हिन्दी भाषा की उत्पत्ति/५-आधुनिक काल
जैसा लिखा जा चुका है प्रारम्भिक, किंवा पहली, प्राकृत
से सम्बन्ध रखनेवाली कई एक भाषायें या बोलियाँ थीं।
उनका धीरे धीरे विकास होता गया। भारत की वर्तमान भाषायें
उसी विकास का फल हैं। परिमार्जित संस्कृत भी इसी पहली
प्राकृत की किसी शाखा से उत्पन्न हुई है। जिस स्थिर और
निश्चित अवस्था में उसे हम देखते हैं वह वैयाकरणों की कृपा
का फल है। व्याकरण बनाने वालों ने नियमों की श्रृंखला से
उसे ऐसा जकड़ दिया कि वह जहाँ की तहाँ रह गई। उसका
विकास बन्द हो गया। संस्कृत को नियमित करने के लिए
कितने ही व्याकरण बने। उनमें से पाणिनि का व्याकरण सब
से अधिक प्रसिद्ध है। इस व्याकरण ने संस्कृत को नियमित
करने की पराकाष्ठा कर दी। उसने उसे बेतरह स्थिर कर
दिया। यह बात ईसा के कोई ३०० वर्ष पहले हुई। धार्म्मिक
ग्रन्थ सब इसी में लिखे जाने लगे। और विषयों के भी विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों की रचना इसी परिमार्जित संस्कृत में होने लगी।
परन्तु प्राकृत भाषाओं के वैयाकरणों ने संस्कृत के शब्दों और
मुहावरों की क़दर न की। प्राकृत व्याकरणों में उनके नियम न
बनाये। प्राकृत के जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनमें भी संस्कृत के
शब्द और मुहावरे नहीं पाये जाते। प्राकृतवालों ने संस्कृत का
बहिष्कार सा किया और संस्कृतवालों ने प्राकृत का। प्राकृत
और संस्कृत के व्याकरणों और ग्रन्थों में तो पण्डितों ने एक
दूसरे के शब्दों, मुहावरों और नियमों को न स्वीकार किया।
पर बोलनेवालों ने इस बात की परवा न की। उच्च प्राकृत
बोलनेवाले बातचीत में संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते थे। यह
बात अब भी होती है; अर्थात् भारत की संस्कृतोत्पन्न वर्तमान
भाषा बोलनेवाले पुस्तकों ही में नहीं, किन्तु बोल-चाल में भी
संस्कृत शब्दों का व्यवहार करते हैं। इन संस्कृत शब्दों की,
प्राकृत-काल में वही दशा हुई जो पुरानी प्राकृत से पाये हुए
शब्दों की हुई थी। वे बोलनेवालों के मुँह में विकृत हो गये।
बोलते-बोलते उनका रूप बिगड़ गया। यहाँ तक कि फिर वे
एक तरह के प्राकृत हो गये ।
जो शब्द संस्कृत से आकर प्राकृत में मिल गये हैं वे
"तत्सम" शब्द कहलाते हैं और मूल प्राकृत शब्द जो सीधे प्राकृत
से आये हैं "तद्भव" कहलाते हैं। पहले प्रकार के शब्द बिलकुल
संस्कृत हैं। दूसरे प्रकार के प्रारम्भिक प्राकृत से आये हैं, अथवा
यो कहिए कि वे प्राकृत, या प्राकृत की उस शाखा, से आये हैं
जिससे खुद संस्कृत की उत्पत्ति हुई है। इन दो तरह के शब्दों
के सिवा एक तीसरी तरह के शब्द भी प्रचलित हो गये हैं।
ये वे तत्सम शब्द हैं जो प्राकृत-भाषा-भाषियों के मुँह से बिगड़ते-
बिगड़ते कुछ और ही रूप के हो गये हैं। इनको "अर्द्ध-तत्सम" कह सकते हैं। "तत्सम" शब्दों का स्वभाव "अर्द्ध-तत्सम" होने का है। फल इसका यह हुआ है कि "अर्द्ध-तत्सम"
शब्द धीरे-धीरे इतने बिगड़ गये हैं कि उनका और "तद्भव"
शब्दों का पहचानना मुश्किल हो गया है। दोनों प्रायः एक
ही तरह के हो गये हैं। इस देश के वैयाकरणों ने कुछ शब्दों
को, "देश्य" संज्ञा भी दी है। परन्तु ये शब्द भी प्रायः
संस्कृत ही से निकले हैं; इससे इनको भी "तद्भव" शब्द ही
मानना चाहिए। कुछ द्राविड़ भाषा के भी शब्द परिमार्जित
संस्कृत में आकर मिल गये हैं। उनकी संख्या बहुत कम
है। अधिक संख्या उन्हीं शब्दों की है जो पुरानी संस्कृत से पाये
हैं। यहाँ पुरानी संस्कृत से मतलब संस्कृत की उन पुरानी
शाखाओं से है जो परिमार्जित संस्कृत की जननी नहीं हैं। पुरानी
संस्कृत की जिस शाखा से परिमार्जित संस्कृत निकली है उसे
छोड़कर और शाखाओं से ये शब्द आये हैं। इनकी भी
गिनती (तद्भव) शब्दों में है।
हिन्दी से मतलब यहाँ पर, पूर्वी और पश्चिमी दोनों तरह
की हिन्दी से है। शब्द-विभाग के सम्बन्ध में हिन्दी का भी
ठीक वही हाल है जो संस्कृत का है। अरबी, फ़ारसी, तुर्की,
अँगरेज़ी और द्राविड़ भाषाओं के शब्दों को छोड़कर शेष सारा
शब्द-समूह संस्कृत ही की तरह, तत्सम, अर्द्ध-तत्सम और
तद्भव शब्दों में बँटा हुआ है। हिन्दी में जितने तद्भव शब्द
हैं या तो वे प्रारम्भ की प्राकृतों से आये हैं, या दूसरी शाखा
की प्राकृतों से होते हुए संस्कृत से आये हैं। परन्तु ठीक-ठीक कहाँ से आये हैं, इसके विचार की इस समय ज़रूरत
नहीं। दूसरे दरजे की प्राकृत भाषाओं के ज़माने में चाहे वे
तद्भव रहे हों, चाहे तत्सम; आधुनिक भाषाओं में वे विशुद्ध
तद्भव हैं। क्योंकि आधुनिक भाषायें तीसरे दरजे की प्राकृत
हैँ, और ये सब शब्द दूसरे दरजे की प्राकृतों से आये हैँ।
परन्तु आज-कल के तत्सम और अर्द्ध-तत्सम शब्द प्रायः परिमार्जत संस्कृत से लिये गये हैं। उदाहरण के लिए "आज्ञा"
शब्द को देखिए। वह विशुद्ध संस्कृत शब्द है। पर हिन्दी
में आता है। इससे तत्सम हुआ। इसका अर्द्ध-तत्सम रूप
है "अग्याँ"। इसे बहुधा अपढ़ और अच्छी हिन्दी न जानने-वाले लोग बोलते हैं। इसी का तद्भव शब्द "आना" है । यह
संस्कृत से नहीं, किन्तु दूसरी शाखा की प्राकृत के "आणा"
शब्द का अपभ्रंश है। इसी तरह "राजा" शब्द तत्सम है, "राय"
तद्भव। प्रत्येक शब्द के तत्सम, अर्द्ध-तत्सम और तद्भव रूप
नहीं पाये जाते। किसी के तीनों रूप पाये जाते हैं। किसी
के सिर्फ दो, किसी का सिर्फ एक ही। किसी-किसी शब्द के
तत्सम और तद्भव दोनों रूप हिन्दी में मिलते हैँ। पर अर्थ उनके
जुदा-जुदा हैँ। संस्कृत "वंश" शब्द को देखिए। उसका अर्थ
"कुटुम्ब" भी है और "बाँस" भी। उसके अर्द्ध-तत्सम "वंश"
शब्द का अर्थ तो "कुटुम्ब" है; पर उससे दूसरा अर्थ नहीं
हिन्दी ही पर नहीं, किन्तु हिन्दुस्तान की प्रायः सभी वर्तमान
भाषाओं पर, आज सैकड़ों वर्ष से संस्कृत का प्रभाव पड़ रहा
है। संस्कृत के अनन्त शब्द आधुनिक भाषाओं में मिल गये
हैं। परन्तु उसका प्रभाव सिर्फ वर्तमान भाषाओं के शब्द-समूह पर ही पड़ा है, व्याकरण पर नहीं। हिन्दी-व्याकरण
पर आप चाहे जितना ध्यान दीजिए, उसका चाहे जितना
विचार कीजिए, संस्कृत का प्रभाव आपको उसमें बहुत कम
ढूँढ़े मिलेगा। संस्कृत शब्दों का प्रयोग तो हिन्दी में बढ़ता
जाता है, पर संस्कृत व्याकरण के नियमों के अनुसार हिन्दी-व्याकरण में बहुत ही कम फेर-फार होते हैं। बहुत ही
कम क्यों, यदि कोई कहे कि बिलकुल नहीं होते, तो भी
अत्युक्ति न होगी। आचार-आहार, विचार, विहार, जल,
फल, कला, विद्या आदि सब तत्सम शब्द हैं। ये तद्वत् हिन्दी
में लिख दिये जाते हैं। बहुत कम फेर-फार होता है। और
हेता भी है, तो विशेष करके बहुवचन में--जैसे, आहारों,
विचारों, कलाओं, विद्याओं आदि। यदि इनमें विभक्तियाँ
लगाई जाती हैं तो संस्कृत की तरह इनका रूपान्तर नहीं
हो जाता। हिन्दी में पुरुष और वचन के अनुसार क्रियाओं
का रूप तो बदल जाता है; पर विभक्तियाँ लगने से संज्ञाओं के
रूपों में बहुत कम अदल-बदल होता है। इसी से तत्सम
शब्दों से क्रिया का काम नहीं निकलता। यदि ऐसे शब्दों को
क्रिया का रूप देना होता है तो एक तद्भव शब्द और जोड़ना
पड़ता है। "दर्शन" शब्द तत्सम है। अब इससे यदि क्रिया
का काम लेना है। तो "करना" और जोड़ना पड़ेगा। अतएव सर्वसाधारण लक्षण यह है कि हिन्दी में जितने नाम या
संज्ञायें हैं सब या तो तत्सम हैं, या अर्द्ध-तत्सम हैं, या तद्भव
हैं; पर क्रियायें जितनी हैं सब तद्भव हैं। यह स्थूल लक्षण हैं।
इसमें कुछ अपवाद भी है, पर उनके कारण इस व्यापक लक्षण
में बाधा नहीं आ सकती।
जब से इस देश में छापेख़ाने खुले और शिक्षा की वृद्धि हुई,
तब से हिन्दी में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुत
अधिकता से होने लगा। संस्कृत के कठिन कठिन शब्दों को
हिन्दी में लिखने की चाल सी पड़ गई। किसी-किसी पुस्तक
के शब्द यदि गिने जायँ तो फ़ी सदी ५० से भी अधिक संस्कृत
के तत्सम शब्द निकलेंगे। बँगला में तो इस तरह के शब्दों की
और भी भरमार है। किसी-किसी बँगला पुस्तक मेँ फ़ी सदी ८८
शब्द विशुद्ध संस्कृत के देखे गये हैं। ये शब्द ऐसे नहीं कि
इनकी जगह अपनी भाषा के सीधे-सादे बोल-चाल के शब्द लिख
ही न जा सकते हों। नहीं, जो अर्थ इन संस्कृत शब्दों से
निकलता है उसी अर्थ के देनेवाले अपनी निज की भाषा के
शब्द आसानी से मिल सकते हैं। पर कुछ चाल ही ऐसी पड़
गई है कि बोल-चाल के शब्द लोगों को पसन्द नहीं आते। वे
यथासम्भव संस्कृत के मुश्किल-मुश्किल शब्द लिखना ही ज़रूरी
समझते हैं। फल इसका यह हुआ है कि हिन्दी दो तरह
की हो गई है। एक तो वह जो सर्वसाधारण में बोली जाती
है, दूसरी वह जो पुस्तकों, अख़बारों और सामयिक पुस्तकों में
लिखी जाती है। कुछ अख़बारों के सम्पादक इस दोष को
समझते हैं। इससे वे बहुधा बोल-चाल ही की हिन्दी लिखते
हैं। उपन्यास की कुछ पुस्तकें भी सीधी-सादी भाषा में लिखी
गई हैं। जिन अख़बारों और पुस्तकों की भाषा सरल होती है
उनका प्रचार भी औरों से अधिक होता है। इस बात को जानकर भी लोग क्लिष्ट भाषा लिख कर भाषा-भेद बढ़ाना नहीं
छोड़ते। इसका अफ़सोस है। कोई कारण नहीं कि जब तक
बोल-चाल की भाषा के शब्द मिलें, संस्कृत के कठिन तत्सम
शब्द क्यों लिखे जायँ? 'घर' शब्द क्या बुरा है जो 'गृह'
लिखा जाय? 'कलम' क्या बुरा है जो 'लेखनी' लिखा जाय?
'ऊँचा' क्या बुरा है जो 'उच्च' लिखा जाय? संस्कृत जानना
हम लोगों का ज़रूर कर्तव्य है। पर उसके मेल से अपनी
बोल-चाल की हिन्दी को दुर्बोध करना मुनासिब नहीं। पुस्तकें
लिखने का सिर्फ़ इतना ही मतलब होता है कि जो कुछ उनमें
लिखा गया है वह पढ़नेवालों की समझ में आ जाय। जितने
ही अधिक लोग उन्हें पढ़ेंगे उतना ही अधिक लिखने का मतलब
सिद्ध होगा। तब क्या ज़रूरत है कि भाषा क्लिष्ट करके
पढ़नेवालों की संख्या कम की जाय? जो संस्कृत-भाषा हज़ारों
वर्ष पहले बोली जाती थी उसे मिलाने की कोशिश करके अपनी
भाषा के स्वाभाविक विकास का रोकना बुद्धिमानी का काम
नहीं। स्वतंत्रता सबके लिए एक सी लाभदायक है।
कौन ऐसा आदमी है जिसे स्वतन्त्रता प्यारी न हो? फिर
क्यों हिन्दी से संस्कृत की पराधीनता भोग कराई जाय? क्यों
न वह स्वतन्त्र कर दी जाय? संस्कृत, फ़ारसी, अँगरेज़ी
आदि भाषाओं के जो शब्द प्रचलित हो गये हैं उनका प्रयोग
हिन्दी में होना ही चाहिए। वे सब अब हिन्दी के शब्द बन
गये हैं। उनसे घृणा करना उचित नहीं।
डाकृर ग्रियर्सन की राय है कि काशी के कुछ लोग हिन्दी
की क्लिष्टता को बहुत बढ़ा रहे हैं। वहाँ संस्कृत की चर्चा
अधिक है। इस कारण संस्कृत का प्रभाव हिन्दी पर पड़ता
है। काशी में तो किसी-किसी को उच्च भाषा लिखने का
अभिमान है। यह उनकी नादानी है। यदि हिन्दी का
कोई शब्द न मिले तो संस्कृत का शब्द लिखने में हानि नहीं;
पर जान बूझ कर भाषा को उच्च बनाना हिन्दी के पैरों में कुल्हाड़ी
मारना है। जिन भाषाओं से हिन्दी की उत्पत्ति हुई है उनमें
मन के सारे भावों के प्रकाशित करने की शक्ति थी। वह
शक्ति हिन्दी में बनी हुई है। उसका शब्द-समूह बहुत बड़ा
है। पुरानी हिन्दी में उत्तमोत्तम काव्य, अलङ्कार और वेदान्त
के ग्रन्थ भरे पड़े हैं। कोई बात ऐसी नहीं, कोई भाव ऐसा
नहीं, कोई विषय ऐसा नहीं जो विशुद्ध हिन्दी शब्दों में न
लिखा जा सकता हो। तिस पर भी बड़े अफ़सोस के साथ
कहना पड़ता है कि कुछ लोग, कुछ वर्षों से, एक बनावटी
क्लिष्ट भाषा लिखने लगे हैं। पढ़नेवालों की समझ में उनकी
भाषा आवेगी या नहीं, इसकी उन्हें परवा नहीं रहती। सिर्फ़
अपनी विद्वत्ता दिखाने की उन्हें परवा रहती है। बस! कला-
कोशल और विज्ञान आदि के पारिभाषिक शब्दों का भाव यदि
संस्कृत शब्दों में दिया जाय तो हर्ज नहीं। इस बात की शिकायत नहीं। शिकायत, साधारण तौर पर, सभी तरह की
पुस्तकों में संस्कृत शब्द भर देने की है। इन्हीं बातों के ख़याल
से गवर्नमेंट ने मदरसों की प्रारम्भिक पुस्तकों की भाषा बोलचाल की कर दी है। अतएव हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखकों को
भी चाहिए कि संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग यथासम्भव
कम किया करें।
प्राचीन आर्य्य जब भारतवर्ष में पहले पहल पधारे तब
भारतवर्ष उजाड़ न था। आबाद था। जो लोग यहाँ रहते
वे आर्य्यों की तरह सभ्य न थे। आर्य्यों ने धीरे-धीरे उनको
आगे हटाया और उनके देश पर कब्ज़ा कर लिया। प्राचीन
आर्य्यों के ये प्रतिपक्षी वर्तमान द्राविड़ और मुंडा जाति के पूर्वज
थे। उनमें और आर्य्यों में वैर-भाव रहने पर भी कुछ दिनों
बाद सब पास रहने लगे। परस्पर का भेद-भाव बहुत कुछ
कम हो गया। आपस में शादी-ब्याह तक होने लगे। परस्पर के रीति-रस्म बहुत कुछ एक हो गये। इस निकट सम्पर्क
के कारण द्राविड़ भाषा के बहुत से शब्द संस्कृतोत्पन्न आर्य्य-भाषाओं में आ गये। वे प्राकृत और अपभ्रंश से होते हुए
वर्तमान हिन्दी मेँ भी आ पहुँचे हैं। यद्यपि उनका वह पूर्वरूप
नहीं रहा, तथापि ढूँढ़ने से अब भी उनका पता चलता है।
आदिम आर्य्य एशिया के जिस प्रान्त से भारत में आये थे उस
प्रान्त में भारत की बहुत सी चीज़ें न होती थीं। इस
भारत में आकर आर्य्यों ने उन चीज़ों के नाम द्राविड़ और मुंडा
जाति के पूर्वजों से सीखे और उन्हेँ अपनी भाषा में मिला लिया।
इसके सिवा कोई-कोई बातें ऐसी भी हैं जिन्हें आर्य्य लोग कई
तरह से कह सकते थे। इस दशा में उनके कहने का जो
तरीक़ा द्राविड़ लोगों के कहने के तरीक़े से अधिक मिलता था
उसी को वे अधिक पसन्द करते थे। पुरानी संस्कृत का एक
शब्द है 'कृते,' जिसका अर्थ है 'लिए'। होते-होते इसका
रूपान्तर 'कहुँ' हुआ। वर्तमान 'को' इसी का अपभ्रंश है।
इसका कारण यह है कि द्राविड़ भाषा में एक विभक्ति थी 'कु'।
वह सम्प्रदान कारक के लिए थी और अब तक है। उसे देखकर पुराने आर्य्यों ने सम्प्रदान कारक के और और चिह्नों
को छोड़कर 'कृते' के ही अपभ्रंश को पसन्द किया। जिन
लोगों का सम्पर्क द्राविड़ों के पूर्वजों से अधिक था उन्हीं पर
उनकी भाषा का अधिक असर हुआ, औरों पर कम या बिलकुल
ही नहीं। यही कारण है कि आर्य्य-भाषाओं की कितनी
ही शाखाओं में द्राविड़ भाषा के प्रभाव का बहुत ही कम
असर देखा जाता है। किसी-किसी भाषा में तो बिलकुल
ही नहीं है।
भाषा-विकास के नियमों के वशीभूत होकर कठोर वर्ण
कोमल हो जाया करते हैं और बाद में बिलकुल ही लोप हो
जाते हैं। प्राचीन संस्कृत के "चलति" (जाता है, चलता है)
शब्द को देखिए। वह पहले तो "चलति" हुआ, फिर "चलइ"।
"त" बिलकुल ही जाता रहा। भाषा-शास्त्र के एक व्यापक
नियमानुसार यह परिवर्तन हुआ। पर कहीं-कहीं इस नियम
के अपवाद पाये जाते हैं। उदाहरण के लिए संस्कृत "शोक"
शब्द को लीजिए। उसे “सोअ' होना चाहिए था। पर
"सोअ" न होकर "सोग" हो गया। अर्थात् 'क' व्यञ्जन
का रूपान्तर 'ग' बना रहा। यह इसलिए हुआ क्योंकि द्राविड़
भाषा में इस तरह के व्यञ्जनों का बहुत प्राचुर्य्य है। अतएव
सिद्ध है कि संस्कृतोत्पन्न आर्य्य-भाषाओं पर द्राविड़ भाषाओं का
असर ज़रूर पड़ा। और उस असर के चिह्न हिन्दी में भी
पाये जाते हैं।
मुसल्मानों के सम्पर्क से फ़ारसी के अनेक शब्द हिन्दी में
मिल गये हैं। साथ ही इसके कितने ही शब्द अरबी के और
थोड़े से तुर्की के शब्द भी आ मिले हैं। पर ये अरबी और
तुर्की के शब्द फ़ारसी से होकर आये हैं। अर्थात् फ़ारसी
बोलनेवालों ने जिन अरबी और तुर्की शब्दों को अपनी भाषा में
ले लिया था वही शब्द मुसल्मानों के संयोग से हिन्दुस्तान में
प्रचलित हुए हैं। ख़ास अरबी और तुर्की बोलनेवालों के संयोग
से हिन्दी में नहीं आये। यद्यपि अरबी, तुर्की और फ़ारसी
के बहुत से शब्द हिन्दी में मिल गये हैं, तथापि उनके कारण
हिन्दी के व्याकरण में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इन विदेशी
भाषाओं के शब्दों ने हिन्दी की शब्द-संख्या ज़रूर बढ़ा दी है,
पर व्याकरण पर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ा। हाँ, इन
शब्दों के कारण एक बात लिखने लायक जो हुई है वह यह है
कि मुसल्मान और फ़ारसीदाँ हिन्दु जब ऐसी हिन्दी लिखते हैं,
जिसमें फ़ारसी, अरबी और तुर्की के शब्द अधिक होते हैं, तब
उनके वाक्यविन्यास का क्रम साधारण हिन्दी से कुछ जुदा तरह
का ज़रूर हो जाता है।
फ़ारसी, अरबी और तुर्की के सिवा पोर्चुगीज़, डच, और अँगरेज़ी भाषा के भी कुछ शब्द हिन्दी में आ मिले हैं। उनमें अँगरेज़ी शब्दों की संख्या अधिक है। इसका कारण अँगरेज़ों का अधिक सम्पर्क है। यह सम्पर्क जैसे-जैसे बढ़ता जायगा तैसे-तैसे और भी अधिक अँगरेज़ी शब्दों के आ मिलने की सम्भावना है।
यहाँ तक जो कुछ लिखा गया उससे मालूम हुआ कि हमारे आदिम आर्य्यों की भाषा पुरानी संस्कृत थी। उसके कुछ नमूने ऋग्वेद में वर्तमान हैं। उसका विकास होते-होते कई प्रकार की प्राकृतें पैदा हो गईं। हमारी विशुद्ध संस्कृत किसी पुरानी प्राकृत से ही परिमार्जित हुई है। प्राकृतों के बाद अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति हुई और उनसे वर्तमान संस्कृतोत्पन्न भाषाओं की। हमारी वर्तमान हिन्दी, अर्धमागधी और शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है। अतएव जो लोग यह समझते हैँ कि हिन्दी की उत्पत्ति प्रत्यक्ष संस्कृत से है वे डाकृर ग्रियर्सन की सम्मति के अनुसार भूलते हैं। डाकृर साहब की राय सयुक्तिक जान पड़ती है। वे आज कई वर्षों से भाषाओं की खोज का काम कर रहे हैं। इस खोज में जो प्रमाण उनको मिले हैं उन्हीं के आधार पर उन्होंने अपनी राय क़ायम की है। एक बात तो बिलकुल साफ़ है कि हिन्दी में संस्कृत शब्दों की भरमार अभी कल से शुरू हुई है। परिमार्जित संस्कृत चाहे सर्वसाधारण की बोली कभी रही भी हो, पर उसके बाद हज़ारों वर्ष तक जो भाषायें इस देश में बोली गई होंगी उन्हीं से आज-कल की भाषाओं और बोलियों की उत्पत्ति मानना अधिक सम्भवनीय जान पड़ता है। जिस परिमार्जित संस्कृत को कुछ ही लोग जानते थे उससे सर्वसाधारण की बोलियों और भाषाओं का उत्पन्न होना बहुत कम सम्भव मालूम होता है।
यह निबन्ध यद्यपि हिन्दी ही की उत्पत्ति का दिग्दर्शन करने के लिए है तथापि प्रसङ्गवश और और भाषाओं की उत्पत्ति और उनके बोलनेवालों की संख्या आदि का भी उल्लेख कर दिया गया है। आशा है पाठकों को यह बात नागवार न होगी।