हिंदी रसगंगाधर/प्रबंध-प्रशंसा

प्रबंध-प्रशंसा

निमग्नेन क्लेशेर्मननजलधेरन्तरुदरं
मयोन्नोतो लोके ललितरसगङ्गाधरमणिः।
हरन्नन्तर्धान्तं हृदयमधिरूढो गुणवता-
मलङ्कारान् सर्वानपि गलितगर्वान् रचयतु॥

अति-कलेस ते मनन-जलधि के उदर-मझि दै गोत धनी।
मैं जग में कीन्ही प्रकटित यह "रसगंगाधर" ललित-मनी॥
सो हरि अधकार अंतर को हिय शोभित ह्वै गुनि-गन के।
सकल अलंकारन के, करि दै गलित, गरब उत्तमपन के॥

मैंने मननरूपी जलधि के उदर के अंदर न कि बाहर ही बाहर, बड़े क्लेशों के साथ—न कि मनमौजीपन से, गोता लगाकर—अर्थात् पूर्णतया सोच समझकर, यह "रसगंगाधर" रूपी सुंदर मणि निकाली है। सो यह (रसगंगाधर मणि) (साहित्य शास्त्र विषयक) भीतरी अंधकार को हरण करती हुई और गुणवानों के हृदय पर आरूढ़ होती हुई सभी अलंकारों (अलंकार शास्त्रों+आभूषणों) को, (इसके प्रभाव के कारण) अपने आप ही दूर हो गया है गर्व जिनका ऐसे बना दे। अर्थात् इसमे अन्य सब अलंकार शास्त्रों से उत्कृष्ट होने की योग्यता है।

परिप्कुर्वन्त्वर्थान् सहृदयधुरीणाः कतिपये
तथापि क्लेशों में कथमपि गतार्थों न भविता।
तिमीन्द्राः संशोभं विदधतु पयोधेः पुनरिमे
किमेतेनायासो भवति विफलो मन्दरगिरेः॥

करै परिष्कृत गहरे, अर्थनि, सहृदयतम बुधजन केते।
किन्तु कलेस न मम यह कैसेहु होम व्यर्थ यो करिवे ते॥
करत छुभित जलनिधि कों सब दिन मगर मच्छ भारी भारी।
पै ये मन्दर गिरि के श्रम के ह्वै न सके निष्फलकारी॥

सहृदय पुरुषों के अग्रणी कुछ विद्वान् लोग अर्थों का परिष्कार करते रहे, उन्हे गंभीर विचारों से भूषित करते रहे, पर ऐसा करने से मेरा यह क्लेश—यह अत्यधिक श्रम, किसी प्रकार भी, गतार्थ नहीं हो सकता। भले ही बड़े बड़े मगरमच्छ समुद्र को अच्छी तरह तुब्ध करते रहे; पर क्या इससे, अलौकिक रत्नों का उत्पादन करनेवाला, मंदराचल का परिश्रम व्यर्थ हो सकता है? अर्थात् इन पंडितों का परिष्कार करना शास्त्र को निरा क्षुब्ध करना है; पर मैंने उसे मथकर, उसमे से, यह मणि निकाली है; अतः उनका परिश्रम निष्फल है और मेरा सफल।