हिन्दी-राष्ट्र या सूबा हिन्दुस्तान/हिन्दी राष्ट्र

 

 

३.. हिन्दी राष्ट्र
हिन्दी बोलने वाले हमारे सच्चे देशवासी हैं

अब यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब भारतवर्ष एक राष्ट्र नहीं है तब हम किसे अपना राष्ट्र मानें। इसका उत्तर देना अब कठिन नहीं है। साधारणतया हम कह सकते हैं कि राष्ट्र की एक मुख्य तथा प्रत्यक्ष पहिचान भाषा की एकता है, अतः भारत के जितने भूमि-भाग में हमारी भाषा, अर्थात् हिन्दी या हिन्दुस्तानी मातृ-भाषा की तरह बोली और समझी जाती हो वह हमारा राष्ट्र है। इस परिभाषा के अनुसार दक्षिण भारत के तामिल, तेलगू, मलयायम तथा कनारी इत्यादि द्राविड़ भाषा बोलने वाले भूमिभाग तो निकल ही जावेंगे; साथ ही आसामी, बंगाली, उड़िया, मराठी, गुजराती तथा सिन्धी प्रदेश भी छोड़ने पड़ेंगे। पंजाब में नगरों में पढ़े लिखे लोग लिखने पढ़ने में हिन्दुस्तानी का व्यवहार अवश्य करते हैं, किन्तु साधारण जन-समुदाय तथा वास्तव में इन नगर वासियों की भी मातृभाषा पंजाबी ही है, हिन्दुस्तानी नहीं। पंजाब के गाँव का आदमी हिन्दुस्तानी भली प्रकार समझ भी नहीं सकता, बोल सकना तो दूर की बात है। अतः पंजाब की भी पृथक् गिनती करनी पड़ेगी। काश्मीर से लेकर भूटान तक के हिमालय के प्रदेशों में बहुत सी भिन्न भिन्न पहाड़ी भाषाएँ बोल जाती हैं जिन्हें हम लोग नहीं समझ सकते, अतः इस सम्पूर्ण पहाड़ी भूमि-भाग को भी इस सिद्धान्त के अनुसार छोड़ना पड़ेगा।

परन्तु पश्चिम में राजपूताने के जैसलमीर राज्य से लेकर पूर्व में बिहार के भागलपुर जिले तक तथा उत्तर में यमुना और सतलज के बीच में अम्बाला नगर से लेकर दक्षिण में मध्य प्रान्त के रायपुर तक के भारत के शेष मध्य भाग के इस प्रकार सहसा विभाग करना सरल नहीं है। साधारणतया यह कहा जा सकता है कि इस सम्पूर्ण भूमि-भाग में एक ही भाषा-हिन्दुस्तानी–बोली जाती है, यद्यपि लोगों की ठेठ बोलियों के रूप कुछ कुछ भिन्न अवश्य हैं। भाषा सर्वे के अनुसार इस भूमि-भाग में भी तीन या चार भिन्न भाषायें हैं। बिहार प्रान्त में दर्भङ्गा की मैथिली तथा पटना की मघई बोलियाँ और बनारस-गोरखपुर की भोजपुरी बोली, यह तीनों मिलाकर बिहारी-भाषा के नाम से एक जगह एकत्रित की गई हैं। राजपूताने की मारवाड़ी, मेवाड़ी जयपुरी और मालवी बोलियों को राजस्थानी भाषा नाम दिया गया है। शेष मध्य भाग की भाषा हिन्दी मानी गई है, यद्यपि इसके भी पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी के नाम से दो भिन्न रूप माने गये हैं। मेरठ के निकट की खड़ी बोली पानीपत के चारों ओर की बांगडू, मथुरा की ब्रजभाषा, कन्नौज की कन्नौजी तथा बुंदेलखण्ड की बुंदेली, इन पाँच बोलियों को पश्चिमी हिन्दी कहा है; तथा अवध की अवधी, बघेलखण्ड की बघेली और छत्तीसगढ़ की छत्तीस गढ़ी इन तीन को पूर्वी हिन्दी नाम दिया गया है। अतः भाषासर्वे के आधार पर भारत के इस विस्तृत मध्य भाग में चार नहीं तो तीन भाषायें अवश्य ही माननी पड़ेंगी। यदि भाषा के स्थान पर बोलियों के आधार पर विभाग करने के सिद्धान्त को माना जाय तब तो पन्द्रह सोलह विभाग करने पड़ेंगे।

किन्तु राजनीति-शास्त्र में राष्ट्र की एक भाषा होने के सिद्धान्त का तात्पर्य भाषा-शास्त्र के सिद्धान्त से भिन्न है। व्याकरण के सूक्ष्म रूपों के आधार पर भाषाओं तथा बोलियों का पृथक्करण भाषा-शास्त्र का क्षेत्र है और यह वहाँ ही शोभा देता है। राजनीति-शास्त्र में एक भाषा-भाषी लोगों का एक राष्ट्र में होने का केवल इतना ही तात्पर्य है कि राष्ट्र में छोटे से बड़े तक, तथा बच्चों से बूढ़े तक सब लोग एक दूसरे की बात को स्वाभाविक रीति से अच्छी तरह समझ, सकें, जिससे व्यर्थं को किसी कृत्रिम माध्यम का सहारा लेने की आवश्यकता न पड़े। इस अर्थ में राजस्थान से लेकर बिहार तक तथा सरहिन्द से लेकर छत्तीसगढ़ तक की भाषा एक ही कही जा सकती है। इस समस्त भूमि-भाग में व्यवहार की केवल एक ही भाषा हिन्दुस्तानी है, जिसका यहाँ की बोलियों से इतना निकट का सम्बन्ध है कि किसी भी बोली के बोलने वाले से इस माध्यम के द्वारा बड़ी सरलता से बात चीत की जा सकती है तथा उस मनुष्य की बोली भी बहुत कुछ समझ में आ जाती है। हिन्दी-भाषा-भाषी प्रदेश के सम्बन्ध में तो यह प्रायः निश्चयात्मक रूप से कहा जा सकता है। मेरठ, रायबरेली और रायपुर के किसान एक दूसरे से भली प्रकार बातचीत कर सकते हैं, किन्तु बिहार और राजस्थान के सम्बन्ध में यह बात यकायक नहीं कही जा सकती। बीकानेर का किसान भागलपुर के किसान की बोली कदाचित् ठीक ठीक नहीं समझ सकेगा। इनकी बोलियाँ एक दूसरे से इतनी दूर हो गई हैं कि उनमें साम्य कम है और विभिन्नता अधिक। इस सम्बन्ध में भली प्रकार परीक्षा होनी चाहिए। यदि यह बात ठीक निकले तो भाषासर्वे के अनुसार बिहार और राजस्थान का हिन्दी भूमि-भाग के साथ रखने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इस अवस्था में एक बात और करनी होंगी। बिहार और राजस्थान को अपनी अपनी बोलियों में से एक एक को छाँट कर उसे अपनी साहित्यिक-भाषा बनानी होंगी। यह सब जगह होता आया है। हिन्दी के भूमिभाग में मेरठ के चारों ओर की बोली आजकल सम्पूर्ण हिन्दीभाषा-भाषियों की सर्वमान्य भाषा हो गई है। प्रायः सौ वर्ष पूर्व तक साहित्य की दृष्टि से यह स्थान मथुरा की बोली ब्रजभाषा को मिला हुआ था।

इस सब से तात्पर्य यह निकला कि भारत के इस बड़े भूमिभाग में भी पूर्ण रूप से भाषा का ऐक्य नहीं है। प्राचीन "मध्य देश" की भाषा अवश्य एक हिन्दी या हिन्दुस्तानी है, अतः इतने भूमि-भाग में राष्ट्र का प्रथम लक्षण-भाषा का ऐक्य-अवश्य घटित होता हैं। तब इतना भूमि-भाग तो निस्सन्देह अपना राष्ट्र कहा जा सकता है। बिहारी और राजस्थानी भाषाओं के भूमि
भागों के सम्बन्ध में यह बात इतने निश्चयात्मक रूप ले नहीं कही जा सकती । साधारण रूप से यह भूमि-भाग भी हिन्दी राष्ट्र के ही अन्तर्गत हैं क्योंकि इन भूमि-भागों की जनता ने भी हिन्दी या हिन्दुस्तानी के ही साहित्यिक भाषा के रूप में अपना रक्खा है।

हिन्दी भाषा-भाषी एक शासन में होने चाहिये

राष्ट्र के लक्षणों में भाषा की एकता मुख्य अवश्य है, किन्तु साथ ही अन्य लक्षणों का होना भी आवश्यक है। भाषा के बाद राज्य के ऐक्य का स्थान है। आज कल वैसे तो बंगाल से लेकर सिन्ध तक तथा पंजाब से लेकर केरल तक का प्रायः सम्पूर्ण भारत एक ब्रिटिश शासन में ही है, किन्तु साथ ही संसार के स्वतन्त्र राष्ट्रों के टक्कर के ब्रिटिश-भारत के प्रान्तिक विभाग इस शासन के ऐज्य में कुछ कठिनाई अवश्य उपस्थित करते हैं। इनके अतिरिक्त सैकड़ों देशी राज्य भी भारत के इस एक छत्राधिपत्य में कुछ बाधक होते हैं। इन प्रान्तों और देशी राज्यों के विभागों के कारण हिन्दी-भाषा-भाषी लोग भी एक शासन में नहीं हैं। वे ब्रिटिश भारत के संयुक्त-प्रान्त, मध्य प्राप्त और पंजाब तथा मध्य-भारत और राजस्थान के कुछ देशी राज्यों में जुटे हुए हैं। यह अवस्था तब है जब बिहार और राजस्थान की गिनती नहीं की है। इनमें बिहार को प्रायः एक प्रान्तिक शासन में हो गया है, किन्तु राजस्थान का एक शासन में होना दूर की बात है। राजस्थान में छोटे बड़े शासकों के रहने पर भी उन सब के ऊपर एक दृढ़ शासन के बन्धन के होने से
कार्य्य निकल सकता है। कुछ कुछ ऐसा ही रूप वहाँ आज कल है भी।

बहुत प्राचीन समय में शासन के कुछ स्वाभाविक विभाग हिन्दी-भाषा-भाषी भूमिभाग में थे। ये जनपद कहलाते थे। किसी नदी के किनारे कुछ दूर तक बसे हुए आर्य्यं लोग, जो उस समय की स्थिति के अनुसार एक दूसरे से सुविधापूर्वक मिल जुल सकते थे, एक पृथक् केन्द्र मान कर अपना स्वतन्त्र शासन स्थापित कर लेते थे। यह केन्द्र जनपद की राजधानी होती थी जहां जनपद और राजधानी के लोगों की अनुमति से चुना हुआ राजा मंत्रियों की सहायता से जनपद की रक्षा के लिए तत्पर रहा करता था। रामायण में कोसल जनपद के इस प्रकार के शासन की कुछ कुछ झलक देखने को मिलती है।

जब प्रजाबल क्षीण हो गया तो जनपद तथा पुरवासियों को सुनवाई शासन में नहीं रही। वंश परम्परा के अनुसार राजा होने लगे, चाहे वे योग्य हों या अयोग्य। ये राजा अपने कुल के लोगों तथा कुछ मंत्रियों की सहायता से शासन चलाते थे। प्रजा का हाथ शासन में से हट गया। महाभारत काल में प्रायः यही अवस्था थी। उस समय इन राजवंशों के लिए जनपद थे, जनपदों के लिए राजवंश नहीं थे। यह इस देश की शासन प्रणाली में पहला किन्तु बहुत बड़ा पतन था जिसका फल अच्छा नहीं हो सकता था। कुछ थोड़े से लोगों के हाथ में सम्पूर्ण देश की शक्तियों का इकट्ठा हो जाना तथा प्रजा के अज्ञान मुलावे अथदा धोके के कारण उस संपूर्ण शक्ति का उपयोग करने की इन थोड़े से लोगों के हाथों में पूर्ण स्वतन्त्रता होने का सदा एक ही फल हुआ है—जो भारत वर्ष में महाभारत के युद्ध में देखने को मिला था तथा आज कल योरप के महायुद्ध में देखने को मिला।

जनपदों की प्रजा तो पहले हो से शक्तिहीन हो गई थी, महाभारत के बाद ये राजवंश भी बहुत निर्बल हो गये। इसका फल यह हुआ कि किसी एक राजवंश के राजा के शक्तिशाली हो जाने पर पड़ोस के अन्य राजाओं को अपने नाश के रूप में अपनी निर्बलता का कर देना पड़ता था। यह साम्राज्यों का युग था, जिसका उग्र रूप बौद्ध काल से देखने को मिला। बुद्ध भगवान् के समय तक उत्तर भारत में सोलह महाजनपदों के नाम से पृथक् पृथक् राज्य थे। दो तीन सौ वर्ष के अन्दर ही इनका स्वतन्त्र अस्तित्व लुप्त हो गया। ये सोलह महाजनपद तथा साथ ही इनके निकट के अन्य पड़ोसी राज्य मगध के मौर्य राजाओं के अधीन हो गये। जनपदों के इन स्वतन्त्र रूपों की नींव पर बनी हुई यह साम्राज्य प्रथा बहुत सराहनीय नहीं कही जा सकती। कुछ काल तक तो जनपदों का पृथक् अस्तित्व इन साम्राज्यों के अन्तर्गत भिन्न भिन्न प्रान्तों के रूप में चला, किन्तु यह अवस्था भी बहुत दिनों नहीं रह सकी।

अपने हाथों से शासन की बागडोर बिलकुल छिन जाने के कारण अब प्रजा की शक्ति दिन प्रति दिन और भी क्षीण होने लगी। राजवंशों का भी स्थायी रूप नहीं रहा। इस अवस्था में अपनी रगों में पुराने राजाओं का रक्त रखने का गौरव करने वाले मनचले शक्तिशाली पुरुष अपने बाहुबल के आधार पर भारत में राज्यों को बनाने और बिगाड़ने का बीड़ा उठाने लगे। इस काल में इन व्यक्तिगत शासकों की इच्छा तथा शक्ति पर ही पड़ोस के राज्यों की सीमाओं की लकीरें अवलम्बित होती थीं। कैसी अस्वाभाविक बात थी। यह प्रारम्भिक-राजपूत-काल कहा जा सकता है। इस समय पड़ोस के राजा को नष्ट करके अपने राज्य में मिला लेना ही प्रत्येक राज्य का एक मात्र लक्ष्य होता था। घर में जब ऐसी भारी फूट हो तब बाहर वालों का आना स्वाभाविक ही है।

इसी समय अरब के मुसलमानों ने आक्रमण करना आरम्भ किया। घर में वैसे ही निरन्तर संग्राम हो रहा था, विदेशियों से देश की रक्षा कौन करे। राज्य के छिन जाने से, अपने विलास करने के स्वार्थ में बाधा पड़ने का भय देख ये राजा अन्त में कुछ सचेत हो गए। ये शक्तिशाली शासक इन आक्रमणकारियों से सचमुच सिंहों की ही तरह पृथक् पृथक् लड़े, किन्तु अल्प शक्ति रखने वाले साधारण मनुष्य भी एक एक कर के सिंहों के समुदाय को मार सकते हैं, फिर इन आक्रमणकारियों के पास तो अपने धर्मप्रचार के अन्धविश्वास तथा स्वर्णभूमि भारत को लूटने के स्वार्थ के रूप में दो अन्य प्रबल शक्तियां भी थीं जो इन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। गंगा की घाटी की असहाय प्रजा के पति ये हिन्दू नरेश एक एक कर के या तो मार डाले गए या हार कर इन्होंने हिमालय की अज्ञात घाटियों, विन्ध्य के दुर्गम वनों अथवा राजस्थान की निर्जन मरुभूमि की शरण ले ली। सच्चे सिंहों के समान इन्हें भी जीता पकड़ लेना सरल न था। इनकी सन्तति अब भी इन बीहड़ स्थानों में देखने को मिल सकती है।

परन्तु गंगा की घाटी की प्रजा अब भी नहीं जगी। पाँच छः सौ वर्ष तक इन पर मुसलमानों का शासन रहा। अन्तिम मुसलमान शासक आरम्भ के उन आक्रमण करने वाले अरब के मुसलमाओं से भिन्न हो गए थे। इसका कारण था। इन आक्रमण करने वाले अरब के मुसलमानों ने हमारे देश के बहुत से लोगों को मुसलमान-धर्मावलम्बी बनाया। धीरे धीरे मुसलमानी धर्म जानने वाले इन भारतीयों की संख्या बहुत अधिक हो गई। अन्तिम मुसलमान शासकों के समय में देश में जो सुशासन हो। चला था उसका कारण यही था कि देश का शासन प्रायः भारतीय लोगों के हाथ में हो गया था, यद्यपि इनमें से बहुत से मुसलमान-धर्म्मावलम्बी अवश्य थे। अन्तिम मुसलमान शासकों ने एक बार फिर बल पकड़ा और राजपूत राजाओं का सहारा मिल जाने से साम्राज्य स्थापित करने की बीमारी एक बार फिर फैली। इस बार प्रजा को भी बहुत दुःख भोगने पड़े, किन्तु अब तो प्रजा इतनी निर्जीव हो गई थी कि रौंदे जाने पर भी करवट नहीं लेती थी। गंगा की घाटी का मुसलमान शासन से अंग्रेज़ों के शासन में जाना ठीक वैसा ही था जैसा गिरवी रक्खी हुई चीज़ को दस्तावेज़ बदल कर दूसरे को सौंप देना। क्लाइव ने बंगाल और बिहार के सूबों की दीवानी, कम्पनी बहादुर को ठीक इसी दस्तावेज़ी रीति से दिलाई थी।

शासन के पुराने स्वाभाविक विभाग अब प्रायः पूर्ण रीति से नष्ट हो चुके थे। हमारे इन नये शासकों ने जिस क्रम से हमारे पुराने मालिक मुसलमान अथवा हिन्दू शासकों से ये दस्तावेज़ें छीनी थीं उसी क्रम से ये इन्हें रखते गए। ब्रिटिश भारत का प्रान्तीय विभाग इसी सिद्धान्त के अनुसार—यदि इसे सिद्धान्त कहा जा सकता है—हुआ है। हमारे यहाँ के भोले भाले लोग तो अंग्रेज़ों के इस मनमाने क्रम से बनाए हुये प्रान्तों पर ही गौरव करने लगे हैं। मध्यप्रान्त अपने में कुछ ऐतिहासिक ऐक्य अनुभव करने लगा है, अजमेर का प्रान्त अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग ही पकाना पसन्द करे तो कुछ आश्चर्य नहीं। देहली के नन्हें से प्रान्त की प्रजा अंग्रेज़ी भारत साम्राज्य के केन्द्र होने पर ही गौरव करने लगी है। हमारी गिरी हुई अवस्था की यह पराकाष्ठा है।

गंगा की घाटी के लोगों का भविष्य में राजनीतिक रूप तथा उसका विस्तार यहाँ के पुराने जनपदों या राज्यों के ही ठीक अनुरूप हो, यह सम्भव नहीं। काल तथा स्थिति को विभिन्नता को भुला देना उचित न होगा। एक समय था जब देश में प्रत्येक गाँव अपनी अलग अलग खाई और कच्ची दीवार के सहारे अपनी रक्षा कर लेता था। उस समय लोग तीर-कमान और तलवारों से लड़ते थे। अब आजकल सत्तर मील तक मार करने वाली तोपों, हवाई जहाज़ों और बेतार की तारवर्क़ी के वैज्ञानिक युग में फ़्रांन्स और इंग्लैण्ड जैसे सुव्यवस्थित शक्ति रखने वाले विशाल राष्ट्र भी अपने को सुरक्षित नहीं समझते, हम जर्जरति लोगों का तो कहना ही क्या है! हमारे नये शासन का रूप विस्तार में तो यहाँ के प्राचीन जनपदों से बड़ा होगा ही, शासन प्रणाली में भी आवश्यकतानुसार उनसे भिन्न होगा। जो हो वर्तमान अवस्था अब बहुत दिनों नहीं ठहर सकती। हिन्दीभाषा-भाषी लोगों का शासन के लिये एक स्वाभाविक विभाग—चाहे वह इस समय ब्रिटिश भारत के प्रान्त के रूप में हो अथवा कांग्रेस के सूबे के रूप में—शीघ्र ही बनना चाहिये। यह मानना पड़ेगा कि राष्ट्र का दूसरा लक्षण, एक राज्य का होना, हिन्दी भाषा-भाषी लोगों पर बंगाल इत्यादि की तरह एक प्रान्त के रूप में भी अभी घटित नहीं होता। तभी तो अपने राष्ट्र के स्वरूप का दर्शन भी नहीं होता। भाषा के आधार पर प्रान्त बनाने, पर ही शासन विभाग के ऐक्य से होने वाले लाभों का कुछ कुछ दिग्दर्शन हो सकेगा।

हिन्दी-भाषा-भाषियों का हानिलाभ बहुत बातों में शेष भारत से भिन्न है।

जब एक भाषा होने के स्पष्ट ऐक्य को ही अपने लोग नहीं समझते तो हानि-लाभ की एकता का सूक्ष्म प्रश्न तो और भी जटिल है। इस संबंध में इस समय इतना ही कहना बहुत होगा कि हिन्दी-भाषा-भाषियों का हानि-लाभ—चाहे वह आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक अथवा साहित्यिक किसी प्रकार का भी हो—भारत के अन्य भाषा-भाषियों से पृथक् है और रहेगा। हिन्दी साहित्य की उन्नति के लिए हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन काम आवेगा, बंगीय-साहित्य-परिषद् से काम नहीं चलेगा। अपने यहाँ की स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए महाराष्ट्र के महिला विद्यालय को धन देने से कोई विशेष लाभ नहीं। हम लोगों के धन के दुरुपयेाग को मद्रास की कौंसिल नहीं रोक सकेगी, इसके लिए अपनी कौंसिलों में ही शक्तिशाली होकर लड़ना पड़ेगा। यहाँ के मन्दिरों के सुधार के लिए हमी लोगों को अग्रसर होना पड़ेगा, पंजाब के अकाली वीरों से सहायता मिलने के ध्यान में हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से लज्जा मालूम होनी चाहिए। यह सच है कि आज कल एक अंग्रेज़ी शासन में होने के कारण भारत के सब भिन्न भिन्न राष्ट्रों की चोटियें एक में बँधी हुई हैं। इस रस्सी के खिंचने या ढीले होने से जो सुख या दुःख होता है उसका अनुभव आजकल भारत के समस्त राष्ट्रों को साथ ही होता है। किन्तु जिस दिन यह रस्सी कटी, उस दिन फिर इसी रूस में बँधे खड़े रहने में शोभा नहीं होगी। हम सब लोग स्वतन्त्रता पूर्वक एक साथ रहते रहें यह दूसरी बात है। कदाचित् यह आवश्यक भी हो।  

हिन्दीराष्ट्र गंगा की घाटी में बसता है

राष्ट्र के लक्षणों में देश की एकता का अर्थ केवल इतना ही है कि देश के एक भाग से दूसरे भाग में आने जाने में कठिनाई न होती हो। आजकल विज्ञान की उन्नति के कारण आने जाने तथा समाचार पाने की अनेक सुविधायें हो गई हैं, अतः आज कल के देश, पहले के देशों से बड़े हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देश के ऐक्य में या तो दूरी बाधक होती है या प्राकृतिक दुर्गम बाधायें। तिब्बत और गंगा की घाटी एक देश नहीं कहे जा सकते, क्योंकि बीच में हिमालय का दुर्गम प्राकार है। बंगाल और सिन्ध एक देश नहीं हो सकते, क्योंकि ये एक दूसरे से बहुत दूर हैं, यद्यपि बीच में कोई विशेष प्राकृतिक बाधा नहीं है। इस दूरी अथवा प्राकृतिक बाधा का प्रभाव लोगों पर पड़ता है, इसीलिए देश के ऐक्य के सिद्धान्त को भी राष्ट्र के लक्षणों में मानना पड़ता है। जिस समय उड़ीसा में सहस्रों स्त्री, पुरुष और बच्चे भूख से तड़प तड़प कर प्राण देते हों उसी समय धन-धान्य-पूर्ण गुजरात में लोग विलास में समय-यापन कर रहे हों यह बिलकुल संभव है। इसमें देश की विभिन्नता ही कारण हो सकती है। एक देश में यह बात सम्भव नहीं। जिसने लोगों पर सुख दुःख का प्रभाव प्रायः एक सा तथा एक साथ पड़ता हो उतने ही लोगों में आपस में सच्ची सहानुभूति तथा ऐक्य हो सकता है।

उत्तर भारत में इस प्रकार के एक देश का रूप स्थिर करने के लिये हिमालय प्रदेश को तो छोड़ देना ही पड़ेगा। शेष मैदान में पंजाब की भूमि भी भिन्न है। गंगा का मैदान अवश्य एक है। हिमालय से लेकर विन्ध्य की पथरीली भूमि के आरम्भ होने तक इस मैदान की चौड़ाई तो अधिक नहीं है, किन्तु लम्बाई अवश्य अधिक है। भागलपुर के भागे जिस स्थान से गंगा समुद्र से मिलने के लिये दक्षिण की ओर झुकती है गंगा के मुहाने का उतना समभाग बंगाल देश के रूप में पृथक् है ही, किन्तु शेष अंश के भी कदाचित् दो भाग किये जा सकते हैं। ये दो भाग आज कल संयुक्त-प्रान्त और बिहार के रूप में देख पड़ते हैं, यद्यपि इनकी सीमा वैज्ञानिक रीति से नहीं बटी है।

गंगा के मैदान के दक्षिण का विन्ध्य का भूमि-भाग प्राकृतिक दृष्टि से इस मैदान से भिन्न अवश्य है, किन्तु गंगा की घाटी के लोगों के लिये यह दुर्गम नहीं है। आगरा या प्रयाग से ग्वालियर, रीवाँ अथवा सागर या जबलपुर पहुँचना आजकल के वैज्ञानिक युग में ऐसा ही सरल है जैसे आगरे से प्रयाग पहुँचना। अतः विन्ध्य के इस भाग को गंगा की घाटी से पृथक् भिन्न देश समझना आवश्यक नहीं है। इसके अतिरिक्त यहाँ के लोग गंगा की घाटी के ही रहने वाले हैं। ये अभी कुछ ही दिनों से वहाँ जाकर बसे हैं। भाषा, रीति-रिवाज, धर्म तथा अन्य सब बातों में ये दोनों एक ही हैं। नर्मदा के दक्षिण का कुछ भाग तथा महानदी के आरम्भ की घाटी का कुछ भाग-छत्तीसगढ़ प्रदेश-अवश्य कुछ दूर पड़ता है, किन्तु क्योंकि यहाँ भी हिन्दी-भाषा-भाषी बस रहे हैं, अतः इन प्रदेशों का भी साथ रहना आवश्यक है। क्या छत्तीसगढ़ के लोग निकट होने के कारण उड़ीसा या आन्ध्र लोगों के साथ रहना पसन्द करेंगे?

राजस्थान का भूमि-भाग कुछ नहीं तो देशी राज्यों की शासन-प्रणाली की एकता के कारण ही कुछ भिन्न मालूम पड़ता है। गंगा की घाटी से यह प्राकृतिक रूप में भी भिन्न है। अरावली के उस पार मारवाड़ का देश तो बिलकुल ही पृथक् हैं। यद्यपि राजस्थान के लोग हमारे ही भाई-बन्धु हैं जो मुसलमानों के आक्रमण के समय में अपने पूर्वपुरुषों की भूमि, गंगा को घाटी को छोड़ कर वहाँ जा बसे थे, किन्तु कई सौ वर्षों से पृथक् रहने के कारण इनके रहनसहन, वेषभूषा, भाषा तथा सामाजिक और धार्मिक विचारों में बड़ा अन्तर हो गया है। शासन प्रणाली को विभिन्नता को तो ऊपर बताया ही जा चुका है, जिसके कारण और भी बहुत सी बातों में भेद हो जाया करता है। संयुक्तप्रान्त के किसानों की अवस्था सुधारने के प्रश्न को राजस्थानी भाई अपने देश में रहते हुये ठीक ठीक नहीं समझ सकते।

हिन्दू-मुस्लिम समस्या

जैसा ऊपर दिखलाया जा चुका है भाषा, राज्य, हानि-लाभ तथा देश इन चार ऐक्यों के अतिरिक्त कुछ अन्य बातें भी हैं जो राष्ट्र के बनने में सहायक होती हैं। इनमें से धर्म्म के सम्बन्ध में हिन्दी-भाषा-भाषी प्रदेश में हिन्दू और मुसल्मान धर्म्मों का प्रश्न बड़ा जटिल है। धर्म्म का प्रभाव भिन्न-भिन्न धर्म्मानुयायी लोगों की भाषा, राज्य तथा हानि-लाभ इत्यादि सभी बातों पर पड़ता है। अपने देश में हिन्दू मुसलमान दोनों के आदर्श इन सब बातों में थोड़े बहुत भिन्न तो हैं ही, ऊपर से स्वार्थी लोगों के प्रोत्साहन से इस पृथकता ने और भी स्पष्ट रूप धारण कर लिया है। इस भेद का बनावटी अंश तो निकाला जा सकता है किन्तु स्वाभाविक विभिन्नता का कुछ अंश अवश्य रह जायगा। इसका कोई उपाय नहीं, सिवा इसके कि ये दोनों धर्म एक हो जायें। यह बात संपूर्णतया असंभव नहीं है। एक समय हमारे सम्पूर्ण देश के लोग बौद्ध-धर्मावलम्बी हो गये थे, किन्तु अब तो बौद्ध आदमी ढूंढने पर भी कठिनाई से मिलता है। धर्म का ऐक्य राष्ट्र निर्माण के लिये नितान्त आवश्यक नहीं है, यद्यपि इसके होने से लाभ बहुत हैं।

हिन्दी-भाषा-भाषी एक वर्ग के हैं

वर्ग की एकता हिन्दी-भाषा-भाषी लोगों में थोड़ी बहुत अवश्य पाई जाती है। गंगा की घाटी की जनता प्रायः एक ही से शरीर की बनावट की है यद्यपि पश्चिम से पूर्व की ओर धीरे धोर अन्तर अवश्य होता गया है। योरपीय विद्वानों के अनुसन्धान के अनुसार 'हिन्दुस्तानी' आर्य-द्राविड़ वर्ग के हैं। राजस्थान के लोगों को गिनती आर्य वर्ग में की गई है। बिहार तथा वर्तमान मध्य प्रान्त में भी प्रायः आर्य-द्राविड़ वर्ग के ही लोग हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि इनमें क्रम से मंगोल तथा द्राविड़ अंश अधिक होता गया है।
राष्ट्रीय भावना को जगाना होगा

एक अन्तिम बात और है जो इन सब बातों की आत्मा है । यह है लोगों में इस भाव का होना कि हम एक हैं। इस भाव को नीव उपर्युक्त बातों पर ही निर्भर है। इन बातों के दृढ़ होने से इसकी भी पुष्टि होती है। किन्तु इस भाव के जाग्रत होने का मुख्य कारण राष्ट्र के लोगों का एक साथ सुख दुःख उठाना है। बंगाल में राष्ट्रीयता के लक्षण होने पर भी इस भाव की जनता में जाग्रति बंगभंग के आन्दोलन से हुई थी। अपने को एक समझने का यह भाव इस समय हिन्दी-भाषा-भाषियों में नहीं है। इस भाव को जाग्रत करने के लिये सब से प्रथम यह नितान्त आवश्यक है कि भाषा, राज्य, हानिलाभ तथा देश आदि की एकताओं को पुष्ट कर के इस भाव की नींव सुदृढ़ कर ली जाय। तभी अवसर मिलने पर इस भाव का प्रत्यक्ष दर्शन भी हो सकेगा।

तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक विभिन्नता तथा अन्य सब बातों को ध्यान में रखते हुये भारत के इस हिन्दी-भाषा-भाषो वृहत् मध्य भाग को अधिक से अधिक तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। राजस्थान एक प्रकार से पृथक् है ही। बिहार भी बहुत समय से पृथक् रहा है। शेष गंगा की घाटी और दक्षिण के विन्ध्य का भाग, जिसमें हिन्दी-भाषा-भाषी लोग रहते हैं, हमारा हिन्दी राष्ट्र है। यह मानना पड़ेगा कि बंगाल, आन्ध्र, गुजरात तथा महाराष्ट्र आदि की तरह भाषा, राज्य, हानिलाभ तथा देश की एकता अभी हिन्दीराष्ट्र में उतनी स्पष्ट नहीं है। यहाँ के लोग अपनी एकता को अभी अनुभव नहीं करते। इसका कारण यह है कि हम लोग बहुत समय से पददलित थे और अब भी भारत के अन्य लोगों से इतने पिछड़े हुए हैं कि अभी तक दूसरों के अधीन रहने में अपमान नहीं समझते। दूसरों के साथ में रहते रहते हमारा व्यक्तित्व नष्ट हो गया है। इस राष्ट्रीय व्यक्तित्व का फिर से उद्धार होना अवश्य है।