हिन्दी-राष्ट्र या सूबा हिन्दुस्तान/हिन्दी राष्ट्र को दृढ़ तथा स्थायी बनाने के उपाय

[ ७५ ] 

५. हिन्दीराष्ट्र को दृढ़ तथा स्थायी बनाने के उपाय
हिन्दीराष्ट्र और संयुक्त-प्रान्त

राष्ट्र के लक्षणों के आधार पर पिछले अध्यायों में यह सिद्ध करने का यत्न किया गया है कि भारत एक राष्ट्र नहीं है बल्कि राष्ट्र-संघ है जिसमें आसाम, बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्र, तामिल, केरल, कर्नाटक, गुजरात, सिन्ध, पंजाब, महाराष्ट्र आदि अनेक राष्ट्र सम्मिलित हैं। वास्तव में भारतवर्ष की तुलना समस्त यूरोप उपद्वीप से करनी चाहिये यूरोप के देशों से नहीं। भारत के मध्य भाग में हिन्दी-भाषा-भाषी लोगों का देश एक राष्ट्र माना जा सकता है। व्यवहारिक दृष्टि से इसके तीन उप-विभाग किये जा सकते हैं अर्थात् राजस्थान, बिहार और हिन्दुस्तान। हिन्दी-भाषा-भाषियों का केन्द्र हिन्दुस्तान है जिसका अधिक भाग इस समय भी वर्तमान संयुक्त-प्रान्त के रूप में उपस्थित है। इस अध्याय में हम हिन्दी राष्ट्र के इस केन्द्र को दृढ़ तथा स्थायी बनाने के उपायों का दिग्दर्शन कराने का यत्न करेंगे। वास्तव में संयुक्त-प्रान्त ही इस समय भावी सूबा हिन्दुस्तान तथा हिन्दी राष्ट्र का प्रतिनिधि स्वरूप है। [ ७६ ] 

संयुक्त-प्रान्त के नामकरण की आवश्यकता

सबसे प्रथम आवश्यकता अपने देश अथवा वर्तमान संयुक्तप्रान्त को उचित नाम देने की है। भारतवर्ष में केवल यह एक हिन्दी-भाषा-भाषी जन-समुदाय ही ऐसा अभागा है कि न तो जिसके देश का हो कोई नाम है और न जहाँ के देशवासियों को ही किसी एक नाम से पुकारा जा सकता है। यदि आप किसी कलकत्ते के रहने वाले से पूछिये तो वह बड़े गर्व से कहेगा कि मैं बंगाल का रहने वाला हूँ। अहमदाबाद का रहने वाला अपने को गुजराती बतला देगा। अमृतसर का रहने वाला अपने को पंजाबी समझता है। पूना वालों का देश महाराष्ट्र है। किन्तु काशी, अयोध्या, प्रयाग, लखनऊ, आगरा, मेरठ तथा दिल्ली के रहने वाले जानते ही नहीं कि वे कहाँ के रहने वाले हैं। उनके देश का नाम यदि कोई है तो वह है "संयुक्त-प्रान्त" अथवा "मुमालिक मुतहद्दा आगरा व अवध"। अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे अपने को "यू॰ पी॰ मैन" समझते हैं। बंगाल में हमारे प्रान्त को "अप-कन्ट्री" के नाम से पुकारा जाता है। हमारा राष्ट्र किस अवस्था में है तथा भारत के अन्य राष्ट्र अभी भी हम से कितने आगे हैं इसका पता इसी एक छोटी सी बात से चल जाता है। बिना नाम का आदमी भला अपना परिचय कैसे दे सकता है।

हमारे प्रान्त के नाम का यह स्वांग अब बन्द हो जाय इस सम्बन्ध में तुरन्त प्रयत्न होना चाहिये। हिन्दी-भाषा-भाषियों को चाहिये कि "संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध" के स्थान पर [ ७७ ]अपने प्रान्त का कोई सीधा तथा सर्वप्रिय नाम रखवावें। मेरे विचार में हमारे प्रान्त का सब से अधिक उपयुक्त नाम "हिन्दुस्तान" होगा। देश, देश वासी, तथा भाषा का जितना सुन्दर साम्य इस नाम से हो सकेगा उतना और किसी नाम से संभव नहीं मालूम होता—देश का नाम हिन्दुस्तान, देश वासी हिन्दुस्तानी, भाषा हिन्दुस्तानी। यहां यह स्मरण दिलाना अनुचित न होगा कि संयुक्त प्रान्त के लोग भारत के अन्य प्रान्तों में अब भी कभी कभी हिन्दुस्तानी के नाम से पुकारे जाते हैं। हमारे प्रान्त की भाषा के लिए भी हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग थोड़ा बहुत होता है। प्रान्त के लिये यह नाम कुछ नया अवश्य प्रतीत होता है किन्तु इतिहास के विद्वान जानते हैं कि हिन्दुस्तान नाम का प्रयोग प्रारम्भ में गंगा की घाटी के पश्चिमोत्तर भाग के लिये ही हुआ करता था। धीरे धीरे उत्तर भारत तथा अन्त में संपूर्ण भारतवर्ष के लिये इसका प्रयोग कुछ दिनों से होने लगा है। अभी भी हिन्दुस्तान शब्द का व्यवहार भारतवर्ष से हटाकर फिर अपने पुराने सच्चे अर्थ में प्रचलित किया जा सकता है। भारतवर्ष के लिये 'भारत' से अधिक उपयुक्त नाम और कोई हो ही नहीं सकता। विदेशों में लोग भारतवासियों के लिये "इंडियन" अथवा "हिन्दू" शब्द का प्रयोग करते हैं।

प्रान्तीय सीमाओं का निर्धारण

दूसरी मुख्य आवश्यकता इस सूबा हिन्दुस्तान की सीमाओं की ठीक ठीक निर्धारित करने की है। ऊपर दिखलाया जा चुका है [ ७८ ]कि समस्त हिन्दी-भाषा-भाषियों को एक प्रान्त के रूप में संगठित करना व्यवहारिक नहीं है। बिहार और राजस्थान के पृथक् सूबे रहने में कोई विशेष क्षति भी नहीं है किन्तु वर्तमान संयुक्त प्रान्त के टुकड़े होना किसी अवस्था में भी नहीं सोचा जा सकता। कभी कभी कुछ छोटे छोटे स्वार्थों के कारण आगरा और अवध को अलग करने की चर्चा सुनाई पड़ने लगती है और कुछ बातों में इसका आरम्भ भी हो गया है। वास्तव में आगरा और अवध के भाव को बिलकुल मिटा देने की आवश्यकता है। हिन्दी-भाषा-भाषियों का कल्याण इसी में है कि बंगाल की तरह सूबा हिन्दुस्तान के भी पूर्वी और पश्चिमी टुकड़े न हों। प्रान्त का नाम बदल जाने से इसमें बहुत सहायता मिलेगी। दिल्ली से काशी तक का देश बिलकुल एक है। दिल्ली के नन्हे से प्रान्त के साथ संयुक्त प्रान्त के कुछ पश्चिमी ज़िलों को मिला देने की चर्चा भी कभी-कभी सुन पड़ती है। राष्ट्रीयता की दृष्टि से यह भी अत्यन्त हानिकर होगा। दिल्ली नगर वास्तव में हिन्दुस्तान का नगर है। जैसे बंगाल प्रान्त में कलकत्ता नगर में भारत की राजधानी थी उसी तरह सूबा हिन्दुस्तान के दिल्ली नगर में राजधानी रह सकती है। सच तो यह है कि दिल्ली ज़िले का अलग प्रान्त रखना भी उचित नहीं है।

अपने वर्तमान प्रान्त के टुकड़े करने का प्रस्ताव तो किसी रूप में भी नहीं सोचा जा सकता। हिन्दी-भाषा-भाषियों के जीवित [ ७९ ]रहने के लिये कम से कम ४½ करोड़ लोगों का तो एक प्रान्त के रूप में रहना नितान्त आावश्यक है।

वास्तव में प्रश्न यह है कि हमारे जो देशवासी पड़ोस के प्रान्तों में बिखरे पड़े हैं वे मुख्य प्रान्त में आकर एक जगह एकत्रित हो सकें। ऐसे मुख्य मुख्य भाग निम्नलिखित हैं :—

(क) पश्चिम में दिल्ली कमिश्नरी—अर्थात् दिल्ली, अम्बाला रोहतक, कर्नाल, हांसी, हिसार—हिन्दी-भाषा-भाषी प्रदेश है। यह पंजाब से अलग करके अपने प्रान्त में आ जाना चाहिये।

(ख) दक्षिण में मध्यभारत की ग्वालियर, पन्ना, रींवा आदि हिन्दी-भाषा-भाषी रियासतों का सम्बन्ध रामपुर, बनारस आदि की तरह अपने प्रान्त से होना चाहिये।

(ग) हिन्दुस्तानी मध्यप्रान्त के १४ ज़िलों का भी शेष हिन्दी-भाषा-भाषियों के साथ मिल जाना दोनों के लिये हितकर होगा। मध्यप्रान्त के नेताओं की इसमें अवश्य थोड़ी सी क्षति है किन्तु हिन्दी राष्ट्र के स्थायीहित के लिये उन्हें अपने क्षणिक लाभ को त्याग देना चाहिये।

(घ) पूर्व में बिहार प्रान्त के शाहबाद, चम्पारन तथा सारन के तीन ज़िले भोजपुरी बोलनेवाले हैं। इनका भी संयुक्त प्रान्त में आ जाना उचित प्रतीत होता है क्योंकि भोजपुरी प्रदेश का बड़ा अंश इसी प्रान्त में है।

ऊपर के हिन्दी प्रदेशों में से जितने भी अधिक मांग भावी सूबा हिन्दुस्तान के साथ एक में संगठित हो सकेंगे हिन्दी-भाषा-भाषियों [ ८० ]का बल उतना ही अधिक बढ़ सकेगा। हिन्दीराष्ट्र का मुख्य भाग वर्तमान संयुक्त प्रान्त के रूप में अभी भी सुरक्षित है। यदि इसे बढ़ाया न जा सके तो कम-से-कम इसे छिन्न-भिन्न तो नहीं ही होने देना चाहिये।

हिन्दी उर्दू की समस्या

तीसरा मुख्य प्रश्न भाषा के ऐक्य का है। भारतवर्ष के प्रत्येक राष्ट्र में एक ही सर्वमान्य राष्ट्रीय भाषा है। बंगाल तक में जहां ५० फ़ीसदी बंगाली मुसलमान-धर्मावलम्बी हैं बंगला ही बंगाल-राष्ट्र की भाषा है। किन्तु हमारी कठिनाइयों को बढ़ाने के लिये हिन्दीराष्ट्र में हिन्दी और उर्दू के रूप में दो प्रान्तिक भाषाओं के होने को जटिल समस्या भी उपस्थित है। हमारे यहां की हिन्दी उर्दू तथा हिन्दू मुसलमान की समस्यायों का वैसा निकट का सम्बन्ध नहीं है जैसा प्रायः लोग समझते हैं। संयुक्तप्रान्त में केवल १४ फ़ीसदी मुसलमान धर्मावलम्बी हिन्दुस्तानी हैं। उर्दू केवल इन हिन्दुस्तानी मुसलमानों की ही भाषा नहीं है। इसके पोषक तो हिन्दुस्तानी काश्मीरी, कायस्थ, खत्री, वैश्य, ब्राह्मण आदि हिन्दू भी रहे हैं और हैं। अपने प्रान्त को रोहिलखंड, मेरठ, और आगरे की पश्चिमी कमिश्नरियों तथा दिल्ली कमिश्नरी में हिन्दुओं के घरों में अब भी उर्दूभाषा और फ़ारसी लिपि का ख़ूब प्रचार है। इसका मुख्य कारण दिल्ली आगरे के मुसलमानी केन्द्रों का प्रभाव है। इन भागों में अब भी सरकारी कारबार में उर्दू का ही व्यवहार होता है। [ ८१ ]

भारत के भिन्न भिन्न राष्ट्रों में पढ़े लिखे लोगों के बीच हिन्दी जानने वालों की संख्या बढ़ जावे जिससे भविष्य में भारत की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का स्थान अँगरेजी के स्थान पर अपनी भाषाओं में से कोई एक ले सके यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अखिल भारतीय प्रश्न है अतः इसमें कुछ लोगों का लगना ठीक ही है। किन्तु हिन्दी-भाषा-भाषियों के सन्मुख इससे भी अधिक आवश्यक प्रश्न अपने लोगों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी के प्रचार करने का है। यह राष्ट्रीय प्रश्न हैं और हिन्दीराष्ट्र का भविष्य बहुत कुछ इस पर निर्भर है। बिना राज्य की सहायता के हिन्दी और उर्दू के एक हो जाने में मेरा अपना विश्वास नहीं है। राजनीतिक तथा धार्मिक नेताओं के अतिरिक्त दोनों भाषाओं के साहित्यज्ञ इस एकीकरण के लिये कभी उद्यत नहीं हो सकते। यदि हिन्दी वाले समझौता करने के लिये किसी तरह उद्यत हो भी गये तो उर्दू-दाँ नहीं होंगे क्योंकि उनमें अच्छी संख्या मुसलमानों की है जिनकी सभ्यता अब उर्दू भाषा और उर्दू साहित्य के द्वारा ही यहां जीवित रह सकती है। देवनागरी और फ़ारसी लिपि के सम्बन्ध में भी मैं किसी समझौते को नहीं सोच सकता। लेकिन साथ ही मैं इसमें विश्वास करता हूं कि हिन्दी को जान-बूझ कर क्लिष्ट नहीं बनाना चाहिये। इसमें अपनी ही हानि है क्योंकि यदि जनता की भाषा से साहित्यिक हिन्दी बहुत दूर हो गई तो जनता इसको छोड़ देगी। लिपि के सम्बन्ध में भी राष्ट्रीय लिपि देवनागरी ही हो सकती है। [ ८२ ]व्यवहारिक दृष्टि से कुछ दिनों तक बच्चों को फ़ारसी लिपि भी साथ साथ बाद को सिखलाई जा सकती है।

मेरी समझ में हिन्दी राष्ट्र के हितैषियों को अपनी संपूर्ण शक्ति पश्चिमी 'हिन्दुस्तान' में विशेषतया हिन्दुओं के बीच में हिन्दी और देवनागरी लिपि के प्रचार में लगानी चाहिये। प्रत्येक हिन्दुस्तानी बालक की शिक्षा हिन्दी और देवनागरी लिपि से आरम्भ होनी चाहिये। हिन्दी सीख लेने के बाद वह जितनी अधिक भाषायें चाहे सीख सकता है। यदि एक बार भी अपने राष्ट्र के ८५ फ़ीसदी हिन्दुओं ने हिन्दी अथवा हिन्दुस्तानी को अपना लिया तो फिर हिन्दी-उर्दू की समस्या बहुत कुछ सुलझी हुई समझनी चाहिये। बिना लकड़ी के बेंट के जंगल को काट सकना सरल नहीं रह जायगा।

राष्ट्रीय भाव को लगाना

चौथा और अन्तिम मुख्य प्रश्न राष्ट्रीयता के भाव को जाग्रत करने का है। राष्ट्र का ठीक नाम हो जाने, हिन्दी-भाषा-भाषियों के एक जगह एकत्रित हो जाने, तथा दो प्रान्तिक भाषाओं की समस्या सुलझ जाने से राष्ट्रीय जीवन बहुत कुछ बल पकड़ सकेगा। किन्तु इतना कर लेना पर्याप्त नहीं है। राष्ट्रीयभाव में अपने लोग सबसे अधिक पिछड़े हुए हैं अतः इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से प्रयत्न करने को आवश्यकता है। अपने यहाँ राष्ट्रीयभाव को प्रान्तीयता का नाम देकर उसे नीच दृष्टि से देखा जाता है। भारतीय और राष्ट्रीय समस्याओं के भेद को समझने [ ८३ ]का यत्न ही नहीं किया जाता। हमारे राष्ट्र में अखिल भारतीय नेताओं की कमी नहीं है किन्तु सच्चे राष्ट्रीय-प्रान्तीय-नेता ढूंढे नहीं मिलते। अतः सब से पहली आवश्यकता इस बात की है कि अपने देश के बड़े लोगों में से कुछ अपने केा हिन्दीराष्ट्र की उन्नति में ही खपा दें। उन्हें यह नहीं भुलाना चाहिये कि हिन्दी-भाषा-भाषियों के द्वारा ही वे भारतवर्ष को सच्ची सेवा कर सकते हैं।

इसके अतिरिक्त भविष्य के हिन्दी साहित्य का निर्माण राष्ट्रीय आवश्यकताओं को दृष्टि में रख कर होना चाहिये। आजकल इस ओर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उदाहरण के लिये बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात आदि के कई इतिहास लिखे गये हैं। जिन्हें उन राष्ट्रों के प्रथम श्रेणी के विद्वानों ने राष्ट्रीय दृष्टि से लिखा है। हिन्दी में हिन्दीराष्ट्र के विशाल इतिहास की अभी कल्पना भी नहीं हो पायी है। जब हिन्दुस्तानी विद्वान ही भारत के इतिहास और हिन्दी-राष्ट्र के इतिहास में भेद नहीं कर पाते तो भारत के अन्य राष्ट्रों के अथवा विदेशों के विद्वानों से क्या आशा की जा सकती है! जैसे प्रान्त का भूगोल पढ़ा जाता है वैसे ही प्रान्त का इतिहास भी तो हो सकता है। यह बात भी नहीं भुलानी चाहिये कि हिन्दी साहित्य के भिन्न भिन्न आग का जैसा सीधा सम्बन्ध हिन्दी-भाषा-भाषियों से है वैसा भारत के अन्य राष्ट्रों से नहीं हो सकता। "भारत भारती" पंजाब, बंगाल, उड़ीसा, गुजरात, आन्ध्र तथा तामिल देशों में नहीं पढ़ी जाती है तब फिर "भारत-भारती" "हिन्द-भारती" [ ८४ ]क्यों न हो? हमारे साहित्य से हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति सब से प्रथम होनी चाहिये।

राष्ट्रीयता के भाव को जाग्रत करने में पत्र तथा पत्रिकाओं से बहुत बड़ी सहायता मिल सकती है। यह सच है कि कुछ अखिल भारतीय प्रश्न हैं किन्तु साथ ही जीवन के प्रत्येक अंग से सम्बन्ध रखने वाली सैकड़ों राष्ट्रीय समस्यायें भी हैं जिनके साथ हिन्दी भाषा-भाषियों का, हित अनहित सम्बद्ध है। हमारी पत्र पत्रिकाओं का उद्देश्य हमारी जनता का ध्यान इस राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने की ओर विशेष होना चाहिये। यह बात अन्य प्रान्त की पत्र पत्रिकाओं का अध्ययन करने से आसानी से समझ में आ सकती है। प्रान्त की प्रारम्भिक तथा माध्यमिक शिक्षा की क्या आवश्यकतायें हैं? हमारे विश्वविद्यालय किस नीति से चलाये जा रहे हैं? हमारे यहां के किसान और जिमींदारों का सम्बन्ध किस तरह मधुर बनाया जा सकता है? हमारे राष्ट्र के उद्योग-धन्धे कौन कौन हैं और उनमें किस तरह सुधार हो सकता है? हमारे यहाँ के तीर्थ स्थानों और मन्दिरों में किन परिवर्तन की आवश्यकता है? हिन्दुस्तानी स्त्रियों की दशा सुधारने के लिये क्या प्रयत्न होना चाहिये? इस तरह के अगणित राष्ट्रीय प्रश्न हैं जिनका बंगाली, गुजराती तथा उड़िया लोगों से किसी प्रकार का भी विशेष सम्बन्ध नहीं है। इन्हें तो हम लोगों को सुलझाना है। संपादकों का कर्तव्य है कि हिन्दी पत्र पत्रिका के द्वारा इन विषयों की ओर अपने राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करें। [ ८५ ] 

राष्ट्रीय भाव को स्थायी बनाने की कुंजी

ऊपर के उपायों के द्वारा राष्ट्रीय भाव जाग्रत हो सकेगा किन्तु उस भाव को स्थायी बनाने के लिये यह आवश्यक होगा कि देशवासी राष्ट्रीय हित के आगे जाति-पांति तथा धर्म इत्यादि को गौण स्थान देना सीखें। वर्तमान सामाजिक तथा धार्मिक व्यवस्था अथवा अव्यवस्था के रहते हुये राष्ट्रीय भाव जड़ नहीं पकड़ सकता। अपने देश में धर्म्म और समाज के रूप में सदा परिवर्तन होता रहा है और अब एक बार फिर परिवर्तन करना अनिवार्य हो गया है। राष्ट्रीय नेताओं का कर्तव्य है कि उन सामाजिक और धार्मिक बुराइयों को दूर करने का पूर्ण उद्योग करें जिनके कारण राष्ट्र शन्तिहीन हो गया है और सैकड़ों वर्षों से गुलामी करते हुए भी अपमान का अनुभव नहीं करता है। जाति-पांति के भेद-भाव और घृणा तथा, धार्मिक अन्धविश्वास और अनुदारता को छोड़ना ही पड़ेगा।

मेरा दृढ़ विश्वास है कि हिन्दी-भाषा-भाषियों के उद्धार का उपाय हिन्दीराष्ट्र को दृढ़ तथा स्थायी बनाने में है। इसीमें भारत तथा मनुष्य मात्र का हित भी सन्निहित है। भारत के प्रत्येक राष्ट्र के उन्नत तथा दृढ़ होने पर ही राष्ट्रसंघ भारतवर्ष के स्थायी पुनरुत्थान की संभावना हो सकती है। भारत माता के प्रत्येक पुत्र को बलिष्ठ, स्वावलंबी और सुखी होना चाहिये। निर्बल, पराधीन और दरिद्र पुत्र एक दूसरे की क्या सहायता करेंगे और क्या उनके द्वारा माता को सेवा हो सकेगी?