साहित्य सीकर/५—पुराने अँगरेज अधिकारियों के संस्कृत पढ़ने का फल
प्रवीण थे। पर धर्मशास्त्र और दर्शन में उनकी विशेष गति न थी। इसलिए व्याकरण और काव्य का यथेष्ट अभ्यास कर चुकने पर, जब सर बिलियम ने धर्मशास्त्र का अध्ययन शुरू किया तब उन्हें एक और पंडित रखना पड़ा। यवनों को संस्कृत सिखाना पहले घोर पाप समझा जाता था, पर अब इस तरह का ख्याल कुछ ढीला पड़ गया। इससे सर विलियम को धर्मशास्त्री पंडित ढूँढ़ने में विशेष कष्ट नहीं उठाना पड़ा।
सर विलियम जोन्स, १७८३ ईसवी में, जज होकर कलकत्ते आये और १७९४ में वहीं मरे। हिन्दुस्तान आने के पहले आक्सफर्ड में उन्होंने फारसी और अरबी सीखी थी। उनका बनाया हुआ फारसी का व्याकरण उत्तम ग्रन्थ है। वह अब नहीं मिलता। बङ्गाल की एशियाटिक सोसायटी उन्हीं की कायम की हुई है। उसे चाहिये कि इस व्याकरण को वह फिर से प्रकाशित करे, जिसमें सादी और हाफिज की मनोमोहक भाषा सीखने की जिन्हें इच्छा हो वे उससे फायदा उठा सकें। हिन्दुस्तान की सिविल सर्विस के मेम्बरों के लिए वह बहुत उपयोगी होगा।
[जून, १९०८
इँगलिस्तान के व्यापारी तो बहुत पहले से भारत में व्यापार करते थे; पर उन सब का काम अलग अलग होता था, एक में न होता था। इससे काम काज में सुभीता कम था और मुनाफा भी कम होता था। इस त्रुटि को दूर करने के लिये १२५ आदमियों ने मिलकर, साढ़े दस लाख रुपये की पूँजी से, एक कम्पनी बनाई। इँगलैंड की रानी एलिजावेथ ने ३१ दिसम्बर, १६०० को इस कम्पनी की दस्तावेज़ पर दस्तखत करके इङ्गलेंड और भारत के बीच व्यापार करने की आज्ञा दी। ईस्ट इंडिया कम्पनी की जड़ यहीं से जमी, अथवा यों कहिये कि अंगरेजी राज्य का सूत्रपात यहीं से जमी, अथवा यों कहिये कि अंगरेजी राज्य का सूत्रपात यहीं से हुआ। इसी १२५ व्यापारियों की कम्पनी ने, कुछ दिनों में, राजसी ठाट जमा लिया और अपने देश इंगलिस्तान की अपेक्षा जिस देश की आबादी दस गुनी अधिक है उस पर व्यापार करते-करते राजसत्ता भी चलने लगी। इस कम्पनी के साझीदार अपने देश में तो अपने बादशह की रियाया थे; पर भारत में खुद ही बादशाह बनकर हुकूमत करते थे; फौजें रखते थे, बड़े-बड़े राजों, महाराजों और शाहंशाहों की बराबरी करते थे; लड़ाइयाँ लड़ते थे; सन्धि-स्थापना करते थे और भी न मालूम कितने सत्तासूचक काम करते थे। ऐसा दृश्य इस भूमण्डल में बहुत कम देखा गया होगा। यह हमारा निज का कथन नहीं, किन्तु लन्दन की टी॰ फिशर अनविन कम्पनी के लिए ए॰ रगोजिन साहब ने जो भारतवर्ष का एक प्राचीन इतिहास लिखा है उसके एक अंश का अवतरण मात्र है।
भारत में व्यापार करने वाले योरप के गोरे व्यापारियों की यह पहली ही कम्पनी न थी। पोर्चुग़ीज लोग यहाँ बहुत पहले से—जब से वास्कोडिगामा ने १४९८ ईसवी में इस देश की भूमि पर कदम रक्खा—व्यापार में लगे थे। विदेशी व्यापारियों में ये अकेले ही थे और खूब माल-माल हो रहे थे। अँगरेज ब्यापारियों ने देखा कि ये लोग करोड़ों रुपये अपने देश ढोये लिये जा रहे हैं; चलो हम भी इन्हीं की तरह भारत में व्यापार करें और जो मुनाफा इन लोगों को हो रहा है उसका कुछ अंश हम भी लें। पोर्चुगीजों का व्यापार कोई सौ वर्ष तक बिना किसी विघ्न बाधा के भारत में जारी रहा। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि वे लोग एक प्रान्त के बाद दूसरे प्रान्त को अपनी जमींदारी में शामिल करके पूरे मुल्क को अपने कब्जे में कर लेने का इरादा रखते थे! वे लोग अपने इस इरादे को कार्य में परिणत कर रहे थे कि ईस्ट-इंडिया-कम्पनी ने भारत में पदार्पण किया। अँगरेज व्यापारी पोर्चुगीज लोगों से किसी बात में कम न थे। उन्होंने बड़ी दृढ़ता से पोर्चुगीजों का सामना किया। उनके साथ चढ़ा-ऊपरी करने में अँगरेजों ने बड़ी सरगमी दिखाई। फल यह हुआ कि पोर्चुगीज लोगों का प्रभुत्व धीरे-धीरे कम हो चला। उनकी आमदनी के द्वार क्रम क्रम से बन्द होने लगे! यहाँ तक कि १६६१ ईसवी में उन लोगों ने अपनी बची-बचाई एकमात्र जमींदारी इंगलिस्तान के राजा को दे डाली। उस समय केवल बम्बई और उसके आस पास का भूभाग उन लोगों के कब्जे में था। पूर्वोक्त सन् में पोर्चुगल की राजकुमारी कैथराइन का विवाह इंगलैंड के राजा दूसरे चार्ल्स के साथ हुआ। तब बम्बई की जमींदारी को अपने काम की न समझकर पोर्चुगल के राजा ने कैथराइन के दहेज में दे डाला। परन्तु अँगरेज राज ने इस दहेज को तुच्छ समझकर १५० रुपये सालाना मालगुजारी देने का इकरार नामा लेकर, ईस्ट-इंडिया-कम्पनी को दे डाला। बम्बई और उसके आस-पास के प्रदेश की कीमत उस समय साढ़े बारह रुपये महीने से अधिक नहीं समझी गई!!!
व्यापार व्यवसाय और जमींदारी आदि बढ़ाने में पोर्चुगीज लोंगों की प्रतियोगिता यद्यपि जाती रही तथा अँगरेजों को भारत में सत्ता-विस्तार करते देख यौरप के और लोगों के मुँह से भी लार टपकने लगी फ्रांस, डेनमार्क और हालैंड में भी ईस्ट-इंडिया नाम की कम्पनियाँ खड़ी हुईं। उन्होंने भी भारत में व्यापार आरम्भ करके अंगरेज कम्पनी के मुनाफे को घटाना आरम्भ कर दिया। यही नहीं, किन्तु जर्मनी और स्वीडन में भी इस तरह की कम्पनियाँ बनीं। उन्होंने भी भारत में अपनी-अपनी कोठियाँ खोलीं। परन्तु डेनमार्क, जर्मनी और स्वीडन की कम्पनियों से हमारी अंगरेजी, ईस्ट इंडिया कम्पनी का कुछ भी नहीं बिगड़ा। इन तीन कम्पनियों का महत्व इतना कम था कि अंगरेजी कम्पनी के साथ ये नाम लेने योग्य चढ़ा-ऊपरी नहीं कर सकीं। परन्तु डच और फ्रेंच कम्पनियों के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। उनके कारण अंगरेज कम्पनी का मुनाफा और प्रभुत्व जरूर कम हो गया। डच लोग उस समय सामुद्रिक बल में अपना सानी न रखते थे। इससे उन लोगों ने हर तरह से अंगरेजी ईस्ट-इंडिया कम्पनी के साथ चढ़ा ऊपरी आरम्भ कर दी—यहाँ तक कि बल प्रयोग करके भी अपना मतलब निकालने में डच लोगों ने कसर नहीं की। भारत ही में अपना प्रभुत्व-विस्तार करके डच लोग चुप नहीं रहे। उन्होंने बड़ी फुरती से लंका, सुमात्रा, जावा और मलाका आदि द्वीपों का भी अधिकांश अपने कब्जे में कर लिया। इस डच कम्पनी ने अँगरेज-व्यापारियों की कंपनी के साथ जी-जान होकर प्रतियोगिता की। इस कारण दोनों में विषम शत्रु भाव पैदा हो गया। एक दूसरी को नीचा दिखाने की सदा ही कोशिश करती रही। यहाँ तक कि कभी-कभी मारकाट तक की भी नौबत आई। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ झेलने के बाद अँगरेज-व्यापारियों को इन डच व्यापारियों की प्रतियोगिता से फुरसत मिली! कोई सौ वर्ष तक उनके तरह-तरह के दाँव-पेंच खेले गये। अन्त में डच लोगों ने आजिज आकर भारत से अपना सरोकार छोड़ दिया!
अब अकेली फ्रेंच कम्पनी का सामना अँगरेजों को करना पड़ा। इस फ्रेंच कम्पनी का भी आंतरिक अभिप्राय भारत को धीरे-धीरे अपनी मुट्ठी में कर लेने का था। और अँगरेज भी इसी इरादे से पैर फैला रहे थे। एक बिल में दो साँप कैसे रहें? इससे दोनों में घोर कलह उपस्थित हो गया। एक ने दूसरे को अपदस्थ करने की कोशिश आरम्भ कर दी। कूटनीति से काम लिया जाने लगा। जब उससे कामयाबी न हुई तब लड़ाइयाँ तक लड़ी गईं। एक कम्पनी दूसरी के पीछे ही पड़ी रही। होते होते अंगरेजों का प्रभुत्व बढ़ा? उसने फ्रांस वालों के बल को नष्ट-प्राय कर दिया। पांडीचरी, करीकाल और चन्द्रनगर की जमींदारियों को छोड़कर फ्रेंच लोगों का भारत में और कुछ बाकी न रहा। पोर्चुगीजों के कब्जे में भी समुद्र के किनारे-किनारे सिर्फ दस-पाँच मील जमीन रह गई। अंगरेजों ने कहा, "कुछ हर्ज नहीं। इन लोगों के पास इतनी जमींदारी बनी रहने दो! इससे हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता।"
अब अंगरेजों को अपना बल विक्रम और प्रभाव बढ़ाने में रोकने वाला कोई न रहा—फ्रेंच, पोर्चुगीज, डच सब ने उनके लिए रास्ता साफ कर दिया। अङ्गरेजों की महिमा बढ़ने लगी। व्यापार-वृद्धि के साथ साथ राज्य वृद्धि भी होने लगी। एक के बाद दूसरा प्रान्त उनका
वारन हेस्टिंग्ज ईस्ट-इडिया-कम्पनी के पहले गवर्नर-जनरल हुये। उन्होंने सब से पहले भारत-वासियों की रीति, रस्म और स्वभाव आदि का ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश की। उस समय भारतवासी बोझा ढोने वाले पशुओं के समान समझे जाते थे। उनके देश में कदम रखना सिर्फ रुपया कमाने के लिये ही जरूरी समझा जाता था। खैर। वारन हेस्टिंग्ज ने कहा कि जिन लोगों से और जिन लोगों के देश से हमें इतना लाभ है उन पर, जहाँ तक हमें कोई हानि न पहुँचे, अच्छी तरह शासन करना चाहिये। परन्तु सुशासन की योग्यता आने के लिये भारतवासियों के इतिहास, विश्वास, धर्म, साहित्य आदि का ज्ञान होना जरूरी समझा गया। अतएव वारन हेस्टिंग्ज ने अपने अधीन कर्मचारियों का ध्यान इस ओर दिलाया और सर विलियम जोन्स ने पहले पहल संस्कृत सीखना आरम्भ किया।
सर विलियम बंगाल की 'सुप्रीम कोर्ट' के जज थे। उन्होने १७८४ ईसवी में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की और हम लोगों के धर्म-शास्त्र का अध्ययन आरम्भ किया। क्योंकि बिना धर्म-शास्त्र के ज्ञान के भारतवासियों के मुकद्दमों का फैसला करने में अंगरेज जजों को बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ता था और दत्तक आदि लेने का विषय उपस्थित होने पर वारन वेस्टिंग्ज को पण्डितों की शरण लेनी पड़ती थी। सर विलियम जोन्स ने किस तरह संस्कृत सीखी, इस पर एक लेख पहले ही लिखा जा चुका है। इस काम में उन्हें सैकड़ों विघ्न बाधायें हुई। पर सब को पार करके सर विलियम ने मतलब भर के लिये संस्कृत का ज्ञान प्राप्त ही कर लिया। अरबी और फारसी तो वे इँगलैंड ही से पढ़कर आये थे। संस्कृत उन्होंने यहाँ पढ़ी। पूर्वी देशों की भाषाओं में से यही तीन भाषाएँ, साहित्य के नाते, उच्च और बड़े काम की समझी जाती हैं। सर विलियम ने पहले मनुस्मृति का अनुवाद किया। यह अनुवाद १७९० ईसवी में छपा। इससे बड़ा काम निकला। अंगरेज जजों को भारतीय पण्डितों की जो पद-पद पर सहायता दरकार होती थी उसकी जरूरत बहुत कम रह गई। भारतवासियों को अपने धर्मशास्त्र के अनुसार न्याय कराने में तब सुभीता हो गया।
इसके बाद संस्कृत नाटकों का नाम सुनकर सर विलियम जोन्स ने नाटकों का पता लगाना आरम्भ किया और शकुन्तला नाटक को पढ़कर उसका अनुवाद अंगरेजी में किया। इस नाटक ने योरप के विद्यारसिक जनों की आँखें खोल दीं। तब तक योरप वाले भारतवासियों को, जैसा ऊपर कहा जा चुका है निरे जंगली समझते थे। उनका ख्याल था कि भारत में कुछ भी साहित्य नहीं है और जो कुछ है भी वह किसी काम का नहीं। तब तक योरप वालों की दृष्टि में भारतवासी अत्यन्त ही घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे। घृणा की दृष्टि से तो वे अब भी देखे जाते हैं, पर अब और तब में बहुत अन्तर है। तब हम लोगों की गिनती कुछ-कुछ अफ्रीका की हाटेनटाट, पुशम्यन और जूलू आदि महा असभ्य जातियों में थी और भारत की कुछ कदर यदि की जाती थी तो सिर्फ इसलिए कि उसकी बदौलत करोड़ों रुपये विलायत ले जाने को मिलते थे। पर शकुन्तला को पढ़कर उन लोगों का यह भाव एकदम तिरोहित हो गया। शकुन्तला की कविता, उसके पात्रों का चरित्र, उसकी भाव प्रवणता आदि देखकर वे लोग मुग्ध हो गये। शकुन्तला के अंगरेजी अनुवाद के भी अनुवाद जर्मन और फ्रेंच आदि अनेक भाषाओं में हो गये, जिन्हें पढ़कर तत्तद्देशवासियों ने भी उसकी श्रेष्ठता एक स्वर से कबूल की।
शकुन्तला वह चीज है जिसकी कृपा से भारतवासी हैवान से इंसान समझे जाने लगे—पशु से मनुष्य माने जाने लगे। अतएव भगवान् कालिदास के हम लोग हृदय से ऋणी हैं। शकुन्तला से योरप वालों को मालूम हो गया कि नाट्यविद्या में हिन्दू-सन्तान उन लोगों से यदि बढ़ी हुई नहीं है तो कम भी किसी तरह नहीं। वे यह भी जान गये कि जिस ग्रीक-भाषा के साहित्य की श्रेष्ठता के वे लोग इतने कायल हैं, संस्कृत का साहित्य उससे भी किसी-किसी अंश में, आगे बढ़ा हुआ है। प्राचीनता में तो संस्कृत-साहित्य की बराबरी किसी भी भाषा का साहित्य नहीं कर सकता।
शकुन्तला रचना-कौशल को देखकर योरपवालों को जितना कौतूहल हुआ उसके कथानक का विचार करके उससे भी अधिक आश्चर्य हुआ। उसके कथानक का सादृश्य उन्हें एक ग्रीक कहानी में मिल गया। और जब उन लोगों ने विक्रमोर्वशी देखी तब उनके कथानक की भी सदृशता उन्हें ग्रीक-भाषा की एक कहानी में मिली। इस पर उन लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही। वे सोचने लगे कि क्या बात है जो इन असभ्य अथवा अर्द्धसभ्य भारतवासियों की बातें उन पूज्यतम ग्रीक लोगों की बातों से मिलती हैं। कहीं दोनों के पुरुषों का किसी समय एकत्र वास तो नहीं रहा? यह तो साधारण आदमियों की बात हुई। भाषा-शास्त्र के जानने वालों को पुरातत्व वेत्ताओं को तथा पुरानी कथा-कहानियों का ज्ञान रखनेवालों को तो विश्वास-सा हो गया कि इस साम्य का जरूर कोई बहुत बड़ा कारण है। शकुन्तला के पाठ और बंगाले की एशियाटिक सोसायटी की स्थापना से सर विलियम जोन्स के सिवा चार्ल्स विलकिन्स और हेनरी टामस कोलबुक आदि और भी कई अंग्रेज विद्वानों को संस्कृताध्ययन की ओर रुचि हुई। नई-नई खोज होने लगी; नई-नई पुस्तकें बनने लगीं। फल यह हुआ कि इन गौरांग पण्डितों को संस्कृत के सैकड़ों शब्द ग्रीक आदि योरप की प्राचीन भाषाओं से प्रायः तद्वत् अथवा कुछ फेरफार के साथ मिल गये। इससे इन लोगों के आश्चर्य, कौतूहल और एक प्रकार के आतङ्क का ठिकाना न रहा। अरे इन बहशी हिन्दुस्तानियों की प्राचीन भाषा क्या किसी समय हमारे भी पूर्व-पुरुषों की भाषा थी। बस फिर क्या था योरप के कितने ही पण्डित काव्य, नाटक, इतिहास, धर्म्मशास्त्र आदि का अध्ययन जी लगाकर करने लगे। जर्मनी के वान शेलीजल और वान हम्बौल आदि प्रकाण्ड पण्डितों ने बड़ी ही सरगरमी से संस्कृत सीखना शुरू किया। जब इन लोगों को वेद पढ़ने और समझने की शक्ति हो गई तब इन्होंने अपना अधिक समय वैदिक ग्रन्थों ही के परिशीलन में लगाना आरम्भ किया। इससे उनकी आँखें खुल गईं। संस्कृत-शिक्षा का प्रचार इंगलिस्तान और जर्मनी के सिवा फ्रांस, हालैंड, अमेरिका और रूस तक में होने लगा। वैदिक ग्रन्यों को इन विद्वानों ने एक स्वर से दुनिया के सब ग्रन्थों से पुराना माना और उसके सम्बन्ध में नाना प्रकार की चर्चा आरम्भ हो गई। तब से आज तक योरप में कितने ही विद्वान् ऐसे हो गये हैं और कितने ही होते जा रहे हैं जिनकी कृपा से संस्कृत साहित्य के नये-नये रत्न हम लोगों को प्राप्त हुए हैं और अन्य प्राप्त होते जाते हैं।
अंगरेज अधिकारियों ने संस्कृत सीखने की ओर ध्यान तो अपने स्वार्थसाधन के लिए दिया था—उन्होंने तो इसलिए पहले-पहल संस्कृत सीखने की जरूरत समझी थी। जिसमें हम लोगों की रीति-रस्में आदि जानकर भारत पर बिना बिघ्न-बाधा के शासन कर सकें—पर संस्कृत-साहित्य की श्रेष्ठता ने उन लोगों को भी उसका अध्ययन करने के लिए लाचार किया जिनका शासन से क्या, इस देश से भी, कुछ सम्बन्ध न था। यदि योरपवाले संस्कृत की कदर न करते तो हज़ारों अनमोल ग्रन्थ यहीं कीड़ों की खूराक हो जाते। जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड आदि के पुस्तकालयों में क्यों वे पहुँचते और क्यों प्रतिवर्ष नये नये ग्रन्थों का पता लगाया जाता? आज तक योरप के विद्वानों ने जो अनेकानेक अलभ्य ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं, अनेकानेक वैदिक रहस्यों का उद्घाटन किया है, हमारे और अपने पूर्वजों के किसी समय एकत्र एक ही जगह रहने और एक भाषा बोलने के विषय में जो प्रमाणपूर्ण अनेकानेक पुस्तकें लिखी हैं उसके लिए भारतवासी उनके बहुत कृतज्ञ हैं। यदि हमारी देववाणी संस्कृत की महिमा से आकृष्ट होकर योरप के विद्या व्यसनी जन उसका परिशीलन न करते तो भारत में राजा और प्रजा के बीच इस समय जैसा भाव है, शायद वैसा कभी न होता। बहुत सम्भव है, पूर्ववत् हम लोग पशुओं ही की तरह लाठी से हाँके जाते। अतएव हम लोग अँगरेज-कर्मचारी योरप के विद्वान् संस्कृत भाषा और महाकवि कालिदास के बहुत ऋणी हैं। विशेष कर कालिदास ही की बदौलत हमारी सभ्यता और विद्वता का हाल योरप वालों को मालूम हुआ। हमारा धर्म है कि हम कालिदास की पूजा करें और प्रेमपूर्वक संस्कृत सीखें।
[फरवरी, १९०९