सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ८६ ] प्रस्ताव तो बहुत उत्तम है, लेकिन यह बताइये, सुमन को आप रखना कहाँ चाहते है?

बिट्ठलदास—विधवाश्रम में।

बलभद्र-आश्रम सारे नगर में बदनाम हो जायेगा, और संभव है कि अन्य विधवाये भी छोड़ भागे।

बिट्ठल मैं-तो अलग मकान लेकर रख दूँगा।

बलभद्र-मुहल्ले के नवयुवकों मे छुरी चल जायगी।

विठ्ठल-तो फिर आप ही कोई उपाय बताइये।

बलभद्र-मेरी सम्पत्ति तो यह है कि आप इस तामझाम में न पड़े। जिस स्त्री को लोकनिंदा की लाज नही, उसे कोई शक्ति नही सुधार सकती। यह नियम है कि जब हमारा कोई अगं विकृत होता है तो उसे काट डालते हैं, जिससे उसका विष समस्त शरीर को नष्ट न कर डाले। समाज में भी उसी नियम का पालना करना चाहिए। मैं देखता हूँ कि आप मुझसे सहमत नहीं है, लेकिन मेरा जो कछ विचार था वह मैने स्पष्ट कह दिया। आश्रम की प्रबन्धकारिणी सभा का एक मेम्बर में भी तो हूँ? मैं किसी तरह इस बेश्या को आश्रम में रखने की सलाह न दूँगा।

बिट्ठलदास ने रोष से कहा सारांश यह कि इस काम में आप मुझे कोई सहायता नही दे सकते? अब आप जैसे महापुरुषो का यह हाल है। तो दूसरो से क्या आशा हो सकती है। मैंने आपका बहुत समय नष्ट किया, इसके लिये मुझे क्षमा कीजियेगा।

यह कहकर बिट्ठलदास उठ खड़े हुए ओर सेठ चिम्मनलाल की सेवा में पहुँचे। यह सॉवले रगं के बेडौल मनुष्य थे। बहुत ही स्थूल ढीले ढाले, शरीर से हाड़ की जगह माँस और माँस की जगह वायु भरी हुई थी। उनके विचार भी शरीर के समान बेडौल थे। वह ऋषि-धर्म-सभा के सभापति, रामलीला कमेटी चेयरमैन और रासलीला परिषद् के प्रबंधकर्त्ता थे। राजनीति को विषभरा साँप समझते थे और समाचार पत्रो को साँप की बांबी। उच्च अधिकारियो से मिलने की धुन थी। अंग्रजों समाज से उनका [ ८७ ] विशेष मान था। वहाँ उनके सदगुणों की बडी प्रशंसा होती थी। वह उदार न थे, न कृपण। इस विषय में चन्दे की नामवलि उनका मार्ग निश्चय किया करती थी। उनमें एक बड़ा गुण था जो उनकी दुर्बलताओं को छिपाये रहता था। यह उनकी विनोदशीलता थी।

विट्ठलदास का प्रस्ताव सुनकर बोले, महाशय, आप भी बिलकुल शुष्क मनुष्य है। आप में जरा भी रस नहीं। मुद्दत के बाद तो दालमंडी में एक चीज नजर आई, आप उसे भी गायब करनेपर तुले हुए है। कम से कम अबकी रासलीला तो हो जाने दीजिये। राजगद्दी के दिन उसका जल्सा होगा, धूम मच जायगी। आखिर तुर्किन आकर मन्दिर को भ्रष्ट करती है, ब्राह्मणी रहे तो क्या बुरा है, खैर, यह तो दिल्लगी हुई क्षमा कीजियेगा। आपको धन्यवाद है कि ऐसे-ऐसे शुभ कार्य आपके हाथो पूरे होते है। कहाँ है चन्दे की फिहरिस्त?

विट्ठलदास ने सिर खुजलाते हुए कहा, अभी तो मैं केवल सेठ बलभद्र दासजी के पास गया था, लेकिन आप जानते ही है, वह एक बैठकबाज हैं, इधर-उधर की बात करके टाल दिया।

अगर बलभद्रदास ने एक लिखा होता तो यहाँ दो में संदेह न था, दो लिखते तो चार का निश्चित था। जब गुण कही शून्य हो तो गुणनफल शून्य के सिवा और क्या हो सकता था, लेकिन बहाना क्या करते। एक आश्रय मिल गया। बोले महाशय मुझे आपसे पूरी सहानुभूति है। लेकिन बलभद्रदास ने कुछ समझकर ही टाला होगा। जब मैं भी दूर तक सोचता हूँ तो इस प्रस्ताव में कुछ राजनीति का रंग दिखाई देता है, इसमें जरा भो सन्देह नहीं। आप चाहे इसे उस दृष्टि से न देखते हों लेकिन मुझे तो इसमें गुप्त राजनीति भरी हुई साफ नजर आती है। मुसलमानों को यह बात अवश्य बुरी मालूम होगी, वह जाकर अधिकारियों से इसकी शिकायत करेंगें। अधिकारियों को आप जानते ही है, आँख नहीं, केवल कान होते हैं। उन्हें तुरन्त किसी षड्यन्त्र का सन्देह हो जायगा। [ ८८ ] विट्ठलदास ने झुँझलाकर कहा, साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि मैं कुछ नहीं देना चाहता?

चिम्मनलाल-आप ऐसा ही समझ लीजिये। मैंने सारी जाति का कोई ठेका थोड़े ही लिया है?

विट्ठलदास का मनोरथ यहाँ भी पूरा न हुआ, लेकिन यह उनके लिये कुछ नई बात न थी। ऐसे निराशाजनक अनुभव उन्हें नित्य ही हुआ करते थे। वह डाक्टर श्यामाचरण के पास पहुँचे। डाक्टर महोदय बड़े समझदार और विद्वान पुरुष थे। शहर के प्रधान राजनीतिक नेता थे। उनकी वकालत खूब चमकी हुई थी। बहुत तौल-तौल कर मुँह से शब्द निकालते थे। उनकी मौन गंभीरता विचारशीलता का द्योतक समझी जाती थी। शान्ति के भक्त थे, इसलिये उनके विरोध से न किसी को हानि थी, न उनके योग से किसी को लाभ। सभी तरह के लोगो को वे अपना मित्र समझते थे, वह अपनी कमिश्नरी की ओर से सूबे के सलाहकारी सभा के सभासद् थे। विट्ठलदास जी की बात सुनकर बोले मेरे योग्य से जो सेवा होगा वह मैं करने को तैयार हूँ। लेकिन उद्योग यह होना चाहिये कि उन कुप्रथाओ का सुधार किया जाये जिनके कारण ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती है। इस समय आप एक की रक्षा कर ही लेंगे तो इससे क्या होगा? यहाँ तो नित्य ही ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती है। मूल कारणों का सुधार होना चाहिये। आपकी इजाजत हो तो मैं कुछ प्रश्न पूछ सकता हूँ?

विट्ठलदास उछलकर बोल, जी हाँ, यह तो बहुत ही उत्तम होगा? डाक्टर साहब ने तुरन्त प्रश्नों की एक माला तैयार की--

(१) क्या गवर्नमेंट बता सकती है कि गत वर्ष वेश्याओं की संख्या कितनी थी?

(२) क्या गवर्नमेंट ने इस बात का पता लगाया है कि इस वृद्धि के कारण क्या है और सरकार उसे रोकने के लिये क्या उपाय करना चाहती है?

(३) ये कारण कहाँ तक मनोविकारों से संबंध रखते है, कहाँ तक आर्थिक स्थिति और कहाँ तक सामाजिक कुप्रथाओं से? [ ८९ ]इसके बाद डॉक्टर साहब अपने मुवक्किलो से बाते करने लगे; विट्ठलदास आध घंटे तक बैठे रहे, अन्त में अधीर होकर बोले, तो मुझे क्या आज्ञा होती है?

श्यामाचरण-आप इतमीनान रक्खे, अबकी कौसिलकी बैठक मे मैं गवर्नमेंट का ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित करूँगा।

विट्ठलदास के जी में आया कि डाक्टर साहब को आडे हाथो लूँ, किन्तु कुछ सोचकर चुप रह गये। फिर किसी बड़े आदमी के पास जाने का सहस न हुआ। लेकिन उस कर्मवीर ने उधोग से मुँह नहीं मोडा़। नित्य किसी सज्जन के पास जाते और उससे सहायता की याचना करते। यह उधोग सर्वथा निष्फल तो नहीं हुआ। उन्हे कई सौ रुपये के वचन और कई सौ रुपये नकद मिल गये, लेकिन ३०) मासिक की जो कमी थी वह इतने धन से क्या पूरी होती? तीन महीने की दौड़-धूप के बाद वह बडे़ मुश्किल से १०) मासिक का प्रबंध करने मे सफल हो सके।

अन्त मे जब उन्हें अधिक सहायता की कोई आशा न रही तो वह एक दिन प्रातःकाल सुमनवाई के पास गये। वह इन्हे देखते ही कुछ अनमनी-सी होकर बोली, कहिये महाशय, कैसे कृपा की?

विट्ठल--तुम्हे अपना वचन याद है?

सुमन--इतने दिनो की बाते अगर मुझे भूल जायें तो मेरा दोष नहीं।

विट्ठल--मैने तो बहुत चाहा कि शीघ्र ही प्रबन्ध हो जाय, लेकिन ऐसी जाति से पाला पडा़ है। जिसमें जातियता का सर्वथा लोप हो गया है। तिसपर भी मेरा उधोग बिलकुल व्यर्थ नहीं हुआ। मैने ३०) मासिकका प्रबन्ध कर लिया है और आशा है कि और जो कसर है वह भी पूरी हो जायगी। अब तुम से मेरी यह प्रार्थना है कि इसे स्वीकार करो और आज ही नरककुण्ड को छोड़ो दो।

सुमन-- शर्माजी को आप नहीं ला सके क्या?