हिंदी व्याकरण/विशेषण
तीसरा अध्याय।
विशेषण।
१४३-जिस विकारी शब्द से संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित होती है उसे विशेषण कहते हैं, जैसे, बड़ा, कला, दयालु, भारी, एक, दो, सब, इत्यादि ।
[टी°—"हिदी व्याकरण" में संज्ञा के तीन भेद किए गये हैं—नाम, सर्वनाम और विशेषण। दूसरे व्याकरणों में भी विशेषण संज्ञा का एक उपभेद माना गया है। इसलिए यहाँ यह प्रश्न है कि विशेषण एक प्रकार की संज्ञा है अथवा एक अलग शब्द-भेद है। इस शंका का समाधान यह है कि सर्वनाम के समान विशेषण भी एक प्रकार की संज्ञा ही है, क्योंकि विशेषण भी वस्तु का अप्रत्यक्ष नाम है। पर इसको अलग शब्द भेद मानने का यह कारण है कि इसका उपयोग संज्ञा के बिना नहीं हो सकता और इससे संज्ञा का केवल धर्म सूचित होता है, "काला" कहने से घोड़ा, कपड़ा, दाग, आदि किसी भी वस्तु के धर्म की भावना मन में उत्पन्न हो सकती है, परतु उस धर्म का नाम "काला" नहीं है, किंतु "कालापन" है। जब विशेषण अकेला आता है तब उससे पदार्थ का बोध होता है और उसे संज्ञा कहते हैं। उस समय इसमें संज्ञा के समान विकार भी होते हैं, जैसे, "इसके बड़ों का यह संकल्प है।" (शकु°)।
सब विशेषण विकारी शब्द नहीं है, परंतु विरोषणों का प्रयोग संज्ञाओं के समान हो सकता है, और उस समय इनमें रूपांंतर भी होता है। इसलिए विशेषण को "विकारी शब्द' कहना उचित है। इसके सिवा कोई कोई लेखक संस्कृत की चाल पर विशेष्य के अनुसार विशेषण का रूपांतर करते हैं। जैसे, "मूर्तिमती यह सुदंरता है।" (क° क°)। "पुरवासिनी स्त्रिया।" (रघु°)। विशेषण संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करता है-इस उक्ति का अर्थ यह हैं। कि विशेषण रहित संज्ञा से जितनी वस्तुओं का बोध होता है उनकी संख्या विशेषण के योग से कम हो जाती है । "घोडा" शब्द से जितने प्राणियों का बोध होता है उतने प्राणियों का बोध "काला घोड़ा", शब्दों से नहीं होता । “धोडा।” शब्द जितना व्यापक है उतना “काला घोडा" शब्द नहीं है। "घोडा" शब्द की व्याप्ति ( विस्तार ) “काला” शब्द से मर्यादित ( संकुचित) होती है; अर्थात् "घोडा" शब्द अधिक प्राणियों का बोधक है औ"काला घोड़ा” शब्द उससे कम प्राणियों का बोधक है।
“हिंदी-बाल-बोध-व्याकरण" में विशेषण का यह लक्षण दिया हुआ है---"संज्ञावाचक शब्द के गुणों को जतानेवाले शब्द को गुणवाचक शब्द कहते है।" इस परिभाषा में अध्याप्ति दोष है; क्योंकि कोई कोई विशेषण केवल संख्या और कोई कोई केवल दशा प्रगट करते हैं। फिर "गुण" शब्द से इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष भी आ सकता है; क्योंकि भाववाचक संज्ञा भी “गुण” जतानेवाली है। इसके सिवा इस लक्षण में "संज्ञा" के लिए व्यर्थ ही “संज्ञा-वाचक शब्द” और “विशेषण” वा “गुणवाचक" के लिए "गुणवाचकशब्द” लाया गया है ।]
१४४-व्यक्तिवाचक संज्ञा के साथ जो विशेषण आता है वह उस संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित नहीं करता, जैसे, पतिव्रता सीता, प्रतापी भोज, दयालु ईश्वर, इत्यादि । इन उदाहरणों में विशेषण संज्ञा के अर्थ को केवल स्पष्ट करते हैं। "पतिव्रता सीता" वही व्यक्ति है जो 'सीता' है । इसी प्रकार "भोज" और "प्रतापी भोज" एकही व्यक्ति के नाम हैं। किसी शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिये जो शब्द आते हैं वे समानाधिकरण कहते हैं (अं०-५६१) । ऊपर के वाक्यों में “पतिव्रता," "प्रतापी” और “दयालु" समानाधिकरण विशेषण हैं।
१४५--जातिवाचक संज्ञा के साथ उसका साधारण धर्म सुचित करनेवाला विशेषण समानाधिकरण होता है; जैसे, मूक पशु, अवोध बच्चा, काला कौआ, ठंढी बर्फ, इत्यादि । इन उदाहरणो में विशेषणों के कारण संज्ञा की व्यापकता कम नहीं होती । १४६-विशेषण के योग से जिस सज्ञा की व्याप्ति मर्यादित । होती है उस सज्ञा को विशेष्य कहते हैं; जैसे, "ठंढी हवा चली" -इस वाक्य में ‘ठढी’ विशेषण और 'हवा' विशेष्य है ।
(क) विशेष्य के साथ विशेषण का प्रयोग दो प्रकार से होता है- (१) संज्ञा के साथ, (२) क्रिया के साथ । पहले प्रयोग को विशेष्य-विशेषण और दूसरे को विधेय-विशेषण कहते हैं। विशेष्य- विशेषण विशेष्य के साथ और विधेय-विशेषण क्रिया के साथ आता है, जैसे, “ऐसी सुडौल चीज कहीं नहीं बन सकती ।” (परी०) । “हमें तो संसार सूना देख पड़ता है ।" ( सत्य० ) । “यह बात सच है ।"
(ख) विधेय-विशेषण समानाधिकरण होता है, जैसे, “यह ब्राह्मण चपल है । इस वाक्य में 'यह' शब्द के कारण “ब्राह्मण" सज्ञा की व्यापकता घटती है, परतु “चपल" शब्द उस व्यापकता को और कम नहीं करता। उससे ब्राह्मण के विषय में केवल एक नई बात–चपलता---जानी जाती है ।
१४७--विशेषण के मुख्य तीन भेद किये जाते हैं—(१) सार्व- नामिक विशेषण, (२) गुणवाचक विशेषण और (३) संख्यावाचक विशेपण ।
[ सूचना--यह वर्गीकरण न्याय-दृष्टि से नहीं, किंतु उपयोगिता की दृष्टि से किया गया है। सार्वनामिक विशेषण सर्वनामों से बने हैं, इसलिए दूसरा विशेषणों से उनका एक अलग वर्ग मानना उचित है फिर, व्यवहार में गुण और संख्या भिन्न भिन्न धर्म हैं, इसलिए इन दोनों के विचार से विशेषण के और दो भेद--गुणवाचक और संख्यावाचक किए गये हैं। ]
( १ ) सार्वनार्मिक विशेषण ।
१४८--पुरुषवाचक और निजवाचक सर्वनामों को छोड़कर शेष सर्वनामों का प्रयोग विशेषण के समान होता है । जब ये शब्द अकेले आते हैं, तब सर्वनाम होते हैं और जब इनके साथ संज्ञा आती है तब ये विशेषण होते हैं; जैसे “नौकर आया है ; वह वाहर खड़ा है ।" इस वाक्य में 'वह' सर्वनाम है; क्योकि वह "नौकर" सज्ञा के बदले आया है। "वह नौकर नहीं आया"-- यहाँ “वह" विशेषण है; क्योकि “वह नौकर” सज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करता है; अर्थात् उसका निश्चय बताता है। इसी तरह “किसीको बुलाओ"और “किसी ब्राह्मण को बुलायो"---इन वाक्यो में "किसी" क्रमशः सर्वनाम और विशेषण है ।
१४९-पुरुषवाचक और निजवाचक सर्वनाम ( मैं, तू, आप ) संज्ञा के साथ आकर उसकी व्याप्ति मर्यादित नहीं करते, जैसे, "में मोहनलाल इकरार करता हूँ ।" इस वाक्य में 'मैं' शब्द विशेषण के समान "मोहनलाल" संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित नहीं करता, किंतु यहाँ मोहनलाल शव्द “मैं” के अर्थ को स्पष्ट करने के लिये आया है। कोई कोई यहाँ "मैं" को विशेषण कहेगे; परंतु यहाँ मुख्य विधान 'मैं' के विषय में है और क्रिया भी उसीके अनुसार है । जो विशेषण विशेष्य के साथ आता है उस विशेषण के विषय में विधान नही किया जा सकता है इसलिए यहाँ "मैं" और "मोहनलाल" समानाधिकरण शब्द हैं; विशेषण और विशेष्य नहीं हैं। इसी तरह "लडका आप आया था"—इस वाक्य में "आप" शब्द विशेषण नहीं है; किंतु “लड़का" संज्ञा का समा-नाधिकरण शब्द है ।
१५०-सार्वनामिक विशेषण व्युत्पत्ति के अनुसार दो प्रकार के होते हैं---
( १ ) मूल सर्वनाम, जो बिना किसी रूपांतर के संज्ञा के साथ आते हैं; जैसे, यह घर, वह लड़का, कोई नौकर, कुछ काम, इत्यादि । ( अं०-११४ ) । ( २ ) यौगिक सर्वनाम (अं०-१४१), जो मूल सर्वनामों में प्रत्यय लगाने से बनते हैं और सझा के साथ आते हैं, जैसे-ऐसा आदमी, कैसा घर, उतना काम, जैसा देश वैसा भेष, इत्यादि ।
१५१—मूल सार्वनामिक बिशेषणों का अर्थ बहुधा सर्वनामों ही के समान होता है, परनु कहीं कहीं उनमें कुछ विशेषता पाई जाती है ।
( अ ) “वह" "एक" के साथ आकर अनिश्चय-वाचक होता है; जैसे, "वह एक मनिहारिन आ गई थी ।" ( सत्य० )। [ सूचना-गद्य में 'सो' का प्रयोग बहुधा विशेषण के समान नहीं होता । ]
( आ ) “कैन" और “कोई" प्राणी, पदार्थ वा धर्म के नाम के साथ आते हैं, जैसे, कौन मनुष्य ? कैन जानवर ? कौन कपड़ा ? कौन बात ? कोई मनुष्य ? कई जानवर ? कोई कपडा ? कोई बात ? इत्यादि ।
( इ ) आश्चर्य में "क्या" प्राणी, पदार्थ वा धर्म तीनों के नाम के साथ आता है, जैसे, “तुम भी क्यों आदमी हो !" यह क्या लकड़ी है ।" “क्या बात है !" इत्यादि ।
( ई ) प्रश्न में क्या बहुधा भाववाचक संज्ञाओं के साथ आता है, जैसे, क्या काम ? क्या नाम ? क्या देशा ? क्या सहा- यता ? क्या कारण ? इत्यादि ।
( उ ) “कुछ" सख्या, परिमाण और अनिश्चय का बोधक है। संख्या और परिमाण के प्रयोग आगे लिखे जायेंगे । अनिश्चय के अर्थ में "क्या" के समान “कुछ" वहुधा भाववाचक संज्ञाओं के साथ आता है, जैसे, कुछ बात, कुछ डर, कुछ विचार, कुछ उपाय, इत्यादि ।
१५२-यैगिक सार्वनामिक विशेषणों के साथ जब विशेष्य नहीं रहता तब उनका प्रयोग संज्ञायों के समान होता है; जैसे, "इतने में ऐसा हुआ;" जैसा करोगे वैसा पायोग;" “जैसे को तैसा मिले ।"
( अ ) “ऐसा" का प्रयेाग कभी कभी “यह" के समान वाक्य के बदले में होता है, जैसे, “ऐसा कब हो सकता है कि मुझे भी दोष लगे ।" ( गुटका० ) ।
( आ ) “ऐसा वैसा" तिरस्कार के अर्थ में आता है; जैसे, "मैं ऐसे वैसे का कुछ नहीं समझता ।" “राजा दिलीप कुछ ऐसा वैसा न था ।” ( रघु०)। “ऐसी वैसी कोई चीज़ नहीं खानी चाहिए ।"
१५३--(१) यौगिक संबंध-वाचक ( सार्वनामिक ) विशेषणों के साथ बहुधा उनके नित्य-संबंधी विशेषण आते हैं, जैसे, "जैसा देश वैसा भेष ।" “जितनी चादर देखो उतना पैर फैलाओ ।"
( अ ) कभी कभी किसी एक विशेषण के विशेष्य का लोप होता है; जैसे, “जितना मैंने दान दिया उतना तो कभी किसीके ध्यान में न आया होगा ।" (गुटका० )। “जैसी बात आप कहते हैं वैसी कोई न कहेगा ।" “हमारे ऐसे पदा-धिकारियों को शत्रु उतना संताप नहीं देते जितना दूसरों की सम्पत्ति और कीर्ति ।" ( सत्य० ) ।
( आ ) दोनों विशेषणों की द्विरुक्ति से उत्तरोत्तर घटती बढ़ती का बोध होता है, जैसे, जितना जितना नाम बढ़ता है। उतना उतना मान बढ़ता है ।" "जैसा जैसा काम करोगे वैसे वैसे दाम मिलेंगे ।"
( इ ) कभी कभी "जैसा" और “ऐसा" का उपयोग “समान" ( संबंध-सूचक ) के सदृश होता है; जैसे, "प्रवाह उन्हें तान्ताव का जैसा रूप दे देता है ।" ( सर० ) । “यह आप ऐसे महात्माओं का काम है ।" ( सत्य० )। ( ई ) “जैसा का तैसा"—यह विशेषण-वाक्याश “पूर्ववत्" के अर्थ में आता है, जैसे, “वे जैसे के तैसे बने रहे ।"
( २ ) यौगिक प्रश्न-वाचक ( सार्वनामिक ) विशेषण ( कैसा और कितना ) नीचे लिखे अर्थों में आते हैं-
( अ ) आश्चर्य मे, जैसे “मनुष्य कितना धन देगा और याचक कितना लेगे ।" (सत्य० ) । “विद्या पाने पर कैसा आनंद होता है ।"
( आ ) “ही" ( भी ) के साथ अनिश्चय के अर्थ में, जैसे, “स्त्री कैसी ही सुशीलता से रहे, फिर भी लेाग चबाव करते हैं ।" ( शकु० ) । "( वह ) कितना भी दे, पर सतोष नहीं होता ।" ( सत्य० ) ।
१५४---परिमाणवाचक सर्वनामिक विशेषण बहुवचन में संख्यावाचक होते हैं, जैसे, "इतने गुणज्ञ और रसिक लेाग एकत्र हैं । ( सत्य० )। "मेरे जितने प्रजा-जन हैं उनमें से किसीको अकाल मृत्यु नहीं आती ।” ( रघु० ) ।
( अ ) “कितने ही का प्रयोग "कई" के अर्थ में होता है, जैसे, "पृथ्वी के कितनेही अश धीरे धीरे उठते जाते हैं।"(सर०)। “कितने" के साथ कभी कभी “एक" जोड़ा जाता है, जैसे, “कितने एक दिन पीछे फिर जरासंघ उतनी ही सेना ले चढ़ आया ।" ( प्रेम० ) ।
१५५----यौगिक सार्वनामिक विशेषण कभी कभी क्रिया-विशे-षण होते हैं, जैसे, "तू मरने से इतना क्यों डरता है ?" “वैदिक लोग कितना भी अच्छा लिखें तो भी उनके अक्षर अच्छे नहीं हाते ।” (मुद्रा०) । "मुनि ऐसे क्रोधी हैं कि बिना दक्षिणा मिले शाप देने के तैयार होंगे ।” ( सत्यः )। “मृग-छौने कैसे निधड़क चर रहे हैं ।" ( शकु० ) । ( अ ) “इतने में" क्रिया-विशेषण--वाक्यांश है; और उसका अर्थ "इस समय मे" होता है, जैसे, “इतने में ऐसा हुआ ।"
( आ ) "वैसे ही" का अर्थ "स्वभाव से" या "संतमेत" होता है; जैसे, “सूर्यकांति मणि का स्वभाव है कि वैसे तो छूने में ठंढी लगती है ।" (शकु०) । “यह किताब मुझे वैसे ही मिली।"
१५६--"निज" और “पराया💐" भी सार्वनामिक विशेषण हैं; क्योंकि इनका भी प्रयोग बहुधा विशेषण के समान होता है, ये दोनों अर्थ में एक दूसरे के उलटे हैं । “निज" का अर्थ "अपना" और "पराया" का अर्थ “दूसरे का" है, जैसे, निज देश, निज भाषा, निज गृह ( राम० ), पराया घर, पराया माल, इत्यादि।
( २ ) गुणवाचक विशेषण ।
१५७---गुणवाचक विशेषणों की संख्या और सब विशेषणों की अपेक्षा अधिक रहती है । इनके कुछ मुख्य अर्थ नीचे दिये जाते हैं-
काल-–नया, पुराना, ताजा, भूत, वर्तमान, भविष्य,
प्राचीन, अगला, पिछला, मौसमी, आगामी, टिकाऊ, इत्यादि ।
स्थान-लंबा, चैड़ा, ऊँचा, नीचा, गहरा, सीधा,सकरा, तिरछा, भीतरी, बाहरी, ऊजड़, स्थानीय, इत्यादि ।
आकार-गोल, चौकोर, सुडोल'समान, पोला, सुंदर, नुकीला, इत्यादि ।
रंग--लाल, पीला, नीला, हरा, सफेद, काला, बैंगनी, सुनहरी, चमकीला, धुंधला, फीका, इत्यादि ।
दशा-दुबला, पतला, मोटा, भारी, पिघला, गाढ़ा, गीला,सूखा, घना, गरीब, उद्यमी, पालतू, रोगी, इत्यादि ।
गुण-भला, बुरा, उचित, अनुचित, सच, झूठ, पापी, दानी, न्यायी, दुष्ट, सीधा, शांत, इत्यादि । १५८—गुणवाचक विशेषणों के साथ हीनता के अर्थ में “सा" प्रत्यय जोड़ा जाता है, जैसे, "बड़ासा पेड," “ऊँचीसी दीवार," “यह चादी खोटीसी दिखती है ।" “उसका सिर कुछ भारीसा हो गया ।"
[ सूचना–सा = प्राकृत, सरिसो, संस्कृत, सदृश ।]
१५९–“नाम" (वा “नामक"), "सबंधी" और "रूपी" संज्ञा के साथ मिलकर विशेषण होते हैं, जैसे, “बाहुक-नाम सारघी," “परतप-नामक राजा," “घर-संबंधी काम," “तृष्णा-रूपी नदी," इत्यादि।
१६०–“सरीखा" संज्ञा और सर्वनाम के साथ सबंध-सूचक हेकर आता है, जैसे, “हरिश्चद्र सरीखा दानी," “मुझ सरीखें लोग" इत्यादि । इसका प्रयोग कुछ कम हो चला है ।
१६१–“समान" (सदृश)और “तुल्य" (बराबर) का प्रयोग कभी कभी संबंध-सूचक के समान होता है। जैसे, “उसका ऐन घड़े के समान वडा था ।" (रघु०)। “लडका आदमी के बराबर दौड़ा ।"
( आ ) “योग्य" ( लायक ) संबंध-सूचक के समान आकर भी बहुधा विशेषण ही रहता है, जैसे, मेरे योग्य काम काज लिखियेगा ।"
१६२-गुणवाचक विशेषण के बदले बहुधा संज्ञा का संबध- कारक आता है; जैसे, “घरू झगडा" = घर का झगड़ा, "जंगली जानवर" = जंगल का जानवर, इत्यादि ।
१६३---जब गुणवाचक विशेषणों का विशेष्य लुप्त रहता है तब उनका प्रयोग संज्ञाओं के समान होता है ( अं०-१०९), जैसे, "बड़ों ने सच कहा है ।" (सत्य०) । “दीनों को मत सताओ ।" “सहज में," “ठंढे में" इत्यादि । ( अ ) कभी कभी विशेषण अकेला आता है और उसका लुप्त विशेष्य अनुमान से समझ लिया जाता है; जैसे---"महाराज जी ने खटिया पर लंबी तानी ।" ( शिव० ) । “बापुरे बटोही पर बड़ी कड़ी बीती ।” ( ठेठ० )। “जिसके समक्ष न एक भी विजयी सिकन्दर की चली ।" ( भारत० ) ।
( ३ ) संख्यावाचक विशेषण।
१६४--संख्यावाचक विशेषण के मुख्य तीन भेद हैं--(१) निश्चित संख्यावाचक, (२) अनिश्चित संख्यावाचक और(३) परिणामबोधक।
( १ ) निश्चितसंख्या-वाचक विशेषण ।
१६५–निश्चित संख्यावाचक विशेषणो से वस्तुओं की निश्चित संख्या का बोध होता है; जैसे, एक लड़का, पच्चीस रुपये, दसवाँ भाग, दूना मोल, पाँचों इंद्रियाँ, हर आदमी, इत्यादि।
१६६-निश्चित संख्या-वाचक विशेषणों के पाँच भेद हैं-(१) गणनावाचक, (२) क्रमवाचक, (३) आवृत्तिवाचक, (४) समुदाय-वाचक और ( ५ ) प्रत्येक बोधक ।
१६७--गणनावाचक विशेषणों के दो भेद हैं-
( अ ) पूणांक-बोधक ; जैसे, एक, दो, चार, सौ, हज़ार ।
( आ ) अपूर्णांक-बोधक; जैसे, पाव, आधा, पौन, सवा ।
( अ ) पूर्णांक-वेधक ।।
१६८---पूर्णांक-बोधक विशेषण दो प्रकार से लिखे जाते हैं -(१) शब्दों में, (२) अंकों में । बड़ी बड़ी संख्याएँ अंकों में लिखी जाती है; परंतु छोटी छोटी संख्याएँ और अनिश्चित बड़ी संख्याएँ बहुधा शब्दों में लिखी जाती हैं। तिथि और संवत् की अंकों ही में लिखते हैं। उदा०--"सन् १६०० तक तोले भर सोने की दस तोले चॉदी मिलती थी । सन् १७०० से अर्थात् सौ बरस बाद ताले भर सेाने की चौदह तोले मिलने लगी ।" ( इति० )। “सात वर्ष के अंदर १२ करोड रुपये सात जंगी जहाजों और छः जंगी क्रूजर्स के बनाने में और खर्च किये जायँगे।" (सर॰)।
१६९—पूर्णांक-बोधक विशेषणों के नाम और अंक नीचे दिये जाते हैं–
एक १ छब्बीस २६ इक्यावन ५१ छिहत्तर ७६ दो २ सत्ताईस २७ बावन ५२ सतहत्तर ७७ तीन ३ अट्ठाईस २८ तिरपन ५३ अठहत्तर ७८ चार ४ उतीस २९ चौवन ५४ उनासी ७९ पाँच ५ तीस ३० पचपन ५५ अस्सी ८० छ: ६ इकतीस ३१ छप्पन ५६ इक्यासी ८१ सात ७ बत्तीस ३२ सत्तावन ५७ बयासी ८२ आठ ८ तेंतीस ३३ अट्ठावन ५८ तिरासी ८३ नौ ९ चौंतीस ३४ उनसठ ५९ चौरासी ८४ दस १० पैंतीस ३५ साठ ६० पचासी ८५ ग्यारह ११ छत्तीस ३६ इकसठ ६१ छियासी ८६ बारह १२ सैंतीस ३७ बासठ ६२ सतासी ८७ तेरह १३ अड़तीस ३८ तिरसठ ६३ अठासी ८८ चौदह १४ उतालीस ३९ चौंसठ ६४ नवासी ८९ पंद्रह १५ चालीस ४० पैंसठ ६५ नब्बे ९० सोलह १६ इकतालीस ४१ छियासठ ६६ इक्यानबे ९१ सत्रह १७ बयालीस ४२ सड़सठ ६७ बानबे ९२ अठारह १८ तैतालीस ४३ अड़सठ ६८ तिरानबे ९३ उन्नीस १९ चौवालीस ४४ उनहत्तर ६९ चौरानबे ९४ बीस २० पैंतालीस ४५ सत्तर ७० पंचानबे ९५ इक्कीस २१ छियालीस ४६ इकहत्तर ७१ छियानबे ९६ बाईस २२ सैंतालीस ४७ बहत्तर ७२ सत्तानबे ९७ तेईस २३ अड़तालीस ४८ तिहत्तर ७३ अट्टानवे ९८ चौबीस २४ उनचास ४९ चौहत्तर ७४ निन्नानबे ९९ पच्चीस २५ पचास ५० पचहत्तर ७५ सौ १००
१७०—दहाई की संख्याओं में एक से लेकर आठ तक अंकों का उच्चारण दहाइयों के पहले होता है; जैसे, “चौ-दह," चै-बीस," “पैं-तीस," “पैं-तालीस इत्यादि ।
( क ) दहाई की संख्या सूचित करने मे इकाई और दहाई के अंकों का उच्चारण कुछ बदल जाता है, जैसे, एक = इक। दप =रह ।
दो = बा, ब। । बीस = ईस ।
तीन = ते, तिर, ति । तीस = तीस ।
चार = चैी, चौ । चालीस= तालीस ।
पांच = पंद, पच, पचास = वन, पन ।
पैं, पच । साठ =सठ
छः = सो, छ । सतर= हतर ।
सात= सत, सै, सड । अस्सी = अस्सी ।
आठ = अठ, अड । नव्वे = नवे ।
१७१–बोस से लेकर अस्सी तक प्रत्येक दहाई के पहले की संख्या सूचित करने के लिये उस दहाई के नाम के पहले "उन" शब्द का उपयोग होता है, जैसे, उन्नीस," “उंंतीस,” “उनसठ," इत्यादि । यह शब्द संस्कृत के “ऊन” शब्द का अपभ्रंश है। "नवासी" और "निन्नानवे" में क्रमश: और "नव" और "निन्ना" जोड़े जाते हैं। संस्कृत में इन संख्याओं के रूप “नवाशीति" और“नवनवति" हैं।
१७२-सौ से ऊपर की संख्या जताने के लिये एक से अधिक शब्दो का उपयोग किया जाता है; जैसे, १२५= “एक सौ पच्चीस,"
२७५="दो सौ पचहत्तर” इत्यादि ।
(अ) सौ और दो सों के बीच की संख्याएँ प्रगट करने के लिये कभी कभी छाटी संख्या को पहले कहकर फिर बड़ी संख्या बोलते हैं । इकाई के साथ “ओतर" (सं.---उत्तर = अधिक) और दहाई के साथ "आ" जोड़ा जाता है, जैसे, “अटोतर सो" = १०८, “चालीसा सौ" = १४०, इत्यादि । इनका प्रयोग बहुधा गणित और पहाड़ों में होता है ।
१७३–नीचे लिखी सख्याओं के लिए अलग अलग नाम हैं--
१०००= हजार ( स० सहस्र ) ।
१०० हजार= लाख ।
१०० लाख = कराड ।
१०० करोड़= अर्व ।
१०० अर्व = खर्ब ।
( अ ) खर्ब से उत्तरोत्तर सौ सौ गुनी संख्याओं के लिये क्रमशः नील, पद्म, शंख आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है । इन सख्याओं से बहुधा असख्यता का बेध होता है ।
( आ ) अपूर्णा क-बोधक विशेषण ।
१७४-अपूर्णा क-बोधक विशेषण से पूर्ण-सख्या के किसी भाग का बोध होता है, जैसे, पाव = चैथाई भाग, पौन = तीन भाग, सवा = एक पूर्ण के और चौथाई भाग, अढाई = दो पूर्णाक और आधा, इत्यादि ।
( अ ) दूसरे अपूर्णांक-बोधक शब्द अंश (सं०),भाग वा हिस्सा (फा०) शब्द के उपयोग से सूचित होते हैं, जैसे, तृतीयांश वा तीसरा हिस्सा वा तीसरा भाग, दो पंचमाश ( पाँच भागों में से दो भाग ), इत्यादि । तीसरे हिस्से को “तिहाई" और चौथे हिस्से के "चैथाई' भी कहते हैं।
१७५—-अपूर्णांक-बोधक विशेषणो के नाम और अंक नीचे लिखे जाते हैं-
पाव= ।,
सवा= १५, १६
आधा = ॥ , ३
डेढ = १।। ,१३
पौन = ॥, ३
पौने दा= १।।। ,१३ अढ़ाई या ढाई = २।। ,२३ साढ़े तीन = ३॥, ३३
( अ ) एक से अधिक संख्याओं के साथ पाव और पौन सूचित करने के लिये पूर्णांक-बोधक शब्द के पहले क्रमशः “सवा"(सं० सपाद) और "पौने" ( सं० पदीन ) शब्दों का उप-योग किया जाता है; जैसे, "सवा दो" = २१; "पौने तीन)" =२;; इत्यादि ।
( आ ) तीन और उससे ऊपर की संख्याओं में आधे की अधिकता सूचित करने के लिये "साढे" (सं०-सार्ध) का उपयोग होता है; जैसे, ‘साढे चार" = ४३; "साढ़े दस" = १०३; इत्यादि।
[ सूचना--"पौने" और "साढे" शब्द कभी अकेले नहीं आते । “सवा अकेला ११ के लिए आता है ।]
१७६---सौ, हजार, लाख, इत्यादि संख्या में भी अपूर्णांक- बोधक शब्द जोड़े जाते हैं, जैसे, "सवा सौ" = १२५; ढाई सौ= २५०; “साढे तीन हजार" = ३५००; “पौने पाँच लाख) = ४७५०००; इत्यादि ।
१७७-अपूर्णांक-बोधक शब्द माप-तौल-वाचक संज्ञाओं के साथ भी आते हैं; जैसे, "सवा सेर," "डेढ़ गज," “पौने तीन कोस," इत्यादि ।
१७८-कभी कभी अपूर्णांक-बोधक संज्ञा आना के हिसाब से भी सूचित की जाती है; जैसे, "इम साल चौदह आने फसल हुई है ।" "इस व्यापार में मेरा चार आने हिस्सा हैं ।" इत्यादि ।
१७९--गणनावाचक विशेषणों के प्रयोग में नीचे निरवीं विशेष- ताएँ हैं-
( अ ) पूर्णांक-बोधक विशेषण के साथ एक लगाने से "लगभग" का अर्थ पाया जाता है, जैसे, “दस एक आदमी," "चालीस एक गायें," इत्यादि । “सौ एक" का अर्थ “सौ के लगभग" है; परंतु “एक सौ एक" का अंर्थ "सौ और एक" है। अनिश्चय अथवा अनादर के अर्थ में "ठो" जोड़ा जाता है; जैसे दोठो रोटियाँ, पचासठो आदमी ।
[सूचना--कवता में "एक" के बदले बहुधा ‘क’ जोड़ा जाता है, जैसे, चलो छ-सातक हाथ, "दिन हैक ते” । ( सत०)।]
( आ ) एक के अनिश्चय के लिये उसके साथ आद या आध लगाते हैं ; जैसे एक आद टोपी, एक-आध कवित्त । एक और आद ( आव ) में वहुधा सधि भी हो जाती है; जैसे, एकाद, एकाध ।
( इ ) अनिश्चय के लिए कोई भी दो पूर्णांक-बोधक विशेषण साथ साथ आते हैं, जैसे, “दो-चार दिन में," “दस-बीस रुपये," “सौ-दो-सौ आदमी," इत्यादि ।
“डेढ़ दो," “अढ़ाई-तीन" आदि भी बोलते हैं । "उन्नीस-बीस" कहने से कुछ कमी समझी जाती है; जैसे, ‘बीमारी अब उन्नीस- बीस है" । “तीन-पाँच" का अर्थ “लड़ाई" है और “तीन-तेरह" का अर्थ "तितर-बितर है ।।
( ई ) “बीस", “पचास", "सैकड़ा", "हजार", "लाख" और "करोड़" में ओं जोड़ने से अनिश्चय का बोध होता है, जैसे “बीसो" आदमी”, “पंचासों घर", "सैकड़ों रुपये","हजारों बरस" “करोड़ों पंडित", इत्यादि ।
[ सूचना---एक लेखक हिंदी “करोड़” शब्द के साथ “ओ” के बदले फारसी की "हा” प्रत्यय जोड़कर "करोइहा" लिखते हैं, जो अशुद्ध है । ]
१८०-क्रम-वाचक विशेषण से किसी वस्तु की क्रमानुसार गणना का बोध होता है; जैसे, पहला, दूसरा, पाँचवाँ, बीसवाँ, इत्यादि ।
(अ) क्रम-वाचक विशेषण पूर्णक-बोधक विशेषणो से बनते हैं । पहले चार क्रम-वाचक विशेषण नियम-रहित हैं; जैसे,
एक= पहला तीन = तीसरा
दो = दूसरा चार = चौथा
( आ ) पॉच से लेकर आगे के शब्दों में “वॉ" जोड़ने से क्रम-वाचक विशेषण बनते हैं; जैसे,
पाँच = पाँचवाँ दस = दसवां
छः =( छठवाँ ) छठा पंद्रह = पंद्रहवाँ
आठ= आठवाँ पवास = पचासवाँ
( इ ) सौ से ऊपर की संख्याओं में पिछले शब्द के अंत में वाँ लगाते हैं; जैसे, एक सौ तीनवों, दो सौ आठवॉ, इत्यादि ।
( ई ) कभी कभी संस्कृत क्रम-वाचक विशेषणों का भी उपयोग होता है; जैसे प्रथम ( पहला ), द्वितीय ( दूसरा ), तृतीय ( तीसरा ), चतुर्थ ( चौथा ), पंचम (पाँचवाँ), षष्ठ (छठा ), दशम ( दसवाँ ) ।
( उ ) तिथियों के नामों में हिंदी शब्दों के सिवा कभी कभी संस्कृत शब्दों का भी उपयोग होता है; जैसे, हिदी–दूज, तीज, चौथ, पॉचें, छठ, इत्यादि । संस्कृत-द्वितीय, तृतीया,चतुर्थी, पचमी, षष्ठी, इत्यादि ।
१८१-आवृत्तिवाचक विशेषण से जाना जाता है कि उसके विशेष्य का वाच्य पदार्थ कै गुना है; जैसे, दुगुना, चौगुना, देस- गुना, सौगुना, इत्यादि ।
( अ ) पूर्णांक-बोधक विशेषण के आगे "गुना" शब्द लगाने से आवृत्ति-वाचक विशेषण बनते हैं। "गुना" शब्द लगाने के पहले दो से लेकर आठ तक संख्याओं के शब्दो में आद्य स्वर का कुछ विकार होता है; जैसे,
दो = दुगुना वा दूना छ:छगुना तीन = तिगुना सात = सातगुना
चार = चौगुना। आठ = आठगुना
पाँच = पचगुना नौ = नौगुना
( आ ) परत व प्रकार के अर्थ में ‘हरा' जोड़ा जाता है, जैसे, इकहरा, दुहरा, तिहरा, चैहरा, इत्यादि ।
( इ ) कभी कभी संस्कृत के प्रवृत्ति-वाचक विशेषणों का भी उपयोग हेाता है; जैसे, द्विगुण, त्रिगुण, चतुर्गुण, इत्यादि ।
( ई ) पहाड़ों में आवृत्ति-वाचक श्रीर अपूर्ण-संख्या-बोधक विशेषणों के रूपों में कुछ अंतर हो जाता है, जैसे,
दूना--दूने, दूनी । सवा-सवाम ।
तिगुना--तिया, तिरिक डेढ़-डेवढे ।
चौगुना-चौक । अढाई - अढाम ।
पॅचगुना--पंचे ।
छगुना-छक ।
सतगुना–सत्ते ।
अठगुना-अट्टे।
नौगुना--नवां, नवें ।
दसगुना-दहाम ।
[सूचना-इन शब्दों का उच्चारण भिन्न भिन्न प्रदेशों में भिन्न मिन्न प्रकार का होता है ।]
१८२–समुदाय-वाचक विशेषणों से किसी पूर्णाक-बोधक संख्या के समुदाय का बोध होता है; जैसे, दोनों हाथ, चारों पाँव, आठों लड़के, चालीसों चोर, इत्यादि ।
( अ ) पूर्णांक-बोधक विशेषणों के आगे ‘ओ', जोडने से समुदाय-वाचक विशेषण बनते हैं, जैसे, चार-चारों, दस-दसों, सोलह-सोलहों, इत्यादि । छः का रूप ‘छओ' होता है।
(आ) “दो" से "दोनो" बनता है । ‘एक' का समुदाय-वाचक रूप “अकेला" है। "दोनों" का प्रयोग बहुधा सर्वनाम के समान होता है; जैसे, “दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम ।" “अकेला" कभी कभी क्रिया-विशेषण के समान आता है; जैसे, “विपिन अकेलिफिरहु केहि हेतू (राम०) [ सूचना--"ओं" प्रत्यय अनिश्चय में भी आता है (अ०-१७६-ई)।]
( इ ) कभी कभी समुदायवाचक विशेषण की द्विरुक्ति भी होती है, जैसे,“पाँचों के पाँचों आदमी चले गये ।" “दोनों के दोनों लड़के मूर्ख निकले ।”
( ई ) समुदाय के अर्थ में कुछ संज्ञाएँ भी आती हैं; जैसे,
जोड़ा, जोड़ी = दो । गंडा = चार या पाँच
दहाई = दस । गाही = पाँच
कोड़ी, बीसा, बीसी = बीस । चालीसा= चालीस ।
बत्तीसी = बत्तीस । सैकड़ा= सो ।
छका = छः । दर्जन (अं०) = बारह
(उ) युग्म ( दो ), पंचक (पाँच), अष्टक ( आठ ) आदि संस्कृत समुदाय-वाचक संज्ञाएँ भी प्रचार में हैं ।
१८३---प्रत्येक-बोधक विशेषण से कई वस्तुओं में से प्रत्येक का बोध होता है; जैसे “हर घड़ी," “हर एक आदमी”, “प्रति-जन्म”, "प्रत्येक बालक", "हर आठवे दिन", इत्यादि । “हर" के बदले कभी कभी उर्दू “फी" आता है, जैसे, कीमत की जिल्द )।
( अ ) गणना-वाचक विशेषणों की द्विरुक्ति से भी यही अर्थ निकलता हैं, जैसे,"एक-एक लड़के को अधा-अधा फल मिला ।" “दवा दो-दो घंटे के बाद दी जावे ।
( आ ) अपूर्णांक-बोधक विशेषणों में मुख्य शब्द की द्विरुक्ति होती है; जैसे “सवा-सवा गज', "ढाई-ढाई सौ रुपये", “पौने
दो-दो मन”, “साढे पाँच-पाँच हजार", इत्यादि (२) अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण ।
१८४---जिस संख्या-वाचक विशेषण से किसी निश्चित संख्या का बोध नहीं होता उसे अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण कहते हैं; जैसे, एक, दूसरा, ( अन्य, और ) सब ( सर्व, सकल, समस्त, कुल ) बहुत ( अनेक, कई, नाना ) अधिक (ज्यादा )कम, कुछ,आदि, ( इत्यादि, वगैरह ), अमुक, ( फलाना ), कै ।
अनिश्चित संख्या के अर्थ में इनका प्रयोग बहुवचन में होता है। और और विशेषणों के समान ये विशेषण भी सज्ञा के समान उपयोग में आते हैं, और इनमें से कोई कोई परिमाण-बोधक विशेषण भी होते हैं ।
( १ ) “एक" पूर्णाक बोधक विशेषण है; परंतु इसका प्रयोग बहुधा अनिश्चय के लिए होता है।
( अ ) ‘एक" से कभी कभी “कोई" का अर्थ पाया जाता है; जैसे,“एक दिन ऐसा हुआ ।" “हमने एक बात सुनी है।"
(आ) जब "एक" ( विशेष्य के बिना ) संज्ञा के समान आता है। तब उसका प्रयोग कभी कभी बहुवचन के अर्थ में होता है; और दूसरे वाक्य में उसकी द्विरुक्ति भी होती है; जैसे,“इक प्रविशहिँ इक निर्गमहिँ ।” (राभ०) । “एक रोता है। और एक हँसता है।"
( इ ) “एक" कभी कभी ‘केवल' के अर्थ में क्रिया-विशेषण होता है; जैसे, "एक अधा सेर अटा चाहिए"। “एक तुम्हारे ही दुख से हम दुखी हैं ।"
( ई ) “एक" के साथ “सा" प्रत्यय लगाने से "समान" का अर्थ पाया जाता है, जैसे, "दोनों का रूप एकसा है।"
(उ) अनिश्चय के अर्थ में "एक" कुछ सर्वनामों और विशेषणों में जोड़ा जाता है; जैसे, कोई एक, कुछ एक, दस एक, कई एक, कितने एक, इत्यादि । (ऊ) “एक---एक" कभी कभी “यह-वह" के अर्थ में निश्चय- वाचक सर्वनाम के समान आता है; जैसे,
पुनि बंदौं शारद सुर-सरिता । युगल पुनीत मनोहर चरिता ।। मज्जन पान पापहर एका । कहत सुनत इक हर अविवेका ।।"–(राम०) ।
(२) "दूसरा" "दो" का क्रम-वाचक विशेषण है । यह “प्रकृत प्राणी या पदार्थ से भिन्न” के अर्थ में आता है; जैसे, “यह दूसरी घात है ।” “द्वार दूसरे दीनता उचित न तुलसी तेर ।" (तु० स०) । "दूसरा" के पर्यायवाची “अन्य और "और") हैं; जैसे, "अन्य पदार्थ", "और जाति ।"
( अ ) कभी कभी “दूसरा” “एक" के साथ विचित्रता ( तुलना ) के अर्थ में संज्ञा के समान आता है; जैसे “एक जलता मांस मारे तृष्णा के मुंह में रख लेता है..... और दूसरा उसीको फिर झट से खा जाता है ।" (सत्य०) ।
(आ) “एक-एक" के समान "एक-दूसरा" अथवा “पहला-- दूसरा" पहले कही हुई दे। वस्तुओं का क्रमानुसार निश्चय सूचित करता है; जैसे, “प्रतिष्ठा के लिये दो विद्याएँ हैं, एक शस्रविद्या और दूसरी शास्त्रविद्या। पहली बुढ़ापे मे हँसी कराती है, परंतु दूसरी को सदा आदर होता है ।"
(इ) “एक-दूसरा" यौगिक शब्द है और इसका प्रयोग "आपस" के अर्थ में होता है । यह बहुधा सर्वनाम के समान ( संज्ञा के बदले में ) आता है, जैसे, "लड़के एक-दूसरे से लडते हैं ।"
(ई) "और" कभी कभी "अधिक संख्या" के अर्थ में भी आता है; जैसे, “मैं और आम लूंगा ।" (उ) "और का और" विशेषण-वाक्यांश है और उसका अर्थ ‘भिन्न' होता है, जैसे, उसने और का और काम कर दिया । ( ऊ ) "और" समुच्चय बोधक भी होता है, जैसे, “हवा चली और पानी गिरा ।" ( अं०---२४४ )।
( ऋ )“कोई”, “कुछ”, “कौन” और “क्या" के साथ भी "और" आता है, जैसे, “असल चार कोई और है ।” “मैं कुछ और कहूँगा ।" “तुम्हारे साथ और कौन है ?" मरने के सिवा और क्या होगा ।”
(३)"सब" पूरी संख्या सूचित करता है, परंतु अनिश्चित रूप से । “सब" मे पॉच भी शामिल है और पचास भी । इसका प्रयोग बहुधा बहुवचन संज्ञा के साथ होता है, जैसे, “सब लड़के ।" “सब कपड़े ।" “सब भीड़ ।" “सब प्रकार ।”
( अ ) संज्ञा-रूप में इसका प्रयोग "सपूर्ण प्राणी वा पदार्थ" के अर्थ में आता है, जैसे, “सब यही बात कहते हैं ।" “सब के दाता राम ।" “आत्मा सब में व्याप्त है ।” “मैं सब जानता हूँ।"
(आ) “सब" के साथ "कोई" और “कुछ" आते हैं। "सब केाई” और “सब कुछ" के अर्थ का अंतर “कोई" और “कुछ" ( सर्वनामों ) के ही समान है; जैसे, “सब कोई अपनी बड़ाई चाहते हैं ।” (शकु० ) “हम समझते सब कुछ हैं ।" ( सत्य० )।
( इ ) “सब का सब" विशेषण वाक्यांश है, और इसका प्रयोग “समस्तता" के अर्थ में होता है, जैसे, "सब के सब लड़के लौट आये ।"
( ई ) “सब" के पर्यायवाची "सर्व", “सकल”, “समस्त" और “कुल" हैं । इन शब्दों का उपयोग बहुधा विशेषण ही के समान होता है। ( ४ ) “बहुत" "थोड़ा" का उलटा है। "जैसे मुसलमान थे बहुत और हिंदू थे थोडे ।" ( सर० )।
( अ )"बहुत" के साथ "से" और “सारे" जोड़ने से कुछ अधिक संख्या का बोध होता है; जैसे, “बहुतसे लोग ऐसा समझते हैं ।" “बहुत-सारे लड़के ।" यह पिछला प्रयोग प्रांतीय है।
(आ) “बहुत" के साथ "कुछ" भी आता है । “बहुत कुछ" का अर्थ प्रायः “बहुतसे" के समान है, जैसे, “बहुत कुछ आदमी आये थे ।"
(इ) “अनेक" (अन् + एक) “एक" का उलटा है। इसका प्रयोग कम अनिश्चित संख्या के लिए होता है। "अनेक" और "कई" प्रायः समानार्थी हैं । उदा०-"अनेक जन्म”, “कई रंग", इत्यादि । “अनेक" में विचित्रता के अर्थ में वहुधा "ओं" जोड़ देते हैं; जैसे, “अनेकों रोग", “अनेकों" मनुष्य, इत्यादि ।
(ई) “कई" के साथ बहुधा "एक" आता है। "कई एक" का अर्थ प्रायः "कई प्रकार का" है और उसका पर्यायवाची “नाना" है; जैसे, "कई एक ब्राह्मण”, “नाना वृक्ष", इत्यादि ।
(५) “अधिक" और "ज्यादा" तुलना में आते हैं; जैसे,"अधिक रुपया”, “ज्यादा दिन'", इत्यादि ।
(६) “कम" "ज्यादा" का उलटा है और इसीके समान तुलना में आता है; जैसे, “हम यह कपड़ी कम दामो में बेचते हैं।"
(७) “कुछ" अनिश्चय-वाचक सर्वनाम होने के सिवा (अं-- १३३, १५१-उ) संख्या का भी द्योतक है । यह “बहुत" का उलटा है; जैसे, “कुछ लोग", "कुछ फल”, “कुछ तारे", इत्यादि ।
(८) “आदि" का अर्थ "और ऐसे ही दूसरे" है। इसका प्रयोग संज्ञा और विशेषण दोनों के समान होता है; जैसे, “आप मेरी दैवी और मानुषी अदि सभी आपत्तियों के नाश करनेवाले हैं ।” ( रघु० ) । “विद्यानुरागिता, उपकारप्रियता, आदि गुण जिसमें सहज हो ।” (सत्य०)। "इस युक्ति से उसको टोपी, रूमाल, घड़ी, छड़ी, अदि का बहुधा फायदा हो जाता था ।" ( परी॰) । "आदि" के पर्याय-वाचक “इत्यादि" और वगैरह" हैं । “वगैरह" उर्दू (अरबी) शब्द है, हिंदी में इसका प्रयोग कचित होता है। "इत्यादि" का प्रयोग बहुधा किसी विषय के कुछ उदाहरणों के पश्चात् होता है, जैसे, “खबरदार इत्यादि कहता हुआ ।" (सत्य०)। "दीपन इत्यादि दोहा पढता है ।" (रत्ना०)। "क्या हुआ, क्या देखा, इत्यादि ।" (भाषा-सार०)। पठन, मनन, घोषणा, इत्यादि सब शब्द यही गवाही देते हैं ।"(इति०)।
[ सूचना- "आदि", ‘इत्यादि" और "वगैरह" शब्दों का उपयोग बार बार करने से लेखक की असावधानी और अर्थ का अनिश्चय सूचित होता है। एक उदाहरण के पश्चात् आदि, और एक से अधिक के बाद इत्यादि लाना चाहिए, जैसे, घर आदि की व्यवस्था, कपड़े, भोजन, इम्यादि का प्रबंध।
(९) “अमुक" का प्रयेाग “कोई एक" (अं०-१३२-उ) के अर्थ में होता है, जैसे, “आदमी यह नहीं कहते कि अमुक बात, अमुक राय या अमुक सम्मति निर्दोष है ।" (स्वा०) । “अमुक" का पर्यायवाची ‘फलाना" ( उर्दू-फलाँ) है ।
(१०) "कै" का अर्थ प्रश्नवाचक विशेषण “कितने" के समान है। इसका प्रयोग सज्ञा की नाई कचित् होता है, जैसे, “कै लड़के", "कै आम", इत्यादि ।
(३) परिमाण बोधक विशेषण ।
१८५----परिमाण-बोधक विशेषणों से किसी वस्तु की नाप या तौल का बोध होता है, जैसे, और, सब, सारा, समूचा,अधिक (ज्यादा), बहुत, बहुतेरा, कुछ (अल्प, किचित्, ज़रा), कम, थोड़ा, पूरा, अधूरा, यथेष्ट, इत्यादि ।
(अ) इन शब्दों से केवल अनिश्चित परिमाण का बोध होता है; जैसे, “और घी लाओ", “सब धान”, “सारा कुटुंब",“बहुतेर काम", "थाड़ी बात", इत्यादि ।
( आ ) ये विशेषण एकवचन संज्ञा के साथ परिमाण-बोधक और बहुवचन संज्ञा के साथ अनिश्चित संख्यावाचक होते हैं; जैसे,
परिमाण-बोधक अनिक्ष्चित संख्यावाचक
बहुत दूध बहुत आदमी
सब जंगल सब पेड़
सारा देश सारे देश
बहुतेरा काम बहुतेरे उपाय
पूरा आनंद पूरे टुकड़े
"अल्प", "किंचित" और “जरा" केवल परिमाण-वाचक हैं ।
( इ ) निश्चित परिमाण बताने के लिए संख्यावाचक विशेषण के साथ परिमाण-बोधक संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है; जैसे, “दो सेर घी," चार गज मलमल”, “दस हाथ जगह",इत्यादि ।
( ई ) परिमाण-बोधक संज्ञाओं में “ओं" जोड़ने से उनका प्रयोग अनिश्चित-परिमाण-बोधक विशेषणों के समान होता है; जैसे ढेरो इलायची, मानोंं घी, गाड़ियों फल, इत्यादि ।
( उ ) एक का परिमाण सूचित करने के लिए परिमाण-बोधक संज्ञा के साथ “भर" प्रत्यय जोड़ देते हैं; जैसे,
एक गज़ कपड़ा=गज़-भर कपड़ा । एक तोला सोना= तोले-भर सोना । एक हाथ जगह = हाथ-भर जगह।
"बहुत-सारा काम", | "बहुत-कुछ आशा" |
"थोड़ा-बहुत लाभ," | "कम-ज्यादा आमदनी"। |
संख्या-वाचक विशेषणों की व्युत्पत्ति।
१८६—हिंदी के सब संख्यावाचक विशेषण प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकले हैं; जैसे,
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[टी॰—हिंदी के अधिकांश व्याकरणों में विशेषणों के भेद और उपभेद नहीं किये गये। इसका कारण कदाचित् वर्गीकरण के न्याय-सम्मत आधार का अभाव हो। विशेषणों के वर्गीकरण का कारण हम इस अध्याय के आरंभ में लिख आये हैं। इनका वर्गीकरण केवल "भाषातत्वदीपिका" में पाया जाता है, इसलिए हम अपने किये हुए भेदों का मिलान इसी पुस्तक में दिये गए भेदों से करते है। इस पुस्तक में "संख्या-विशेषण" के पाँच भेद किये गये हैं—(१) संख्यावाचक (२) समूहवाचक (३) क्रमवाचक (४) आवृत्तिवाचक और (५) संख्यांशवाचक। इनमें "संख्या-विशेषण" और "संख्यावाचक" एक ही अर्थ के दो नाम हैं जो क्रमशः जाति और उसकी उपजाति को दिये गये है। इससे नामों की गड़बड़ के सिवा कोई लाभ नहीं है। फिर "संख्यांश-वाचक" नाम का जो एक भेद है उसका समावेश "संख्या-वाचक" में हो जाता है, क्योंकि दोनों भेदों के प्रयोग समान हैं। जिस प्रकार एक, दो, तीन, आदि शब्द वस्तुओं की संख्या सूचित करते हैं उसी प्रकार आधा, पौन, सवा, आदि भी संख्या सूचित करनेवाले है। इसके सिवा अनिश्चित संख्या वाचक विशेषण "भाषा-तत्व दीपिका" में स्वीकार ही नहीं किया गया। उसके कुछ उदाहरण इस पुस्तक में "सामान्य सर्वनाम" के नाम से आये हैं, परंतु उनके विशेषणीभूत प्रयोग का कहीं उल्लेख ही नहीं है। प्रत्येक-बोधक विशेषण के विषय में भी "भाषा-तत्व-दीपिका" में कुछ नहीं कहा गया। हमने संख्या-वाचक विशेषण के सब मिलाकर सात भेद नीचे लिखे अनुसार किये हैं—
संख्यावाचक निश्चित संख्या-वा॰ अनिश्चित संख्या-वा॰
(६)परिमाण-बो॰
(७)गणना-वा॰
(१)क्रम-वा॰
(२)आवृत्ति-वा॰
(३)समुदाय वा॰
(४)प्रत्येक-बो॰
(५)पूर्णांक बो॰ अपूर्णांक-बो॰ यह वर्गीकरण भी बिल्कुल निर्दोष नहीं है, परंतु इसमें प्राय सभी संख्या-वाचक विशेषण आ गये हैं, और रूप तथा अर्थ में एक वर्ग दूसरे से बहुधा भिन्न है।