हिन्दुस्थानी शिष्टाचार/प्राचीन आर्य शिष्टाचार
प्राचीन आर्य शिष्टाचार
( १ ) वैदिक काल में
वैदिक काल में प्रचलित शिष्टाचार का पता हमे आर्यों की प्राचीन सभ्यता से लग सकता है। हमारे पूर्वजो ने कई सहस्र वर्ष पहले अनेक विद्याओ ओर कलाओ में विशेष उन्नति कर ली थी, इसलिए यह सम्भव नहीं कि समाज मे उपयोगी होनेवाले शिष्टाचार सरीखे गुण का उनमे अभाव रहा हो । जो जाति शेष संसार की बाल्यावस्था के समय धातुओ का उपयोग जानती थी, सोने-चाँदी के गहने और युद्ध के अस्त्र शस्त्र तैयार कर सकती थी, तत्वज्ञान के गूढ़ विषयो पर सम्मति दे सकती थी और हजारो खंभों के “भवन" बना सकती थी, वह अशिष्ट कैसे रह सकती थी। वेद-कालीन साहित्य से जाना जाता है कि उस समय केवल पुरुष ही नहीं, कितु स्त्रियांँ भी शिक्षित होती थीं। वेदो के अनेक मन्त्रों की रचना स्त्रियों ने की है । यज्ञ-कार्य में पुरुषो के साथ स्त्रियाँ सम्मिलित होती थीं और ये विशेष आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। उस समय परदे की प्रणाली प्रचलित नहीं थी और कन्याएँ उपवर होने पर स्वयंवर की रीति से विवाही जाती थी।*
सभ्यता की इस अवस्था में शिष्टाचार की अवहेलना नहीं हो
सकती थी । विवाह के समय वर-कन्या एक-दूसरे को जो वचन
देते थे उनसे वेदिक-काल के शिष्टाचार का बहुत-कुछ ज्ञान हो'
*“भारत की प्राचीन सभ्यता का इतिहास"।
सकता है। वे वचन ये हैं—(वर अोर कन्या को उपदेश) “तुम दोनो यहाँ मिले हुए रहो, कभी अलग मत होनी । नाना प्रकार के भोजनो का उपभोग करो, अपने ही घर में रहो, और अपने पुत्र पौत्रों के साथ रहकर सुख भोगो।"
(वर कन्या कहते हैं ) “प्रजापति हमे सन्तान देवें और अर्यमन् हमे वृद्धावस्था पर्यन्त मिला हुआ रखें"।
(कन्या का उपदेश) “हे कान्ये, मंगल शकुनो के साथ तुम अपने पति के गृह में प्रवेश करो। हमारे दाम-दासियो ओर पशुओ को लाभ पहुँचाओ" । “तुम्हारे नेत्र क्रोध से मुक्त रहें । तुम अपने पति का सुख साधन करो और हमारे पशुओं को लाभ पहुँचाओ। तुम्हारा चित्त प्रसन्न और तुम्हारी छवि सुन्दर रहे । तुम वीर पुत्रों की माता होओ ओर देवों की भक्ति करो।”*
इन मन्त्रों से ज्ञात होता है कि आर्य लोग दास-दासियो के प्रति भी सद्-व्यवहार करते थे। क्रोध के परिहार और वित्त की प्रसन्नता पर उनकी विशेष दृष्टि रहती थी जो शिष्टाचार के पालन के लिए बहुत आवश्यक हैं । वधू के सुख-चैन का विचार करना भी उनके सदाचार का परिचय देता है।
ब्राह्मणो के लिए नियत किये गये चार आक्षमों की संस्था से भी हम सहज ही अनुमान कर सकते हैं कि आर्यों को सदाचार और शिष्टाचार का कितना अधिक ध्यान था। बड़ो का आदर करना, सत्य बालना और प्रतिज्ञा पालन हमारे पूर्वजों के मुख्य कर्तव्य थे। ब्राह्मणों को अपने जीवन में शासन के कड़े नियम पालने पडते थे और किसी भी अवस्था में उन्हें भोग-विलास में रहने की आज्ञा नहीं थी।
प्राचीन काल में अतिथि-सत्कार की जो उच्च प्रथा थी उसमें
शिष्टाचार का अधिकाश समावेश होता था। सामाजिक कार्यों के
* ऋग्०—१०, ८५, ४२—४७ ।
लिए नियम बनाना और उनका पालन करना आर्य-जाति का एक
प्रधान लक्षण था । राजा ओर प्रजा तन मन-धन से ऋषियों का
सत्कार करते थे और प्रजा राजा को ईश्वर का अंश मानती थी।
राजा लोग भी प्रजा के प्रेम की प्राप्ति के लिए सतत उद्योग करते थे।
वेदिक काल के शिष्टाचार का स्पष्ट ओर पूर्ण विवरण सरलता से उपलब्ध न होने के कारण केवल पूर्वोक्त सक्षिप्त विवेचन ही लिखा जा सका है। यदि वैसा विवरण उपलब्ध भी होता, तो भी वह यहाँ विस्तार-पूर्वक न लिखा जा सकता, क्योकि इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य केवल आधुनिक शिष्टाचार का वर्णन करना है।
( २ ) रामायण-काल में
वैदिक काल की अपेक्षा इस काल मे शिष्टाचार पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा, क्योंकि इस समय समाज का संगठन अधिक ढृढ़ हो गया था और जाति भेद की प्रथा प्रचलित हो गई थी। धर्म-संस्कार और यज्ञ-यगादि भी इस समय विशेष आडम्बर से किये जाने लगे और प्रचीन प्रकृति-प्रजा के बदले प्रकृति के देवताओं की पूजा होने लगी।
रामायण काल में सामाजिक सदाचार की ओर विशेष प्रवृत्ति होने के कारण शिष्टाचार की भी परीक्षा की जाती थी। केवल वाल्मीकि रामायण ही से तत्कालीन सभ्यता और शिष्टाचार की अनेक बातें जानी जा सकती हैं। यहांँ इस विषय की कुछ बातें हम संक्षेप में लिखते हैं।
उस समय अपने वचन का पालन करना और धर्म-संकट
उपस्थित होने पर कर्तव्य का निश्चय तथा अनुसरण करना प्राय
प्रत्येक व्यक्ति अपना ध्येय समझता था। माता पिता की आज्ञा
मानना और छोटे-बड़ो के साथ शिष्ट व्यवहार करना भी उस काल
किया जाता था और पितरो तथा अतिथियों को अन्न का भाग न दिया जाता था । रसेईि करने-वाला पवित्रता न रखता था और तैयार किया हुआ भोजन भली भांति ढांक-मूँद कर न रखा जाता
था। वे लोग खाने के पदार्थों को प्राय खा जाते थे, बच्चों तथा
नौकरो को उनका हिस्सा न देते थे। इस प्रकार का ओर भी बहुत
वर्णन पूवोक्ति ग्रंथ में पाया जाता है जिसमें सूचित होता है कि
महाभारत-काल में सभ्य व्यवहार की बारीक बातो पर भी बहुत ध्यान दिया जाता था।
रामायण-काल में जिस प्रकार रामचन्द्र आदर्श पुरुष हो गये हैं उसी प्रकार महाभारत काल में श्रीकृष्ण आदर्श-पुरुष थे। आप में दैवी और मानवी दोनो प्रकार के गुण थे। बाल-सखाओ के प्रति आप का अनुराग जैसा प्रसिद्ध है वैसा ही आप का किया हुआ भारतीय युद्ध का सगठन लोक विख्यात है।
(४) स्मृति-काल में
स्मृति-काल में जो अनुमान से विक्रम-संवत् के आरभ के आसपास माना जाता है, शिष्टाचार विषयक विवेचन अधिकता से किया हुआ पाया जाता है, क्योकि इस काल में कई धर्म शास्त्रों और स्मृतियो की रचना हुई थी। इन पुस्तकों मे विशेष-कर धार्मिक जीवन से सम्बन्ध रखने वाले नियम पाये जाते हैं, परतु यत्र-तत्र इनमें शिष्टाचार-सम्बन्धी वातें भी मिलती हैं। स्मृतियाँ कई ऋषियों ने लिखी हैं जिनमे मनु-स्मृति सब से अधिक प्रसिद्ध है। भिन्न-भिन्न स्मृतियो में शिष्टाचार-सम्बन्धी जो नियम मिलते हैं उनमे में कुछ सक्षेष्त यहाँ लिखे जाते हैं—
(१) बुराई करने पर भी गुरु के सामने न बोलें और गुरु के
धमकाने पर भी कहीं चला न जाना चाहिये।
(२) कभी किसी की बुराई न करनी चाहिये, भूठ कभी न
बोलना चाहिये और दिये हुए दान की प्रसिद्धि कभी न करनी चाहिये।
(३) लोगो को वही चीजें खिलानी चाहिये जिनको विद्वान पसंद करें और जो शीघ्र पचने वाली हो।
(४) शरीर के अंग तथा नाखून बजाना नहीं चाहिए, दांँतों से नाखून काटना बुरा है। अंगुली से पानी पीना बुरा है। पांँव या हाथ से जल का पोटना या ताडना न चाहिए।
(५) बेठने के लिए आसन, ठहरने के लिए जगह, पीने के लिए पानी और मीठी बातें, ये चार चोजें भले आदमियों के यहाँ सदा बनी रहती हैं, कभी कम नहीं होतीं।
(६) अंगहीन या अधिक अंगवाले, मुख, बूढ़े, कुरूप, निर्धन और जाति से हीन पुरुषों को कभी ताना न दे।
(७) सूने मकान म अकेला न सोवे,अपने से बड़े को सोते से न जगावे।
(५) पौराणिक काल में
पौराणिक काल अनुमानतः सन् ३०० ईसवी से सन् २००० ई०
तक माना जाता है। इस काल मे बोद्ध-धर्म का पराभव करने के
लिए हिन्दू धर्म की जागृति हुई और कई धर्म ग्रंथ लिखे गये
जिनमें १८ पुराण प्रसिद्ध हैं। पुराणों में विशेषत देवताओ की कथाएँ हैं।
पर इनमें अनेक सदाचार सम्म को नियम और उपदेश भी पाये
जाते हैं। अष्टादश पुराण। में विष्णु पुराण अधिक प्रसिद्ध है।
इसमे सदाचार और शिष्टाचार सम्बन्धी जो नियम पाये जाते हैं उनमें से कुछ ये हैं—
(१) जो लोग किसी की बुराई नहीं करते, किसी को कष्ट
नहीं देते उनपर भगवान प्रसन्न हो जाते हैं ।
(२) जब कोई दीन भिखारी गृहस्थ के द्वार पर भीख मांँगने आवे तब इसे उसका बड़े प्रेम से आदर करना चाहिये, उसको खाने के लिए भोजन और पीने के लिए पानी देना चाहिए ।
(३) जब कभी कोई सन्यासी किसी गाँव में जाय, तब वहाँ एक रात से अधिक न बसे,अोर किसी बड़े शहर में पांँच रात से अधिक न ठहरे ।
(४) जो लोग गर्भिणी स्त्री, वृद्ध पुरुष, बालक और रोगी को बिना भोजन कराये आप भोजन करते हैं वे पापी हैं ।
(५) दुष्टो का साथ कभी न करे, क्योकि बुरे आदमियों की थोडी भी सगति बुराई उत्पन्न करती है ।
(६) जहाँ तक हो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर से अपनी बुद्धि को दूर हटाना चाहिए ।
(७) जो लोग वर्णाश्रम-धर्म का पालन नहीं करते उन पर
ईश्वर प्रसन्न नहीं हो सकते ।
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