हिंदी रसगंगाधर/स्थायी भाव
स्थायी भाव
स्थायी भाव
पूर्वोक्त रसों के, क्रम से, रति, शोक, निर्वेद, क्रोध, उत्साह, विस्मय, हास, भय और जुगुप्सा ये स्थायी भाव होते हैं। अर्थात् शृंगार का रति, करुण का शोक, शांत का निर्वेद, रौद्र का क्रोध, वीर का उत्साह, अद्भुत का विस्मय, हास्य का हास, भयानक का भय और वीभत्स का जुगुप्सा स्थायी भाव होता है।
रसों और स्थायी भावों का भेद
अच्छा, अब, रसों से स्थायी भावों मे क्या भेद है, सोभी समझ लीजिए। पहले और दूसरे मतों में-जिस तरह घड़े आदि का घड़े आदि के अंदर आए हुए आकाश से भेद है, उस तरह, तीसरे मत में-जिस तरह सच्ची चाँदी से मनःकल्पित चाँदी मे भेद है, उस तरहः और चौथे मत में-जिस तरह विषय (ज्ञानगम्य पदार्थ) का ज्ञान से भेद है, उस तरह स्थायी भावो का रसों से भेद समझना चाहिए।
ये स्थायी क्यों कहलाते हैं?
ये रति आदि भाव किसी भी काव्यादिक मे उसकी समाप्ति पर्यंत स्थिर रहते हैं, अतः इनको स्थायी भाव कहते हैं। आप कहेंगे कि ये तो चित्तवृत्तिरूप हैं, अतएव तत्काल नष्ट हो जानेवाले पदार्थ हैं, इस कारण इनका स्थिर होना दुर्लभ है, फिर इन्हे स्थायी कैसे कहा जा सकता है? और यदि वासनारूप से इनको स्थिर माना जाय तो व्यभिचारी भाव भी हमारे अंत:करण मे वासनारूप से विद्यमान रहते हैं, अतः वे भी स्थायी भाव हो जायँगे। इसका उत्तर यह है कि यहाँ इन वासनारूप भावों का वार-वार अभिव्यक्त होना ही स्थिर-पद का अर्थ है। व्यभिचारी भावों मे यह बात नहीं होती, क्योंकि उनकी चमक बिजली की चमक की तरह अस्थिर होती है; अत वे स्थायी भाव नहीं कहला सकते*[१]। जैसा कि लिखा है-
विरुद्धैरविरुदैर्वा भावैर्विच्छिद्यते न यः।
आत्मभावं नयत्याशु स स्थायी लवणाकरः॥
चिरं चित्तेवतिष्ठन्ते संबध्यन्तेऽनुबन्धिभिः।
रसत्वं ये प्रपद्यन्ते प्रसिद्धाः स्थायिनोऽत्र ते॥
तथा-
सजातीयविजातीयैरतिरस्कृतमूर्तिमान्।
यावद्रसं वर्त्तमानः स्थायिभाव उदाहृतः॥
अर्थात् जो भाव विरोधी एवं अविरोधी भावों से विच्छिन्न नही होता; कितु विरुद्ध भावो को भी शीघ्र अपने रूप में परिणत कर लेता है, उसका नाम स्थायी है और वह लवणा कर के समान है। जिस तरह लवणाकर समुद्र मे गिरने से सब वस्तुएँ लोन बन जाती हैं, उसी प्रकार स्थायी भाव से मिलकर सब भाव तद्रूप हो जाते हैं।
जो भाव बहुत समय तक चित्त मे रहते हैं, विभावादिकों से सबंध करते हैं और रस-रूप बन जाते हैं, वे यहाँ (साहित्यशास्त्र मे) स्थायी नाम से प्रसिद्ध हैं। तथा-
जिस भाव का स्वरूप सजातीय और विजातीय भावों से तिरस्कृत न किया जा सके, और जब तक रस का आखादन हो तब तक वर्तमान रहे उसे स्थायी भाव कहते हैं।
कुछ लोग कहते हैं-पूर्वोक्त रति आदि नौ भावों में से अन्यतम (कोई एक) होना ही स्थायी भाव का परिचायक है। सो नहीं हो सकता; क्योंकि रति आदिको मे से किसीएक के बढ़े चढ़े हुए होने पर (उन्हीं में से) यदि अन्य कोई भाव बढ़ा चढ़ा न हो, तो उसको व्यभिचारी भाव माना जाता है। बढ़े चढ़े हुए का क्या अर्थ है सो भी समझ लीजिए। अधिक विभावादिकों से उत्पन्न हुए का नाम 'बढ़ा चढ़ा हुआ' है और थोड़े विभावादिको से उत्पन्न हुए का नाम है 'नहीं बढ़ा चढ़ा हुआ'। अतएव रत्नाकर' मे लिखा है-
रत्यादयः स्थायिभावाः स्युर्भूयिष्ठविभावजाः।
स्तोकैर्विभावैरुत्पन्नास्त एव व्यभिचारिणः॥
अर्थात् अधिक विभावादिकों से उत्पन्न हुए रति आदि स्थायी भाव होते हैं, और वे ही जब थोड़े विभावादिकों से उत्पन्न होते हैं तो व्यभिचारी कहलाते है। इस तरह मान लेने पर वीररस के प्रधान होने पर क्रोध, रौद्र-रस के प्रधान होने पर उत्साह और शृंगार-रस के प्रधान होने पर हास व्यभिचारी होता है और बिना उनके वे रस रहते ही नहीं, यह भी सिद्ध है। जब प्रधान रस को पुष्ट करने के लिये उस (अंगभूत भाव क्रोध आदि) को भी अधिक विभावादिकों से अभिव्यक्त किया जाता है, तो वह 'रसालंकार' कहलाने लगता है इत्यादि समझ लेना चाहिए।
स्थायी भावों के लक्षण
१-रति
स्त्री-पुरुष की, एक दूसरे के विषय मे, प्रेम नामक जो चित्तवृत्ति होती है, उसे 'रति' स्थायी भाव कहते हैं। वही प्रेम यदि गुरु, देवता अथवा पुत्र आदि के विषय मे हो, तो व्यभिचारी भाव कहलाता है।
२-शोक
पुत्र-आदि के वियोग अथवा मरण आदि से उत्पन्न होने वाली व्याकुलता नामक जो एक चित्तवृत्ति होती है, उसे 'शोक' कहते हैं। परंतु स्त्री-पुरुष के वियोग मे, जब तक प्रेमपात्र के जीवित होने का ज्ञान हो, तब तक व्याकुलता से पुष्ट किए हुए प्रेम की ही प्रधानता रहती है, अतः 'विप्रलंभ' नामक शृंगार-रस होता है। उस समय जो व्याकुलता रहती है, वह व्यभिचारी भाव मात्र है। पर यदि प्रेमपात्र के मरने का पता लग जाय तो व्याकुलता प्रधान रहती है, और प्रेम उसे पुष्ट करता है, इस कारण वहाँ करुण-रस ही होता है। और जब कि मर जाने का ज्ञान होने पर भी देवता की प्रसन्नता आदि से, किसी प्रकार, उसके पुनः जीवित होने का ज्ञान हो सके, तो आलवन ( प्रेमपात्र ) के सर्वथा नष्ट न हो जाने के कारण, लंबे परदेशवास की तरह, 'विप्रलंभ' ही होता है; 'करुण' नही, जैसा कि (कादंबरी में) चन्द्रापीड से महाश्वेता ने जो वादें की हैं, उनमे। कुछ लोगों की इच्छा है-ऐसी जगह एक दूसरा ही रस मानना चाहिए, जिसका नाम 'करुण-विप्रलंभ' है।
३-निर्वेद
जिसकी (वेदांत आदि के द्वारा) नित्य और अनित्य वस्तुओं के विचार से उत्पत्ति होती है, और जिसका नाम विषयों से विरक्ति है उसे 'निवेद' कहते हैं। वही निर्वेद यदि घर के झगड़े आदि से उत्पन्न हुआ हो, तो व्यभिचारी भाव होता है।
४-क्रोध
जिसकी, गुरु अथवा बंधु के मरने आदि-किसी प्रबल अपराध के कारण, उत्पत्ति होती है, और जिसका नाम जलन है, उसे 'क्रोध' कहते है। यह शत्रु-विनाश आदि का कारण होता है। यही जलन यदि किसी छोटे मोटे अपराध से उत्पन्न हुई हो, तो कठोर वचन और मौन-आदि का कारण होती है, तब वह अमर्ष नामक व्यभिचारी कहलाती है। 'अमर्ष' और 'क्रोध' मे यही भेद है।
४-क्रोध
जिसकी, शत्रु के पराक्रम तथा किसी के दान आदि के स्मरण से, उत्पत्ति होती है, और जिसका नाम उन्नतता है, उसे 'उत्साह' कहते हैं।
६-विस्मय
जिसकी, अलौकिक वस्तु के देखने आदि से, उत्पत्ति होती है, और जिसका नाम आश्चर्य है, उसे 'विस्मय' कहते हैं।
७-हास
जिसकी, वाणी एवं अंगों के विकारो के देखने आदि से, उत्पत्ति होती है, और जिसका नाम खिल जाना है, उसे 'हास' कहते हैं।
८-भय
९-जुगुप्सा
किसी घृणित वस्तु के देखने से जो घृणा नामक एक प्रकार की चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है, उसे 'जुगुप्सा' कहते हैं।
- ↑ * यहाँ म॰ म॰ श्रीगंगाधर शास्त्री जी की टिप्पणी है, जिसका अभिप्राय यह है-यदि वेदांतियो के मत के अनुसार यह माना जाय कि कोई भी चित्तवृत्ति उसके विरुद्ध चित्तवृत्ति उत्पन्न होने तक स्थिर रहती है, तो स्थिर-पद का बार बार अभिव्यक्त होना अर्थ करने की आवश्यकता नहीं। और जो 'विरुद्धै .....' इस कारिका मे विरुद्ध भावो से भी स्थायी भाव का विच्छेद न होना लिखा है, सो लौकिक दृष्टि से जो भाव विरुद्ध दिखाई देते है, उनके विपय मे लिखा गया है। काव्य मे तो 'अयं स रशनोत्कर्षी ..'इत्यादि स्थलों में लोकदृष्टया विरुद्ध भाव-प्रेम आदि-भी शोक अदि के पोषक ही होते है-यह अनुभवसिद्ध है। अन्यथा ऐसे स्थलों में प्रतिकूलविभावादि ग्रह' रूपी रसदोष होगा, जो कि किसी को भी सम्मत नहीं।