सेवासदन/३६
हाजीहाशिम बुड़बुड़ाये, मुन्शी अबुलवफाके तेवरोंपर बल पड़ गये। तेगअलीकी तलवारने उन्हें घायल कर दिया। अबुलवफा कुछ कहना ही चाहते थे कि शाकिरबेग बोल उठे, भाई साहब, यह तान तजका मौका नहीं। हम अपने घर में बैठे हुए एक अमर के बारे में दोस्ताना मशाविरा कर रहे है। जवाने तेंज मसलेहत के हकमे जहरे कातिल है। मैं शाहिदान तन्नाज को निजाम तमद्दत में बिल्कुल बेकार या मायाए शर नहीं समझता। आप जब कोई मकान तामीर करते है तो उसमे बदरौर बनाना जरूरी ख्याल करते है। अगर बदरीर न हो तो चन्द दिनों में दीवारों की बुनियादे हिल जायें। इस फिरके को सोसाइटी का बदरौर समझना चाहिए और जिस तरह बदरीर मकान के नुमाया हिस्से में नहीं होती, बल्कि निगाह से पोशीदा एक गोशे में बनाई जाती है उसी तरह इस फिरके को शहर के पुरफिजा मुकामात से हटाकर किसी गोशे में आबाद करना चाहिए।
मुन्शी अबुलवफा पहले के वाक्य सुनकर खुश हो गये थे, पर नाली की उपमापर उनका मुँह लटक गया। हाजीहाशिम ने नैराश्य से अब्दुल्लतीफी ओर देखा, जो अबतक चुपचाप बैठे हुए थे और बोले, जनाब, कुछ आप भी फरमाते है। दोस्ती के बहाव में आप भी तो नहीं बह गये?
अब्दुल्लतीफ बोले, जनाब, रिन्दा को न इत्तहाद से दोस्ती न मुखालिफत से दुश्मनी। अपना मुशरिब तो सुलहेकुल है। मैं अभी यही है नहीं कर सका कि आलम वे दारी में हैं या ख्याव में। बड़े-बड़े आलमो को एक बे सिर-पैर की बात की ताईद में जमी और आसमान के कुलावे मिलाते देखता हूँ। क्योंकर बाबर कहें कि बेदार हूँ? साबुन, चमड़े और मिट्टी के तेल की दुकानों से आपको कोई शिकायत नहीं। कपड़े, बरतन आदवियात की दुकानें चीकमे है, आप उनको मुतलक वे मौका नहीं समझते। क्या आपकी निगाहों में हुस्न की इतनी भी वकअत नहीं? और क्या यह जरूरी है कि इसे किसी तग तारीक कूचे वद कर दिया जाय? क्या वह बागवाग कहलाने का मुश्तहक है। जहाँ सरोकी कतारें एक गोशे में हों, बेले और गुलाब के तख्ते दूसरे गोशे में और रविशो के दोनो तरफ नीम और कटहल के दरख्त हों, बस्तमे पीपल ठूठ और
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किनारे बबूल की कलमें?—चील और कौए दोनों तरफ तख्तों पर बैठे अपना राग अलापते हों, और बुलबुले किसी गोशए तारीक में दर्द के तराने गाती हो। मैं इस तरहरीक की सख्त मुखालिफत करता हूँ। मैं उसे इस काबिल भी नहीं समझता कि उसपर साथ मतानत के साथ बहस की जाय।
हाजी हाशिम मुस्कराये, अबुलवफा की आँखे खुशी से चमकने लगी। अन्य महाशयों ने दार्शनिक मुस्कान के साथ यह हास्यपूर्ण वक्तृता सुनी, पर तेगअली इतने सहनशील न थे। तीव्र भाव से बोले, क्यों गरीब परवर, अबकी बोर्ड में यह तजबीज क्यों न पेश की जाय कि म्युनिसिपैलिटी ऐन चोक में खास एहतमाम के साथ मीनाबाजार आरास्ता करे और जो हजरात इस बाजार की सैरको तशरीफ ले जाय उन्हें गवर्नमेन्ट की जानिब से खुशनूदी मिजाज का परवाना अदा किया जाय? मेरे ख्याल से इस तजबीज की ताइद करने वाले बहुत निकल आयेंगे और इस तजवीज के मुहर्रिरका नाम हमेशा के लिये जिन्दा हो जायगा। उसके वकालत के बाद उसके मजार पर उर्स होगे और वह अपने गोशये लहद में पड़ा हुआ हुस्न की बहार लूटेगा और दलजीर नजमे सुनेगा।
मुन्शी अबदुल्लतीफ का मुँह लाल हो गया। हाजीहाशिम ने देखा कि बात बढ़ी जाती है, तो बोले, मैं अब तक सुना करता था कि उसूल भी कोई चीज है मगर आज मालूम हुआ कि वह महज एक वहम है। अभी बहुत दिन नहीं हुए कि आप ही लोग इस्लामी बजाएफका डेपुटेशन लेकर गए थे, मुसलमान कैदियों के मजहबी तसकीन की तजवीज कर रहे थे और अगर मेरा हाफिजा गलती नहीं करता तो आप ही लोग उन मौकों पर पेश नजर आते थे। मगर आज एकाएक यह इनकलाब नजर आता है। खैर आपका तलव्वुन आपको मुबारक रहे, बन्दा इतना सहज़ुलयकीन नहीं है। मैंने जिंदगी का यह उसूल बना लिया है कि बिरादरा ने वतन की हरएक तजबीज की मुखालिफत करूंगा, क्योंकि मुझे उससे किसी बेहबूदकी तवक्की नहीं है।
अबुलवफा ने कहा, अलाहाजा मुझे रात को आफताब का यकीन हो सकता है, पर हिन्दुओं की नेकनीयत पर यकीन नहीं हो सकता। सैयद शफकत अली बोले, हाजी साहब, आपने हम लोगों को जमाना-साज और बेउसूल समझने में मतानत से काम नहीं लिया। हमारा उसूल जो तब था वह अब भी है और वही हमेशा रहेगा और वह है इसलामी वकार को कायम करना और हरएक जायज तरीके से बिरादरने मिल्लत के बेहबूदकी कोशिश करना। अगर हमारे फायदे में बिरादरा ने वतन का नुकसान हो तो हमको इसकी परवाह नहीं। मगर जिस तजबीज से उनके साथ हमको भी फायदा पहुँचता है और उनसे किसी तरह कम नही, उसकी मुखालिफत करना हमारे इमकान से बाहर है। हम मुखालिफत के लिये मुखालिफत नहीं कर सकते।
रात अधिक जा चुकी थी। सभा समाप्त हो गई। इस वार्तालाप का कोई विशेष फल न निकला। लोग मन से जो पक्ष स्थिर करके घर से आये थे उसी पक्षपर डटे रहे। हाजी हाशिम को अपनी विजयका जो पूर्ण विश्वास था उसम सन्देह पड़ गया।
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इस प्रस्ताव के विरोध में हिन्दू मेम्बरों को जब मुसलमानो के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हे मुसलमानो से जो आश थी वह भंग हो गई। कुल दस हिन्दू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डाक्टर श्यामाचरण वाइस चेयरमैन। लाला चिम्मनलाल और दीनानाथ तिवारी व्यापारियों के नेता थे। पद्मसिंह और रुस्तमभाई वकील थे। रमेशदत्त कालेजके अध्यापक, लाला भगतराम ठेकेदार, प्रभाकरराव हिन्दी पत्र ‘जगत' के सपादक और कूंवर अनिरुद्ध बहादुर सिंह जिले के सबसे बड़े जमीदार थे। चौक की दूकानों मे अधिकांश बलभद्रदास और चिम्मनलाल की थी। चावल मंडी में दीनानाथ के कितने ही मकान थे, यह तीनों महाशय इस प्रस्ताव के विपक्षी थे। लाला भगतरामका काम चिम्मनलालकी आर्थिक सहायता से चलता था। इसलिये उनकी सम्मति भी उन्हींकी ओर थी। प्रभाकरराव, रमेशदत्त, रुस्तमभाई और पद्मसिंह इस प्रस्तावके पक्ष में थे। डाक्टर श्यामाचरण और कुंवर साहब के विषय में अभी तक कुछ निश्चय नहीं हो सका था। दोनों पक्ष उनसे सहायता की आशा रखते थे। उन्हीं पर दोनों पक्षों की हार-जीत निर्भर थी। पद्मसिंह अभी बारात से नहीं लौटे थे। बलभद्रदास ने इस अवसर को अपने पक्ष मे समर्थन के लिये उपयुक्त समझा और सब हिन्दू मेम्बरों को अपनी सुसज्जित बारहदरी मे निमंत्रित किया, इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि डाक्टर साहब और कुंवर महोदय की सहानुभूति अपने पक्ष में कर ले। प्रभाकरराव मुसलमानों के कट्टर विरोधी थे। वे लोग इस प्रस्ताव को हिन्दू मुसलिम विवाद का रंग देकर प्रभाकर राव को भो अपनी ओर खीचना चाहते थे।
दीनानाथ तिवारी वोले, हमारे मुसलमान भाइयों ने तो इस विषय में बडी उदारता दिखाई पर इसमें एक गूढ़ रहस्य है। उन्होने 'एक पथ-दो काज' वाली चाल चली है। एक ओर तो समाज सुधार की नेकनामी हाथ आती है दूसरी ओर हिन्दूओं को हानि पहुंचाने का एक बहाना मिलता है। ऐसे अवसर से वे कब चूकने वाले थे।
चिम्मनलाल-मुझे पालिटिक्स से कोई वास्ता नही है और न मैं इसके निकट जाता हूँ। लेकिन मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि हमारे मुसलिम भाइयों ने हमारी गरदन बुरी तरह पकड़ी है। चावलमंडी और चौकके अधिकांश मकान हिन्दुओं के है, यदि वोर्ड ने यह स्वीकार कर लिया तो हिन्दुओं का मटियामेट हो जायगा। छिपे छिपे चोट करना कोई मुसलमानों से सीख ले। अभी बहुत दिन नहीं बीते कि सूद की आड़ में हिन्दुओं पर आक्रमण किया गया था। जब वह चाल पट पड़ गयी तो यह नया उपाय सोचा। खेद है कि हमारे कुछ हिन्दू भाई उनके हाथों की कठपुतली बने हुए है। वे नहीं जानते कि अपने दुरुत्साह से अपनी जाति को कितनी हानि पहुचा रहे है।
स्थानीय कौसिल में जब सूदका प्रस्ताव उपस्थित था तो प्रभाकरराव ने उसका घोर विरोध किया था। चिम्मनलाल ने उसका उल्लेख करके और वर्तमान विषय को आर्थिक दृष्टिकोण से दिखाकर प्रभाकरराव को नियम विरुद्ध करने की चेष्टा की। प्रभाकरराव ने विवश नेत्रों से रुस्तम भाई की ओर देखा, मानो उनसे कह रहे थे कि मुझे ये लोग ब्रह्म फाँस में डाल रहे है, आप किसी तरह मेरा उद्धार कीजिये। रुस्तम भाई बड़े निर्भीक, स्पष्टवादी पुरुष थे। वे चिम्मनलाल का उत्तर देने के लिये खड़े हो गये और बोले, मुझे यह देखकर शोक हो रहा है कि आप लोग एक सामाजिक प्रश्न को हिन्दू मुसलमानो के विवाद का स्वरूप दे रहे हैं। सूद के प्रश्न को भी यही रंग देने की चेष्टा की गई थी। ऐसे राष्ट्रीय विषयो को विवादग्रस्त बनाने से कुछ हिन्दू साहूकारों का भला हो जाता है, किन्तु इससे राष्ट्रीयता को जो चोट लगती है उसका अनुमान करना कठिन है। इसमे सन्देह नही कि इस प्रस्ताव के स्वीकृत होने से हिन्दु साहूकारो को अधिक हानि पहुँचेगी, लेकिन, मुसलमानो-पर भी इसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। चौक और दालमंडी मे मुसलमानों की दूकाने कम नहीं है। हमको प्रतिवाद या विरोध के धुन में अपने मुसलमान भाइयों की नीयत की सफाई पर सन्देह न करना चाहिये, उन्होने इस विषय मे जो कुछ निश्चय किया है वह सार्वजनिक उपकार के विचार से किया है; अगर हिन्दुओं को इससे अधिक हानि हो रही है तो यह दूसरी बात है। मुझे विश्वास है कि मुसलमानों की इससे अधिक हानि होती तब भी उनका यही फैसला होता। अगर आप सच्चे हृदय से मानते है कि यह प्रस्ताव एक सामाजिक कुप्रथा के सुधार के लिये उठाया गया है तो आपको उसके स्वीकार करने में कोई बाधा न होनी चाहिये, चाहे धन की कितनी ही हानि हो। आचरण के सामने धन का कोई महत्व न होना चाहिये।
प्रभाकरराव को धैर्य हुआ। बोले, बस यही मैं भी कहने वाला था, अगर थोड़ी सी आर्थिक हानि से एक कुप्रथा का सुधार हो रहा हो तो वह हानि प्रसन्नाता से उठा लेनी चाहिये। आपलोग जानते है कि हमारी गवर्नमेन्ट को चीन देश से अफीम का व्यापार करने में कितना लाभ था। १८ करोड़ से कुछ अधिक ही होगा। पर चीन में अफीम खाने की कुप्रथा मिटाने के लिये सरकार ने इतनी भीषण हानि उठाने में जरा भी आगा-पीछा नहीं किया।
कुँवर अनिरुद्ध सिंह ने प्रभाकरराव की ओर देखते हुए पूछा, महाशय, है। स्वर्ग में पहुँचने के लिए आए कोई सीधा रास्ता नहीं है। वैतरणी का सामना अवश्य करना पड़ेगा। जो लोग समझते है किसी महात्मा के आशीर्वाद से कूद स्वर्ग में जा बैठेंगे वह उनसे अधिक हास्यास्पद है जो समझते है कि चीफ़ से वेश्याओं को निकाल देने से भारत के सब दुःख दर्द मिट जायेंगे और एक नवीन सूर्य का उदय हो जायगा।
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जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारन की आवाज सुनकर जाग जाता है किन्तु इधर-उधर देख कर फिर निंद्रा में मग्न हो जाना है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव्यों को भूल गये। उन्होंने सोचा, मेरे यहाँ रहने से उमानाथ पर कौन-सा बोझ पड़ रहा है। आधा सेर आटा ही तो खाता हूँ या और कुछ। लेकिन उस दिन से उन्होंने नीच आदमियों के साथ बैठकर चरस पीना छोड़ दिया। इतनी-सी बात लिये चारों ओर मारे-मारे फिरना उन्हें अनुपयुक्त मालूम हुआ। अब वे प्रायः बरामदे में ही बैठे रहते और सामने से आनेजाने वाली रमणियों को घूरते। वे प्रत्येक विषय में उमानाथकी हाँ-में-हाँ मिलाते। भोजन करते समय सामने जितना आ जाता था का खा लेते, इच्छा रहनेपर भी कभी कुछ न माँगते। वे उनसे न कितनी ही बाते ठकुरसुहाती के लिये कहने। उनकी आत्मा शिव निर्बल हो गई थी।
उमानाथ सान्ता के विवाह संबंध जब उनसे कुछ कहते तो वह बड़े सरल भाषा से उत्तर देते, भाई तुम चाहो जो करो तुम्हीं इसके मालिक हो। वह अपने मन को समझते, जब रुपये इनके लग रहे है तो सब काम इन्हीं के इच्छानुसार होने चाहिये।
लेकिन उमानाथ अपने में बहनोई की कठोर बातें न भूले छालेपर मक्खन लगाने से एक क्षण के लिये कष्ट कम हो जाता है, किन्तु फिर ताप की वेदना होने लगती हैं। कृष्णचन्द्रकी आत्मग्लानि से भरी हुई बातें उमानाथ को शीघ्र भूल गई और उनके कृतघ्न शब्द कानो में गूंजने लगे। जब वह सोने गये तो जान्हवी ने पूछा, आज लालाजी (कृष्णचन्द्र) तुमसे क्या बिगड़ रहे थे।
उमानाथ ने अन्यायपीडित नेत्रों से कहा, मेरा यश गा रहे थे। कह रहे थे, तुमने मुझे लूट लिया, मेरी स्त्री को मार डाला, मेरी एक लड़की को कुएँ में डाल दिया, दूसरी को दुःख दे रहे हो।
'तो तुम्हारे मुँह मे जीभ न थी? कहा होता क्या मैं किसी को नेवता देने गया था? कही तो ठिकाना न था, दरवाजे-दरवाजे ठोकरें खाती फिरती। बकरा जीसे गया, खानेवाले को स्वाद ही न मिला। यहाँ लाज ढोते-ढोते मर मिटे, उसका यह फल। इतने दिन थानेदारी की, लेकिन गंगाजली ने कभी भूलकर भी एक डिविया सेंदूर न भेजा। मेरे सामने कहा होता तो ऐसी ऐसी सुनाती कि दाँत खट्टे हो जाते। दो-दो पहाड़ सी लड़कियाँ गलेपर सवार कर दी, उस पर बोलने को मरते है। इनके पीछे फकीर हो गये, उसका यह यश है? अबसे अपना पौरा लेकर क्यों नहीं कही जाते? काहे को पैर में मेहंदी लगाए बैठे है।'
'अब तो जाने को कहते है। सुमन का पता भी पूछा था।'
'तो क्या अब बेटी के सिर पड़ेंगे? वाह रे बेहया!'
'नहीं ऐसा क्या करेगे, शायद दो-एक दिन वहाँ ठहरेगे।'
'कहाँ की बात, इनसे अब कुछ न होगा। इनकी आँखो का पानी मर गया, जाके उसी के सिर पड़ेगें, मगर देख लेना वहाँ एक दिन भी निवाह न होगा।'
अबतक उमानाथ ने सुमन के आत्मपतन की बात जान्हवी से छिपाई थी। वह जानते थे कि स्त्रियों के पेट मे बात नहीं पचती। यह किसी न किसी से अवश्य ही कह देगी और बात फैल जायेगी। जब जान्हवी के स्नेह व्यवहार से वह प्रसन्न होते तो उन्हें उससे सुमन की कथा कहने की बड़ी तीव्र आकांक्षा होती। हृदयसागर में तरंगें उठने लगती, लेकिन परिणाम को सोचकर रुक जाते थे। आज कृष्णचन्द्र की कृतघ्नता और जान्हवी की स्नेहपूर्ण बातों ने उमानाथ को निशंक कर दिया, पेट में बात न रुक सकी। जैसे किसी नाली में स्त्रियाँ भी मुस्करा मुस्कराकर उनपर नयनों की कटार चला रही थी। जान्हवी उदास थी, वह मन में सोच रही थी कि यह वर मेरी चन्द्रा को मिलता तो अच्छा होता। सुभागी यह जानने के लिये उत्सुक थी कि समधी कौन है। कृष्णचन्द्र सदन के चरणों की पूजा कर रहे थे और मन में शंका कर रहे थे कि यह कौनसा उल्टा रिवाज है। मदनसिंह ध्यान से देख रहे थे कि थाल में कितने रुपये है।
बारात जनवा से को चली। रसद का सामान बँटने लगा। चारों ओर कोलाहल होने लगा। कोई कहता था, मुझे घी कम मिला, कोई गोहार लगाता था कि मुझे उपले नहीं दिये गये। लाला बैजनाथ शराब के लिये जिद्द कर रहे थे।
सामान बंट चुका तो लोगोने उपले जलाये और हाँडियाँ चढ़ाई। कुएँ से गैस का प्रकाश पीला पड़ गया।
सदन मसनद लगाकर बैठा। महफिल सज गई। काशी के संगीत समाज ने श्यामकल्याणकी धुन छेड़ी।
सहस्त्रों मनुष्य शामियाने के चारो ओर खड़े थे। कुछ लोग मिर्जई पहने, पगड़ी बाँधे फर्शपर बैठे थे, लोग एक दूसरे से पूछते थे कि डेरे कहाँ है। कोई इस छोलदारी मे झाँकता था, कोई उस छोलदारी में और कुतूहल से कहता था, कैसी बारात है कि एक डेरा भी नही, कहाँ के कंगले है। यह बड़ासा शामियाना काहे को खड़ा कर रक्खा है? मदनसिंह ये बाते सुन-सुनकर मनमें पद्मसिंहपर कुड़बुड़ा रहे थे और पद्मसिंह लज्जा और भय के मारे उनके सामने न आ सकते थे।
इतने में लोगो ने शामियाने पर पत्थर फेंकना शुरु किया। लाला बैजनाथ उठकर छोलदारी में भागे। कुछ लोग उपद्रवकारियों को गालियाँ देने लगे। एक हलचलसी मच गयी। कोई इधर भागता, कोई उधर, कोई गाली बकता था, कोई मारपीट करने पर उतारू था। अकस्मात् एक दीर्घकाय पुरुष, सिर मुड़ाये, भस्म रमाये हाथ में एक त्रिशूल लिये आकर महफिल में खडा हो गया। उसके लाल नेत्र दीपक के समान जल रहे थे और मुख मण्डल में प्रतिभा की ज्योति स्फुटित हो रही थी। महफिल में सन्नाटा छा गया। सब लोग आंखें फाड़-फाड़कर महात्मा की ओर ताकने लगे। यह साधु कौन है? कहाँ से आ गया।
साधु ने त्रिशूल ऊँचा किया और तिरस्कारपूर्ण स्वर से बोला हाँ शोक! यहाँ कोई नाच नहीं, कोई वेश्या नहीं, सब बाबा लोग उदास बैठे है। श्याम-कल्याण की धुन कैसी मनोहर है, पर कोई नहीं सुनता, किसी के कान नहीं, सब लोग वेश्या का नाच देखना चाहते है। या उन्हें नाच दिखाओ या अपने सर तुड़ाओ। चलो, मैं नाच दिखाऊँ। देवताओं का नाच देखना चाहते हो? देखो सामने वृक्ष की पत्तियों पर निर्मल चन्द्र की किरणे कैसी नाच रही है। देखो तालाब में कमल के फूलपर पानी की बूंदे कैसी नाच रही है। जंगल में जाकर देखो मोर पंख फैलाये कैसा नाच रहा है। क्यों यह देवताओं का नाच पसन्द नहीं है? अच्छा चलो पिशाचों का नाच दिखाऊँ। तुम्हारा पड़ोसी दरिद्र किसान जमीदार के जूते खाकर कैसा नाच रहा है? तुम्हारे भाइयों के अनाथ बालक क्षुधा से बावले होकर कैसे नाच रहे है? अपने घर में देखो, तुम्हारी विधवा भावज की आंखों में शोक और वेदना के आंसू कैसे नाच रहे है? क्या यह नाचे देखना पसन्द नहीं? तो अपने मन में देखो, कपट और छल कैसा नाच रहा है? सारा संसार नृत्यशाला है उसमे लोग अपना-अपना नाच नाच रहे हैं। क्या यह देखने के लिये तुम्हारी आंखें नहीं है? आओ, मैं तुम्हें शंकर का तांडव नृत्य दिखाऊँ। किन्तु तुम वह नृत्य देखने योग्य नहीं हो। तुम्हारी काम तृष्णा को इस नाच का क्या आनन्द मिलेगा? हां! अज्ञानी मूर्तियों। हा। विषय भोग के सेवकों! तुम्हें नाच का नाम लेते लाज नहीं आती। अपना कल्याण चाहते हो तो इस रीति को मिटाओ। इस कुवासना को तजो, वेश्या-प्रेम का त्याग करो।
सब लोग मूर्तिवत् बैठे महात्मा की उन्मत्त वाणी सुन रहे थे कि इतने में वह अदृश्य हो गये और सामने वाले आम के वृक्षों की आड़ से उनके मधुर गान की ध्वनि सुनाई देने लगी। धीरे-धीरे वह भी अन्धकार में विलीन हो गयी। जैसे रात्रि को चिन्तारूपी नाव निद्रासागर में विलीन हो जाती है। नेत्र ज्योतिहीन हो गये। बोले, महाराज ... .......और उनके मुख से कुछ न निकला।
मदनसिंह ने गरज कर कहा स्पष्ट क्यों नही बोलते? यह बात सच है या झूठ?
उमानाथ ने फिर उत्तर देना चाहा, किन्तु 'महाराज' के सिवा और कुछ न कह सके।
मदनसिंह को अब कोई सन्देह न रहा। क्रोध की अग्नि प्रचंड हो गई। आँखों से ज्वाला निकलने लगी। शरीर काँपने लगा। उमानाथ की और आग्नेय दृष्टि से ताककर बोले, अब अपना कल्याण चाहते हो तो मेरे सामने से हट जाओ।, धूर्त्त दगाबाज, पाखण्डी कहीं का। तिलक लगाकर पंण्डित बना फिरता है, चांडाल में अब तेरे द्वारपर पानी न पीऊँगा। अपनी लड़की को यन्तर बनाकर गले मे पहन। यह कहकर मदनसिंह उठे और उस छोलदारी में चले गये जहाँ सदन पड़ा सो रहा था और जोर से चिल्लाकर कहारो को पुकारा!
उनके जाने पर उमानाथ पद्मसिंह से बोले, महाराज, किसी प्रकार पंण्डितजी को मनाइये। मुझे कहीं मुँह दिखाने को जगह न रहेगी। सुमन का हाल तो आपने सुना ही होगा। उस अभागिन ने मेरे मुँह में कालिख लगा दी। ईश्वर की यही इच्छा थी, पर अब गड़े हुए मुरदे उखाड़ने से क्या लाभ होगा। आप ही न्याय कीजिये, मैं इस बात को छिपाने के सिवा और क्या करता? इस कन्या का विवाह करना ही था। वह बात छिपाये बिना कैसे बनता? आपसे सत्य कहता हूँ कि मुझे यह समाचार सबन्ध ठीक हो जाने के बाद मिला।
पद्मसिंह ने चिंतित स्वर से कहा, भाई साहब के कान में बात न पड़ी होती तो यह सब कुछ न होता। देखिये मैं उनके पास जाता हूँ पर उनका राजी होना कठिन मालूम होता है। कहारों से चिल्लाकर कह रहे थे कि जल्द यहाँ से चलने की
तैयारी करो। सदन भी अपने कपड़े समेट रहा था। उसके पिता ने सब हाल उससे कह दिया था।
इतने में। पद्मसिंह ने आकर आग्रहपूर्वक कहा, भैया, इतनी जल्दी न कीजिये। जरा सोच समझकर काम कीजिए। धोखा तो हो ही गया, पर यों लौट चलने मे तो और भी जग हंसाई है।
सदन ने चाचा की ओर अवहेलनाकी दृष्टिसे देखा, और मदनसिंह ने आशचर्य से।
पद्मसिंह——दो चार आदमियों से पूछ देखिये क्या राय है।
मदन——क्या कहते हो, क्या जानबूझकर जीती मक्खी निगल जाऊँ?
पद्म——इसमें कम से कम जग हँसाई तो न होगी।
मदन——तुम अभी लडके हो, ये बाते क्या जानो? जाओ, लौटने का सामान करो। इस वक्त की जग हँसाई अच्छी है। कुल में सदा के लिये कलंक तो न लगेगा।
पद्म——लेकिन यह तो विचार कीजिये कि कन्या की क्या गति होगी। उसने क्या अपराध किया है?
मदनसिंह ने झिड़ककर कहा, तुम हो निरे मूर्ख। चलकर डेरे लदाओ। कल को कोई बात पड़ जायगी तो तुम्हीं गालियाँ दोगे कि रुपए पर फिसल पड़े। संसार के व्यवहार में वकालत से काम नहीं चलता।
पद्मसिंहने कातर नेत्रो से देखते हुए कहा, मुझे आपकी आज्ञा से इनकार नहीं है, लेकिन शोक है कि इस कन्या का जीवन नष्ट हो जायगा।
मदन—— तुम खामख्वाह क्रोध दिलाते हो। लड़की का मैने ठीक़ा लिया है? जो कुछ उसके भाग्य में बदा होगा, वह होगा। मुझे इससे क्या प्रयोजन?
पद्मसिंह ने नैराग्यपूर्ण भाव से कहा, सुमन का आना जाना बिलकुल बन्द है। इन लोगों ने उसे त्याग दिया है।
मदन, मैंने तुम्हें कह दिया कि मुझे गुस्सा न दिलाबो। तुम्हें ऐसी
१३ बात मुझसे से कहते हुए लज्जा नही आती? बड़े सुधारक की दुम बने हो। एक हरजाई की बहन से अपने बेटे का व्याह कर लूँ। छि:छि: तुम्हारी बुद्धि कैसी भ्रष्ट हो गई।
पद्मसिंह ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। उनका मन कह रहा था कि भैया इस समय जो कुछ कर रहे हो वही ऐसी अवस्था में मैं भी करता। लेकिन भयंकर परिणाम विचार करके उन्होंने एक बार फिर बोलने का साहस किया जैसे कोई परीक्षार्थी गजट में अपना नाम न पाकर निराश होते हुए भी शोधपत्र की ओर लपकता है, उसी प्रकार अपने को धोखा देकर पद्मसिहं भाई से दबते हुए बोले, सुमन बाई भी तो अब विधवाश्रम में चली गई है।
पद्मसिंह सिर नीचे किये बात कर रहे थे। भाई से आँँखें मिलाने का हौसला न होता था। यह वाक्य मुँह से निकला ही था कि अकस्मात् मदनसिंह ने एक जोर से धक्का दिया कि वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। चौककर सिर उठाया, मदनसिंह खड़े क्रोध से काँप रहे थे। तिरस्कार के वे कठोर शब्द जो उनके मुँह से निकलने वाले थे, पद्मसिंह को भूमिपर गिरते देखकर पश्चाताप से दब गये थे। मदनसिंहकी इस समय वही दशा थी जब क्रोध में मनुष्य अपनाही माँस काटने लगता है।
यह आज जीवन में पहला अवसर था कि पद्मसिंह ने भाई के हाथों धक्का खाया। सारी बाल्यावस्था बीत गई, बड़े-बड़े उपद्रव किये, पर भाई ने कभी हाथ न उठाया। वह बच्चों के सदृश रोने लगे, सिसकते थे, हिचकियाँ लेते थे, पर हृदय में लेशमात्र को भी क्रोध न था। केवल यह दुख था कि जिसने सर्वदा प्यार किया, कभी कड़ी बात नहीं कही, उसे आज मेरे दुराग्रह से ऐसा दु:ख पहुँचा। यह हृदय में जलती हुई अग्नि की ज्वाला है, यह लज्जा, अपमान और आत्मग्लानि का प्रत्यक्ष स्वरुप है, यह हृदय में उमड़े हुए शोक सागर का उद्वेग है। सदन ने लपकर पद्मसिंह को उठाया और अपने पिता की ओर क्रोध से देखकर बोला, आप तो जैसे बावले हो गये है।
इतने में कई आदमी आ गये और पूछने लगे, महराज, क्या बात हुई? बारात को लौटाने का हुकुम क्यों देते है? ऐसा कुछ करो कि दोनों ओर की मर्यादा बनी रहे, अब उनकी और आपकी इज्जत एक है। लेन-देन में कुछ कोर कसर हो तो तुम्हीं दब जाओ, नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया है? इनके धन से थोडे ही धनी हो जाओगे? मदनसिंहने कुछ उत्तर नहीं दिया।
महफिलमें खलबली पड़ गई। एक दूसरे से पूछता था, यह क्या बात है? छोलदारी के द्वार पर आदमियों की भीड़ बढ़ती ही जाती थी।
महफिल में कन्या की ओर के भी कितने ही आदमी थे। वह उमानाथ से पूछने लगे, भैया, ये लोग क्यों बरात लौटाने पर उतारू हो रहे है? जब उमानाथ ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया तो से सबके सब आकर मदन सिंह से विनती करने लगे, महाराज, हमसे ऐसा क्या अपराध हुआ है। और जो दण्ड चाहे दीजिये पर बारात न लौटाइये नहीं तो गाँव बदनाम हो जायगा। मदनसिहं ने उनसे केवल इतना कहा, इसका कारण जाकर उमानाथ से पूछो, वहीं बतलायेगे।
पंण्डित कृष्णचन्द्र ने जब से सदन को देखा था, आनन्द से फूले न समाते थे। विवाह का मुहूर्त निकट था, वह वर के आने की राह देख रहे थे कि इतने मे कई आदमियों ने आकर उन्हें यह खबर दी। उन्होंने पूछा क्यों लौट जाते है? क्या उमानाथ से कोई झगड़ा हो गया है?
लोगों ने कहा, हमें यह नहीं मालूम, उमानाथ तो वही खड़े मना रहे है।
कृष्णचन्द्र झल्लाये हुए बारात की ओर चले। बारात का लौटना क्या लड़कों का खेल है? यह कोई गुड्डे गुड्डों का ब्याह है क्या? अगर विवाह नहीं करना था तो यहां बारात क्यों लाये। देखता हूं, कौन बारात को फेर ले जाता है? खून की नदी बहा दूँगा। यही न होगा फांसी हो जायगी, पर इन्हें इसका मजा चखा दूँगा। कृष्णचन्द्र अपने साथियों से ऐसी ही बाते करते, कदम बढ़ाते हुए जनवा से मे पहुँचे और ललकारकर बोले, कहाँ है पंण्डित मदनसिंह? महाराज, जरा बाहर आइये।
मदनसिंह यह ललकार सुनकर बाहर निकल आये और दृढ़ता के साथ बोले, कहिये, क्या कहना है? कृष्णचन्द्र-आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं?
मदन-—अपना मन! हमें विवाह नहीं करना है।
कृष्ण-—आपको विवाह करना होगा। यहाँ आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।
मदन--आपको जो करना हो कीजिये। हम विवाह नहीं करेगे।
कृष्ण-—कोई कारण?
मदन-—कारण क्या आप नहीं जानते?
कृष्ण—जानता तो आपसे क्यों पूछता?
मदन- —तो पंडित उमानाथ से पूछिए?
कृष्ण--मैं आपसे पूछता हूँ?
मदन-—बात दबी रहने दीजिए। मैं आपको लज्जित नहीं करना चाहता।
कृष्ण—अच्छा, समझा, मैं जेलखाने हो आया हूँ। यह उसका दण्ड है। धन्य है आपका न्याय!
मदन—इस बातपर बारात नहीं लौट सकती थी।
कृष्ण—तो उमानाथ से विवाह का कर देने में कुछ कसर हुई होगी।
मद -—हम इतने नीच नहीं है।
कृष्ण-फिर ऐसी कौनसी बात है?
मदन- हम कहते है हमसे न पूछिए।
कृष्ण-आपको बतलाना पड़ेगा। दरवाजे पर बारात लाकर उसे लौटा ले जाना क्या आपने लड़को का खेल समझा है? यहाँ खून की नदी बह जायगी। आप इस भरोसे में न रहियेगा।
मदन-इसकी हमको चिन्ता नहीं है। हम यहाँ मर जायेंगे लेकिन आपकी लड़की से विवाह न करेगे। आपके यहाँ अपनी मर्य्यादा खोने नहीं आए हैं?
कृष्ण-- तो क्या हम आपसे नीच है?
मदन-—हाँ, आप हमसे नीच है। कृष्ण-इसका कोई प्रमाण?
मदन–हाँ, है।
कृष्ण–तो उसके बताने में आपको क्यो संकोच होता है?
मदन--अच्छा, तो सुनिये, मुझे दोष न दीजियेगा, आपकी लड़की सुमन, जो इस कन्या की सगी बहन है, पतिता हो गई है। आप का जी चाहे तो उसे दालमंडी मे देख आइए।
कृष्णचन्द्र ने अविश्वास की चेष्टा करके कहा, यह बिल्कुल झूठ है। पर क्षणमात्र मे उन्हें याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था तो उन्होंने टाल दिया था, कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया जो जान्हवी बात बात में उनपर करती रहती थी। विश्वास हो गया। उनका सिर लज्जा से झुक गया। वह अचेत होकर भूमिपर गिर पड़े! दोनो तरफ के सैकड़ों आदमी वहाँ खड़े थे लेकिन सबके सब सन्नाटे में आ गए, इस विषय में किसी को मुँह खोलने का साहस नहीं हुआ।
आधी रात होते-होते डेरे-खेमे सब उखड़ गये। उस बगीचे मे फिर अन्धकार छा गया। गीदडो़ की सभा होने लनी और उल्लू बोलने लये।
३२
विठ्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबन्ध-कारिणी सभा के किसी भी सदस्य को इत्तला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियो से यह बात बहुत दिनों तक गुप्त न रही। उन्होंने हिरिया को ढूंढ निकाला और उससे सुमन का पता पूछा लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रो को भी इसकी सूचना दे दी। इसका यह परिणाम हुआ कि उन सज्जनो की आश्रम पर विशेष रीति-से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते, कभी सेठ बलभद्रदास, कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते। इन महानुभावो को अब आश्रम की सफाई और सजावट, उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबन्ध आदि कृष्णचन्द्र-आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं ?
मदन—अपना मन ! हमें विवाह नही करना है ।
कृष्ण—आपको विवाह करना होगा । यहाँ आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।
मदन—आपको जो करना हो कीजिये । हम विवाह नही करेंगे।
कृष्ण- कोई कारण?
मदन—कारण क्या आप नही जानते ?
कृष्ण—जानता तो आपसे क्यों पूछता ?
मदन—तो पंडित उमानाथ से पूछिए?
कृष्ण—मैं आपसे पूछता हूं ?
मदन-बात दबी रहने दीजिए। में आपको लज्जित नही करना चाहता ।
कृष्ण-अच्छा, समझा, मैं जेलखाने हो आया हूँ । यह उसका दण्ड है । धन्य है आपका न्याय !
मदन-इस बातपर बारात नही लौट सकती थी।
कृष्ण-तो उमानाथसे विवाहका कर देनेमें कुछ कसर हुई होगी।
मदन-हम इतने नीच नही हैं ।
कृष्ण—फिर ऐसी कौनसी बात है ?
मदन- हम कहते है हममें न पूछिए ।
कृष्ण—आपको बतलाना पड़ेगा । दरवाजेपर बारात लाकर उसे लौटा ले जाना क्या आपने लड़कोका खेल समझा है ? यहाँ खूनकी नदी वह जायगी । आप इस भरोसेमें न रहियेगा ।
मदन—इसकी हमको चिन्ता नही है । हम यहाँ मर जायेंगे, लेकिन आपकी लडकीसे विचाह न करंगे । आपके यह अपनी मर्यादा खोने नहीं देगें।
कृष्ण-तो क्या हम आपसे नीच है ?
मदन-हाँ, आप हमसे नीच है ।
कृष्ण-इसका कोई प्रमाण ?
मदन-हाँ, है ।
कृष्ण—तो उसके बताने मे आपको क्यो सकोच होता है ?
मदन अच्छा, तो सुनिये,मुझे दोष न दीजियेगा, आपकी लड़की सुमन,जो इस कन्या की सगी बहन है,पतिता हो गई है । आपका जी चाहे तो उसे दालमंडी मे देख आइए।
कृष्णचंद्र ने अविश्वासकी चेष्टा करके कहा,यह बिल्कुल झूठ है। पर क्षणमात्रमे उन्हे याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था तो उन्होंने टाल दिया था, कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया जो जान्हवी बात बातमें उनपर करती रहती थी। विश्वास हो गया। उनका सिर लज्जासे झुक गया । वह अचेत होकर भूमिपर गिर पड़े ! दोनों तरफ सैकड़ों आदमी वहीं खड़े थे लेकिन सबके सब सन्नाटेमें आ गए ,इस विषय में किसीको मुंह खोलनेका साहस नहीं हुआ ।
आधी रात होतेहोते डेरे-खेमे सब उखड़ गये । उस बगीचेमे फिर अन्धकार छा गया । गीदड़ोंकी सभा होने लनी और उल्लू बोलने लये ।
विठ्ठलदास ने सुमनको विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबन्ध-कारिणी सभा किसी भी सदस्य को इत्तला न दी थी। आश्रम की विधवाओसे उसे विधवा वताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियोंसे यह बात बहुत दिनोंतक गुप्त न रही। उन्होंने हिरियाको ढूंढ़ निकाला और उससे सुमनका पता पूछा लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रों को भी इसकी सूचना दे दो। इसका यह परिणाम हुआ कि उन सज्जनों की आश्रमपर विशेष रीति से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते,कभी सेठ बलभद्रदास,कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते! इन महानुभावोंको अब आश्रम की सफाई और सजावट,उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबंध आदि
मालूम होता है, वह अपने सद्व्यवहार से अपनी कालिमा को धोना चाहती है। सब काम करने को तैयार और प्रसन्न चित्त से। अन्य स्त्रियाँ सोती ही रहती है और वह उनके कमरों से झाड़ू दे जाती है। कई विधवाओं को सीना सिखाती है, कई उससे गाना सीखती है। सब प्रत्येक बात में उसी की राय
लेती है। इस चहारदिवारी के भीतर अब उसी का राज्य है। मुझे कदापि ऐसी आशा न थी। यहाँ उसने कुछ पढ़ना भी शुरू कर दिया है। और भाई मनका हाल तो ईश्वर जानें, देखने में तो अब उसका बिलकुल कायापलट सा ही गया है।
पद्म-नहीं, साहब, वह स्वभावकी बुरी स्त्री नहीं है। मेरे यहाँ महीनो आती रही थी। मेरे घर में उसकी बड़ी प्रशंसा किया करती थीं(यह कहते-कहते झेंंप गये), कुछ ऐसे कुसंस्कार ही हो गये जिन्होने उससे यह अभिनय कराये। सच पूछिये तो हमारे पापों का दण्ड उसे भोगना पड़ा। हाँ, कुछ उधर का समाचार भी मिला? सेठ बलभद्रदास ने और कोई चाल चली?
विठटल हाँ- साहब, वे चुप बैठनेवाले आदमी नहीं है? आजकल खूब दौड़-धूप हो रही है। दो तीन दिन हुए हिन्दू मेम्बरों की एक सभा भी हुई थी। मैं तो जा न सका, पर विजय उन्हीं लोगों की रही। अब प्रधान के २ वोट मिलाकर उनके पास ६ वोट है और हमारे पास कुल ४ मुसलमानों के वोट मिलाकर बराबर हो जायगे।
पद्म-—तो हमको कम से कम एक वोट मिलना चाहिए। है इसकी कोई आशा?
विठटल— मुझे तों कोई आशा नहीं मालूम होती।
पद्म-अवकाश हो तो चलिय, जरा डाक्टर साहब और लाला भगतराम के पास चले।
विठ्ठल--हाँ, चलिये, मैं तैयार हूँ।
३३
यद्यपि डाक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने