हिंदी रसगंगाधर/काव्य का लक्षण

इलाहाबाद: इण्डियन प्रेस, पृष्ठ ९ से – १८ तक

 

 

ग्रंथारंभ
काव्य का लक्षण

जिस काव्य के, यश, परम-आनंद, गुरु, राजा और देवताओं की प्रसन्नता आदि अनेक फल हैं, उस काव्य की व्युत्पत्ति दो व्यक्तियों के लिये आवश्यक है। उनमें से एक है कवि—अर्थात् काव्य बनानेवाला और दूसरा है, उससे आनंद प्राप्त करनेवाला—उसके मर्मों को समझनेवाला, सहृदय। सच पूछिए तो, काव्य से आनंद उठाने के लिये, सहृदयता ही मुख्य साधन है। कवि भी यदि सहृदय हुआ (यद्यपि अच्छे कवियों की सहृदयता अनिवार्य है), तो उसे कविता-गत आनंद की प्राप्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं। इस कारण, गुण, अलंकार आदि से जिसका निरूपण किया जाता है, वह काव्य क्या वस्तु है—किसे काव्य कहना चाहिए और किसे नहीं—इस बात को, पूर्वोक्त दोनों व्यक्तियों को, समझाने के लिये पहले उसका लक्षण निरूपण करते है।

रमणीय अर्थ के प्रतिपादन करनेवाले—अर्थात् जिससे रमणीय अर्थ का बोध हो, उस शब्द को काव्य कहते हैं।

रमणीय अर्थ वह है, जिसके ज्ञान से—जिसके बार-बार अनुसंधान करने से—अलौकिक आनंद की प्राप्ति हो। यद्यपि हमसे कोई आकर कहे कि "आप के लड़का पैदा हुआ है।", "आपको इतने रुपए दिए जायँगे" (अथवा यों समझिए कि "आपको लाटरी में इतने रुपए प्राप्त हुए हैं") तो उन वाक्यों के ज्ञान से—उनके बार-बार अनुसंधान से—भी हमे आनंद प्राप्त होता है; पर वह आनंद अलौकिक नहीं, लौकिक है, इस कारण, उन वाक्यों को हम काव्य नहीं कह सकते। (तब नव्य-नैयायिकों की रीति से जो बाल की खाल खींची गई है, उसे छोड़कर, यदि इस लक्षण का सार समझे तो यह हुआ कि) "जिस शब्द अथवा जिन शब्दों के अर्थ के बार-बार अनुसंधान करने से किसी अलौकिक आनंद को प्राप्ति हो, उसका अथवा उनका नाम काव्य है"।

यह तो है पंडितराज का काव्य-लक्षण। अब साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों के साथ उनकी जो दलीलें हैं, उन्हे भी सुनिए। काव्य-प्रकाशकार आदि साहित्य-शास्त्र के प्राचीन आचार्यों ने लिखा है कि "दोष-रहित, गुण एवं अलंकार सहित शब्द और अर्थ का नाम काव्य है।" अब इस विषय में सबसे पहले तो यह विचार करना है कि—काव्य शब्द का प्रयोग केवल शब्द के लिये किया जाता है अथवा शब्द और अर्थ दोनों के लिये। अच्छा, इस विषय में पंडितराज के विचारों को ध्यान मे लीजिए। वे कहते है—

"शब्द और अर्थ" दोनों काव्य नहीं कहे जा सकते; क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं। प्रत्युत यदि विचारकर देखें तो "काव्य जोर से पढ़ा जा रहा है।" "काव्य से अर्थ समझा जाता है" "काव्य सुना, पर अर्थ समझ में न आया" इत्यादि सार्वजनिक व्यवहार से एक प्रकार का शब्द ही काव्य सिद्ध होता है, अर्थ नही। आप कहेंगे कि ऐसे व्यवहार के लिये, जिसमें कि काव्य शब्द का प्रयोग "केवल शब्द" के विषय में किया गया हो, लक्षणा वृत्ति से काम चला लो। हम कहते हैं—हाँ, ऐसा हो सकता है; पर तब, जब कि आप किसी दृढ़ प्रमाण से यह सिद्ध कर दें कि काव्य शब्द का मुख्य प्रयोग 'शब्द और अर्थ' दोनों के लिये ही होता है। वही तो हमे दिखाई नहीं देता। आप कहेंगे—शब्द प्रमाण से यह बात सिद्ध है; क्योकि काव्यप्रकाशकारादिकों ने इस बात को लिखा है। हाँ, ठीक, पर महाराज, जिस पर अभियोग चलाया जाय उसी के कथन के अनुसार निर्णय नहीं किया जा सकता। उन्हीं से तो हमारा मत-भेद है, अतः उनका कथन प्रमाण रूप में उपस्थित करना उचित नहीं। इस तरह यह सिद्ध हुआ कि शब्द और अर्थ दोनों का नाम काव्य है, इस बात में कोई प्रमाण नही; तब हमारे उपस्थित किए हुए पूर्वोक्त व्यवहार के अनुसार "एक प्रकार के शब्द का नाम ही काव्य है। इस बात को कौन मना कर सकता है। इसी से, "शब्दमात्र के काव्य मानने में कोई साधक युक्ति नही है, इस कारण दोनों को काव्य मानना चाहिए" इस दलील का भी जवाब हो जाता है; क्योंकि उसमें लौकिक व्यवहार को हम प्रमाण रूप में उपस्थित कर चुके हैं। सो इस तरह एक प्रकार के शब्द का नाम ही काव्य सिद्ध हुआ, अतः उसी का लक्षण बनाने की आवश्यकता है, न कि अपनी तरफ से कल्पित किए हुए शब्द और अर्थ के लक्षण बनाने की। यही बात वेद, पुराण आदि के लक्षणों में भी समझनी चाहिए, अर्थात् उनको भी शब्दरूप समझकर ही उनका लक्षण बनाना चाहिए, नहीं तो यही दुर्दशा उनमें भी होगी।

कुछ लोग एक और दलील पेश करते है। वे कहते हैं कि—काव्य शब्द का प्रयोग उसके लिये होना चाहिए, जिससे रस का उद्बोध होता हो—जिससे हमारे अंतरात्मा में एक प्रकार का आनंदास्वाद जग उठे। यह बात शब्द और अर्थ दोनों में समान है, इस कारण दोनों को काव्य कहना युक्ति-संगत है। पंडितराज कहते हैं—यह आपकी दलील ठीक नहीं। यदि आनंदास्वाद को जगा देनेवाली वस्तु का नाम ही काव्य हो, तो आप राग को भी काव्य कहिए; क्योंकि ध्वनिकार प्रभृति सभी साहित्य-मर्मज्ञों ने राग को रसव्यंजक (आनंदास्वाद का जगानेवाला) माना है। बहुत कहने की आवश्यकता नहीं, यदि आप रसव्यंजक को ही काव्य मानने लगे तो जितने नाट्य के अंग हैं—नृत्य-वाद्य आदि, सबको आप काव्य मान लीजिए। ऐसी दशा में आपको यह झगड़ा हटाना कठिन हो जायगा। इस कारण, जो रसोद्बोधन में समर्थ हो—जिससे आनंदास्वाद जग उठे—उसे ही काव्य मानना चाहिए, यह दलील पोच सिद्ध हुई।

इस विषय में हम आपसे एक बात और पूछते है—शब्द और अर्थ दोनों मिलकर काव्य कहलाते हैं, अथवा प्रत्येक पृथक् पृथक्? यदि आप कहेंगे कि दोनों सम्मिलित रूप में काव्य के नाम से व्यवहृत किए जाते हैं, तब तो जिस तरह एक और एक मिलकर (अर्थात् दो एको का योगफल) दो होता है—दो सम्मिलित एको का नाम ही दो है; दो के अवयव प्रत्येक एक को दो नहीं कह सकते उसी प्रकार श्लोक के वाक्य को आप काव्य नहीं कह सकते; क्योंकि वह उसका एक अवयव केवल शब्द है। सो इस तरह पूर्वोक्त व्यवहार सर्वथा उच्छिन्न हो जायगा। अब यदि आप कहेंगे कि प्रत्येक को पृथक् पृथक् काव्य शब्द से व्यवहार करना चाहिए, तो "एक पद्य में दो काव्य रहते हैं" यह व्यवहार होने लगेगा। सो है नहीं।

इस कारण, वेद, शास्त्र और पुराणों के लक्षणों की तरह काव्य का लक्षण भी शब्द का ही होना चाहिए। अर्थात् शब्द को ही काव्य मानना चाहिए, शब्द-अर्थ दोनों को नहीं[]

यह तो हुआ "शब्द" को काव्य मानना चाहिए, अथवा "शब्द-अर्थ" दोनों को, इस बात का विचार। अब दूसरी बात लीजिए। प्राचीन आचार्यों ने काव्य के लक्षण में, शब्द और अर्थ के साथ एक विशेषण लगाया है "गुण एवम् अलंकार सहित"। सो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि "उदितं मण्डलं विधोः" इस संस्कृत वाक्य अथवा "चन्द्र उग्यो नभ मांहि" इस हिंदी वाक्य को, कोई नायक के संकेत स्थान पर जाने के लिये इस अभिप्राय से कहे—प्रकाश हो गया अब कही काँटा खीला लगने का डर नहीं; अथवा कोई अभिसारिका दूती से, यह समझकर कि—अब प्रकाश हो गया, कोई देख लेगा, निषेध करने के लिए कहे, यदि कोई विरहिणी अपने सुहद्वर्ग को वह सुझाने के लिये कहे कि अब मैं न जी सकूँगी तो भी आपके हिसाब से वह काव्य न होगा क्योंकि न उसमें कोई गुण है, न अलंकार। पर आप यह नहीं कह सकते कि वह काव्य नहीं है; क्योंकि यदि उसे आप काव्य न मानें तो जिसे आप काव्य कह रहे हैं, उसे भी काव्य मानने के लिये कोई उद्यत न होगा। कारण यह है कि जिस "चमत्कारीपन" को काव्य का जीवन माना जाता है, वह इन दोनों में समान ही है। दूसरे, गुणत्व और अलंकारत्व का अनुगम नहीं है—अर्थान् आज दिन तक यह सिद्ध न हो सका कि गुणत्व और अलंकारत्व जिनमें रहते हैं, वे गुण और अलंकार अमुक अमुक ही हैं। उनकी संख्या अभी तक नियत ही न हो सकी; जिस आलंकारिक का जब जैसा विचार हुआ उसने, उसके अनुसार, उन्हें घटा दिया अथवा बढ़ा दिया। अतः गुणों और अलंकारों का लक्षण में समावेश करना उचित नहीं; क्योकि जो स्वयं ही निश्चित नहीं हैं, उनके द्वारा लक्षण क्या निश्चित हो सकेगा।

पर यदि आप कहे कि काव्य अथवा रस के धर्मों का नान गुण है और काव्य में शोभा उत्पन्न करनेवाले अथवा काव्य के धर्मों का नाम अलंकार है, इस तरह गुणत्व और अलंकारत्व का अनुगम हो जाता है—अर्थात् जिनमें ये लक्षण दिखाई दें, उन्हें गुण और अलंकार समझ लीजिए, उनकी संख्या नियत न हो सकी तो क्या हुआ। तथापि हम कहेंगे कि लक्षण में 'दोष रहित' कहना तो अयोग्य ही है; क्योकि लोक में "अमुक काव्य दोषयुक्त है" यह व्यवहार देखने में आता है। अर्थात् काव्य-पद का दोष रहित के लिये ही नहीं; दोष सहित के लिये भी प्रयोग किया जाता है। यदि आप कहे कि वहाँ आप लक्षणा से काम चला लीजिए—समझ लीजिए कि काव्य—जैसा पदग्रथन उस (दोषयुक्त) में भी है, इस कारण गौणी लक्षणा के द्वारा उसे भी काव्य समझ लेना चाहिए; तो यह भी अनुचित है क्योकि जब तक कोई मुख्यार्थ का बाधक कारण उपस्थित न हो, तब तक लाक्षणिक कहना ही नहीं बन सकता, लक्षणा तभी होती है, जब कि मुख्यार्थ का बाधा, मुख्यार्थ से संबंध और रूढ़ि अथवा प्रयोजन ये तीनों निमित्त हों

हाँ, एक दूसरी युक्ति और है। आप कह सकते हैं कि जैसे एक पेड़ की जड़ पर पक्षी बैठा है, पर डाली पर नहीं, तब उस पेड़ में एक स्थान पर (जड़ में) पक्षी का संयोग है और दूसरे स्थान पर (शाखा में) संयोग का अभाव! तथापि सर्वत्र संयोग रहित होने पर भी, एक स्थान पर संयोग होने के कारण, उस वृक्ष का संयोगी कह सकते हैं। ठीक इसी तरह अन्य सब स्थानों पर दोष रहित होने के कारण वह काव्य कहला सकता है और एक स्थान पर दोष युक्त होने के कारण दोषी भी। सो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जैसे जड़ पर पक्षी को बैठा देखकर, सब मनुष्यों को, यह प्रतीति होती है—कि इस वृक्ष की जड़ में पक्षी का संयोग है; पर शाखा में नहीं,


लक्षणा का विशेष विवरण द्वितीय भाग में होगा अतः हमने यहाँ विशेष प्रपंच नहीं किया है। उस तरह किसी को भी इस बात का ठीक ठीक अनुभव नही होता कि यह पद्य पूर्वार्ध में काव्य है और उत्तरार्ध में नहीं। अतः यह दृष्टांत यहाँ नहीं लग सकता। दृष्टांत के द्वारा अनुभव का अपलाप असंभव है—जो बात हमें प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है, वह दृष्टांत से नहीं हटाई जा सकती।

एक और भी बात है कि जिसके कारण गुण एवं अलंकार काव्य लक्षण में प्रविष्ट नहीं किए जा सकते। वह यह है कि जिस तरह शुर-वीरता आदि आत्मा के धर्म हैं, वैसे ही गुण भी काव्य के आत्मा रस के धर्म हैं, और जिस तरह हारादिक शरीर को शोभित करनेवाली वस्तुएँ हैं, उसी तरह अलंकार भी काव्य को अलंकृत करनेवाले हैं। अतः जिस तरह वीरता अथवा हारादिक शरीर के निर्माण में उपयोगी नही है, इसी तरह ये भी काव्य के शरीर को सिद्ध करने—उसके स्वरूप का लक्षण बनाने—में उपयुक्त नहीं हो सकते।

यह तो हुई प्राचीनों की बात। अब नवीनों में से "साहित्य-दर्पणकार" बहुत प्रसिद्ध हैं। अच्छा, आइए, उनके "काव्यलक्षण" की भी परीक्षा कर डाले। उन्होंने "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्" यह लक्षण बनाकर सिद्ध किया है कि "जिसमें रस हो वही काव्य है"। पर यह बन नहीं सकता; क्योंकि यदि ऐसा माने तो जिन काव्यों में वस्तु-वर्णन अथवा अलंकार-वर्णन ही प्रधान हैं, वे सब काव्य काव्य ही न रहेंगे। आप कहेंगे कि हमको यह स्वीकार है—हम उनको काव्य मानना ही नहीं चाहते। सो यह उचित नहीं, क्योकि महाकवियों का जितना संप्रदाय है, उनकी जो प्राचीन परिपाटी चली आईं है, वह बिलकुल गड़बड़ा जायगी। उन्होंने स्थान-स्थान पर जल के प्रवाह, वेग, गिरने, उछलने और भ्रमण, एव बंदरों और बालकों की क्रीड़ाओं का वर्णन किया है। क्या वे सब काव्य नहीं हैं? आप कहेंगे कि उन वर्णनों में भी किसी न किसी तरह रस का स्पर्श है ही, क्योंकि ऐसे वर्णन भी उद्दीपन आदि कर सकने के कारण रस से संबंध रख सकते हैं। पर यदि यो मानने लगो तो "बैल चलता है।", "हरिण दौड़ता है" आदि वाक्य भी काव्य होने लगें; क्योंकि जगत् की जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब विभाव, अनुभाव अथवा व्यभिचारी भाव कुछ न कुछ हो सकती है। इस कारण प्राचीनो एवं नवीनो के—दोनों के—"काव्य लक्षण" ठीक नहीं है।[]

  1. इन दलीलों का खंडन नागेश भट्ट ने, इसकी टीका में, बहुत थोड़े में, बहुत अच्छे ढंग से किया है। अच्छा, आप वह भी सुन लीजिए—
    नागेश कहते है—जिस तरह "काव्य सुना" इत्यादि व्यवहार है, उसी प्रकार "काव्य समझा" यह भी व्यवहार है, और समझना अर्थ का होता है, शब्द का नहीं, अतः काव्य शब्द का प्रयोग शब्द और अर्थ दोनों के सम्मिलित रूप के लिये ही होता है, यह मानना चाहिए। वेदादिक भी केवल शब्द का नाम नहीं है, किंतु शब्द-अर्थ दोनों के सम्मिलित रूप का ही नाम है, अतएव जो महाभाष्यकार भगवान् पतंजलि ने 'तदधीतं तद्वेद' इस पाणिनीय सूत्र की व्याख्या करते हुए 'शब्द-अर्थ' दोनों को वेदादि रूप माना है वह संगत हो सकता है। रही आपकी दूसरी दलील—जिस तरह हम एक को दो नहीं कह सकते उसी तरह दोनों का नाम यदि काव्य ही तो प्रत्येक के लिये उस शब्द का व्यवहार नहीं हो सकता। सो कुछ नहीं है। ऐसे स्थल पर हम रुढ़ लक्षणा से काम चला सकते हैं—उसके द्वारा प्रत्येक के लिये भी काव्य शब्द का प्रयोग हो सकता है। इस कारण "शब्द-अर्थ" दोनों को काव्य-शब्द से व्यवहृत करने में कोई दोष नहीं।
  2. यहाँ हमें कुछ लिखना है। यद्यपि पंडितराज ने "काव्य लक्षण" के विषय में इतना सूक्ष्म विचार किया, तथापि वे इसके बनाने में सफल न हुए। इसका कारण हम पहले नागेशभट्ट की आलोचना, टिप्पणी में, देकर समझा चुके है। उसका सारांश यह है कि केवल शब्द को काव्य मानना ठीक नही, "शब्द और अर्थ" दोनों को काव्य मानना चाहिए। परंतु प्राचीन आचार्यों के लक्षण में भी "दोषरहित" कहना तो खंडित है, और यदि "गुण एवं अलंकार सहित शब्द और अर्थ" को काव्य माने, तथापि वह उत्कृष्ट काव्य का लक्षण हो सकता है, साधारण काव्य का नहीं, क्योकि सभी काव्यों में गुण और अलंकार नहीं रहते। इस कारण मेरे विचारानुसार "ऐसे शब्दों और अर्थों को काव्य मानना चाहिए, जिनके सुनने एवं समझने से अलौकिक आनंद की प्राप्ति हो"। तभी दृश्य काव्य कहना भी सार्थक हो सकता है। क्योकि देखने में अर्थ आ सकते है, शब्द नही। यही बात अर्थालंकार आदि के विषय में भी समझो। यद्यपि नाटक के पात्रादिको का बनानेवाला कवि नहीं है, तथापि उस सब सामग्री को उस रूप में उपस्थित करनेवाला उसे मानने में कोई संदेह नहीं। इस कारण उस अर्थ का निर्माता भी वह हो सकता है। "केवल शब्द" को ही काव्य मानने के कारण "साहित्यदर्पणकार" का भी लक्षण हमें सम्मत नहीं, वे "रसात्मक वाक्य" को काव्य कहते है, और वाक्य भी शब्द का ही नाम है।

    —अनुवादक