साहित्य सीकर/२—प्राकृत भाषा

साहित्य सीकर
महावीर प्रसाद द्विवेदी
२—प्राकृत भाषा

प्रयाग: तरुण भारत ग्रंथावली, पृष्ठ १६ से – २१ तक

 

२—प्राकृत भाषा

प्राकृत का अर्थ स्वाभाविक है। जो सर्वसाधारण जनों की भाषा हो इसी का नाम प्राकृत भाषा है। अथवा जो प्रकृति से उत्पन्न हो—जिसे मनुष्य प्राकृतिक कारणों से आप ही आप बोलने लगा हो—वही प्राकृत है। इस हिसाब से प्रत्येक देश और प्रत्येक काल की सार्वजनिक स्वाभाविक भाषा प्राकृत भाषा कही जा सकती है। परन्तु यहाँ पर हमारा अभिप्राय केवल उस भाषा से है जो कुछ विशेष शताब्दियों तक भारतवर्ष के जन-साधारण की भाषा थी और जो संस्कृत ग्रन्थों में प्राकृत के नाम से प्रख्यात है। यह भाषा इस देश में कब से कब तक प्रचलित रही इसका निश्चय ठीक-ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि किसी भाषा की उत्पत्ति, विकास और लोप की निश्चित तिथि या निश्चित काल बता देना प्रायः असम्भव है। इसलिए इसके विषय में बहुत मतभेद है। कोई इसे बहुत पुरानी बताते हैं, कोई नहीं। किसी-किसी का मत है कि वैदिक काल से भी प्राकृत भाषा किसी न किसी रूप में, विद्यमान थी। वह उस भाषा से पृथक थी जो वेदो में पाई जाती है। परन्तु कुछ विद्वान् इस मत के कायल नहीं। उनकी राय है कि वैदिक समय में जन साधारण की भी वही भाषा थी जो वेदों में पाई जाती है। हाँ, शिक्षितों और अशिक्षितों की भाषा में कुछ न कुछ अन्तर जरूर रहता ही है। वैसा ही अन्तर उस समय भी बोलचाल की और वेदों की भाषा में यदि रहा हो तो रह सकता है।

कुछ समय पूर्व; बँगला-भाषा के प्रसिद्ध लेखक, बाबू विजयचन्द्र मजूमदार ने इस विषय में एक लेख लिखा था। उन्होंने प्राकृत भाषा की उत्पत्ति और लोप के विषय में, कुछ सिद्धान्त स्थिर किये हैं। उनके वे सिद्धान्त प्रमाणों और युक्तियों का आधार लिए हुए हैं और विचार-योग्य हैं। अतएव उनका आशय आगे दिया जाता है।

जो भाषा वैदिक काल में प्रचलित थी उसका नाम देव-भाषा है; क्योंकि उसी भाषा में वैदिक ऋषि देवों का गुणगान करते थे। और जिस भाषा में देव-गुणगान किया जाय वह देव-भाषा कही जाने की जरूर ही अधिकारिणी है। परन्तु बौद्ध-काल में वही भाषा संस्कृत होकर शास्त्रों और पुराणों आदि की भाषा रह गई। उस पुरानी भाषा का संस्कार किया जाने ही से उसका नाम संस्कृत हो गया। उस समय, अर्थात् बौद्ध-काल में, लोक-व्यवहृत भाषा—बोलचाल की भाषा—उससे भिन्न हो गई थी। उस समय की यह भिन्न भाषा संसार में पाली के नाम से विख्यात है। अशोक की प्रायः सभी शिलालिपियाँ इसी भाषा में पाई जाती हैं। उनको देखने से मालूम होता है कि उस समय प्रायः सारे आर्यावर्त में वही भाषा अर्थात् पाली ही प्रचलित थी। सर्व साधारण जन वही भाषा बोलते थे। अशोक के समय में पाली ने बड़ी उन्नति की थी। जैसे हिन्दुओं के शास्त्रों की भाषा संस्कृत थी वैसे ही बौद्धों के ग्रन्थो की भाषा पाली थी। बात यह थी कि सर्व साधारण की समझ में आने के लिए बौद्धधर्म से सम्बन्ध रखनेवाले प्रायः सभी ग्रन्थ पाली ही भाषा में लिखे जाते थे। परन्तु बौद्ध धर्म की अवनति के साथ ही साथ पाली भाषा की भी अवनति होती गई। इधर हिन्दू धर्म का प्रभाव बढ़ने से संस्कृत भाषा का आदर अधिक होने लगा। इस परिवर्तन ने जन-साधारण की भाषा पर बहुत प्रभाव डाला। उनकी भाषा बदलने लगी। थोड़े ही दिनों में उसने एक नवीन रूप धारण किया। उसी का नाम प्राकृत भाषा है। यह घटना बहुत करके ईसा की चौथी शताब्दी में हुई।

बौद्ध-धर्म का ह्रास होने पर जिस नवीन युग का आविर्भाव हुआ उसमें गुप्त वंश के नरेशों के हाथ में इस देश का आधिपत्य आया। उनके समय की भी कितनी ही लिपियाँ पुरातत्ववेत्ताओं ने खोज निकाली हैं। वे शिलाओं और ताम्रपत्रों पर खुदी हुई हैं। उनकी भाषा में संस्कृत और प्राकृत का मिश्रण है। उसके बाद की जितनी शिलालिपियाँ और ताम्रपत्र मिले हैं उन सभी में प्राकृत ही भाषा का आधिक्य है। पर उसके पहले की किसी भी लिपि में प्राकृत का पता नहीं। भानुगुप्त नाम का राजा ५१० ईसवी में विद्यमान था। उसके भानजे ने प्राकृत भाषा में कविता की थी और प्राकृत भाषा के व्यवहार सम्बन्ध में कुछ नियम भी बनाये थे। इससे सूचित होता है कि उस समय के पहले प्राकृत भाषा साहित्य में व्यवहृत होने योग्य न हुई थी।

छठीं शताब्दी के नाटकों और जैन-ग्रन्थों में प्राकृत भाषा विकसित और नियमबद्ध रूप में पाई जाती है। एक दिन में कोई भी भाषा विकास को नहीं प्राप्त हो सकती। पाली भाषा के लोप होने और नवीन प्राकृत के बनने में सैकड़ों वर्ष लगे होंगे। इन कारणों से प्राकृत-भाषा की उत्पत्ति का समय यदि ईसा की चौथी शताब्दी का आरम्भ मान लिया जाय तो असंगति-दोष के लिये बहुत कम जगह रहेगी। छठी शताब्दी के पहले हिन्दुओं के ग्रंथ-समुदाय में कहीं भी प्राकृत भाषा का व्यवहार नहीं देखा जाता। जैन-धर्म के अनुयायी प्रायः सदा ही देशी भाषा का व्यवहार, अपने ग्रंथों में, करते रहे हैं; परन्तु छठीं शताब्दी के पहले का उनका कोई ग्रन्थ ऐसा नहीं मिला जिसमें प्राकृत भाषा का प्रयोग किया गया हो। इससे सूचित है कि छठीं शताब्दी के पहले प्राकृत भाषा साहित्य में व्यवहृत होने योग्य न हुई थी। अतएव जो लोग इस भाषा का इससे अधिक प्राचीन बताते हैं उन्हें इन प्रमाणों और युक्तियों पर विचार करना चाहिए।

पाली भाषा किसी समय, प्रायः समस्त आर्य्यावर्त के जन-साधारण की भाषा थी। परन्तु यह सौभाग्य बेचारी प्राकृत को नहीं प्राप्त हो सका। प्राकृत भाषा, एक ही रूप में, सारे देश की भाषा कभी नहीं हुई। भिन्न-भिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्राकृत व्यवहार में आती थी। इसका कारण शायद यह था कि अशोक के समय की तरह, पीछे से, सम्पूर्ण देश पर एक ही राजा की सत्ता न थी। देश में कितने ही स्वाधीन राज्यों की संस्थापना हो गई थी। उसका पारस्परिक सम्बन्ध बहुत कुछ टूट गया था। छठीं शताब्दी में लिखे गये प्राकृत-प्रकाश नामक ग्रन्थ देखने से मालूम होता है कि उस समय आर्य्यदेश में चार प्रकार की प्राकृत भाषायें प्रचलित थीं। उनके नाम हैं—पंजाबी, उज्जैनी, मागधी और पैशाची। वररुचि, सुबन्धु और बाणभट्ट के ग्रन्थों से प्रकट होता है कि इनमें से प्रथम तीन भाषाओं में परस्पर अधिक भेद न था; पर उन तीनों से चौथी भाषा में अपेक्षाकृत अधिक भिन्नता थी। औरों की अपेक्षा पैशाची प्राकृत का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना विशेष परिश्रम-साध्य था। वृहत्कथा नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ इसी पैशाची प्राकृत में रचा गया था। बाणभट्ट की कादम्बरी में एक जगह लिखा है कि राजकुमार जैसे अन्य विद्याओं में कुशल थे वैसे ही वृहत्कथा के पाठ में भी कुशल थे। अर्थात् अन्यान्य भाषाओं की तरह वे पैशाची भाषा भी जानते थे। इससे भी पैशाची भाषा के क्लिष्ट होने की सूचना, इशारे के तौर पर मिलती है। यहाँ तक तो गनीमत थी। पर इसके कुछ दिनों बाद देश के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार की और भी कितनी ही भाषाएँ उत्पन्न हो गईं। पीछे से बने हुए अलंकारशास्त्र-विषयक ग्रन्थों में दरजनों प्राकृत भाषाओं के नाम आये हैं। उनमें से कुछ भाषायें यवनों और अनार्य जातियों की भी हैं।

प्राकृत भाषा यद्यपि स्वाभाविक भाषा थी तथापि उसे भी संस्कृत के नमूने पर गढ़ने की चेष्टा की गई थी। इसी के फलस्वरूप आदर्श शौरसैनी प्राकृत का जन्म हुआ था। छठी शताब्दी के पहले की प्राकृत के साथ पीछे की प्राकृत की तुलना करने से मालूम होता है कि वह दिन पर दिन संस्कृत से दूर होती जाती थी। कौन प्राकृत पहले की, और कौन पीछे की, यह बात जानने की अच्छी कसौटी इन दोनों की तुलना ही है। इस विषय के कुछ दृष्टान्त हम उस समय के नाटकों से नीचे देते हैं:—

कविवर कालिदास ने जिस प्राकृत का व्यवहार किया है उसके प्रायः सभी शब्द मूल संस्कृत शब्दों से मिलते जुलते हैं। कालिदास के समय की प्राकृत संस्कृत से जितना नैकट्य रखती है, रत्नावली के समय की उतना नैकट्य नहीं रखती। हिन्दी में एक शब्द है "अपना"। उसकी उत्पत्ति संस्कृत भाषा के "आत्म" शब्द से है। कालिदास के समय में आत्मा और आत्मनः की जगह अत्ता और अत्तन देखा जाता है। पर रत्नावली में उनके स्थान में अप्पा और अप्पन आदि शब्द पाये जाते हैं। और भी पीछे के समय की प्राकृत में ऐसे शब्द मिलते हैं जिनका सम्बन्ध उनके सम्मानार्थवाची संस्कृत शब्दों से बहुत ही कम है या बिलकुल ही नहीं है। मृच्छकटिक-नाटक में ऐसे शब्दों का विशेष आधिक्य है। यथा—छिनालयापुत्त (पुंश्चली-पुत्र), गोड (पापाय, पाद), मग्मिदुं (प्रार्थयितुं), फेलदु (क्षिपतु) आदि अनेकानेक शब्द उदाहरणार्थ लिखे जा सकते हैं। जिस समय मुद्राराक्षस और वेणीसंहार की रचना हुई थी उस समय, जान पड़ता है, प्राकृत लुप्त-सी हो गई थी या होती जा रही थी। क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में जो प्राकृत शब्द आये हैं वे बोलचाल की भाषा के, अर्थात् स्वाभाविक, नहीं मालूम होते।

दशवीं शताब्दी में प्राकृत ने अपना पुराना रूप बदलते बदलते एक नया ही रूप धारण किया। यही समय वर्तमान देशी भाषाओं का उत्पत्तिकाल कहा जा सकता है। प्रायः सभी प्राकृतों के क्रियापदों में लिंगभेद न था। पर मालूम नहीं क्यों और कहाँ से वह पीछे से कूद पड़ा।

मजूमदार बाबू के लेख का यही सारांश है। उस दिन "मार्डन रिव्यू" में मिस्टर के॰ पी॰ जायसवाल का एक लेख हमारे देखने में आया। उसमें बाबू हीरालाल की तैयार की हुई प्राचीन पुस्तकों की एक सूची के कुछ अंश की आलोचना थी। बाबू साहब ने अपनी सूची में जैनों की कुछ प्राचीन पुस्तकों से अवतरण दिये हैं। वे पुस्तकें प्राकृत में है। पर उनकी भाषा वर्तमान हिन्दी भाषा से मेल खाती है। उन नमूनों से जान पड़ता है कि उसी समय अथवा उसके सौ पचास वर्ष आगे-पीछे उस हिन्दी ने जन्म लिया जो आज कल हम लोगों की मातृ-भाषा है। वह समय ईसा की दसवीं ही शताब्दी के आस-पास अनुमान किया जा सकता है।

[जनवरी, १९२८