हिंदी व्याकरण/समुच्चय-बोधक
तीसरा अध्याय।
समुच्चय-बोधक।
२४२—जो अव्यय (क्रिया की विशेषता न बतलाकर) एक वाक्य का संबंध दूसरे वाक्य से मिलाता है उसे समुच्चय-बोधक कहते हैं, जैसे, और, यदि, तो, क्योकि, इसलिए।
"हवा चली और पानी गिरा"—यहाँ "और" समुच्चय-बोधक है, क्योंकि वह पूर्व वाक्य को संबंध उत्तर वाक्य से मिलाता है। कभी कभी समुच्चय-बोधक से जोड़े जानेवाले वाक्य पूर्णतया स्पष्ट नही रहते; जैसे "कृष्ण और बलराम गये।" इस प्रकार के वाक्य देखने में एकही से जान पड़ते हैं, परतु दोनों वाक्यों में क्रिया एक ही होने के कारण संक्षेप के लिए उसका प्रयोग केवल एक ही बार किया गया है। ये दोन वाक्य स्पष्ट रूप से यों लिखे जायँगे—"कृष्ण गये और बलराम गये।" इसलिए यहाॅ "और" दो वाक्यों को मिलता है। "यदि सूर्य न हो तो कुछ भी न हो।" (इति०)। इस उदाहरण में "यदि" और "तो" दो वाक्यो को जोड़ते हैं।
प्रकार का पाया जाता है। यहाँ हम केवल "हिं० बा० बो० व्याकरण" में दिये गये लक्षण पर विचार करते है। वह लक्षण यह है—"जो शब्द दो पदों, वाक्यों वा वाक्यों के अशो के मध्य में आकर प्रत्येक पद वा वाक्यांश के भिन्न भिन्न क्रिया-सहित अन्वय का संयेाग या विभाग करते हैं उनको समुच्चय-बोधक अव्यय कहते हैं; जैसे—राम और लक्ष्मण आये।" इस लक्षण में सबसे पहली दोष यह है कि इसकी भाषा स्पष्ट नहीं है। इसमें शब्दों की येाजना से यह नहीं जान पड़ता कि "भिन्न भिन्न" शब्द "क्रिया" का विशेषण है अथवा "अन्वय" का। फिर समुच्चय-बोधक सदैव दो वाक्यों के मध्य ही में नहीं आता, बरन कभी कभी प्रत्येक जुड़े हुए वाक्य के आदि में भी आता है; जैसे, यदि सूर्य्य न हो तो कुछ भी न हो।" इसके सिवा पद वा वाक्यांशों के सभी समुच्चय-बोधक नहीं जोडते। इस तरह से इस लक्षण में अस्पष्टता, अव्याप्ति और शब्द-जाल का दोष पाया जाता है। लेखक ने यह लक्षण "भाषा-भास्कर" से जैसा का तैसा लेकर उसमें इधर उधर कुछ शाब्दिक परिवर्तन कर दिया है, परंतु मूल के दोष जैसे के तैसे बने रहे। "भाषा-प्रभाकर" में भी "भाषा-भास्कर" ही का लक्षण दिया गया है; और उसमें भी प्रायः येही दोष है।
हमारे किये हुए समुच्चय-बोधक के लक्षण में जो वाक्यांश—"क्रिया की विशेषता न बतलाकर"—आया है उसका कारण यह है कि वाक्यों को जिस प्रकार समुच्चय-बोधक जोड़ते हैं उसी प्रकार उन्हें दूसरे शब्द भी जोड़ते हैं। संबंध-वाचक श्रौर नित्य-संबंधी सर्वनाम के द्वारा भी दे वाक्य जोड़े जाते है; जैसे, "जो गरजते है वह बरसते नहीं।" (कहा०।) इस उदाहरण में "जो" और "वह" दे वाक्यों का संबंध मिलाते हैं। इसी तरह "जैसा-तैसा" और "जितना-उतना" संबध-वाचक विशेषण तथा "जब-तब", "जहाँ-तहाँ", "जैसे-तैसे", आदि संबध-वाचक क्रिया-विशेषण भी एक वाक्य का संबंध दूसरे वाक्य से मिलाते हैं। इस पुस्तक में दिये हुए समुच्चय-बोधक के लक्षण से इन तीनों प्रकार के शब्दों का निराकरण होती है। संबध-वाचक सर्वनाम और विशेषण के समुच्चय-बोधक इसलिए नहीं कहते कि वे अव्यय नहीं हैं; और संबध-वाचक क्रिया-विशेषण को समुच्चय-बोधक न मानने का कारण यह है कि उसका मुख्य धर्म क्रिया की विशेषता बताना है। इन तीनों प्रकार के शब्दों पर समुच्चय-बोधक की अतिव्याप्ति बचाने के लिए ही उक्त लक्षण में "अव्यय" शब्द और "क्रिया की विशेषता न बतलाकर" वाक्यांश लाया गया है।] २४३—समुच्चय-बोधक अव्ययों के मुख्य दो भेद हैं—(१) समानाधिकरण (२) व्यधिकरण।
२४४—जिन अव्ययों के द्वारा मुख्य वाक्य जोड़े जाते हैं उन्हें समानाधिकरण समुच्चय-बोधक कहते हैं। इनके चार उप-भेद हैं:— (अ) सयोजक—और, व, तथा, एवं, भी। इनके द्वारा दो वा अधिक मुख्य वाक्यों का संग्रह होता है; जैसे, 'बिल्ली के पंजे होते हैं और उनमें नख होते हैं"।
व—यह उर्दू शब्द "और" का पर्यायवाचक है। इसका प्रयोग बहुधा शिष्ट लेखक नहीं करते, क्योकि वाक्यों के बीच में इसका उच्चारण कठिनाई से होता है। उर्दू-प्रेमी राजा साहब ने भी इसका प्रयोग नहीं किया है। इस "व" में और सस्कृत "वा" में जिसका अर्थ "व" का उलटा है, बहुधा गडबड़ और भ्रम भी हो जाता है। अधिकाश में इसका प्रयोग कुछ उर्दू सामासिक शब्दो में होता है, परंतु उनमे भी यह उच्चारण की सुगमता के लिये संधि के अनुसार पूर्व शब्द में मिला दिया जाता है, जैसे, नामो-निशान, आबो-हवा, जानो-माल। इस प्रकार के शब्दों को भी लेखक, हिंदी-समास के अनुसार, बहुधा "आब-हवा", "जान-माल", "नाम-निशान", इत्यादि बोलते और लिखते हैं, जैसे, "बुतपरस्ती (मुर्तिपूजा) का नाम-निशान न बाकी रहने दिया"। (इति०)।
तथा—यह सस्कृत संबंधवाचक क्रिया-विशेषण "यथा" (जैसे) को नित्य-सबंधी है और इसका अर्थ "वैसे" है। इस अर्थ में इसका प्रयोग कभी कभी कविता में होती है, जैसे, "रह गई अति विस्मित सी तथा। चकित चंचल चारु मृगी यथा"। गद्य में इसका प्रयोग बहुधा "और" के अर्थ में होता है, जैसे, "पहले पहल वहाँ भी अनेक क्रूर तथा भयानक उपचार किये जाते थे"। (सर०) इसका अधिकतर प्रयोग "और" शब्द की द्विरुक्ति का निवारण करने के लिए होता है, जैसे, "इस बात की पुष्टि में चैटर्जी महाशय ने रघुवंश के तेरहवें सर्ग का एक पद्य और रघुवंश तथा कुमार-सम्भव में व्यवहृत "संघात" शब्द भी दिया है। (रघु०)।
और—इस शब्द के सर्वनाम, विशेषण और क्रिया-विशेषण होने के उदाहरण पहले दिये जा चुके हैं। (अं०—१८४, १८५, २२३)। समुच्चय-बोधक होने पर इसका प्रयोग साधारण अर्थ के सिवा नीचे लिखे विशेष अर्थों में भी होता है (प्लाटूस साहब का हिंदुस्थानी व्याकरण)—
- (अ) दो क्रियाओं की समकालीन घटना; जैसे, "तुम उठे और खरावी आई"।
- (आ) दो विषयों का नित्य-संबंध; जैसे, "मैं हूँ और तुम है।"
(= मैं तुम्हारा साथ न छोड़ूँगा)।
- (इ) धमकी वा तिरस्कार; जैसे, "फिर मैं हूँ और तुम हो" (= मैं तुमको खूब समझूँगा)।
शब्दों के बीच में बहुधा "और" का लोप हो जाता है; जैसे, "भले-बुरे की पहचान," "सुख-दुख का देनेवाला", "चलो, देखो," "मेरे हाथ-पाँव नहीं चलते"। यथार्थ में ये सब उदाहरण द्वंद्व-समास के हैं।
एवं—"तथा" के समान इसका भी अर्थ "वैसे" वा "ऐसे" होता है, परंतु उच्च हिदी मे यह केवल "और" के पर्याय में आता है; जैसे, "लोग उपमायें देखकर विस्मित एवं मुग्ध हे जाते हैं।" (सर०)।
भी—यह पहले वाक्य से कुछ सादृश्य मिलाने के लिए आता है; जैसे, "कुछ महात्म ही पर नही, गंगा जी का जल भी ऐसा ही उत्तम और मनोहर है।" (स०)। कभी कभी यह, दूसरे वाक्य के बिना, केवल पहली कथा में संबंध मिलाता है, जैसे, "अब मैं भी तुम्हारी सखी का वृत्तात पूछता हूँ।" (शकु०)। दो वाक्यों वा शब्दों के बीच में "और" रहने पर इससे केवल अवधारणा का बोध होता है; जैसे, "मैंने उसे देखा और बुलाया भी।" कहीं कहीं "भी" अवधारण-बोधक प्रत्यय "ही" के समान अर्थ देता है, जैसे, "एक भी आदमी नहीं मिला।" "इस काम को कोई भी कर सकता है।" कभी कभी "भी" से आश्चर्य वा संदेह सूचित होता है, जैसे, "तुम वहाँ गये भी थे।" "पत्थर भी कहीं पसीजता है।" कभी कभी इससे आग्रह का भी बोध होता है, जैसे, "उठो भी।" "तुम वहाँ जाओगे भी।" इन पिछले मे "भी" बहुधा "ही" के समान क्रिया-विशेषण होता है।
- (आ) विभाजक—या, वा, अथवा, किंवा, कि, या—या,
चाहे-चाहे, क्या-क्या, न-न, न कि, नहीं तो।
इन अव्ययों से दो या अधिक वाक्यों वा शब्दों में से किसी एक का ग्रहण अथवा दोनो का त्याग होता है।
या, वा, अथवा, किवा—ये चारो शब्द प्राय पर्यायवाची हैं। इन मे से "या" उर्दू और शेष तीन सस्कृत हैं। "अथवा" और "किंवा" मे दूसरे अव्ययों के साथ "वा" मिला है। पहले तीन शब्दों का एक-साथ प्रयोग द्विरुक्ति के निवारण के लिए होता है, जैसे, "किसी पुस्तक की अथवा किसी ग्रंथकार या प्रकाशक की एक से अधिक पुस्तकों की प्रशसा में किसीने एक प्रस्ताव पास कर दिया" (सर०)। "या" और "वा" कभी कभी पर्याय-वाची शब्दों को मिलाते हैं जैसे, 'धर्मनिष्ठा या धार्मिक विश्वास।" (स्वा०)। इस प्रकार के शब्द कभी कभी कोष्टक में ही रख दिये जाते हैं; जैसे, "श्रुति (वेद) मे।" (रघु०)। लेखक-गण कभी कभी भूल से "या" के बदले "और" तथा "और" के बदले "या" लिख देते हैं, जैसे, "मुर्दे जलाये और गाडे भी जाते थे और कभी कभी जलाके गाड़ते थे।" (इति०)। यहॉ दोनो "और" के स्थान में "या", "वा" और "अथवा" में से कोई भी दो अलग अलग शब्द होने चाहिए। किंवा का प्रयोग बहुधा कविता में होता है; जैसे, "नृप अभिमान मोह बस किवा।" (राम०)। "वे हैं नरक के दूत किंवा सूत हैं कलिराज के।" (भारत०)।
कि—यह (विभाजक) "कि" उद्देशवाचक और स्वरूपवाचक "कि" से भिन्न है। (अं०-२४५-आ, ई)। इसका अर्थ "या" के समान है, परंतु इसका प्रयोग बहुधा कविता ही में होता है; जैसे, "रखिहहिं भवन कि लैहहि साथा।" (राम०)। "कज्जल के कूट पर दीप-शिखा सोती है कि श्याम घनमडल मे दामिनी की धारा है"। (क० क०)। "कि" कभी कभी दो शब्दों को भी मिलाती हैं; जैसे, "यद्यपि कृपया कि अपव्ययी ही हैं धनी मानी यहाँ" (भारत०)। परंतु ऐसा प्रयोग क्वचित होता है।
या—या—ये शब्द जोड़े से आते हैं और अकेले "या" की अपेक्षा विभाग का अधिक निश्चय सूचित करते हैं; जैसे, "या तो इस पेड़ में फॉसी लगाकर मर जाऊँगी या गंगा में कूद पड़ूँगी। (सत्य०)। कभी कभी "कहॉ-कहॉ" के समान इनसे "महत् अंतर" सूचित होता है; जैसे, "या वह रौनक थी या सुनसान हो गया"। कविता मे "या-या" के अर्थ में 'कि-कि' आते हैं, जैसे; "की तनु प्रान कि केवल प्राना। (राम०)।
कानूनी हिंदी में पहले "या" के बदले "आया" लिखते हैं जैसे "आया मर्द या औरत"। "आया" भी उर्दू शब्द है।
प्रायः इसी अर्थ मे "चाहे-चाहे" आते हैं; जैसे, "चाहे सुमेरु का राई करै रचि राई को चाहे सुमेरु बनावै।" (पद्मा०)। ये शब्द "चाहना" क्रिया से बने हुए अव्यय हैं।
क्या—क्या—ये प्रश्नवाचक सर्वनाम समुच्चय-बोधक के समान उपयोग में आते हैं। कोई इन्हे संयोजक और कई विभाजक मानते हैं। इनके प्रयोग में यह विशेषता है कि ये वाक्य में दो वा अधिक शब्दो का विभाग बताकर उन सबका इकट्ठा उल्लेख करते हैं, जैसे, "क्या मनुष्य और क्या जीवजंतु, मैंने अपना सारा जन्म इन्हींका भला करने में गँवाया"। (गुटका०)। "क्या स्त्री क्या पुरुष, सब ही के मन में आनंद छाय रहा था" (प्रेम०)।
न-न—ये दुहरे क्रियाविशेषण समुच्चय-बोधक होकर आते हैं। इनसे दो वा अधिक शब्दो में से प्रत्येक का त्याग सूचित होता है, जैसे, "न उन्हें नींद आती थी न भूख प्यास लगती थी"। (प्रेम०)। कभी कभी इनसे अशक्यता को बोध होता है; जैसे, "न ये अपने प्रबधों से छुट्टी पावेंगे न कही जायँगे"। (सत्य०)। "न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी"। (कहा०)। कभी कभी इनका प्रयोग कार्य-कारण सूचित करने में होता है, जैसे, "न तुम आते न यह उपद्रव खड़ा होता"।
न कि—यह "न" और "कि" से मिलकर बना है। इससे बहुधा दो बातों में से दूसरी का निषेध सूचित होता है, जैसे, अँगरेज लेाग व्यापार के लिये आये थे न कि देश जीतने के लिये"।
नहीं तो—यह भी संयुक्त क्रियाविशेषण है, और समुच्चय-बोधक के समान उपयेाग में आता है। इससे किसी बात के त्याग का फल सूचित होता है, जैसे, "उसने मुह पर घूंघट सा डाल लिया है, नहीं तो राजा की आँखें कब उस पर ठहर सकती थीं"। (गुटका०)।
(इ) विरोधदर्शक—पर, परतु, कितु, लेकिन, मगर, बरन, बल्कि। ये अव्यय दो वाक्यो मे से पहले का निषेध वा परिमिति सूचित करते हैं।
पर—"पर" ठेठ हिंदी शब्द है, "परंतु" तथा "किंतु" संस्कृत शब्द हैं और "लेकिन" तथा "मगर" उर्दू हैं। "पर", "परंतु" और "लेकिन" पर्यायवाची हैं। "मगर" भी इनका पर्यायवाची है; परंतु इसका प्रयोग हिंदी में क्वचित् होता है। "प्रेमसागर" मे केवल "पर" का प्रयोग पाया जाता है; जैसे, "झूठ सच की तो भगवान् जाने; पर मेरे मन में एक बात आई है।"
किंतु, बरन—ये शब्द भी प्रायः पर्यायवाची हैं और इनका प्रयोग बहुधा निषेधवाचक वाक्यो के पश्चात् होता है; जैसे, "कामनाओं के प्रबल होने से आदमी दुराचार नहीं करते, किंतु अंत करण के निर्बल होजाने से वे वैसा करते है।" (स्वा०)। "मैं केवल सँपेरा नहीं हूँ; किंतु भाषा का कवि भी हूँ"। (मुद्रा०)। "इस संदेह का इतने काल बीतने पर यथोचित समाधान करना कठिन है, "बरन" बड़े बड़े विद्वानों की मति भी इसमे विरुद्ध है"। (इति०)। "बरन" बहुधा एक बात को कुछ दबाकर दूसरी के प्रधानता देने के लिये भी आता है; "जैसे पारस देशवाले भी आर्य थे, बरन इसी कारण उस देश को अब भी ईरान कहते हैं"। (इति०)। "बरन" के पर्यायवाची "वरञ्च" (संस्कृत) और "बल्कि" (उर्दू) हैं।
(ई) परिणामदर्शक—इसलिए, सो, अत , अतएव।
इन अव्ययों से यह जाना जाता है कि इनके आगे के वाक्य का अर्थ पिछले वाक्य के अर्थ का फल है, जैसे, "अब भोर होने लगा था, इसलिए दोनों जन अपनी अपनी ठौरों से उठे", (ठेठ०)। इस उदाहरण मे "दानों जन अपनी अपनी ठौरों से उठे?", यह वाक्य परिणाम सूचित करता है और "अब भोर होने लगा था", यह कारण बतलाती हैं, इस कारण "इसलिए" परिणामदर्शक समुच्चय-बोधक है। यह शब्द मूल समुच्चय-बोधक नहीं है, किंतु "इस" और "लिए" के मेल से बना है, और समुच्चय-बोधक तथा कभी कभी क्रियाविशेषण के समान उपयोग में आता है। (अं०—२३७- सू०)। "इसलिए" के बदले कभी कभी "इससे", "इसवास्ते" वा "इस कारण" भी आता है।
[सू०—(१) "इसलिए" के और अर्थ आगे लिखे जायँगे। (२) अवधारण में "इसलिए" का रूप "इसीलिए" हो जाता है।]
अतएव, अत:—ये संस्कृत शब्द "इसलिए" के पर्यायवाचक हैं और इनका प्रयोग उच्च हिंदी में होता है।
सो—यह निश्चयवाचक सर्वनाम (अं०—१३०) "इसलिए" के अर्थ में आता है, परंतु कभी कभी इसका अर्थ "तब" वा "परंतु" भी होता है। जैसे, "मैं घर से बहुत दूर निकल गया था, सो मैं बड़े खेद से नीचे उतरा। "कस ने अवश्य यशोदा की कन्या के प्राण लिये थे, सा वह असुर था।" (गुटका०)।
[सं०—कानूनी हि घी में "इसलिए" के बदले "लिहाजा" लिखा जाता है।
[टी०—समानाधिकरण समुच्चय-बोधक अव्ययों से मिले हुए साधारण वाक्यों के कोई कोई लेखक अलग अलग लिखते हैं, जैसे, "भारतवासियो को अपनी दशा की परवा नहीं है। पर आपकी इज्जत का उन्हें बड़ा ख्याल है।" (शिव०)। "उस समय स्त्रियो को पढ़ाने की जरूरत न समझी गई होगी, पर अब तो है। अतएव पढाना चाहिये।" (सर०)। इस प्रकार की रचना अनुकरणीय नहीं है।
२४५—जिन अव्ययों के योग से एक मुख्य वाक्य में एक वा अधिक आश्रित वाक्य जोड़े जाते हैं उन्हें व्यधिकरण समुच्चय-बोधक कहते हैं। इनके चार उपभेद हैं—
(अ) कारण-वाचक—क्योंकि, जोकि, इसलिए-कि।
इन अव्ययो से आरंभ होनेवाले वाक्य पूर्ववाक्य का समर्थन करते हैं—अर्थात् पूर्व वाक्य के अर्थ का कारण उत्तर वाक्य के अर्थ से सूचित होता है; जैसे, "इस नाटिका का अनुवाद करना मेरा काम नहीं था, क्योंकि मैं संस्कृत अच्छी नहीं जानता।" (रत्ना०)। इस उदाहरण से उत्तर वाक्य पूर्व वाक्य का कारण सूचित करता है। यदि इस वाक्य को उलटकर ऐसा कहे कि "मैं संस्कृत अच्छी नहीं जानता, इसलिए (अतः, अतएव) इस नाटिका का अनुवाद करना मेरा काम नहीं था" तो पूर्व वाक्य से कारण और उत्तर वाक्य से उसका परिणाम सूचित होता है, और इसलिए शब्द "परिणाम-बोधक" है।
[टी०—यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब "इसलिए" के समानाधिकरण समुच्चय-बोधक मानते हैं, तब "क्योंकि" को इस वर्ग में क्यों नहीं गिनते? इस विषय में वैयाकरणों का मत एक नहीं है। केाई कोई दोनों अव्यय को समानाधिकरण और केाई कोई उन्हें व्यधिकरण समुच्चय-बोधक मानते है। इसके विरुद्ध किसी किसी के मत में "इसलिए" समानाधिकरण और "क्योंकि" व्यधिकरण है। इस (पिछले) मत का स्पष्टीकरण अगले उदाहरण से होगा—"गर्म हवा ऊपर उठती है, क्योंकि वह साधारण हवी से हलकी होती है।" इस वाक्य में वक्ता का मुख्य अभिप्राय यह बात बताना है कि "गर्म हवा ऊपर उठती है," इसलिए वह दूसरी बात का उल्लेख केवल पहली बात के समर्थन में करता है। यदि इसी बात के यों कहें कि "गर्म हवा साधारण हवा से हलकी होती है, इसलिए वह ऊपर उठती है"—तो जान पडेगा कि यहाँ वक्ता का अभिप्राय दोनों बातें प्रधानता-पूर्वक बताने का है। इसके लिए वह दोनों वाक्यों के इस तरह भी कह सकता है कि "गर्म हवा साधारण हवा से हलकी होती है और वह ऊपर उठती है।" इस दृष्टि से "क्योंकि" व्यधिकरण समुच्चय-बोधक है, अर्थात् उससे आरंभ होनेवाली वाक्य आश्रित होता है और "इसलिए" समानाधिकरण समुच्चय-बोधक है—अर्थात् वह मुख्य वाक्यों को मिलता है।]
"क्योंकि" के बदले कभी कभी "कारण" शब्द आता है वह समुच्चय-बोधक का काम देता है। "काहेसे कि" समुच्चय-बोधक वाक्यांश है। कभी कभी कारण के अर्थ में परिणाम-बोधक "इसलिए" आता है और तब उसके साथ बहुधा "कि" रहता है; जैसे,
"दुष्य त—क्यों माढव्य, तुम लाठी से क्यों बुरा कहा चाहते हो?
माढव्य—इसलिये कि मेरा अंग ते टेढ़ा है, और यह सीधी बनी है।" (शकु०)।
कभी कभी पूर्व वाक्य में "इसलिए" क्रियाविशेषण के समान आता है और उत्तर वाक्य "कि" समुच्चय-बोधक से आरंभ होता है, जैसे, "कोई बात केवल इसीलिए मान्य नहीं है कि वह बहुत काल से मानी जाती है।" (सर०)। "(मैंने) इसलिये रोका था कि इस यत्र में बड़ी शक्ति है।" (शकु०)। "कुआँ, इसलिए कि वह पत्थरों से बना हुआ था, अपनी जगह पर शिखर की नाई खड़ा रहा। (भाषासार०)।
जोकि—यह उटू चूँकि के बदले कानूनी भाषा मे कारण सूचित करने के लिए आती है; जैसे, "जोकि यह अमर कृरीन मस्लहत है...इसलिए नीचे लिखे मुताबिक़ हुक्म होता है।"(एक्ट०)।
इस उदाहरण में पूर्व वाक्य आश्रित है, क्योंकि उसके साथ कारणवाचक समुच्चय-बोधक आया है। दूसरे स्थानों में पूर्ववाक्य के साथ बहुधा कारवाचक अव्यय नहीं आता, और वहॉ वह वाक्य मुख्य समझा जाता है। वैयाकरणो का मत है कि पहले कारण और पीछे परिणाम कहने से कारणवाचक वाक्य आश्रित और परिणामबोधक वाक्य स्वनत्र रहता है।
(अ) उद्देशवाचक—कि, जो, ताकि, इसलिए कि।
न अव्ययो के पश्चात् आनेवाला वाक्य दूसरे वाक्य का उद्देश वा हेतु सूचित करता है।, उद्देशवाचक वाक्य वहुधा दूसरे (मुख्य) वाक्य के पश्चात् आता है, पर कभी कभी वह उसके पूर्व भी आता हैं। उदा०—"हम तुम्हे वृंदावन भेजा चाहते हैं कि तुम उनका समाधान कर आओ"। (प्रेम०)। "किया क्या जाय जो देहातियों की प्राणरक्षा हो"। (स०)। "लोग अकसर अपना हक पक्का करने के लिये दस्तावेज़ो की रजिस्टरी करा लेते हैं ताकि उनके दावे में किसी प्रकार का शक न रहे"। (चौ० पु०)। "मछुआ मछली मारने के लिये हर घड़ी मिहनत करता है इसलिए कि उसको मछली का अच्छा मोल मिले।" (जोविका०)।
जब उद्देशवाचक वाक्य मुख्य वाक्य के पहले आता है तब उसके साथ कई समुच्चय-बाधक नही रहता; परंतु मुख्य वाक्य "इसलिए" से आरम्भ होता है, जैसे, "तपोवनवासियों के कार्य में विघ्न न हो, इसलिए रथ के यहीं रखिये।" (शकु०)। कभी कभी मुख्य वाक्य "इसलिए" के साथ पहले आता है और उद्देशवाचक वाक्य 'कि' से आरंभ होता है; जैसे "इस बात की चर्चा हमने इसलिए की है कि उसकी शंका दूर हो जावे"।
"जो" के बदले कभी कभी जिसमें वा जिससे आता है; जैसे, "बेग बेग चली आ जिससे सब एक-संग क्षेम-कुशल से कुटी मे पहुँचे।" (शकु०)। "यह विस्तार इसलिये किया गया है जिसमें पढ़नेवाले कालिदास का भाव अच्छी तरह समझ जायँ।" (रघु०)।
[सं०—"ताकि" को छोड़कर शेष उद्देशवाचक समुच्चयबोधक दूसरे अर्थों में भी आते है। "जो" और "कि" के अन्य अर्थों का विचार आगे होगा। कहीं कहीं "जो" और "कि" पर्यायवाचक होते है; जैसे, "बाबा से समझायकर कहो जो वे मुझे ग्वालों के संग पठाये दें।" (प्रेम०)। इस उदाहरण में "जो" के बदले "कि" उद्देशवाचक का प्रयेाग हो सकता है। "ताकि" और "कि" उर्दू शब्द हैं और "जो" हिंदी है। "इसलिए" की व्युत्पत्ति पहले लिखी जा चुकी है।(अं०—२४४-ई)।]
(इ) संकेतवाचक—जों—तो, यदि—तो, यद्यपि—तथापि (तोभी), चाहे—परंतु, कि। इनमें से 'कि' को छोड़कर शेष शब्द, सबंधवाचक और नित्य- संबंधी सर्वनामों के समान, जोड़े से आते हैं। इन शब्दों के द्वारा जुड़नेवाले वाक्यों में से एक में "जे", "यदि", "यद्यपि" या "चाहे" आता है और दूसरे वाक्य मे क्रमशः "तो", "तथापि" (तोभी) अथवा "परंतु" आता है। जिस वाक्य में "जो", "यदि" "यद्यपि" या "चाहे" का प्रयोग होता है उसे पूर्व वाक्य और दूसरे को उत्तर वाक्य कहते हैं। इन अव्ययो के "संकेत-वाचक" कहने का कारण यह है कि पूर्व वाक्य मे जिस घटना का वर्णन रहता है उससे उत्तर वाक्य की घटना का संकेत पाया जाता है।
जो—तो—जब पूर्व वाक्य में कही हुई शर्त्त पर उत्तर वाक्य की घटना निर्भर होती है तब इन शब्दों का प्रयोग होता है। इसी अर्थ में "यदि-तो" आते हैं। "जे" साधारण भाषा में और 'यदि' शिष्ट अथवा पुस्तकी भाषा में आता है। उदा०—"जो तू अपने मन से सच्ची है तो पति के घर में दासी होकर भी रहना अच्छा है।" (शकु०)। "यदि ईश्वरेच्छा से यह वही ब्राह्मण हो तो बड़ी अच्छी बात है।" (सत्य०)। कभी कभी "जो" से आतंक पाया जाता है, जैसे, जो मैं राम तो कुल सहित कहहि दसनन जाय।" (राम०)। जो हरिश्चंद्र का तेजोभ्रष्ट न किया तो मेरा नाम विश्वामित्र नहीं"। (सत्य०)। अवधारण में "तो" के बदले "तोभी" आता है; जैसे, जो (कुटुंब) होती तौभी मैं न देता। (मुद्रा०)।
कभी कभी कोई बात इतनी स्पष्ट होती है कि उसके साथ किसी शर्त की आवश्यकता नहीं रहती, जैसे "पत्थर पानी में डूब जाता है"। इस वाक्य को बढ़ाकर या लिखना कि "यदि पत्थर का पानी में डालें तो वह डूब जाता है", अनावश्यक है।
"जो" कभी कभी "जब" के अर्थ में आता है, जैसे "जो वह स्नेह ही न रहा तो अब सुधि दिलाये क्या होता है। (शकु०) "जो" के बदले कभी कभी "कदाचित्" (क्रियाविशेषण) आता है; जैसे, "कदाचित् कोई कुछ पूछे तो मेरा नाम बता देना"। कभी कभी "जो" के साथ ('तो' के बदले ) "सो" समुच्चयबोधक आता है, जैसे "जो आपने रुपयों के बारे में लिखा सो अभी उसका बंदोबस्त होना कठिन हैं।"
"यदि" से संबंध रखनेवाली एक प्रकार की वाक्यरचना हिंदी में अँगरेजी के सहवास से प्रचलित हुई है जिसमें पूर्व वाक्य की शर्त का उल्लेख कर तुरंत ही उसका मंडन कर देते हैं, परंतु उत्तर वाक्य ज्यों का त्यों रहता है; जैसे, "यदि यह बात सत्य हो (जो निस्संदेह सत्य ही है) तो हिंदुओं को संसार में सब से बड़ी जाति मानना ही पड़ेगा"। (भारत)। "यदि" का पर्यायवाची उर्दू शब्द "अगर" भी हिंदी में प्रचलित है।
यद्यपि—तथापि(तोभी)—ये शब्द जिन वाक्यों में आते हैं उनके निश्चयात्मक विधानों परस्पर विरोध पाया जाता है; जैसे, "यद्यपि यह देश तब तक जंगलों से भरा हुआ था तथापि अयोध्या अच्छी बस गई थी।" (इति०)। "तथापि" के बदले बहुधा "तोभी" और कभी कभी "परंतु" आता है; "यद्यपि हम वनवासी हैं तोभी लोक के व्यवहारों को भली भॉति जानते हैं।" (शुकु०)। "यद्यपि गुरु ने कहा है......पर यह तो बड़ा पाप सा है।" (मुद्रा०)।
कभी कभी "तथापि" एक स्वतंत्र वाक्य में आता है; और वहाँ उसके साथ "यद्यपि" की आवश्यकता नही रहती; जैसे, "मेरा भी हाल ठीक ऐसे ही बोने का जैसा है। तथापि एक बात अवश्य है।" (रघु०)। इसी अर्थ में "तथापि" के बदले "तिस-पर-भी" वाक्यांश आता है।
चाहे—परंतु—जब "यद्यपि" के अर्थ में कुछ संदेह रहता है। तब उसके बदले "चाहे" आता है; जैसे, "उसने चाहे अपनी सखियों की ओर ही देखा हो; परंतु मैंने यही जाना।" (शकु॰)।
"चाहे" बहुधा संबंधवाचक सर्वनाम, विशेषण वा क्रिया-विशेषण के साथ आकर उनकी विशेषता बतलाता है, और प्रयोग के अनुसार बहुधा क्रिया-विशेषण होता है; जैसे, "यहाँ चाहे जो कह लो; परंतु अदालत में तुम्हारी गीदड़-भबकी नहीं चल सकती।" (परी०)। "मेरे रनवास में चाहे जितनी रानी (रानियाॅ) हों मुझे दोही वस्तु (वस्तुएँ) संसार में प्यारी होंगी"। (शकु०)। "मनुष्य बुद्धि-विषयक ज्ञान में चाहे जितना पारंगत हो जाय, परतु... उसके ज्ञान से विशेष लाभ नहीं हो सकता।" (सर०)। "चाहे जहाॅ से अभी सब दे।" (सत्य०)।
दुहरे संकेतवाचक समुच्चयबोधक अव्ययों में से कभी कभी किसी एक का लोप हो जाता है, जैसे, ( ) "कोई परीक्षा लेता तो मालूम पड़ता।" (सत्य०)। ( ) "इन सब बातो से हमारे प्रभु के सब काम सिद्ध हुए प्रतीत होते हैं तथापि मेरे मन के धैर्य नहीं है।" (रत्ना०)। "यदि कोई धर्म, न्याय, सत्य, प्रीति, पौरुष का हमसे नमूना चाहे, ( ) हम यही कहेंगे, "राम, राम ,राम।" (इति०)। "वैदिक लोग ( ) कितना भी अच्छा लिखें तौभी उनके अक्षर अच्छे नहीं बनते।" (मुद्रा०)।
कि—जब यह संकेतवाचक होता है तब इसका अर्थ "त्योंही" होता है, और यह दोनों वाक्यो के बीच में आता है, जैसे, "अक्टोबर चला कि उसे नींद ने सताया।" (सर०)। "शैव्या रोहिताश्व का मृत कंबल फाड़ा चाहती है कि रंगभूमि की पृथ्वी हिलती है।" (सत्य॰)।
कभी कभी "कि" के साथ उसका समानार्थी वाक्यांश "इतने मे" आता है जैसे, "मैं तो जाने ही को था कि इतने में आप आगये।" (सत्य०)।
(ई) स्वरूपवाचक—कि, जो, अर्थात्, याने, मानो। इन अव्ययों के द्वारा जुड़े हुए शब्दों वा वाक्यों में से पहले शब्द वा वाक्य का स्वरूप (स्पष्टीकरण) पिछले शब्द वा वाक्य से जाना जाता है; इसलिए इन अव्ययो को स्वरूपवाचक कहते हैं।
कि—इसके और और अर्थ तथा प्रयोग पहले कहे गये हैं। जब यह अव्यय स्वरूपवाचक होता है तब इससे किसी बात का केवल आरंभ वा प्रस्तावना सूचित होती है; जैसे, "श्रीशुकदेवमुनि बोले कि महाराज, अब आगे कथा सुनिए।" (प्रेम०)। "मेरे मन में आती हैं कि इससे कुछ पूछूँ।" (शकु०)। "बात यह है कि लोगों की रुचि एकसी नही होती।" (रघु०)।
जब आश्रित वाक्य मुख्य वाक्य के पहले आता है तब "कि" का लोप होजाता है, परंतु मुख्य वाक्य मे आश्रित वाक्य की कोई समानाधिकरण शब्द आता है; जैसे, "परमेश्वर एक है, यह धर्म की बात है।" "रबर काहे का बनता है यह बात बहुतेरों को मालूम भी नहीं है।"
[सूं०—इस प्रकार की उलटी रचना का प्रचार हिंदी में बँगला और मराठी की देखादेखी होने लगा है; परंतु वह सार्वत्रिक नहीं है। प्राचीन हिंदी कविता में 'कि' का प्रयोग नहीं पाया जाता। आजकल के गद्य में भी कहीं कहीं इसका लोप कर देते हैं। जैसे, "क्या जाने, किसी के मन में क्या भरा है।"]
जो—यह स्वरूपवाचक "कि" का समानार्थी है, परंतु उसकी अपेक्षा अब व्यवहार में कम आता है। प्रेमसागर में इसका प्रयोग कई जगह हुआ है, जैसे, "यही विचारो जो मथुरा और बृंदावन में अंतर ही क्या है।" "विसने बड़ी भारी चूक की जो तेरी मॉग श्रीकृष्ण को दी।" जिस अर्थ में भारतेंदुजी ने "कि" का प्रयोग किया है उसी अर्थ में द्विवेदीजी बहुधा "जो" लिखते हैं; जैसे, "ऐसा न हो कि कोई आ जाये।" (सत्य०)। "ऐसा न हो जो इंद्र यह समझे।" (रघु०) [टी०—बँगला, उड़िया, मराठी, आदि आर्य-भाषाओं में "कि" वा "जो" के संबंध से दो प्रकार की रचनाएँ पाई जाती है जो संस्कृत के "यत्" और "इति" अव्ययों से निकली हैं। संस्कृत के "यत्" के अनुसार उनमें "ने" आता है और "इति" के अनुसार बँगला में "बलिया," उडिया में "बोलि," मराठी में "म्हणून" और नैपाली में (कैलाग साहब के अनुसार) "भनि" है। इन सब का अर्थ "कहकर" होता है। हिंदी में "इति" के अनुसार रचना नहीं होती; परंतु "यत्" के अनुसार इसमें "जों" (स्वरूपवाचक) आता है। इस "जों" का प्रयोग उर्दू "कि" के समान होने के कारण "जो" के बदले "कि" को प्रचार हो गया है और "जो" कुछ चुने हुए स्थानों में रह गया। मराठी और गुजराती में "कि" क्रमश "की" और "के" के रूप में आता है। दक्षिणी हिंदी में "इति" के अनुसार जो रचना होती है; उसमें "इति" के लिए "करके" (समुच्चय-बधिक के समान) आता है, जैसे, "मैं जाऊँगा करके नौकर मुझसे कहता था" = नौकर मुझसे कहता था कि मैं जाऊँगा।]
कभी कभी मुख्य वाक्य मे "ऐसा," "इतना,", "यहाँ तक" अथवा कोई विशेषण आता है और उसका स्वरूप (अर्थ) स्पष्ट करने के लिए "कि" के पश्चात् आश्रित वाक्ये आता है; जैसे, "क्या और देशो में इतनी सर्दी पडती है कि पानी जमकर पत्थर की चट्टान की नाई होजाता है?" (भाषासार०)। "चोर ऐसा भागा कि उसका पता ही न लगा।" "कैसी छलांग भरी है कि धरती से ऊपर ही दिखाई देता है।" (शकु०)। "कुछ लोगों ने आदमियों के इस विश्वास को यहाँ तक उत्तेजित कर दिया है कि वे अपने मनोविकारों को तर्कशास्त्र के प्रमाणों से भी अधिक बलवान मानते हैं।" (स्वा०)। "कालचक्र बड़ा प्रबल है कि किसी को एक ही अवस्था में नहीं रहने देता।" (मुद्रा०)। "तू बड़ा मूर्ख है जो हमसे ऐसी बात कहता है।" (प्रेम०)।
[सू०—इस अर्थ में "कि" (वा "जो") केवल स्वरूपवाचक ही नहीं, किंतु परिणामबोधक भी है। समानाधिकरण समुच्चय-बोधक "इसलिए" से जिस परिणाम का बोध होता है उससे "कि" के द्वारा सूचित होनेवाला परिणाम भिन्न है, क्योंकि इस में परिणाम के साथ स्वरूप का अर्थ मिला हुआ है। इस अर्थ में केवल एक समुच्चय-बोधक "कि" आता है; इसलिए उसके इस एक अर्थ का विवेचन यहीं कर दिया गया है।]
कभी कभी "यहाॅ तक" और "कि" साथ साथ आते हैं और केवल वाक्यों ही को नही, किंतु शब्दों को भी जोड़ते हैं; जैसे, "बहुत आदमी उन्हे सच मानने लगते हैं; यहाँ तक कि कुछ दिनो में वे सर्वसम्मत हो जाते हैं।" (स्वा०)। "इसपर तुम्हारे बड़े अन्न, रस्सियाॅ, यहाँ तक कि उपले लादकर लाते थे।" (शिव०)। "क्या यह भी संभव है कि एक के काव्य के पद के पद, यहाँ तक कि प्रायः श्लोकार्द्ध के श्लोकाद्धं तद्वत् दूसरे के दिमाग से निकल पड़ें?" (रघु०)। इन उदाहरणों में "यहाॅ तक कि" समुच्चय-बोधक वाक्यांश है।
अर्थात्—यह संस्कृत विभक्त्यंत संज्ञा है, पर हिंदी में इसका प्रयोग समुच्चय-बोधक के समान होता है। यह अव्यय किसी शब्द वा वाक्य को अर्थ समझाने में आता है, जैसे, "धातु के टुकड़े ठप्पे के होने से सिक्का अर्थात् मुद्रा कहते हैं।" (जीविका०)। "गौतम बुद्ध अपने पॉचों चेलों समेत चौमासे भर अर्थात् बरसात भर बनारस में रहा।" (इति०)। "इनमें परस्पर सजातीय भाव है, अर्थात् ये एक दूसरी से जुदा नहीं हैं।" (स्वा०)। कभी कभी "अर्थात्" के बदले "अथवा," "वा," "या" आते हैं; और तब यह बताना कठिन हो जाता है कि ये स्वरूपवाचक हैं या विभाजक; अर्थात् ये एक ही अर्थवाले शब्दों का मिलाते हैं या अलग अलग अर्थवाले शब्दों को; जैसे, "बस्ती अर्थात् जनस्थान वा जनपद का तो नाम भी मुश्किल से मिलता था।" (इति०)। "तुम्हारी हैसियत वा स्थिति चाहे जैसी हो।" (आदर्श०)। "किसी और तरीके से सज्ञान, बुद्धिमान या अक्लमंद होना आदमी के लिए मुमकिन ही नहीं।" (स्वा०)।
[सू०—किसी वाक्य में कठिन शब्द का अर्थ समझाने में अथवा एक वाक्य का अर्थ दूसरे वाक्य के द्वारा स्पष्ट करने में विभाजक तथा स्वरूपबोधक अव्यय के अर्थ के अतर पर ध्यान न रखने से भाषा में सरलता के बदले कठिनता आ जाती है और कहीं कहीं अर्थहीनता भी उत्पन्न होती है।
कानूनी भाषा में दो नाम सूचित करने के लिए "अर्थात्" का पर्यायवाची उर्दू "उर्फ़" लाया जाता है और साधारण बोल-चाल मैं "याने" आता है।]
२४६—इस अध्याय को समाप्त करने के पहले हम "जो" के एक ऐसे प्रयोग का उदाहरण देते हैं जिसका समावेश पहले कहे हुए समुच्चयबोधकों के किसी वर्ग में नहीं हुआ है। "मुझे मरना नहीं जो तेरा पक्ष करूँ।" (प्रेम०)। इस उदाहरण में "जो" न संकेतवाचक है, न उद्देशवाचक, न स्वरूपवाचक। इस प्रयोग का विवेचन हमे किसी अँगरेज़ी-हिंदी व्याकरण में भी नहीं मिला। हमारी समझ मे "जो" का अर्थ यहाँ "जिसलिए" है और "जिसलिए" कभी कभी "इसलिए" के पर्याय में आता है, जैसे, "यहाँ एक सभा होनेवाली है, जिसलिए (इसलिए) सब लोग इकट्टे हैं।" इस दृष्टि से दूसरा वाक्य मुख्य वाक्य होगा और "मुझे मरना नहीं" उद्देशवाचक वाक्य होगा। जब उद्देशवाचक वाक्य मुख्य वाक्य के पहले आता है तब उसके साथ कोई समुच्चयबोधक नहीं रहता, परतु मुख्य वाक्य "इसलिए" से आरंभ होता है। (अं० २४५-आ)।
२४७—संस्कृत और उर्दू शब्दों को छोड़कर (जिनकी व्युत्पत्ति हिंदी व्याकरण की सीमा के बाहर है) हिंदी के अधिकांश समुच्चय-बोधको की व्युत्पत्ति दूसरे शब्दभेदों से है और कई एक का प्रचार आधुनिक है। "और" सार्वनामिक विशेषण है। "जो" संबंध-वाचक सर्वनाम और "सो" निश्चयवाचक सर्वनाम है। यदि, परंतु, किंतु आदि शब्दों का प्रयोग "रामचरितमानस" और "प्रेमसागर" में नहीं पाया जाता है।
[टी०—संबंध-सूचकों के समान समुच्चयबोधकों का वर्गीकरण भी व्याकरण की दृष्टि से आवश्यक नहीं है। इस वर्गीकरण से केवल उनके भिन्न भिन्न अर्थ वा प्रयोग जानने में सहायता मिल सकती है। पर ससुच्चय-बोधक अव्ययों के जो मुख्य वर्ग माने गये है उनकी आवश्यकता वाक्य-पृथकू-करण के विचार से होती है, क्योंकि वाक्य-पृथक-करण वाक्य के अवयवों तथा वाक्यो का परस्पर संबंध जानने के लिए बहुत ही आवश्यक है।
समुच्चय-बोधकों का सबंध वाक्य-पृथक्-करण से होने के कारण यहाँ इसके विषय में संक्षेपतः कुछ कहने की आवश्यकता है।
वाक्य बहुधा तीन प्रकार के होते है—साधारण, मिश्र और संयुक्त। इनमें से साधारण वाक्य इकहरे होते है, जिनमें वाक्य-संयोग की कोई आवश्यकता ही नहीं है। यह आवश्यकता केवल मिश्र और संयुक्त वाक्यों में होती है। मिश्र वाक्य में एक मुख्य वाक्य रहता है और उसके साथ एक या अधिक आश्रित वाक्य आते हैं। संयुक्त वाक्य के अंतर्गत सब वाक्य मुख्य होते है। सुख्य वाक्य अर्थ में एक दूसरे से स्वतंत्र रहता है, परंतु आश्रित वाक्य मुख्य वाक्य के ऊपर अवलंबित रहता है। मुख्य वाक्यों के जोड़नेवाले समुच्चयबोधकों के समानाधिकरण कहते है, और मिश्र वाक्य के उपवाक्यों को जोड़नेवाले अव्यय व्यधिकरण कहाते हैं।
जिन हिंदी-व्याकरण में समुच्चय-बोधकों के भेद माने गये हैं उनमें से प्राय सभी दे। भेद मानते हैं—(१) संयोजक और (२) विभाजक। इन भेदों का अर्थ किसी भी पुस्तक में नहीं समझाया गया और न सब अव्यय इन दोनों भेदों में आ सकते हैं। इसलिए यहाँ इन भेदों पर विशेष विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
"भाषातत्वदीपिका" में समुच्चय-बोधकों के केवल पाँच भेद माने गये हैं जिनमें और कई अव्ययों के सिवा "इसलिए" का भी ग्रहण नहीं किया गया। यह अव्यय आदम साहब के व्याकरण को छोड और किसी व्याकरण में नहीं आया जिससे अनुमान होता है कि इसके समुच्चयबोधक होने में संदेह है। इस शब्द के विषय में हम पहले लिख चुके हैं कि यह मूल अव्यय नहीं है, किंतु