हिंदी साहित्य का इतिहास - भट्ट केदार

केदार ने 'जयचंद-प्रकाश' नाम का एक महाकाव्य लिखा था। जिसमें महाराज जयचंद के प्रताप और पराक्रम का विस्तृत वर्णन था[]। इसी प्रकार का 'जयमयंक-जसचंद्रिका' नामक एक बड़ा ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है। केवल इनका उल्लेख सिंधायच दयालदास कृत 'राठौडॉ री ख्यात' में मिलता है जो बीकानेर के राजपुस्तक-भण्डार में सुरक्षित है। इस ख्यात में लिखा है कि दयालदास ने आदि से लेकर कन्नौज तक का वृत्तांत इन्हीं दोनों ग्रंथों के आधार पर लिखा है।

इतिहासज्ञ इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के आरंभ से उत्तर भारत के दो प्रधान साम्राज्य थे। एक तो था गहरवारो (राठौरों) का विशाल साम्राज्य, जिसकी राजधानी कन्नौज थी और जिसके अंतर्गत प्रायः सारा मध्य देश, काशी से कन्नौज तक, था। दूसरा चौहानो का, जिसकी राजधानी दिल्ली थी और जिसके अंतर्गत दिल्ली से अजमेर तक का पश्चिमी प्रांत था। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनो में गहरवारों का साम्राज्य अधिक विस्तृत, धन-धान्य-संपन्न और देश के प्रधान भाग पर था। गहरवारो की दो राजधानियाँ थी––कन्नौज और काशी। इसी से कन्नौज के गहरवार राजा काशिराज कहलाते थे। जिस प्रकार पृथ्वीराज का प्रभाव राजपूताने के राजाओ पर था उसी प्रकार जयचंद का प्रभाव बुँदेलखंड के राजाओं पर था। कालिंजर या महोबे के चंदेल राजा परमर्दिदेव (परमाल) जयचंद के मित्र या सामंत थे जिसके कारण पृथ्वीराज ने उन पर चढ़ाई की थी। चंदेल कन्नौज के पक्ष में दिल्ली के चौहान पृथ्वीराज से बराबर लड़ते रहे।

  1. भट्ट-भणत पर यदि, विश्वास किया जाय तो केदार महाराज जयचंद के कवि नहीं, सुलतान शहाबुद्दीन गोरी के कविराज थे। 'शिवसिंहसरोज' में भाटों की उत्पत्ति के संबंध में यह विलक्षण कवित्त उद्धृत है––

    प्रथम विधाता ते प्रगट भए बंदीजन, पुनि पृथुजज्ञ तें प्रकास सरसात है।
    मानै सूत सौनक न, बाँचत पुरान रहै, जैस को बखाने महासुख सरसात है।
    चंद चौहान के, केदार गोरी साह जू के, गंग अकबर के बखानै गुनगात है।
    काव्य कैसे माँस अजनास धन भाँटन को, लुटि धरै ताको खुरा-खोज मिटि जात है।