हिन्दी भाषा की उत्पत्ति/२-परवर्ती काल
जो आर्य्य काबुल की पार्वत्य भूमि से पंजाब में आये वे सब एक दम ही नहीं आ गये। धीरे-धीरे आये। सैकड़ों वर्ष तक वे आते गये। इसका पता वेदों में मिलता है। वेदों में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो इस अनुमान को पुष्ट करती हैं। किसी समय कंधार में आर्य्यसमूह का राजा दिवोदास था। बाद में सुदास नाम का राजा सिन्धु नदी के किनारे पंजाब में हुआ। इस पिछले राजा के समय के आर्य्यों ने दिवोदास के बल, वीर्य्य और पराक्रम के गीत गाये हैं। इससे साबित होता है कि सुदास के समय दिवोदास को हुए कई पीढ़ियाँ हो चुकी थीं। आर्य्यों के पंजाब में अच्छी तरह बस जाने पर उनके कई फ़िरके़-कई वर्ग-हो गये। सम्भव है इन फ़िरक़ों की एक दूसरे से न बनती रही हो। इनकी बोली में तो फ़रक़ ज़रूर हो हो गया था। उस समय आर्य्यों का नया समूह पश्चिम से आता था और पहले आये हुए आर्य्यों को आगे हटाकर उनकी जगह खुद रहने लगता था।
उस समय के आर्य्य जो भाषा बोलते थे उसके नमूने वेदों
में विद्यमान हैं। वेदों का मन्त्र-भाग एक ही समय में नहीं
बना। कुछ कभी बना है, कुछ कभी। उसकी रचना के
समय में बड़ा अन्तर है। फिर एक ही जगह उसकी रचना
नहीं हुई। कुछ की रचना क़न्धार के पास हुई है, कुछ की
पंजाब में, और कुछ की यमुना के किनारे। जिन आर्य्य ऋषियों
ने वेदों का विभाग करके उनका सम्पादन किया, और उनको
वह रूप दिया जिसमें उन्हें हम इस समय देखते हैं, उन्होंने रचनाकाल और रचना-स्थान का विचार न करके जिस भाग को जहाँ
उचित समझा रख दिया। इसी से रचना-काल के अनुसार
भाषा की भिन्नता का पता सहज में नहीं लगता।
जैसा ऊपर कहा जा चुका है, सब आर्य्य एक ही साथ
पंजाब में नहीं आये। धीरे-धीरे आये। डाकृर हार्नली आदि
विद्वानों का मत है कि हिन्दुस्तान पर आर्य्यों की मुख्य-मुख्य
दो चढ़ाइयाँ हुई। जो आर्य्य, इस तरह, दो दफ़ा करके पंजाब
में आये उनकी भाषाओं का मूल यद्यपि एक ही था, तथापि
उनमें अन्तर ज़रूर था। अर्थात् दोनों यद्यपि एक ही मूल-भाषा
की शाखायें थीं, तथापि उनके बोलनेवालों के अलग-अलग हो
जाने से, उनमें भेद हो गया था। चाहे आर्य्यों का दो दफ़े में
पंजाब आना माना जाय, चाहे थोड़ा थोड़ा करके कई दफ़े में,
बात एक ही है। वह यह है कि सब आर्य्य एक दम नहीं
आये। कुछ पहले आये, कुछ पीछे। और पहले और पीछे वालों की भाषाओं में फ़रक़ था। डाकृर ग्रियर्सन का अनुमान
है कि आर्य्यों का पिछला समूह शायद कोहिस्तान होकर पंजाब
आया। यदि यह अनुमान ठीक हो तो यह पिछला समूह उन्हीं
आर्य्यों का वंशज होगा जिनके वंशज इस समय गिलगिट और
चित्राल में रहते हैं। और जो असंस्कृत आर्य्य-भाषायें बोलते
हैं। सम्भव है ये सब आर्य्य आक्सस अर्थात् अमू नदी के
किनारे-किनारे साथ ही रवाना हुए हों। उनका अगला भाग
पंजाब पहुँच गया हो और पिछला गिलगिट और चित्राल ही में
रह गया हो। जब ये लोग पंजाब पहुँचे तब पंजाब को इन्होंने
पश्चिम से आये हुए आर्य्यों से आबाद पाया। ये पूर्ववर्ती आर्य्य
जो भाषा बोलते थे वह परवर्ती आर्य्यों की भाषा से कुछ भिन्न
थी। परवर्ती आर्य्य पूर्वी पंजाब की तरफ़ बढ़े और वहाँ से
पूर्वागत आर्य्यों को हराकर आप वहाँ बस गये। पूर्वागत
आर्य्य भी उनसे कुछ दूर पर उनके आस-पास बने रहे। पूर्वागत आर्य्यों की जो भाषायें या बोलियाँ थीं, उनके साथ नवागत
आर्य्यों की बोली को भी स्थान मिला। धीरे-धीरे सब भाषायें
गड्ड-बड्ड हो गई। कुछ समय बाद उन सबके योग से, या
उनमें से कुछ के योग से पुरानी संस्कृत की उत्पत्ति हुई।
परवर्ती आर्य्यों के फ़िरके, चाहे जहाँ से और चाहे जिस
रास्ते आये हों, धीरे-धीरे वृद्धि उनकी ज़रूर हुई। जैसे-जैसे
उनकी संख्या बढ़ती गई और वे फैलते गये वैसे ही वैसे पूर्ववर्ती
आर्य्यों को वे सब तरफ़ दूर हटाते गये। संस्कृत-साहित्य में
एक प्रान्त का नाम है "मध्य देश"। पुराने ग्रंथों में इसका बहुत
दफ़े ज़िक्र पाया है। वही आर्य्यों की विशुद्ध भूमि बतलाई
गई है। वही उनका आदि-स्थान माना गया है। उसकी
चतुःसीमायें ये लिखी हैं। उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व में प्रयाग, पश्चिम में सरहिन्द। इस मध्य देश के
एक छोर से दूसरे छोर तक सरस्वती नदी की पवित्र धारा
बहती थी। वैदिक समय में उसी के किनारे नवागत आर्य्यों
का अड्डा था।
संस्कृत से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी भाषायें इस समय हिन्दुस्तान में बोली जाती हैं उनकी दो शाखायें हैं। वे दो भागों में विभक्त हैं। एक शाखा तो ठीक उस प्रान्त में बोली जाती है जिसका पुराना नाम मध्य-देश था। दूसरी शाखा इस मध्य-देश के तीन तरफ़ बोली जाती है। उससे निकली हुई भाषाओं का आरम्भ काश्मीर में होता है। वहाँ से पश्चिमी पंजाब, सिन्ध और महाराष्ट्र देश में होती हुई वे मध्य भारत, उड़ीसा, बिहार, बंगाल और आसाम तक पहुँची हैं। गुजरात को हमने छोड़ दिया है, क्योंकि वहाँ की भाषा मध्य-देशीय शाखा से सम्बन्ध रखती है। इसका कारण यह है कि पुराने ज़माने में गुजरात प्रान्त मथुरा से जीता गया था। मथुरा के नवागत आर्य्यों ने गुजरात के पूर्वागत आर्य्यों को अपने अधीन कर लिया था। मथुरा मध्य-देश में था। और बहुत से नवागत आर्य्य गुजरात में जाकर रहने लगे थे। इसी से मध्य-देश की भाषा वहाँ प्रधान भाषा हो गई। हिन्दुस्तान भर में एक यही प्रान्त ऐसा है जिसके निवासियों ने अपने विजयी
नवागत आर्य्यों की भाषा स्वीकार कर ली है। परवर्ती नवागत आर्य्य जो मध्यदेश में बस गये थे उनकी भाषा का नाम सुभीते के लिए अन्तःशाखा रखते हैं। और जो पूर्ववर्ती आर्य्य नवागतों के द्वारा बाहर निकाल दिये गये थे अर्थात् दूर-दूर प्रान्तों में जाकर जो रहने लगे थे, उनकी भाषा का नाम बहिःशाखा रखते हैं।
इन दोनों शाखाओं के उच्चारण में फ़र्क है। प्रत्येक में कुछ न कुछ विशेषता है। जिन वर्णों का उच्चारण सिसकार के साथ करना पड़ता है उनको अन्तःशाखावाले बहुत कड़ी आवाज़ से बोलते हैं। यहाँ तक कि वह दन्त्य 'स' हो जाता है। पर बहिःशाखावाले वैसा नहीं करते। इसी से मध्य-देशवालों के 'कोस' शब्द को सिन्धवालों ने 'कोहु' कर दिया है। पूर्व की तरफ़ बंगाल में यह 'स' 'श' हो गया है। महाराष्ट्र में भी उसका कड़ापन बहुत कुछ कम हो गया है। आसाम में 'स' की आवाज़ गिरते-गिरते कुछ-कुछ 'च' की सी हो गई है। काश्मीर में तो उसकी कड़ी आवाज़ बिलकुल ही जाती रही है। वहाँ अन्तःशाखा का 'स' बिगड़ कर 'ह' हो गया है।
संज्ञाओं में भी अन्तर है। अन्तःशाखा में जो भाषायें
शामिल हैं उनकी मूल-विभक्तियाँ प्रायः गिर गई हैं। धीरे-धीरे
उनका लोप हो गया है। और उनकी जगह पर और ही छोटे-छोटे शब्द मूल-शब्दों के साथ जुड़ गये हैं। उन्हीं से विभक्तियों का मतलब निकल जाता है। उदाहरण के लिए हिन्दी
की 'का' 'को' 'से' आदि विभक्तियाँ देखिए। ये जिस शब्द
के अन्त में आती हैं उस शब्द का उन्हें मूल अंश न समझना
चाहिए। ये पृथक् शब्द हैं और विभक्ति-गत अपेक्षित अर्थ
देने के लिए जोड़े जाते हैं। अतएव अन्तःशाखा की भाषाओं
को व्यवच्छेदक भाषायें कहना चाहिए। बहिःशाखा की
भाषायें जिस समय पुरानी संस्कृत के रूप में थीं, संयोगात्मक
थीं। 'का' 'को' 'सो' आदि से जो अर्थ निकलता है उसके
सूचक शब्द उनमें अलग न जोड़े जाते थे। इसके बाद उन्हें
व्यवच्छेदक रूप प्राप्त हुआ। सिन्धी और काश्मीरी भाषायें
अब तक कुछ-कुछ इसी रूप में हैं। कुछ काल बाद फिर ये
भाषायें संयोगात्मक हो गई और व्यवच्छेदक अवस्था में जो
विभक्तियाँ अलग हो गई थीं वे इनके मूलरूप में मिल गई।
बँगला में षष्ठी विभक्ति का चिह्न 'एर' इसका अच्छा उदाहरण है।
क्रियाओं में भी भेद है। बहिःशाखा की भाषायें पुरानी संस्कृत की किसी ऐसी एक या अधिक भाषाओं से निकली हैं जिनकी भूतकालिक (यथार्थ में भाववाच्य) क्रियाओं से सर्वनामात्मक कर्ता के अर्थ का भी बोध होता था--अर्थात् क्रिया और कर्ता एक ही में मिले होते थे। यह विशेषता बहिः-शाखा की भाषाओं में भी पाई जाती है। उदाहरण के लिए बँगला का "मारिलाम" देखिए। इसका अर्थ है "मैंने मारा"। पर अन्तःशाखा की भाषायें किसी ऐसी एक या अधिक भाषाओं से निकली हैं जिसमें इस तरह के क्रियापद नहीं प्रयुक्त होते थे। उदाहरण के लिए हिन्दी का "मारा" लीजिए।
३
इससे यह नहीं ज्ञात होता कि किसने मारा? "मैंने मारा,"
"तुमने मारा," "उसने मारा," "उन्होंने मारा” जो चाहे
समझ लीजिए। "मारा" का रूप सबके लिए एक ही रहेगा।
इससे साबित है कि ये बाहरी और भीतरी शाखायें जुदी-जुदी
भाषाओं से निकली हैं। इनका उत्पत्ति-स्थान एक नहीं है।
भीतरी शाखा जिन प्रान्तों में बोली जाती है उनकी उत्तरी
सीमा हिमालय, पश्चिमी झीलम और पूर्वी वह देशांश रेखा है
जो बनारस से होकर जाती है। पर पूर्वी और पश्चिमी सीमायें
निश्चित नहीं। उनके विषय में विवाद है। वहाँ भीतरी और
बाहरी शाखायें परस्पर मिली हुई हैं और एक दूसरी की सीमा
के भीतर भी कुछ दूर तक बोली जाती हैं। यदि इन दोनों
सीमाओं का आकुञ्चन कर दिया जाय, अर्थात् वे हटाकर वहाँ
कर दी जायँ जहाँ भीतरी शाखा में बाहरी का ज़रा भी मेल
नहीं है, तो उसकी पूर्वी सीमा संयुक्त प्रान्त में प्रयाग के याम्योत्तर और पश्चिमी, पटियाले में सरहिन्द के याम्योत्तर कहीं हो
जाय। यहाँ इस शाखा की भाषायें सर्वथा विशुद्ध हैं। उनमें
बाहरी शाखा की भाषाओं का कुछ भी संश्रव नहीं है। सरहिन्द और झीलम के बीच की भाषा पञ्जाबी है। यह भाषा
भीतरी शाखा से ही सम्बन्ध रखती है, पर इसमें बहुत शब्द
ऐसे भी हैं जो इस शाखा से नहीं निकले। इस तरह के शब्दों
की संख्या जैसे-जैसे पश्चिम को बढ़ते जाइए, अधिक होती जाती
है। मालूम होता है कि इस प्रान्त में पहले बाहरी शाखा के
आर्य्य रहते थे। धीरे-धीरे भीतर शाखा के आर्य्यों का प्रभुत्व
वहाँ बढ़ा और उन्हीं की भाषा वहाँ की प्रधान भाषा हो गई।
प्रयाग और बनारस के बीच, अर्थात् अवध, बघेलखण्ड और
छत्तीसगढ़, की भाषा पूर्वी हिन्दी है। इस भाषा में भीतरी और
बाहरी दोनों शाखाओं के शब्द हैं। यह दोनों के योग से बनी
है अतएव इसे हम मध्यवर्ती शाखा कहते हैं। भीतरी शाखा
की दक्षिणी सीमा नर्म्मदा का दक्षिणी तट है। इसमें किसी
सन्देह, विवाद या विसंवाद के लिए जगह नहीं। यह सीमा
निर्विवाद है। पश्चिम में यह शाखा राजस्थानी भाषा का रूप
प्राप्त करके सिन्धी में और पंजाबी का रूप प्राप्त करके लहँडा में
मिल जाती है। लहँडा वह बोली है जो पंजाब के पश्चिम मुलतान और भावलपुर आदि में बोली जाती है। गुजरात में भी
इम भीतरी शाखा का प्राधान्य है। वहाँ उसने पूर्व-प्रचलित
बाहरी शाखा की भाषा के अधिकार को छीन लिया है।
जिन भाषाओं का ज़िक्र ऊपर किया गया उन्हें छोड़ कर शेष जितनी संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषायें हैं सब बाहरी शाखा के अन्तर्गत हैं।
संस्कृत से (याद रखिए, पुरानी संस्कृत से मतलब है) उत्पन्न हुई जितनी आर्य्य-भाषायें हैं वे नीचे लिखे अनुसार शाखाओं, उपशाखाओं और भाषाओं में विभाजित की जा सकती हैं : (१) बाहरी शाखा। इसकी तीन उपशाखायें हैं—उत्तर-पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी।
(२) मध्यवर्ती शाखा।
(३) भीतरी शाखा। इसकी दो उपशाखायें हैं—पश्चिमी और उत्तरी।
अब हम नीचे एक लेखा देते हैं जिससे यह मालूम हो जायगा कि प्रत्येक उपशाखा में कौन-कौन भाषायें हैं, और १९०१ ईसवी की मर्दुमशुमारी के अनुसार, प्रत्येक उपशाखा और भाषा के बोलनेवालों की संख्या कितनी है।
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इससे मालूम हुआ कि संस्कृतोत्पन्न आर्य्य-भाषायें तीन शाखाओं, छ: उपशाखाओं और सत्रह भाषाओं में विभक्त हैं और २१ करोड़ से भी अधिक आदमी उन्हें बोलते हैं। इस देश की आबादी २९४,३६१,०६६ अर्थात् कोई तीस करोड़ के लगभग है। उनमें से इक्कीस करोड़ आदमी ये भाषायें बोलते हैं, साढ़े पाँच करोड़ द्राविड़-भाषायें और शेष तीन करोड़ अनार्य्य विदेशी भाषायें। तामील, तैलगू, कनारी आदि द्राविड़-भाषायें मदरास प्रान्त में बोली जाती हैं। उनकी उत्पत्ति संस्कृत से
नहीं है। अतएव हिन्दी की उत्पत्ति से उनका कोई सम्बन्ध
नहीं। इसी से उनके विषय में यहाँ पर और कुछ नहीं लिखा
जाता।
ऊपर के लेखे से संस्कृतोत्पन्न आर्य्य-भाषा बोलनेवालों की संख्या २१९,७२५,५०९ आती है। पर पहले अध्याय के अन्त में लिखे अनुसार उनकी संख्या २१९,७२६,२२५ होती है। इन अङ्कों में ७१६ का फ़र्क है। ये अङ्क उन लोगों की संख्या बतलाते हैं जिन्होंने अपनी भाषा विशुद्ध संस्कृत बतलाई है। ये ७१६ जन काशी के दिग्गज पण्डित नहीं हैं; किन्तु मदरास और माईसोर प्रान्त के कुछ लोग हैं जो विशेष करके संस्कृत ही बोलते हैं। पूर्वोक्त लेखे के टोटल में इनको भी शामिल कर लेने से संस्कृतोत्पन्न आर्य्य-भाषा बोलनेवालों की संख्या पूरी २१९,७२६,२२५ हो जाती है।
मराठी और पूर्वी हिन्दी में बहुत सी बोलियाँ शामिल हैं। इन दोनों उपशाखाओं से सम्बन्ध रखनेवाली बोलियाँ तो बहुत हैं, पर भाषायें इनके सिवा और कोई नहीं। इसी तरह उत्तरी उपशाखा में जो तीन भाषायें बतलाई गई हैं वे यथार्थ मे भाषायें नहीं हैं। बहुत सी मिलती-जुलती बोलियों के समूह जुदा-जुदा तीन भागों में विभक्त कर दिये गये हैं और प्रत्येक भाग का नाम भाषा रख दिया गया है। ये बोलियाँ हिन्दुस्तान के उत्तर में मंसूरी, नैनीताल, गढ़वाल और कमायूँ आदि पहाड़ी ज़िलों में बोली जाती हैं।
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