलग परिणाम आयेंगे। तब आप कैसे कह सकते हैं कि साधनकी कोई चिन्ता नहीं?

अब चोरको घरमें से निकालनेकी मिसाल लें। मैं आपसे इसमें सहमत नहीं हूँ कि चोरको निकालनेके लिए चाहे जो साधन काममें लिया जा सकता है। अगर मेरे घरमें मेरा पिता चोरी करने आयेगा, तो मैं एक साधन काममें लूँगा। अगर कोई मेरी पहचान का चोरी करने आएगा, तो मैं वही साधन काम में नहीं लूँगा। और कोई अनजान आदमी आयेगा, तो मैं तीसरा साधन काम में लूँगा। अगर वह गोरा हो तो एक साधन और हिन्दुस्तानी हो तो दूसरा साधन काम में लाना चाहिए, ऐसा भी शायद आप कहेंगे। अगर कोई मुर्दार लड़का चोरी करने आया होगा, तो मैं बिलकुल दूसरा ही साधन काममें लूँगा। अगर वह मेरी बराबरी का होगा, तो और ही कोई साधन मैं काम में लूँगा। और अगर वह हथियारबंद तगड़ा आदमी होगा, तो मैं चुपचाप सो रहूँगा। इसमें पिता से लेकर ताकतवर आदमी तक अलग अलग साधन इस्तेमाल किए जायेंगे। पिता होंगे तो भी मुझे लगता है कि मैं सो रहूँगा और हथियार से लैस कोई होगा तो भी मैं सो रहूँगा। पितामें भी बल है, हथियारबंद आदमी में भी बल है। दोनों बलोंके बस होकर मैं अपनी चीजको जाने दूँगा। पिताका बल मुझे दयासे रुलायेगा। हथियारबंद आदमीका बल मेरे मनमें गुस्सा पैदा करेगा; हम कट्टर दुश्मन हो जायेंगे। ऐसी मुश्किल हालत है। इन मिसालोंसे हम दोनों साधनोंके निर्णय[४८] पर तो नहीं पहुँच सकेंगे। मुझे तो सब चोरोंके बारेमें क्या करना चाहिये यह सूझता है। लेकिन उस इलाज से आप घबरा जायेंगे, इसलिए मैं आपके सामने उसे नहीं रखता। आप इसे समझ लें; और अगर नहीं समझेंगे तो हर वक्त आपको अलग साधन काममें लेने होंगे। लेकिन आपने इतना तो देखा कि चोरको निकालनेके लिए चाहे जो साधन काम नहीं देगा; और जैसा साधन आपका होगा उसके मुताबिक नतीजा आयेगा। आपका धर्म किसी भी साधन से चोरको घरसे निकालने का हरगिज नहीं है।

जरा आगे बढें। वह हथियारबंद आदमी आपका चीज ले गया है। आपने उसे याद रखा है। आपके मनमें उस पर गुस्सा भरा है। आप उस लुच्चेको अपने लिए नहीं, लेकिन लोगों के कल्याण के लिए सजा देना चाहते हैं। आपने कुछ आदमी जमा किये। उसके घर पर आपने धावा बोलने का निश्चय किया। उसे मालूम हुआ। वह भागा। उसने दूसरे लुटेरे जमा किये। वह भी
खीजा हुआ है। अब तो उसने आपका घर दिन-दहाड़े लूटनेका संदेशा आपको भेजा है। आप उसके मुकाबलेके लिए तैयार बैठे हैं। इस बीच लुटेरा आपके आसपासके लोगोंको हैरान करता है। वे आपसे शिकायत करते हैं। आप कहते हैं: “यह सब मैं आप ही के लिए तो करता हूँ। मेरा माल गया उसकी तो कोई बिसात ही नहीं" लोग कहते हैं: “पहले तो वह हमें लूटता नहीं था। आपने जबसे उसके साथ लड़ाई शुरू की है तभीसे उसने यह काम शुरू किया है।" आप दुविधा में फँस जाते हैं। गरीबोंके ऊपर आपको रहम है। उनकी बात सही है। अब क्या किया जाए? क्या लुटेरेको छोड़ दिया जाय? इससे तो आपकी इज़्ज़त चली जाएगी। इज़्ज़त सबको प्यारी होती है। आप गरीबोंसे कहते हैं: ‘‘कोई फिक्र नहीं। आइये, मेरा धन आपका ही है। मैं आपको हथियार देता हूँ। मैं आपको उनका उपयोग सिखाऊंगा। आप उस बदमाशको मारिये, छोड़िये नहीं," यों लड़ाई बढ़ी। लुटेरे बढ़े। लोगोंने खुद होकर मुसीबत मोल ली। चोरसे बदला लेनेका परिणाम यह आया कि नींद बेचकर जागरण मोल लिया। जहाँ शांति थी वहाँ अशांति पैदा हुई। पहले तो जब मौत आती तभी मरते थे। अब तो सदा ही मरने के दिन आये। लोग हिम्मत हारकर पस्तहिम्मत[४९] बने। इसमें मैंने बढ़ा-चढ़ाकर कुछ नहीं कहा है, यह आप धीरजसे सोचेंगे तो देख सकेंगे। यह एक साधन हुआ।

अब दूसरे साधन की जाँच करें। चोरको आप अज्ञान[५०] मान लेते हैं। कभी मौका मिलने पर उसे समझाने का आपने सोचा है। आप यह भी सोचते हैं कि वह भी हमारे जैसा आदमी है। उसने किस इरादेसे चोरी की, यह आपको क्या मालूम? आपके लिए अच्छा रास्ता तो यही है कि जब मौका मिले तब आप उस आदमीके भीतरसे चोरीका बीज ही निकाल दें। ऐसा आप सोच रहे हैं, इतने में वे भाई साहब फिर से चोरी करने आते हैं। आप नाराज नहीं होते। आपको उस पर दया आती है। आप सोंचते हैं कि यह आदमी रोगी है। आप खिड़की-दरवाजे खुले कर देते हैं। आप अपनी सोने की जगह बदल देते हैं। आप अपनी चीजें झट ले जाई जा सकें इस तरह रख देते हैं। चोर आता है। वह घबराता
है। यह सब उसे नया ही मालूम होता है। माल तो वह ले जाता है, लेकिन उसका मन चक्करमें पड़ जाता है। वह गाँवमें जाँच-पड़ताल करता है। आपकी दयाके बारेमें उसको मालूम होता है। वह पछताता है और आपसे माफी माँगता है। आपकी चीजें वापस ले आता है। वह चोरीका धंधा छोड़ देता है। आपका सेवक बन जाता है। आप उसे कामधंधेसे लगा देते हैं। यह दूसरा साधन है।

आप देखते हैं कि अलग अलग साधनोंके अलग अलग नतीजे आते हैं। सब चोर ऐसा ही बरताव करेंगे या सबमें आपका-सा दयाभाव होगा, ऐसा मैं इससे साबित नहीं करना चाहता। लेकिन यही दिखाना चाहता हूँ कि अच्छे नतीजे लानेके लिए अच्छे ही साधन चाहिये। और अगर सब नहीं तो ज्यादातर मामलोंमें हथियार-बलसे दयाबल ज्यादा ताकतवर साबित होता है। हथियार में हानि[५१] है, दयामें कभी नहीं।

अब अरजीकी बात लें।जिसके पीछे बल नहीं है वह अरजी निकम्मी है, इसमें कोई शक नहीं। फिर भी स्व॰ न्यायमूर्ति रानडे कहते थे कि अरजी लोगोंको तालीम देनेका एक साधन है। उससे लोगोंको अपनी स्थिति[५२]का भान कराया जा सकता है और राजकर्ताको[५३] चेतावनी दी जा सकती है। यों सोचें तो अरजी निकम्मी चीज है। बराबरीका आदमी अरजी करेगा तो वह उसकी नम्रताकी निशानी मानी जाएगी। गुलाम अरजी करेगा तो वह उसकी गुलामीकी निशानी होगी। जिस अरजीके पीछे बल है वह बराबरी के आदमी की अरजी है; और वह अपनी माँग अरजी के रूप में रखता है, यह उसकी खानदानियतको बताता है।

अरजी के पीछे दो तरह के बल होते हैं: "अगर आप नहीं देंगे तो हम आपको मारेंगे।" यह गोला-बारूद का बल है। इसका बुरा नतीजा हम देख चुके। दूसरा बल यह हैः “अगर आप नहीं देंगे तो हम आपके अरजदार नहीं रहेंगे। हम अरजदार होंगे तो आप बादशाह बने रहेंगे। हम आपके साथ कोई व्यवहार नहीं रखेंगे।" इस बलको चाहे दयाबल कहें, चाहे आत्मबल कहें या सत्याग्रह कहें। यह बल अविनाशी[५४] है और इस बल का उपयोग करनेवाला
अपनी हालत को बराबर समझता है। इसका समावेश हमारे बुजुर्गोंने ‘एक नाहीं सब रोगोंकी दवा'में किया है। यह बल जिसमें है उसका हथियार-बल कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

बच्चा अगर आगमें पैर रखे, तो उसको दबानेकी मिसालकी छानबीन करनेमें तो आप हार जायेंगे। बच्चेके साथ आप क्या करेंगे? मान लीजिए कि बच्चा ऐसा जोर करे कि आपको मारकर वह आगमें जा पड़े। तब तो आगमें पड़े बिना वह रहेगा ही नहीं। इसका उपाय आपके पास यह है: या तो आगमें पड़नेसे रोकनेके लिए आप उसके प्राण ले लें, या उसका आगमें पड़ना आपसे देखा नहीं जाता इसलिए आप स्वयं आगमें पड़कर अपनी जान दे दें। आप बच्चेके प्राण तो नहीं ही लेंगे। आप में अगर संपूर्ण दयाभाव न हो, तो मुमकिन है कि आप अपने प्राण नहीं देंगे। तो फिर लाचारीसे आप बच्चेको आगमें कूदने देंगे। इस तरह आप बच्चे पर हथियार-बलका उपयोग नहीं करते हैं। बच्चे को आप और किसी तरह रोक सकें तो रोकेंगे; और वह बल कम दर्जेका लेकिन हथियार-बल ही होगा ऐसा भी आप न समझ लें। वह बल और ही प्रकार[५५]का है। उसीको समझ लेना है।

बच्चेको रोकनेमें आप सिर्फ़ बच्चेका स्वार्थ देखते हैं। जिसके ऊपर आप अंकुश रखना चाहते हैं, उस पर उसके स्वार्थके लिए ही अंकुश रखेंगे। यह मिसाल अंग्रेजों पर जरा भी लागू नहीं होती। आप अंग्रेजों पर जो हथियार-बल का उपयोग करना चाहते हैं, उसमें आप अपना ही यानी प्रजाका स्वार्थ देखते हैं। उसमें दया जरा भी नहीं है। अगर आप यों कहें कि अंग्रेज जो अधम-नीच काम करते हैं वह आग है, वे आगमें अज्ञानके कारण जाते हैं और आप दयासे अज्ञानीको यानी बच्चेको उससे बचाना चाहते हैं, तो इस प्रयोगको आजमाने के लिए आपको जहाँ-जहाँ जो भी आदमी नीच काम करता होगा वहाँ वहाँ पहुँचना होगा और सामनेवालेके-बच्चे के-प्राण लेनेके बजाय अपने प्राणोंकी आहुति देनी पड़ेगी। इतना पुरुषार्थ[५६] आप करना चाहें तो कर सकते हैं, आप स्वतंत्र हैं। पर यह बात बिलकुल असंभव है।

  1. यंत्रकाम।
  2. तहजीब।
  3. अभिमान।
  4. सिफ़त।
  5. नुक़्स।
  6. तजरबा।
  7. बरताव।
  8. तशरीह।
  9. भावनाएं-जज्बे।
  10. ख़्वाहिश।
  11. तालीम।
  12. ठगों।
  13. बेसवाओं।
  14. पनाहगीर।
  15. मक़सद।
  16. शैतानी।
  17. एक पुराना रिवाज जिसके मुताबिक बिना संतानवाली स्त्री पतिके रोगी, नपुंसक या मृत होनेकी हालतमें अपने देवर या पतिके किसी और संबंधीसे संतान पैदा करा सकती थी।
  18. देवदासियां।
  19. कत्ल।
  20. निशानी।
  21. बयान।
  22. खुदामें नहीं माननेवाली।
  23. आज़ाद।
  24. बड़ाई।
  25. फंदेमें।
  26. तशरीह।
  27. खास या अहम्।
  28. इतिहास।
  29. जोश।
  30. मिसाल।
  31. लड़वैया।
  32. अलग राय।
  33. षड्यंत्र।
  34. आज़ाद।
  35. हुब्बेवतन।
  36. भला।
  37. दहशत, त्रास।
  38. शैतानी।
  39. पंजाबी युवक मदनलाल धींगराने जुलाई,१९०९ में लंदनमें कर्नल सर कर्जन वाइलीको गोलीका निशाना बनाया था। उसे फांसीकी सजा मिली थी।
  40. तजरबा।
  41. ज़रिया।
  42. फ़र्ज।
  43. दीनदार।
  44. फ़िकरा।
  45. नतीजे।
  46. नतीजा।
  47. आजिज़ी।
  48. फैसला।
  49. नाहिम्मत, कायर।
  50. नासमझ।
  51. नुकसान।
  52. हालत।
  53. हाकिम।
  54. लाफ़ानी।
  55. तरह।
  56. बड़ा काम।