स्कंदगुप्त  (1928) 
जयशंकर प्रसाद
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बनारस: भारती-भण्डार, पृष्ठ प्रकाशक से – - तक

 

प्रकाशक---

भारती-भण्डार

(पुस्तक-प्रकाशक और विक्रेता)

बनारस सिटी



द्वितीय संस्करण

मूल्य २।।)




मुद्रक---

कृष्णाराम मेहता

लीडर प्रेस, इलाहाबाद

निवेदन

श्री जयशंकर 'प्रसाद' के नाटकों ने हिंदी-साहित्य के एक अंग की बड़ी ही सुन्दर पूर्ति की है। उनकी कल्पना कितनी मार्मिक और उच्च कोटि की है---इसके विषय में कुछ कहना वाचालता मात्र होगी।

उनके नाटक हमारे स्थायी साहित्य के भंडार को अमूल्य रत्न देने के सिवा एक और महत् कार्य्य कर रहे हैं, वह है हमारे इतिहास का उद्धार। महाभारतयुग के 'नागयज्ञ' से लेकर हर्षकालीन 'राज्यश्री' प्रभृत्ति नाटकों से वे हमारे लुप्त इतिहास का पुनर्निर्माण कर रहे हैं। ऐसा करने में चाहे बहुत-सी बातें कल्पना-प्रसूत हों, किन्तु 'प्रसाद' जी की ये कल्पनाएँ ऐसी मार्मिक और अपने उद्दिष्ट समय के अनुकूल हैं कि वे उस सत्य की पूर्ति कर देती है जो विस्मृति के तिमिर में विलीन हो गया है।

किसी काल के इतिहास का जो गूदा है---अर्थात् महापुरुषों की वे करनियाँ जिनके कारण उस काल के इतिहास ने एक विशिष्ट रूप पाया है---उसे यदि कोई लेखक अपने पाठकों के सामने प्रत्यक्ष रख सके तो उसने झूठ नहीं कहा, वह सत्य ही है। चाहे वास्तविक हो वा कल्पित---

भगवान कृष्ण ने गीता के रूप में जो अमृत हमे दिया है उसका चाहे सौ पुराण सौ रूप में वर्णन करें, पर यदि उन रंगीन मटकों में से हम उस अमृत का पान कर सकते हैं तो वे सब-के-सब उसके लिये समुचित भाजन ही ठहरे---व्यर्थ के कृत्रिम आडम्बर नही।

गुप्त-काल (२७५ ई०---५४० ई० तक) अतीत भारत के उत्कर्ष का मध्याह्न है। उस समय आर्य्य-साम्राज्य मध्य-एशिया से जावा-सुमात्रा तक फैला हुआ था। समस्त एशिया पर हमारी संस्कृति का झंडाफहरा रहा था। इसी गुप्तवंश का सबसे उज्ज्वल नक्षत्र था---स्कंदगुप्त। उसके सिंहासन पर बैठने के पहले ही साम्राज्य में भीतरी षड्यंत्र उठ खड़े हुए थे। साथ ही आक्रमणकारी हूणों का आतंक देश में छा गया था और गुप्त-सिंहासन डाँवाडोल हो चला था। ऐसी दुरवस्था में लाखों विपत्तियाँ सहते हुए भी जिस लोकोत्तर उत्साह और पराक्रम से स्कंदगुप्त ने इस स्थिति से आर्य साम्राज्य की रक्षा की थी---पढ़कर नसों में बिजली दौड़ जाती हैं। अन्त में साम्राज्य का एक-छत्र चक्रवर्तित्व मिलने पर भी उसे अपने वैमात्र एवं विरोधी भाई पुरगुप्त के लिये त्याग देना, तथा, स्वयं आजन्म कौमार जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा करना---ऐसे प्रसंग हैं जो उसके महान चरित पर मुग्ध ही नहीं कर देते, बल्कि देर तक सहृदयों को करुणासागर में निमग्न कर देते हैं।

कई कारणों से इस नाटक के निकाल देने में कुछ हफ्तों की देर हो गई। किन्तु उतनी ही देरी साहित्य-प्रेमियों को---जो इसके स्वागत के लिये लालायित हो रहे थे--असह्य हो उठी है। उनके तगादे-पर-तगादे मिल रहे हैं। अतएव हम उनसे इस देर के लिये क्षमाप्रार्थी हैं।

श्रावणी पूर्णिमा,'८५ ---प्रकाशक



स्कंदगुप्त--
कुमारगुप्त--
गोविन्दगुप्त--
पर्णदत्त--
चक्रपालित--
बन्धुवर्मा--
भीमवर्मा--
मातृगुप्त--
प्रपंचबुद्धि--
शर्वनाग--
कुमारदास (धातुसेन)--
पुरगुप्त--
भटार्क--
पृथ्वीसेन--
खिगिल--
मुगल--
प्रख्यातकीर्ति--


पुरुष-पात्र
युवराज (विक्रमादित्य)
मगध का सम्राट
कुमारगुप्त का भाई
मगध का महानायक
पर्णदत्त का पुत्र
मालव का राजा
उसका भाई
काव्यकर्ता (कालिदास)
बौद्ध कापालिक
अन्तर्वेद का विषयपति
सिंहल का राजकुमार
कुमारगुप्त का छोटा पुत्र
नवीन महाबलाधिकृत
मंत्री कुमारामात्य
हूण आक्रमणकारी
विदूषक
लंकाराज-कुल का श्रमण, महा-
बोधिबिहार-स्थविर

महाप्रतिहार, महादंडनायक, नन्दी-ग्राम का दंडनायक,
प्रहरी, सैनिक इत्यादि


देवकी--

अनन्तदेवी--

जयमाला--
देवसेना--
विजया--
कमला--
रामा--
मालिनी--

स्त्री-पात्र
कुमारगुप्त की बड़ी रानी,--स्कंद
की माता
कुमारगुप्त की छोटी रानी,--
पुरगुप्त की माता
बंधुवर्मा की स्त्री,--मालव की रानी
बंधुवर्मा की बहिन
मालव के धनकुबेर की कन्या
भटार्क की जननी
शर्वनाग की स्त्री
मातृगुप्त की प्रणयिनी

सखी, दासी इत्यादि






स्कंदगुप्त



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