सौ अजान और एक सुजान/१३
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तेरहवाँ प्रस्ताव
योऽर्थे शुचि:स शुचिर्न मृद्वारिशुचि:शुचि।[१]
यह हम अपने पाठकों को प्रकट कर चुके हैं कि हमारे इस उपन्यास के मुख्य नायक दोनो बाबू बहुत-सा फिजूल खर्च
करते-करते अव संकीर्णता में आने लगे। कहा है-भक्ष्य-
माणो निराधानः क्षीयते हिमवानपि" संचय न किया जाय, और रोज उसमें से ले-लेकर खर्च हो, तो कुबेर का खजाना भी नहीं ठहर सकता, तब बड़े सेठ हीराचंद की संपत्ति कितनी और कै दिन चलती। जिस तालाब में पानी का निकास सब ओर से है, आता एक ओर से भी नही, तो उसका क्या ठिकाना। बाबुओं को अब खर्च का तरद्दुद हर जून रहा करता था, और इसी चिता में रहते थे कि किसी तरह कही से कुछ रकम हाथ लगे। अस्तु ।
अनंतपुर मे नंदू के मकान से सटा हुआ कच्चा-पक्का एक दूसरा घर था । चूना-पोती कबर के माफिक यह घर बाहर से तो बहुत ही रॅगा-चुंगा और साफ था, पर भीतर से निपट मैला, गंदा और सब ओर से गिरहर था । अब थोडा इस घर के रहनेवाले का भी परिचय बिना दिए हमारे प्रबंध की शृखला टूटती है । यह घर बाहर से जो ऐसा रॅगा- चुॅगा और भीतर श्मशान-सा शून्यागार था, इसका कुछ और ही मतलब था। और, वह मतलब आपको तभी हल होगा, जब आप मालिक मकान से पूरे परिचित हो जायॅगे। मालिक मकान महाशय को आप कोई साधारण जन न समझ रखिए। फितनाअंगेजी और उस्तादी मे यह बड़े-बडे गुरुओं का भी गुरू था । अनंतपुर के सब लोग इसे उस्तादजी कहा करते थे। हमारे पढ़नेवाल नदू के चाल-चलन और शील-स्वभाव से भरपूर परिचित हो चुके हैं, पर वह चालाकी में इसके पसंगे में भी न था । नंदू इसे चचा कहा भी करता था । सकल- गुणवरिष्ठ हकीकत में यह चचा कहलाने लायक था । नाम इसका बुद्धदास था, और जैन धर्म-पालन में अपने को बड़े- बड़े श्रावकों का भी आचार्य समझता था। साँस लेने और छोड़ने में जीव-हिंसा न हो, इसलिये रातोदिन मुंह पर ढाठा बाँधे रहता था, पर चित्त में कहीं दया का लेश भी न था। पानी चार बार छानकर था पर दूसरे की थाती समूची-की- समूची निगल जाता था डकार तक न आती थी। दिन में चार बार मंदिर में जाता था, पर मन से यही बिसूरा करता था कि किस भॉति कही से विना मेहनत, बेतरदुद, डले-का-डला रुपया हाथ लग जाय । साथ ही यह भी याद रखने लायक है कि आप निर्बसी थे ; आगे-पीछे आपके कोई न था ; कृपण इतने थे कि चार रुपए महीने में गुजर करते थे। जाहिरा में दस-पॉच रुपया पास रख घड़ी-दो घड़ी के लिये टाट बिछाय बाजार में जा बैठते थे, और पैसों की शराफी अपना पेशा प्रकट किए थे, पर छिपी आमदनी इसकी कई तरह की ऐसी थी कि उसका हाल कोई-कोई बिरले ही जानते थे। अनंतपुर में तो नदू-ऐसे दो ही एक इसके चेले थे, किंतु लखनऊ के चालाक और उस्तादों में इसकी धूम थी। भेख छिपाए दो-एक परदेशी इसके फन के मुश्ताक टिके ही रहते थे। यह अपने को कीमियागर प्रसिद्ध किए था ; पढ़ा-लिखा एक अक्षर न था, पर खुशनवीसी मे ईश्वर की देन उस पर थी। मानो इस फन को यह मा के पेट से ले उतरा था। किसी भाषा का कैसा ही बदखत या खुशखत लेख हो, यह जैसे-का- तैसा उतार देता था। दस रुपए सैकड़ा इसकी उजरत मुकर्रर थी, अर्थात् दस्तावेज वगैरह सौ रुपए का हो, तो उसकी बनवाई यह दस रुपया लेता था, दो सौ का हो, तो बीस, यों ही सौ-सौ पर दस बढ़ता जाता था । और बहुत-से फन इसे याद थे, पर उन सबों के जिकिर से हमें यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है । बुद्धदास शोकीन और तरहदारों में भी अपना औवल दरजा मानता था। उमर इसकी ४० के ऊपर आ गई थी। दॉत मुॅह पर एक भी बाकी न बचे थे तो भी पोपले और खोड़हे मुॅह में पान की बीड़ियाँ जमाय, सुरमे की धजियों से ऑख रॅग, केसरिया चदन का एक छोटा-सा बिदा माथे पर लगाय, चुननदार बालावर अगा पहन, लखनऊ के बारीक काम की टोपी या कभी-कभी, लट्टूदार पगड़ी बाँध जब बाहर निकलता था, तो मानो ब्रज का कॅधैया ही अपने को समझता था । होठ बड़े मोटे, रग ऐसा काला, मानो हब्श देश की पैदाइश का कोई आदमी हो, ऑख घुच्चू-सी, गाल चुचका, डील ठेगना, बाल खिचड़ी उस पर जुल्फ, गरदन कोतह, मुॅह घोड़े का-सा लबा, शैतानी और फसाद तथा काइयॉपन इसके एक-एक अग से बरसता था। यह विष की गॉठ अनंतपुर का रहनेवाला न था ; थोड़े दिनों से यहाँ आकर बसा था । कहा है-"समानशीलव्यसनेषु सख्यम्" नंदू और यह दोनों एक-से शील-सुभाव के थे, और नंदू की इससे पटती भी खूब थी, इसलिये अचरज क्या कि उसी ने इसे कहीं बाहर से बुलाकर अपने घर के पास ही टिका लिया था। इसे नंदू चचा कहता था, इससे मालूम होता है, कदाचित् कोई घर का रिश्ता भी इससे रहा हो ! नंदू भी, जो चालाकी में एकता था, इस घात से इसे और टिकाए था कि इसके दूसरा कोई और था ही नहीं, अंत को इस वज्र कृपण का धन सिवा मेरे कौन पा सकता है ! जो हो, एक रात को नंदू ने आकर इसका किवाड़ खटखटाया । इसने चुपके से आय किवाड़ खोल दिया। दोनो भीतर चले गए, और किवाड़ बंद कर लिया। नदू बोला-"चचा, बड़े बाबू ने आज आपको उस मामले के लिये याद किया है–आपकी उजरत कौड़ी ऊपर दिलवाऊँगा ।" यह बोला–"उजरत की कौन-सी बात है । मुझे तुमसे या बाबू से किसी तरह पर इनकार नहीं है।"
- ↑ जो रुपए-पैसे के मामले मे शुद्ध या ईमानदार है, वे ही पवित्र या ईमानदार है।मिट्टी और जल से बार-बार हाथ-धोकर जो अपने कोपवित्र करते हैं, वे पवित्र नही है