सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[  ] पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते है, लेकिन और लोग बुराइयों पर पछताते है, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पचीस वर्ष हो गए; लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने न दिया था। यौवनकाल में भी, जब चित्त भोग-विलास के लिए व्याकुल रहता है उन्होंने नि.स्पृहभाव से अपना कर्तव्य-पालन किया था। लेकिन इतने दिनों के बाद आज वह अपनी सरलता और विवेक पर हाथ मल रहे थे। उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी स्त्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह भी चिन्ता में डूबी हुई थी। उसे स्वयं सन्देह हो रहा था कि वह जीवन भर की सच्चरित्रता बिलकुल व्यर्थ तो नही हो गई?

दारोगा कृष्णचन्द्र रसिक, उदार और बड़े सज्जन मनुष्य थे। मातहतों के साथ वह भाई चारे का सा व्यवहार करते थे; किन्तु मातहतों की दृष्टि से उनके इस व्यवहार का कुछ मूल्य न था। वह कहा करते थे कि यहां हमारा पेट नही भरता, हम इनकी भलमनसी को लेकर क्या करें—चाटे? हमें घुड़की,डाँट डपट,सख्ती सब स्वीकार है, केवल हमारा पेट भरना चाहिए। रूखी रोटिया चाँदी के थाल में परोसी जायँ तो भी पूरियां न हो जायेंगी।

दारोगा जी के अफसर भी उनसे प्राय: प्रसन्न न रहते। वह दूसरे थाने में जाते तो उनका बडा आदर-सत्कार होता था, उनके अहलमद, मुहर्रिर और अरदली खूब दावत उड़ाते। अहलमद को नजराना मिलता, अरदली इनाम पाता और अफसरों को नित्य डालिया मिलती पर कृष्णचन्द्र के यहां यह आदर सत्कार कहां? वह न दावत करते [  ] थे, न डालिया ही लगाते थे। जो किसी से लेता नही, वह किसी को देगा कहा से? दारोगा कृष्णचन्द्र की इस शुष्कता को लोग अभिमान समझते थे।

लेकिन इतने निर्लोभ होने पर भो दारोगा जी के स्वभाव में किफायत का नाम न था। वह स्वय तो शौकीन न थे लेकिन अपने घरवालो को आराम देना अपना कर्तव्य समझते थे। उनके सिवा घर में तीन प्रणी और थे, स्त्री और दो लड़कियाँ। दारोगा जी इन लडकियो को प्राण से भी अधिक प्यार करते थे। उनके लिए अच्छे-से-अच्छे कपड़े लाते और शहर से नित्य तरह-तरह की चीजे मँगाया करते। बाजार में कोई तरहदार कपड़ा देख कर उनका जी नही मानता था, लडकियों के लिए अवश्य ले आते थे। घर में सामान जमा करने की उन्हें धुन थी। सारा मकान कुर्सियो, मेजो और आल्मारियो से भरा हुआ था। नगीने के कलमदान, झासी के कालीन, आगरे की दरियां बाजार में नजर आ जाती तो उन पर लट्टू हो जाते। कोई लूट के धन पर भी इस भांति न टूटता होगा। लडकियों को पढ़ाने और सीना-पिरोना सिखाने के लिए उन्होने एक ईसाई लेडी रख ली थी। कभी-कभी स्वय उनकी परीक्षा लिया करते थे।

गंगाजली चतुर स्त्री थी। उन्हें समझाया करती कि जरा हाथ रोक कर खर्च करो। जीवन में यदि और कुछ नही करना है तो लड़कियो का विवाह तो करना ही पड़ेगा। उस समय किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे? अभी तो उन्हे मखमली जूतिया पहनाते हो, कुछ इसकी भी चिन्ता है कि आगे क्या होगा? दरोगा जी इन बातों को हंसी में उडा देते, कहते, जैसे और सब काम चलते हैं वैसे ही यह काम भी हो जायगा। कभी झुंझला कर कहते, ऐसी बात कर के मेरे ऊपर चिन्ता का बोझ मत डालो। इस प्रकार दिन बीतते चले जाते थे। दोनो लड़कियाँ कमल के समान खिलती जाती थी। बडी लड़की सुमन सुन्दर, चञ्चल और अभिमानिनी थी। छोटी लडकी शान्ता भोली, गम्भीर, [  ] सुशील थी। सुमन दूसरो से बढ़ कर रहना चाहती थी। यदि बाजार से दोनों बहनों के लिए एक ही प्रकार की साड़ियां आती तो सुमन मुंह फुला लेती थी। शान्ता को जो कुछ मिल जाता उसीमें प्रसन्न रहती।

गंगाजली पुराने विचार के अनुसार लड़कियों के ऋण से शीघ्र ही मुक्त होना चाहती थी। पर दारोगा जी कहते, यह अभी विवाह योग्य नही है। शास्त्रो मे लिखा है कि कन्या का विवाह सोलह वर्ष की आयु से पहले करना पाप है। वह इस प्रकार मन को समझाकर टालते रहते थे। समाचार पत्रों में जब वह दहेज के विरोध में बड़े बड़े लेख पढ़ते तो बहुत प्रसन्न होते। गंगाजली से कहते कि अब एक ही दो साल में यह कुरीति मिटी जाती है। चिन्ता करने की कोई जरुरत नही। यहा तक कि इसी तरह सुमन को सोलहवां वर्ष लग गया।

अब कृष्णचन्द्र अपने को अधिक धोखा न दे सके। उनकी पूर्व निश्चिन्तता वैसी न थी जो अपनी सामर्थ्य के ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसका मूल कारण उनकी अकर्मण्यता थी। उस पथिक की भाति जो दिन भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के बाद सन्ध्या को उठे और सामने एक ऊँचा पहाड़ देख कर हिम्मत हार बैठे, दारोगा जी भी घबरा गये। वर की खोजमें दौडने लगे, कई जगहों से टिप्पणियाँ मँगवाई। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरो मे लेन देन की चर्चा न होगी, पर उन्हे यह देख कर बडा आश्चर्य हुआ कि वरो का मोल उनकी शिक्षा के अनुसार है। राशि वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेनदेन की बातें होने लगती तब कृष्णचन्द्र की आंखो के सामने अँधेरा छा जाता था। कोई चार हजार सुनाता, कोई पांच हजार और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते। आज छ: महीने से दरोगा जो इसी चिन्ता में पड़े हैं। बुद्धि काम नही करती। इसमे सन्देह नही कि शिक्षित सज्जनो को उनसे सहानुभूति थी; पर वह एक-न-एक ऐसी पख निकाल देते थे कि दारोगा जी को निरुत्तर हो जाना पड़ता। एक सज्जन ने कहा, महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी [  ] दुश्मन हूँ, लेकिन करूँ क्या, अभी पिछले साल लडकी का विवाह किया, दो हजार रुपये केवल दहेज में देने पड़े, दो हजार और खाने-पीने में खर्च पड़े, आप ही कहिये, यह कमी कैसे पूरी हो?

दूसरे महाशय इनसे अधिक नीतिकुशल थे। बोले, दारोगा जी, मैने लडके को पाला है, सहस्त्रो रुपये उसकी पढ़ाई मे खर्च किये है। आपकी लड़की को इससे उतना ही लाभ होगा जितना मेरे लड़के को। तो आप ही न्याय कीजिये कि यह सारा भार मैं अकेले कैसे उठा सकता हूँँ?

कृष्णचन्द्र को अपनी ईमानदारी और सचाई पर पश्चात्ताप होने लगा। अपनी निःस्पृहता पर उन्हें जो घमण्ड था वह टूट गया। वह सोच रहे थे कि यदि मैं पाप से न डरता तो आज मुझे यो ठोकरे न खानी पड़ती। इस समय दोनों स्त्री-पुरुष चिन्ता में डूबे बैठे थे, बड़ी देर के बाद कृष्णचन्द्र बोले, देख लिया, संसार में सन्मार्ग पर चलने का यह फल होता है। यदि आज मैंने लोगो को लूट कर अपना घर भर लिया होता तो लोग मुझसे सम्बन्ध करना अपना सौभाग्य समझते; नही तो कोई सीधे मुंह बात नही करता है। परमात्मा के दरबार में यह न्याय होता है। अब दो ही उपाय है, या तो सुमन को किसी कगाल के पल्ले वाधू दू या कोई सोने की चिड़िया फँसाऊँ। पहली बात तो होने से रही; बस अब सोने की चिड़िया की खोज में निकलता हूँँ। धर्म का मजा चख लिया, सुनीति का हाल भी देख चुका। अब लोगो के के खूब गले दबाऊँगा, खूब रिश्वतें लूगा, यही अन्तिम उपाय है। संसार यही चाहता है, और कदाचित ईश्वर भी यही चाहता है, यही सही। आज से मैं भी वही करूँगा जो सब लोग करते हैं।


गंगाजली सिर झुकाये अपने पति की ये बाते सुन कर दुःखित हो रही थी। वह चुप थी, आंखों में आँँसू भरे हुए थे।