साहित्य सीकर/७—अँगरेजों का साहित्य-प्रेम

प्रयाग: तरुण भारत ग्रंथावली, पृष्ठ ६२ से – ६५ तक

 

 

 

७—अंगरेजों का साहित्य-प्रेम

हमारे हिन्दी साहित्य की दशा बहुत गिरी हुई है। इसका कारण यह है कि हमारे यहाँ के लेखकों, प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं को यथेष्ट धन प्राप्ति नहीं होती। सर्वसाधारण लोगों में पुस्तक खरीदने और पढ़ने का उत्साह और शौक नहीं के बराबर है। खोटे-खरे की पहचान करने वाले समालोचकों का भी अभाव है। पहले तो अच्छा पुस्तकें लिखी ही नहीं जाती; यदि कोई लिखी भी गई तो लेखक को उसकी मिहनत का भरपूर बदला नहीं मिलता; यहाँ तक कि बेचारे प्रकाशक को अपनी लागत तक वसूल करना मुशकिल हो जाता। पर इँगलैंड की दशा यहाँ की ठीक उलटी है। वहाँ के लेखको, प्रकाशकों और पुस्तक-विक्रेताओं की हमेशा पाँचों घी में रहती हैं। सर्वसाधारण में पुस्तकें खरीदने और पढ़ने का शौक इतना बढ़ा-चढ़ा है कि सिर्फ एक ही दिन में किसी-किसी पुस्तक की हज़ारों कापियाँ बिक जाती हैं। छोटे-छोटे लेखकों तक को इतनी काफी आमदनी हो जाती है कि उन्हें दूसरा रोज़गार नहीं करना पड़ता। अच्छे लेखकों की तो बात ही जुदा है। वे तो थोड़े ही दिनो में अच्छे खासे मालदार हो जाते हैं। अँगरेजी साहित्य के उन्नत दशा में होने का यही मुख्य कारण है। एक साहब ने अँगरेजी साहित्य के आर्थिक पक्ष को लेकर लेख लिखा है। उसमें से मुख्य-मुख्य दो चार बातें हम यहाँ पर लिखते हैं।

इँगलैंड के समालोचकों का यह स्वभाव सा हो गया है कि वे नये ग्रन्थकारों की पुस्तकों की बड़ी कड़ी समालोचनायें करते हैं और पुराने तथा प्रसिद्ध लेखकों को प्रसन्न रखने की चेष्टा किया करते हैं। अँगरेज बड़े ही साहित्य प्रेमी हैं। इसका प्रमाण यह है कि नई पुस्तकें खूब मँहगी होने पर भी बहुत बिकती हैं। और एक-एक पुरानी पुस्तक के सैकड़ों सस्ते से सस्ते संस्करण छपते हैं। जो चीज़ अँगरेजों को पसन्द आ गई उसके लिये खर्च करने में वे बड़ी दरिया दिली दिखलाते हैं। वे आश्चर्यजनक मनोरञ्जक और शिक्षाप्रद बातें बहुत पसन्द करते हैं। इसी से वे खेल-तमाशा, शिकार, अगम्य देशों की यात्रा और जीनचरित्र सम्बन्धी पुस्तकों के बड़े शौकीन हैं।

इँगलेंड में ऐसे बहुत से पुस्तकालय हैं जो नियत चन्दा देने पर अपने मेम्बरों को पुस्तकें पढ़ने को देते हैं। कैसी मँहगी कोई पुस्तक क्यों न हो, ये उसकी हजारों कापियाँ लेने का ठेका, छप जाने से पहले ही लेते हैं। इससे पुस्तकें खूब मँहगी हो जाती हैं। अकेले 'टाइम्स' के पुस्तकालय के ८०,००० चन्दा देने वाले मेम्बर हैं। इँगलैंड के वर्तमान प्रसिद्ध उपन्यास लेखकों में से किसी का उपन्यास ज्यों ही छपा त्यों ही अपने मेम्बरों के लिए बारह हज़ार कापियाँ वा तुरन्त ले लेता है। हमारे पाठकों को मालूम है कि महारानी विक्टोरिया के पत्र हाल ही में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं। यह हद ज्यादा महँगी पुस्तक है। तिस पर भी उक्त पुस्तकालय ने अकेले ही इस पुस्तक की ४५,००० रुपये की कीमत की जिल्दें खरीद ली हैं।

पर जैसे नई पुस्तकें अधिक से अधिक मँहगी होती है वैसे ही पुरानी पुस्तकों के सस्ते से सस्ते संस्करण सैकड़ों की तादाद में, निकलते चले आते हैं। अँगरेज लेखकों और प्रकाशकों ने अपने तजरुबे से यह नतीजा निकाला है कि सस्ती पुस्तकों से लोगों को पढ़ने का चसका जहाँ पर एक बार लग गया तहाँ वे नई पुस्तकें, मँहगी होने पर भी खरीदने को मजबूर होते हैं।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि सारे साहित्य व्यापार की जड़ लेखक ही है। उन्हीं की कदर या नाकदरी पर साहित्य की उन्नति या अवनति का दारोमदार है। यह कहा जा चुका है कि इँगलैड के लेखक खूब रुपया पैदा करते हैं—इसके कुछ उदाहरण भी सुन लीजिये। यहाँ "स्ट्रेड" और "ब्लेकउड" नामक दो प्रसिद्ध मासिक हैं। वे अपने लेखकों को ४५ से ७५ रुपये तक प्रति हजार शब्दो के देते हैं। मामूली मासिक पत्र भी कम से कम अपने लेखकों को बत्तीस रुपये प्रति हज़ार शब्दों के देते हैं। अधिक से अधिक की बात ही न पूछिए। उपन्यासकारों को प्रति शब्द के हिसाब से उजरत दी जाती है। जब १८९४ में स्टेविन्सन नामक उपन्यास लेखक मरा तब हिसाब लगाने से मालूम हुआ कि अपने जीवन भर में जितने शब्द उसने लिखे, छः आने प्रति शब्द के हिसाब से उसको उजरत मिली। पर आजकल यह दर कुछ बहुत नहीं समझी जाती। 'पियर्सन्स मैगजीन' के प्रकाशक ने एक किस्से के लिए उसके लेखक केपलिंग साहब को बारह आने प्रति शब्द दिये थे। सर आर्थर केनन डायल जासूसी किस्से लिखने में बड़े सिद्धहस्त हैं। उन्होंने उक्त मासिक पत्र में जो आख्यायिकायें लिखी हैं उनमें से प्रत्येक आख्यायिका का पुरस्कार उनको ११, २५० रुपये मिले हैं। अर्थात् प्रतिशब्द सवा दो रुपये, या प्रति पंक्ति साढ़े बाईस रुपये!!! वेल्स नामक एक साहब अपने लेखों के लिये प्रति एक हजार शब्दों के ४५५ रुपये पाते हैं। हम्फ्री वार्ड नाम की एक मेम साहबा को अमेरिका की मासिक पुस्तकें उनके उपन्यासों की लिखाई एक लाख शब्दों के डेढ़ लाख रुपये देती हैं!!!

मतलब यह कि इस समय इँगलैंड के ग्रन्थकारों की दशा बहुत अच्छी है। ईश्वर करे भारत के ग्रन्थकारों को भी ऐसे सुदिन देखने का सौभाग्य प्राप्त हो!

[ सितम्बर, १९०८