हिंदी रसगंगाधर/मङ्गलाचरण
श्रीहरिः
हिंदी-रसगंगाधर
प्रथम भाग
(प्रथम आनन)
निमग्नेन क्लेशैर्मननजलधेरन्तरुदरं
मयोन्नीतो लोके ललितरसगङ्गाधरमणिः।
हरन्नन्तर्ध्वान्तं हृदयमधिरुढो गुणवता-
मलङ्कारान् सर्वानपि गलितगर्वान् रचयतु॥
अति-कलेस तें मनन-जलधि के उदर-मांझ दै गोत घनी।
मैं जग में कीन्ही प्रकटित यह "रसगंगाधर" ललित-मनी॥
सो हरि अंधकार अतर को हिय शोभित ह्वै गुनि-गन के।
सकल अलंकारन के, करि दै गलित, गरब उत्तमपन के॥
पुरुषोत्तम शर्मा चतुर्वेदी
श्रीहरिः
हिंदी-रसगंगाधर
प्रथम भाग
तरनि-तनूजा-तट-तरुन तरुनीवृन्द मझार।
जे विहरत, ते करहु मुद-मङ्गल नन्दकुमार॥
मंगलाचरण
स्मृताऽपि तरुणातपं करुणया हरन्ती नृणा-
मभङ्गरतनुत्विषां बलयिता शतैर्विद्युताम्।
कलिन्दगिरिनन्दिनीतटसुरद्रुमालम्बिनी
मदीयमतिचुम्बिनी भवतु काऽपि कादम्बिनी॥
सुमिरत हू जो हरत नरन को तरुनातप करुना करिकैं।
घेरी शत-शत बिजुरिन तें जो भङ्ग रहित तन-दुति धरिकैं॥
कल कलिन्दतनया के तट के सुरतरु जाके हैं आश्रय।
सो मेघन की माल अलौकिक मम मति चुम्बन करहु सदय॥
जो केवल स्मरण करते ही मनुष्यों के तीन आतप (संसार के ताप) को, दया करके हरण कर लेती है, जो, जिनकी शरीरकांति में भग्न होने का स्वभाव ही नहीं है, उन सैकड़ों बिजलियों (गोपागनाओं) से परिवृत है और जिसका श्रीकालिदी के तट के सुरतरु (कदंब) आलंबन हैं, वह अनिर्वचनीय मेघमाला (श्रीकृष्णचंद्र की मूर्त्ति) मेरी बुद्धि का चुंबन करनेवाली बने—मेरी बुद्धि में विराजमान रहे।