सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ २७७ से – - तक

 

मुस्कानपर, मधुर बातोपर, कृपाकटाक्षपर अपना जीवनतक न्यौछावर करनेको तैयार था। पर सुमन आज उसकी दृष्टिमे इतनी गिर गयी है। वह स्वयं अनुभव करके भी भूल जाता था कि मानव प्रकृति कितनी चंचल है।

सदनने इधर वर्षों से लिखना-पढना छोड़ दिया था और जबसे चूनेकी कल ली, तो वह दैनिक पत्र भी पढनेका अवकाश न पाता था। अब वह सझता था कि यह उन लोगोका काम है, जिन्हें कोई काम नही है, जो सारे दिन पड़े मक्खियाँ मारा करते है । लेकिन उसे बालोंको सँवारने हारमोनियम बजानेके लिये न मालूम कैसे अवकाश मिल जाता था।

कभी-कभी पिछली बातोका स्मरण करके वह मनसे कहता है, मै उस समय कैसा मुर्ख था,इसी सुमनके पीछे लट्टू हो रहा था? वह अब अपने चरित्रपर घण्मड करता था। नदी के तटपर वह नित्य स्त्रियों को देखा करता था, पर कभी उसके मनमे कुभाव न पैदा होते थे। सदन इसे अपना चरित्रबल समझता था।

लेकिन जब गांभणी शान्ताके प्रसूतका समय निकट आया,और वह बहुधा अपने कमरे में बन्द, मलीन, शिथिल पड़ी रहने लगी तो, सदन को मालूम हुआ कि मैं बहुत धोखे में था। जिसे मै चरित्रबल समझता था। वह वास्तवमे मेरे तृष्णाओं के सन्तुष्ट होने का फलमात्र था। अब वह कामपर से लौटता तो शान्ता मधुर मुस्कान के साथ उसका स्वागत न करती, वह अपनी चारपाई पर पडी रहती। कभी उसके सिर में दर्द होता, कभी शरीर में,कभी ताप चढ़ आता, कभी मतली होने लगती, उसका मुखचन्द्र कान्तिहीन हो गया था, मालूम होता था शरीर में रक्त ही नही है। सदन को उसकी यह दशा देखकर दुःख होता, वह घण्टों उसके पास बैठ कर उसका दिल बहलाता रहता, लेकिन उसके चेहरे से मालूम होता था कि उसे वहाँ बैठना अखर रहा है। वह किसी-न-किसी ‌बहाने से जल्द ही उठ जाता। उसकी विलासतृष्णाने मन को फिर चंचल करना शुरू किया, कुवासनाएँ उठने लगी। वह युवती मल्लाहिनों से हँसी करता,

थी । स्वयं इस कल्पित बारातका दूल्हा बना हुआ सदन यहाँ से जाति सेवाका संकल्प करके उठा और नीचे उतर आया। वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि किसी से कुछ न बोला। थोड़े ही दूर चला था कि उसे सुन्दर वाईके भवनके सामने बहुत से मनुष्य दिखाई दिये। उसने एक आदमी में पूछा, यह कैसा जमघट है? मालूम हुआ कि आज कुंवर अनिरुद्धसिंह यहाँ एक "कृषि सहायक सभा" खोलनेवाले है। सभा का उद्देश्य होगा, किसानों को जमीदारों के अत्याचार से बचाना। सदनके मन में अभी-अभी कृषकों के प्रति जो सहानुभूति प्रकट हुई थी वह मन्द पड़ गई। वह जमीदार था और कृषकों पर दया करना चाहता था, पर उसे मंजूर न था कि कोई उसे दवायें और किसानों को भड़काकर जमींदारो के विरुद्ध खड़ा कर दे। उसने मन से कहा, यह लोग जमींदारो सत्वों को मिटाना चाहते है। देवभाव से हो प्रेरित होकर इन लोगो ने यह संस्था खोलने का विचार किया है, तो हम लोगोंको भी सतर्क हो जाना चाहिये,हमको अपनी रक्षा करनी चाहिये। मानव प्रकृति को दबाव से कितनी घृणा है। सदनने यहांँ ठहरना व्यर्थ समझा। नौ बज गये थे। वह घरको लौटा।

५६

संध्याका समय है। आकाशपर लालिमा छाई हुई है और मन्द-वायु गंगाकी लहरोंपर क्रीड़ा कर रही है,उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेंत्रोसे मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंँस पड़ती है,तब उसके मोती के दाँत चमक उठते है सदनका रमणीय झोपड़ा आज फूलों और लताओं से सजा हुआ है। दरवाजे पर मल्लाहो की भीड़ है। अन्दर उनकी स्त्रियांँ बैठी सोहर गा रही है। आंँगनमें भट्ठी खुदी हुई है और बड़े-बड़े हण्डे चढ़े हुए है। आज सदनके नवजात छठी है,यह उसीका उत्सव है।

लेकिन सदन बहुत उदास दिखाई देता है। वह सामनेके चबूतरे
पर बैठा हुआ गंगा की ओर देख रहा है। उसके हृदय में भी विचार की लहरे उठ रही है। ना! वह लोग न आवेगे। आना होता तो आज छः दिन बीत गये, आ न जाते? यदि मैं जानता कि वे न आवेगे तो मैं चचा से भी यह समाचार न कहता। उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया है, वह मुझसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते, मै जीऊँ-या मरूँ, उन्हें परवाह नहीं है। लोग ऐसे अवसर पर अपने शत्रुओं के घर भी जाते, है, प्रेम से न आते, दिखावे के ही लिये आते, व्यवहार के तौर-पर आते, मुझे मालूम तो हो जाता कि संसार में मेरा कोई है। अच्छा न आवे, इस काम से छुट्टी मिली तो एक बार मैं स्वयं जाऊँगा और सदा के लिये निपटारा कर आऊँगा। लड़का कितना सुन्दर है, कैसे लाल-लाल ओठ है, बिल्कुल मुझी को पड़ा है, हाँ, आँखे शान्ता की है। मेरी ओर कैसे ध्यान से युक-टुक ताकता था। दादा को तो मैं नहीं कहता, लेकिन अम्मा उसे देखे तो एक बार गोद में अवश्य ही ले ले। एकाएक सदन के मन में यह विचार हुआ, अगर मैं मर जाऊँ तो क्या हो? इस बालक का पालन कौन करेगा? कोई नहीं, नहीं, मैं मर जाऊँ तो दादा को अवश्य उसपर दया आवेगी। वह उतने निर्दय नहीं हो सकते। जरा देखें, सेविंग बैंक में मेरे कितने रुपये है। अभी एक हजार भी पूरे नहीं। ज्यादा नहीं, अगर ५०) महीना भी जमा करता जाऊँ तो सालभर में ६००J हो जायेगे। ज्योंही दो हजार पूरे हो जायेगें घर बनवाना शुरू कर दूँगा। दो कमरे सामने, पाँच कमरे भीतर, दरवाजे पर मेहराबदार सायवान पटावके ऊपर दो कमरे हों तो मकान अच्छा हो। कुरसी ऊँची रहने से घर की शोभा बढ़ जाती है। मैं कम-से कम पाँच फटकी कुरसी दूँगा।

सदन इन्हीं कल्पनाओं का आनन्द ले रहा था। चारों ओर अन्धेरा छाने लगा था कि इतने में उसने सड़क की ओर से एक गाड़ी आती देखी। उसकी दोनों लालटेने बिल्ली की आँखी की तरह चमक रही थीं। कौन आ रहा है?, चाचा साहब के सिवा और कौन होगा? मेरा और है ही कौन? इतने में गाड़ी निकट आ गई और उसमें से मदनसिंह उतरे। इस गाड़ी के पीछे एक और गाड़ी थी। सुभद्रा और भामा उसमें उतरी। सदन को दोनों बहने भी थीं। जीतन कोचबक्स पर से उतरकर लालटेन दिखाने लगा। सदन इतने आदमियों को उतरते देखकर समझ गया कि घर के लोग आ गये पर वह उनसे मिलने के लिये नहीं दौड़ा। वह समय बीत चुका था जब वह उन्हें मनाने जाता। अब उसके मान करने का समय आ गया था। वह चबूतरे पर से उठकर झोपड़े में चला गया, मानों उसने किसी को देखा ही नहीं। उसने उनमें कहा, ये लोग समझते होगे कि इनके बिना में बेहाल हुआ जाता हूँ, पर उन्हे जैसे मेरी परवाह नहीं, उसी प्रकार में भी इनकी परवाह नहीं करता।

सदन झोपड़े में जाकर ताक रहा था कि देखें यह लोग क्या करते है। इतने में उसने जीतन को दरवाजे पर आकर पुकारते हुए देखा। कई मललह इधर-उधर से दौड़े। सदन बाहर निकल आया और दूर से ही अपनी माता को प्रणाम करके एक किनारे खड़ा हो गया।

मदनसिंह बोले, तुम तो इस तरह खड़े हो मानों हमें पहचानते ही नहीं। मेरे न सहीं, पर माता के चरण छूकर आशीर्वाद तो ले लो।

सदन-मेरे छू लेने से आपका धर्म बिगड़ जायेगा।

मदनसिंह ने भाई की ओर देखकर कहा देखते हो इसकी बात। मैं तो तुमसे कहता था कि लोगों को भूल गया होगा, लेकिन तुम खींच लाये। अपने माता पिता को द्वारपर खड़े देखकर भी इसे दया नहीं आती।

भामा ने आगे बढ़कर कहा, बेटा सदन! दादा के चरण छुओ, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो!

सदन अधिक मान न कर सका। आँखों में आँसू भरे पिता के चरणों पर गिर पड़ा। मदनसिंह भी रोने लगे।

इसके बाद वह माता चरणों पर गिरा। भामा ने उठा कर छाती से लगा लिया और आशीर्वाद दिया।

प्रेम, भक्ति और क्षमा कैसा मनोहर, कैसा दिव्य, कैसा आानन्दमय दृश्य है माता पिता का हृदय प्रेम से पुलकित हो रहा है और पुत्र के हृदय सागर में भक्ति की तरंगे उठ रही है। इसी प्रेम और भक्ति की निर्मल ज्योति से हदय को अँधेरी कोठरियाँ प्रकाश पूर्ण हो गई है। मिथ्या भिमान और लोकलज्जा या भयरूपी कीट पतंग वहाँ से निकल गये है। अब वहाँ न्याय, प्रेम और सव्यवहार का निवास है।

आनन्द के मारे सदन के पैर जमीन पर नहीं पड़ते। वह अब मल्लाहों को कोई-न-कोई काम करने का हुक्म देकर दिखा रहा है कि मेरा यहाँ कितना रोब है। कोई चारपाई निकालने जाता है, कोई बाजार दौड़ा जाता है। मदनसिंह फूले नहीं समाते और अपने भाई के कानों मे कहते हैं, सदन तो बड़ा चतुर निकला। मैं तो समझता था, किसी तरह पड़ा दिन काट रहा होगा, पर यहाँ तो बड़ा ठाठ है।

इधर भामा और सुभद्रा भीतर गईं। भामा चारो ओर चकित होकर देखती थी। कैसी सफाई है! सब चीजे ठिकाने से रखी हुई है। इसकी बहन गुणवान मालूम होती है।

वह सौरीगृह में गई तो शान्ता ने अपनी दोनों सासो के चरण स्पर्श किये। भामाने बालक को गोद में ले लिया। उसे ऐसा मालूम हुआ मानों वह कृष्ण का ही अवतार है। उसकी आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे।

थोड़ी देर में उसने मदनसिंह से आकर कहा, और जो कुछ हो पर तुमने बहू बड़ी रूपवती पाई है। गुलाब का फूल है और बालक तो साक्षात भगवान का अवतार ही है।

मदन--ऐसी तेजस्वी न होता तो मदनसिंह को खीच कैसे लाता?

भामा--बहू बड़ी सुशील मालूम होती है।

सदन-—तभी तो उसके पीछे माँ बाप को त्याग दिया था।

सब लोग अपनी अपनी धुन मे मगन थे, पर किसी को सुधि न थी कि अभागिनी सुमन कहाँ है।

सुमन गंगा तटपर सन्ध्या करने गई थी। जब वह लौटी तो उसे झोपड़े के द्बार पर गाड़ियाँ खड़ी दिखाई दी। दरवाजे पर कई आदमी बैठे थे। पद्मसिंह को पहचाना समझ गई कि सदन के माता-पिता आ गये। वह आगे न बढ़ सकी। उसके पैरो में बेड़ी-सी पड़ गई। उसे मालूम हो गया कि अब यहाँ मेरे लिये स्थान नहीं, है, अब यहाँ से मेरा नाता टूटता है। वह मूर्तिवत खड़ी सोचने लगी कि कहाँ जाऊँँ?

इधर एक मास से शान्ता और सुमन में बहुत मनमुटाव हो गया था। वही शान्ता तो विधवा आश्रम में दया और शान्ति की मूर्ति बनी हुई थी, अब सुमन को जलाने और रुलाने पर तत्पर रहती थी। उम्मेदवारी के दिनो में हम जितने विनयशील और कर्तव्यपरायण होते है, उतने ही अगरजगह पाने पर बने रहे तो हम देवतुल्य हो जायँ। उस समय शान्ता को सहानुभूति की जरूरत थी, प्रेम की आकांक्षा ने उसके चित्त को उदार, कोमल, नम्र बना दिया था, पर अब अपना प्रेमरत्न पाकर किसी दरिद्र से घनी हो जाने वाले मनुष्य की भाँति उसका हृदय कठोर हो गया था। उसे यह भय खाये जाता था कि सदन कही सुमन के जाल में न फँस जाय। सुमन के पूजा पाठ, श्रद्धा-भक्ति का उसकी दृष्टि में कुछ भी मूल्य न था। वह इसे पाखण्ड समझती थी। सुमन सिर में तेल मलने या साफ कपड़ा पहनने के लिये तरस जाती थी, शान्ता इसे समझती थी। वह सुमन के आचार व्यवहार की बड़ी तीव्र दृष्टि से देखती रहती थी। सदन से जो कुछ कहना होता सुमन शान्ता से कहती, यहाँ तक कि शान्ता भोजन के समय भी रसोई में किसी न किसी बहाने आ बैठती थी। वह अपने प्रसवकाल से पहले सुमन को किसी भाँति वहाँ से टालना चाहती थी, सौरीगृह हमे बन्द होकर बह सुमन की देख-भाल न कर सकेगी। उसे और सब कष्ट सहना मंजूर था, पर यह दाह न सही जाती थी।

लेकिन सुमन सब कुछ देखते हुए भी न देखती थी, सब कुछ सुनते हुए भी कुछ न सुनती थी। नदी में डूबते हुए मनुष्य के समान वह इस तिनके के सहारे को भी छोड़ न सकती थी। वह अपना जीवन मार्ग स्थिर न कर सकती थी, पर इस समय सदन के माता पिता को यहाँ देखकर उसे यह सहारा छोड़ना पड़ा, इच्छा शक्ति जो कुछ न कर सकती थी वह अवस्था में कर दिखाया। वह पाँव दबाती हुई, धीरे-धीरे झोपड़े के पिछवाड़े आई और कान लगाकर सुनने लगी कि देखूँ यह लोग मेरी कुछ चर्चा तो नहीं कर रहे है? आधे घण्टे तक वह इसी प्रकार खड़ी रही। भामा और सुभद्रा इधर-उधर की बात कर रही थी। अन्त मे भामा ने कहा, क्या अब इसकी बहन यहाँ नहीं रहती?

सुभद्रा — रहती क्यों नहीं, वह कही जाने वाली है?

भामा—दिखाई नहीं देती।

सुभद्रा—किसी काम से गई होगी। घर का सारा काम तो वही सभाले हुए है।

भामा—आवे तो कह देना कि कही बाहर लेट रहे। सदन उसी का बनाया खाता होगा।

शान्ता सौरीगृह से बोली, नहीं अभी तक तो मैं ही बनाती रही हूँ, आज कल वह अपने हाथ से बना लेते है।

भामा—तब भी घड़ा बरतन तो वह छूती ही रही होगी। यह घड़ा फेकवा दो, बरतन फिर से धुल जायँगे।

सुभद्रा—बाहर कहाँ सोने की जगह है?

भामा—हो चाहे न हो, लेकिन यहाँँ से उसे सोने न दूँँगी। वैसी स्त्री का क्या विश्वास?

सुभद्रा—नहीं दीदी, वह अब वैसी नहीं है। वह बड़े नेम धरम से रहती है।

भामा—चलो, वह बड़ी ने नेम-धरम से रहने वाली है। सात घाट का पानी पीके आज नेमवाली बनी है। देवता की मूरत टूटकर फिर नहीं जुड़ती। वह अब देवी बन जाय तब भी मैं उसका विश्वास न करूँ।

सुमन इससे ज्यादा न सुन सकी। उसे ऐसा मालूम हुआ मानो किसी ने लोहा लाल करके उसके हृदय में चुभा दिया। उल्टे पाँँव लौटी और उसी अन्धकार में एक ओर चल पड़ी।

अन्धेरा खूब छाया था, रास्ता भी अच्छी तरह न सूझता था, पर सुमन गिरती-पड़ती चली जाती थी, मालूम नहीं कहाँ, किधर? वह अपने होश में न थी। लाठी खाकर घबराये हुए कुत्ते के समान वह मूर्छावास्था में लुढ़कती जा रही थी। सँभलना चाहती थी, पर सँभल न सकती थी। यहाँ तक कि उसके पैरों में एक बड़ा-सा काटा चुभ गया। वह पैर पकड़कर बैठ गई। चलने की शक्ति न रही।

उसने बेहोशी के बाद होश में आने वाले मनुष्य के समान इधर-उधर चौंककर देखा। चारों ओर सन्नाटा था, गहरा अन्धकार छाया हुआ था, केवल सियार अपना राग अलाप रहे थे। यहाँ मैं अकेली हूँ, यह सोचकर सुमन के रोए खड़े हो गये। अकेलापन किसे कहते हैं, यह उसे आज मालूम हुआ। लेकिन यह जानते हुए भी कि यहाँ कोई नहीं है। मैं ही अकेली हूँ। उसे अपने चारों ओर नीचे ऊपर नाना प्रकार के जीव आकाश में चलते हुए दिखाई देते थे। यहाँ तक कि उसने घबड़ाकर आँखे बन्द कर लीं। निर्धनता कल्पना को अत्यंत रचनाशील बना देती है।

सुमन सोचने लगी, मैं कैसी अभागिनी हूँ। और तो और अपनी सगी बहन भी अब मेरी सूरत नहीं देखना चाहती। उसे कितना अपनाना चाहा, पर वह अपनी न हुई। मेरे सिर कलंक का टीका लग गया और वह अब धोने से नहीं धुल सकता। मैं उसको या किसी को दोष क्यों दूँ? यह सब मेरे कर्मों का फल है। आह! एड़ी में कैसी पीड़ा हो रही है। यह काँटा कैसे निकलेगा? भीतर उसका एक टुकड़ा टूट गया कैसा टपक रहा है। नहीं, मैं किसीको दोष नहीं दे सकती। बुरे कर्म तो मैंने किये, उनका फल कौन भोगेगा? विलास लालसा ने मेरी यह दुर्गति की। मैं कैसी आन्धि हो गई थी, केवल इन्द्रियों के सुखभोग के लिये अपनी आत्मा का नाश कर बैठी। मुझे कष्ट अवश्य था। मैं गहने को तरसती थी, अच्छे भोजन को तरसती थी, प्रेम को तरसती थी, उस समय मुझे अपना जीवन दुखमय दिखाई देता था, पर वह अवस्था भी तो मेरे पूर्व जन्म के कर्मो का ही फल था और क्या ऐसी स्त्रियाँ नहीं हैं जो उससे कही अधिक कष्ट झेलकर भी अपनी आत्मा की रक्षा करती है? दमयन्ती पर कैसे-कैसे दु:ख पड़े, सीता को रामचन्द्र ने घर से निकाल दिया और वह बरसो जंगलो में नाना प्रकार के क्लेष उठाती रही, सावित्री ने कैसे-कैसे दुःख सहे पर वह धर्म पर दृढ़ रही। उतनी, दूर क्यो जाऊँ-मेरे ही पड़ोस में कितनी स्त्रियाँ रो-रोकर दिन काट रही थी। अमोला में वह बेचारी अहिरिन कैसी विपित्ति झेल रही थी। उसका पति पर देश से बरसों न आता था, बेचारी उपवास करके पड़ी रहती थी। हाय, इसी सुन्दरता ने मेरी मिट्टी खराब की। मेरे सौन्दर्य के अभिमान ने मुझे यह दिन दिखाया।

हा प्रभो! तुम सुन्दरता देकर मन को चंचल क्यों बना देते हो? मैने सुन्दर स्त्रियों को प्राय: चंचल ही पाया। कदाचित् ईश्वर इस युक्ति से हमारी आत्मा की परीक्षा करते है, अथवा जीवन-मार्ग में सुन्दरतारूपी बाधा डालकर हमारी आत्मा को बलवान, पुष्ट बनाना चाहते है। सुन्दरतारूपी आग में आत्मा को डालकर उसे चमकाना चाहते है। पर हा! अज्ञानवश हमें कुछ नहीं सूझता, यह आग हमें जला डालती है, यह बाधा हमें विचलित कर देती है!

यह कैसे बन्द हो, न जाने किस चीज का काँटा था। जो कोई आके मुझे पकड़ ले तो यहाँ चिलाऊँगी तो कौन सुनेगा? कुछ नहीं, यह न विलास प्रेम का दोष हैं, न सुन्दरता का दोष है, यह सब मेरे अज्ञान का दोष है। भगवन्। मुझे ज्ञान दो। तुम्हीं अब मेरा उद्धार कर सकते हो। मैंने भूल की कि विधवाश्रम में गई। सदन के साथ रहकर भी मैंने भूल की। मनुष्यों से अपने उद्धार की आशा रखना व्यर्थ है। ये आप ही मेरी तरह अज्ञानता में पड़े हुए है। ये मेरा उद्धार क्या करेगे? मैं उसी की शरण में जाऊँगी। लेकिन कैसे जाऊँ? कौन-सा मार्ग हे, दो साल से धर्मग्रन्थों को पढ़ती हूँ, पर कुछ समझ में नहीं आता। ईश्वर, तुम्हें कैसे पाऊँ? मुझे इस अन्धकार से निकालो। तुम दिव्य हो, ज्ञानमय हो, तुम्हारे प्रकाश में संभव है यह अन्धकार विच्छिन्न हो जाय। यह पत्तियाँ क्यों खडखड़ा रही है? कोई जानवर तो नहीं आता! नहीं, कोई अवश्य आता है।

सुमन खड़ी हो गई, उसका चित्त दृढ था। वह निर्भय हो गई थी।

सुमन बहुत देर तक इन्ही विचारो में मग्न रही। इससे उसके हृदय को शान्ति न होती थी। आज तक उसने इस प्रकार कभी आत्म-विचार नहीं किया था। इस संकट में पड़कर उसकी सदिच्छा जाग्रत हो गई थी।

रात बीत चुकी थी। वसन्त की शीतल वायु चलने लगी। सुमन ने साड़ी समेट ली और घुटनो पर सिर रख लिया। उसे वह दिन याद आया, जब इसी ऋतु में, इसी समय, वह अपने पति के द्वारपर बैठी हुई सोच रही थी कि कहाँ जाऊँ? उस समय वह विलास की आग मे जल रही थी। आज भक्ति की शीतल छाया ने उसे आश्रय दिया था।

एकाएक उसकी आँखे झनक गई। उसने देखा कि स्वामी गजानन्द मृगचर्म धारण किये उसके सामने खड़े दयापूर्ण नेत्रो से उसकी ओर ताक रहे है। सुमन उनके चरणोंपर गिर पड़ी और दीन भावसे बोली, स्वामी। मेरा उद्धार कीजिये।

सुमन ने देखा कि स्वामी जी ने उसके सिरपर दया से हाथ फेरा और कहा, ईश्वरन मुझे इसीलिये तुम्हारे पास भेजा है, बोलो, क्या चाहती हो, धन?

सुमन-नहीं, महाराज, धन की इच्छा नहीं।

स्वामी-सम्मान?

सुमन-नहीं महाराज, सम्मान की भी इच्छा नहीं।

स्वामी-भोग-विलास?

सुमन-महाराज, इसका नाम न लीजिये, मुझे ज्ञान दीजिये।

स्वामी-अच्छा तो सुनो, सत्ययुग में मनुष्य की मुक्ति ज्ञान से होती थी, नेत्रों में सत्य से, द्वापर में भक्ति से, पर इस कलियुग में इसका केवल एक ही मार्ग है, और वह है सेवा। इमी मार्गपर चलो और तुम्हार उद्धार होगा। जो लोग तुमसे भी दीन, दुःखी, दलित है, उनकी शरण में जाओ और उनका आशीर्वाद तुम्हारा उद्धार करेगा। कलियुग में परमात्मा इसी दु:ख सागर में वास करते है।

सुमन की आँखे खुल गई। उसने इधर-उधर देखा उसे निश्चय था कि मैं जागती थी। इतनी जल्दी स्वामीजी कहाँ अदृश्य हो गये। अकस्मात् उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि सामने पेड़ो के नीचे स्वामीजी लालटेन लिये खड़े है। वह उठकर उनकी ओर चली। उसने अनुमान किया था कि वह वृक्ष समूह १०० गज के अन्तर पर होगा, पर वह सौ के बदले दो सौ, तीन सौ, चार सौ गज चली गई और वह वृक्षपुंंज और उनके नीचे स्वामीजी लालटेन लिये हुए उतनी ही दूर खड़े थे।

सुमन को भ्रम हुआ, मैं सो तो नही रही हूँ? यह कोई स्वप्न तो नहीं है? इतना चलनेपर भी वह उतनी ही दूर है। उसने जोरसे चिल्लाकर कहा--महाराज आती हूँ, आप जरा ठहर जाइये।

उसके कानो में शब्द सुनाई दिये, चली आओ मे खड़ा हूँ।

सुमन फिर चली, पर दो सौ कदम चलने पर वह थककर बैठ गई। वह वृक्ष समूह और स्वामीजी ज्यो-के-त्यों सामने सौ गजकी दूरी पर खड़े थे।

भय से सुमन के रोएँ खड़े हो गये। उसकी छाती धड़कने लगी और पैर थरथर काँपने लगे। उसने चिल्लाना चाहा, पर आवाज न निकली।

सुमन ने सावधान होकर विचार करना चाहा कि यह क्या रहस्य है, में कोई प्रेत लीला तो नहीं देख रही हैं, लेकिन कोई अज्ञात शक्ति उसे उधर खीचे लिये जाती थी, मानो इच्छा-शक्ति मन को छोड़कर उसी रहस्यके पीछे दौड़ी जाती है।

सुमन फिर चली। अब वह शहर के निकट आ गई थी। उसने देखा कि स्वामीजी एक छोटी सी झोपड़ी में चले गये और वृक्ष-समूह अदृश्य हो गया। सुमनने समझा, यही उनकी कुटी है। उसे बड़ा धीरज हुआ। अब स्वामीजी से अवश्य भेट होगी। उन्ही से यह रहस्य खुलेगा।

उसने कुटी के द्वारपर जाकर कहा, स्वामीजी, मैं हूँ सुमन दिखाई दिया। उसके अन्तःकरण में एक अद्भुत श्रद्धा और भक्तिकाभाव उदय हुआ। उसने सोचा, इनकी आत्मा में कितनी दया और प्रेम है। हाय! मेने ऐसे नर-रत्न का तिरस्कार किया। इनकी सेवामें रहती तो मेरा जीवन सफल हो गया होता। बोली, महराज आप मेरे लिये ईश्वर रूप है, आपके ही द्वारा मेरा उद्धार हो सकता है। मैं अपना तनमन आपकी सेवा में अर्पण करती हूँ। यही प्रतिज्ञा एक बार मैंने की थी, पर अज्ञानतावश उसका पालन न कर सकी। वह प्रतिज्ञा मेरे हृदय से न निकली थी। आज में सच्चे मन से यह प्रतिज्ञा करती हूंँ। आपने मेरी बाँह पकड़ी थी, अब यद्यपि मैं पतित हो गई हूँ, पर आप ही अपनी उदारता से मुझे क्षमादान दीजिये और मुझे सन्मार्गपर ले जाइये।

गजानन्द को इस समय सुमन के चेहरे पर प्रेम और पवित्रता की छटा दिखाई दी। वह व्याकुल हो गये। वह भाव, जिन्हें उन्होने बरसो से दबा रक्खा था, जाग्रत होने लगे। सुख और आनन्दी नवीन भावनाएँ उत्पन्न होने लगी। उन्हें अपना जीवन शुष्क, नीरम, आनन्द विहीन जान पड़ने लगा। वह कल्पनाओ से भयभीत हो गये। उन्हें शंका हुई कि यदि मेरे मन मे यह विचार ठहर गये तो मेरा संयम वैराग्य और सेवा-व्रत इसके प्रवाह में तृण के समान बह जायेंगे। वह बोल उठे, तुन्हें मालूम है कि यहांँ एक अनाथालय खोला गया है?

सुमन--हांँ, इसकी कुछ चर्चा सुनी तो थी।

गजानन्द-—इस अनाथालय में विशेषकर वही कन्याये है जिन्हें वेश्याओंने हमें सौंपा है। कोई ५० कन्याएँ होगी।

सुमन--यह आपके ही उपदेश का फल है।

गजानन्द--नहीं, ऐसा नहीं। इसका सपूर्ण श्रेय पंडित पद्मसिंह को है, मैं तो केवल उनका सेवक हूँ। इस अनाथालय के लिये एक पवित्र आत्मा की आवयकता है और तुम्ही वह आत्मा हो। मैंने बहुत, ढूँढापर कोई ऐसी महिला न मिली जो यह काम प्रेम भापने जो कन्याओ का माता की भांँति पालन करे और अपने प्रेम में अकेली उनकी माताओं का स्थान पूरा कर दे। वह बीमार पड़े तो उनकी सेवा करे, उनके फोड़े फुन्सियाँ, मलमूत्र देखकर घृणा न करे और अपने व्यवहार से उनमे धार्मिक भावों का ऐसा सचार कर दे कि उसके पिछले कु संस्कार मिट जायँ और उनका जीवन सुख से कटे। वात्सल्य के बिना यह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। ईश्वर ने तुम्हे ज्ञान और विवेक दिया है, तुम्हारे हृदय में दया है, करुणा है, धर्म है और तुम्ही इस कर्तव्य का भार संभाल सकती हो। मेरी प्रार्थना स्वीकार करोगी?

सुमन की आँखे सजल हो गई। मेरे विषय मे एक ज्ञानी महात्मा का यह विचार है, यह सोचकर उसका चित्त गद्गद हो गया। उसे स्वप्न में भी ऐसी आशा न थी कि उसपर इतना विश्वास किया जायगा और उसे सेवा का ऐसा महान् गौरव प्राप्त होगा। उसे निश्चय हो गया कि परमास्मा ने गजानन्दको यह प्रेरणा की है। अभी थोड़ी देर पहले वह किसी बालक को कीचड़ लपेट देखती तो उसकी ओर से मुंह फेर लेती पर गजानन्द ने उसपर विश्वास करके उस घृणा को जीत लिया, उसमे प्रेम संचार कर दिया था। हम अपने ऊपर विश्वास करनेवालोको कभी निराश नहीं करना चाहते और ऐसे बोझो को उठाने को तैयार हो जाते है जिन्हे हम असाध्य समझते थे। विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। सुमन ने अत्यंत विनीत भाव से कहा, आप लोग मुझे इस योग्य समझते है, यह मेरा परम सौभाग्य है। मैं किसी के कुछ काम आ सकूँ, किसी की सेवा कर सकूँ, यह मेरी परम लालसा थी। आपके बताये हुए आदर्शपर मै पहुँच न सकूँगी, पर यथाशक्ति मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगी। यह कहते कहते सुमन चुप हो गई। उसका सिर झुक गया और आँखे डबडबा आईं। उसकी वाणी से जो कुछ न हो सका वह उसके मुख के भाव ने प्रकट कर दिया। मानो वह कह रही थी, यह आपकी असीम कृपा है, जो आप मुझपर ऐसा विश्वास करते है। कहाँ मुझ जैसी नीच, दुश्चरित्रा और कहां यह महान पद! पर ईश्वर ने चाहा तो आपको इस विश्वासदान के लिये पछताना न पड़ेगा।

गजानन्दने कहा, मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। परमात्मा तुम्हारा कल्याण करें।

यह कहकर गजानन्द उठ खड़े हुए। पौ फट रही थी, पपीहे की ध्वनि सुनाई दे रही थी। उन्होने अपना कमण्डल उठाया और गंगास्नान करने चले गये।

सुमन ने कुटी के बाहर निकलकर देखा, जैसे हम नींद से जागकर देखते है। समय कितना सुहावना है, कितना शन्तिमय कितना उत्साह-पूर्ण। क्या उसका भविष्य भी ऐसा ही होगा? क्या उसके भविष्य जीवनका भी प्रभात होगा, उसमें भी कभी उषा की झलक दिखाई देगी, कभी सूर्य का प्रकाश होगा? हाँ, होगा और यह सुहावना शान्तिमय प्रभात आनेवाले दिनरूपी जीवन का प्रभात है।

५८


एक साल बीत गया। पण्डित मदनसिंह तहले तीर्थयात्रापर उधार खाए बैठे थे, जान पड़ता था सदन के घर आते ही वह एक दिन भी न ठहरेंगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंँचकर दम लेंगे, पर जब से सदन आ गया है। उन्होने भूलकर भी तीर्थयात्रा का नाम नहीं लिया। पोते को गोद में लिए असामियोंका हिसाब करते है, खेतोकी निगरानी करते है। मायाने और भी जकड़ लिया है। हाँ, भामा अब कुछ निश्चित हो गई है। पड़ोसी से वार्तालाप करने का कर्त्तव्य उसने अपने सिर से नहीं हटाया। शेष कार्य उसने शान्ता पर छोड़ दिये है।

पडिण्त पद्मसिहने वकालत छोड़ दी। अब वह म्युनिसिपैलिटी के प्रधान कर्मचारी है। इस काम से उन्हें बहुत रुचि है, शहर दिनोंदिन उन्नति कर रहा हैं। साल के भीतर ही कई नई सड़कें, नये बाग तैयार हो गए है। अब उनका इरादा है कि इसके और गाड़ीवालों के लिए शहर के बाहर एक मुहल्ला बनवा दें। शर्माजी के कई पहले के अब उनके विरोधी हो गए हैं और पहले के कितने ही विरोधियों से मेल हो गया है, किन्तु महाशय विट्ठठलदासपर उनकी श्रद्धा दिनोंदिन बढ़ती जाती है। वह बहुत चाहते है कि महाशयजी को म्युनिसिपैलिटी में कोई अधिकार दे, पर विट्ठलदास राजी नहीं होते। वह नि़स्वार्थ कर्म की प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ना चाहते। उनका विचार है कि अधिकारी बनकर वह इतना हित नहीं कर सकते जितना पृथक् रहकर कर सकते है। उनका विधवाश्रम इन दिनों बहुत उन्नतिपर है और म्युनिसिपैलिटीसे उसे विशेष सहायता मिलती है। आजकल वह कृषको की सहायता के लिए एक कोष स्थापित करने का उद्योग कर रहे है जिससे किसानो को बीज और रुपये नाममात्र सूदपर उधार दिये जा सके। इस सत्कार्य में सदन बाबू विट्ठलदासका दाहिना हाथ बना हुआ है।

सदन का अपने गाँवमें मन नहीं लगा। वह शान्ता को वहाँ छोड़कर फिर गंगा किनारे के झोपड़े में आ गया है और उस व्यवसाय को खूब बढ़ा रहा है। उसके पास अब पाँच नावे है और सैकड़ो रुपये महीनेका लाभ हो रहा है। वह अब एक स्टीमर मोल लेनका विचार कर रहा है।

स्वामी गजानन्द अधिकतर देहातो में रहते है। उन्होने निर्धनों की कन्याओका उद्धार करनेके निमित्त अपना जीवन अर्पण कर दिया है। शहर में आते है तो दो-एक दिन से अधिक नही ठहरते।

कार्तिक का महीना था पद्मसिंह सुभद्रा को गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुरकी ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झाँकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इससन्नाटे में लोग कैसे रहते है? उनका मन कैसे लगता है? इतने में उसे एकसुन्दर भवन दिखाई पड़ा, जिसके फाटक़पर मोटे अक्षरोंमें लिखा था-

गजानन्दने कहा, मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। परमात्मा तुम्हारा कल्याण करें ।

यह कहकर गजानन्द उठ खडे हुए। पी फट रही थी, पपीहे. ध्वनि सुनाई दे रही थी। उन्होने अपना कमण्डल उठाया और गंगा-स्नान करने चले गये।

सुमनने कुटीके बाहर निकलकर देखा, जैसे हम नीदसे जाग देखते है। समय कितना सुहावना है, कितना शन्तिमय कितना उत्साहपूर्ण। क्या उसका भविष्य भी ऐसा ही होगा? क्या उसके भविष्य जीवनका भी प्रभात होगा, उसमें भी कभी उपाकी झलक दिखा देमी, कभी सूर्यका प्रकाश होगा? हाँ, होगा और यह सुहावन शान्तिमय प्रभात आनेवाले दिनरूपी जीवनका प्रभात है।

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एक साल बीत गया। पण्डित मदनसिंह तहले तीर्थयात्रापर उधार खाए बैठे थे, जान पड़ता था सदनके घर आते ही वह एक दिन भी न‌ ठहरेगे, सीधे बद्रीनाथ पहुंचकर दम लेगे, पर जबसे सदन आ गया है उन्होने भूलकर भी तीर्थयात्राका नाम नही लिया। पोतेको गोदमें लिए असामियोंका हिसाब करते है , खेतोकी निगरानी करते है। मायाने और भी जकड लिया है। हाँ, भामा अब कुछ निश्चित हो गई है। पड़ो-सिनोसे वार्तालाप करनेका कर्तव्य उसने अपने सिरसे नही हटाया। शेष कार्य उसने शान्तापर छोड दिये है।

पडिण्त पद्मसिंहने वकालत छोड़ दी। अब वह म्युनिसिपैलिटीके प्रधान कर्मचारी है। इस कामसे उन्हें बहुत रुचि है, शहर दिनोदिन उन्नति कर रहा है। सालके भीतर ही कई नई सडकें, नये बाग तैयार हो गए है । अब उनका इरादा है कि इवके और गाड़ीबालोके लिए शाहरके बाहर एक मुहल्ला बनवा दें। शर्माजीके कई पहलेके मित्र अब उनके विरोधी हो गए हैं और पहलेके कितने ही विरोधियोसे मेल हो गया किन्तु महाशय
लौट आना। मैं चलता हूँ। गाडी छोड़े जाता हूँ। रास्ते में कोई सवारी किराये की कर लूँगा।

सुभद्रा— तो इसकी क्या आवश्यकता है। तुम यहीं बैठे रहो, मैं अभी लौट आती हैं।

पद्म--(गाड़ी से उतरकर) मैं चलता हूँ, तुम्हारा जब जी चाहे आना।

सुभद्रा इस हीलेहवाले का कारण समझ गई। उसने 'जगत' में कितनी बार 'सेवासदन' को प्रशंसा पढ़ी थी। पण्डित प्रभाकरराव की इन दिनों सेवा सदनपर बड़ी दया दृष्टि थी। अतएव सुभद्रा को इस आश्रम से प्रेम-सा हो गया था और सुमनके प्रति उसके हृदय में भक्ति उत्पन्न हो गई थी, पर सुमन को इस नई अवस्था में देखना चाहती थी। उसको आश्चर्य होता था कि सुमन इतने नीचे गिरकर कैसे ऐसी विदुषी हो गई कि पत्रों में उनकी प्रशंसा छपती है। उसके जी में तो आया कि पण्डितजी को खूब आड़े हाथो ले, पर साईस खड़ा था, इसलिए कुछ न बोल सकी। गाड़ी से उतरकर आश्रम में दाखिल हुई।

वह ज्योंही बरामदे में पहुँची कि एक स्त्री ने भीतर जाकर सुमन को उसके आने की सूचना दी और एक क्षण में सुभद्रा ने सुमनको आते देखा। वह उन केशहिना; आभूषणविहीनी सुमन को देखकर चकित हो गई। उसमें न वह कोमलता थी, न वह चपलता, न वह मुस्कुराती हुई आँखे, न हँसते हुए होठ है। रूप-लावण्य की जगह पवित्रता की ज्योति झलक रही थी।

सुमन निकट जाकर सुभद्रा के पैरों पर गिर पड़ी और सजल नयन होकर बोली— बहूजी, आज, मेरै धन्य भाग्य है कि आपको यहाँ देख रही हूँ।

सुभद्रा की आँख भर आयी। उसने सुमन को उठाकर छातीसे लगा लिया और गद्गद स्वर से कहा— बाईजी, आने का तो बहुत जी चाहता था, पर आलस्यवश अबतक न आ सकी थी।

सुमन— शर्माजी भी हैं या आप अकेली ही आई हैं?

सुभद्रा— साथ तो थे,पर उन्हें देर होती थी, इसलिए वह दूसरी सुमन ने उदास होकर कहा, देर तो क्या होती थी, वह यहाँ आना ही नही चाहते थे। मेरा अभाग्य,दुख केवल यह है कि जिस आश्रम के वह स्वयं जन्मदाता है, उससे मेरे कारण उन्हें इतनी घृणा है। मेरी हृदय से अभिलाषा थी कि एक बार तुम और वह दोनो यहाँ आते। आधी तो आज पूरी हुई,शेष भी कभी-न-कभी पूरी होगी। वह मेरे उद्वारका दिन होगा।

यह कहकर सुमनने सुभद्राको आश्रम दिखाना शुरू किया। भवनमे पाँच बड़े कमरे थे। पहले कमरेमें लगभग तीस बालिकाएँ बैठी हुई कुछ पढ़ रही थीं। उनकी अवस्था १२ वर्षसे १५ वर्ष तक थी ।अध्यापिकाने सुभद्रा को देखते ही आकर उससे हाथ मिलाया। सुमनने दोनोंका परिचय कराया। सुभद्राको यह सुनकर बड़ा आशचर्य आ कि वह महिला मिस्टर रुस्तम भाई व बैरिस्टरकी सुयोग्य पत्नी है। नित्य दो घंटेके लिए आश्रम में आकर इन युवतियोंको पढाया करती थी।

दूसरे कमरेमें भी इतनी ही कन्याएँ थी। उनकी अवस्था ८ से लेकर १२ वर्ष तक थी। उनमें कोई कपड़े काटती थी,कोई सीती थी और कोई अपने पासवाली लड़कीको चिकोटी काटती थी। यहां कोई अध्यापिका न थी। एक बूढा दरजी काम कर रहा था। सुमनने कन्याओके तैयार किए हुए कुरते, जाकेट आदि सुभद्राको दिखाये।

तीसरे कमरेमें १५-२० छोटी-छोटी बालिकाएँ थीं, कोई ५ वर्षसे अधिककी न थी उनमें कोई गुडिया खेलती थी, कोई दीवारपर लटकती हुई तस्वीरे देखती थी। सुमन आप ही इस कक्षाकी अध्यापिका थी।

सुभद्रा यहाँ सामनेवाले बगीचे में आकर इन्ही लड़कियों के लगाये हुए फूल पत्ते देखने लगी। कई कन्याएँ वहाँ आलू गोभी की क्या पानी दे रही थीं। उन्होंने सुभद्रा को सुन्दर फूलोका एक गुलदस्ता भेंट किया। भोजनालायमें कई कन्याएँ बैठी भोजन कर रही थीं। सुमन ने सुभद्रा को इन कन्याओं के बनाये हुए अचार, मुरब्बे आदि दिखाए।

सुभद्राको यहाँका सुप्रवन्ध, शान्ति और कन्याओंका शील स्वभाव
देखकर बड़ा आनंद हुआ। उसने मनमें सोचा, सुमन इतने बड़े आश्रम को अकेले कैसे चलाती होगी, मुझसे तो कभी न हो सकता। कोई लड़की मलोन या उदास नही दिखाई देती।

सुमन ने कहा, मैंने यह भार अपने ऊपर ले तो लिया, पर मुझमें उसके सँभालनेकी शक्ति नही है। लोग जो सलाह देते है, वही मेरा आधार है। आपको भी जो कुछ त्रुटि दिखाई दे, वह कृपा करके बता दीजिये। इससे मेरा उपकार होगा।

सुभद्रा ने हँस कर कहा, बाई जी मुझे लज्जित न करो, मैंने तो जो कुछ देखा है उसीसे चकित हो रही हूँ, तुम्हें सलाह क्या दूंगी, बस इतना ही कह सकती हूँ कि ऐसा अच्छा प्रबन्ध विधवा आश्रम का भी नहीं है।

सुमन— आप संकोच कर रही है।

सुभद्रा— नही, सत्य कहती हूँ। मैने जैसा सुना था इसे उससे कहीं बढकर पाया। हाँ तो बताओ, इन बालिकाओं की माताएँ इन्हे देखने आती है या नही?

सुमन— आती है, पर मैं यथासाध्य इस मेल-मिलापको रोकती हूँ

सुभद्रा— अच्छा, इनका विवाह कहाँ होगा।

सुमन— यही तो टेढ़ी खीर है। हमारा कर्त्तव्य यह है कि इन कन्याओंको चतुर गृहिणी बनानेके योग्य बना दे। उनका आदर समाज करेगा या नही, मैं कह नहीं सकती।

सुभद्रा— वैरिस्टर साहबकी पत्नीको इस काम से बड़ा प्रेम है।

सुमन— यह कहिये कि आश्रम की स्वामिनी वही है। मैं तो केवल उनकी आज्ञाओ का पालन करती हूँ।

सुभद्रा— क्या कहूँ में किसी योग्य नही, नही तो मैं भी यहाँ कुछ काम किया करती।

सुमन— आते-आते तो आप आज आई है, उस पर शर्मा जी को को नाराज करके। शर्माजी फिर इधर आनेतक न देगे। सुभद्रा - नहीं, अबकी एतवारको मैं उन्हें अवश्य खीच लाऊँगी, बस, मैं लड़कियोको पान लगाना और खाना सिखाया, करुँगी।

सुमन- (हँसकर) इस काममे आप कितनी ही लडकियों को अपने- से भी निपुण पावेगी।

इतनेमे १० लडकियाँ सुन्दर वस्त्र पहने हुए आई और सुभद्रा के सामने खडी होकर मधुर स्वरसे गाने लगी :

हे जगत पिता, जगत प्रभू,
मुझे अपना प्रेम और प्यार दे।
तेरी भक्तिमे लगे मन मेरा,
विषय कामनाको विसार दे।

सुभद्रा यह गीत सुनकर बहुत प्रसन्न हुई और लडकियोंको ५) इनाम दिया।

जब वह चलने लगे तो सुमनने करुण स्वरसे कहा--मै इसी रवि वारको आपकी राह देखुँगी।

सुभद्रा--- मैं अवश्य आऊँगी।

सुमन---शान्ता तो कुशलसे है।

सुभद्रा---हाँ पत्र आया था। सदन तो यहाँ नही आए?

सुमन---नही,पर २) मासिक चन्दा भेज दिया करते है।

सुभद्रा---अब आप बैठिये मुझे,आज्ञा दीजिए।

सुमन---आपके आनेसे मैं कृतार्थ हो गई। आपकी भक्ति, आपका प्रेम,आपकी कार्यकुशलता, किस-किसको वडाई करूँ। आप वास्तवमे स्त्री समाजका श्रृंगार है (सजल नेत्रोंसे) में तो अपनेको आपकीदासी समझती हूँ। जबतक जीउँगी आप लोगोका यश मानती रहूंगी। मेरी बाँह पकडी और मुझे डूबनेसे बचा लिया। परमात्मा आप लोगोंका सदैव कल्याण करें।