साहित्य सीकर/१६—अमेरिका के अखबार
१―अमेरिका के अखबार
संसार में समाचार-पत्रों का प्रभाव दिन पर दिन बढ़ता जाता है। पश्चिमी देशों में तो यहाँ तक नौबत पहुँची है कि वे राज्य का एक स्तम्भ माने जाते हैं और उनका पढ़ना यहाँ वालों की दिनचर्य्या में शामिल हो गया है। इस प्रकार के देशों में अमेरिका का नम्बर पहला है। वहाँ इस समय सब मिला कर साढ़े बारह हजार अखबार निकलते हैं। उनमें एक हज़ार तो दैनिक हैं, इसके सिवा एक सौ बीस अखबार ऐसे हैं जिनके स्वामी, सम्पादक और प्रकाशक केवल हब्शी हैं।
अमेरिकावाले अखबारों के बड़े शौकीन है। अमीरों और नगर-निवासियों की तो बात ही नहीं, दरिद्र और देहाती तक नित्य मोल लेकर अखबार पढ़ते हैं। वहाँ के अखबारों की उन्नति का यही मुख्य कारण है। यहाँ शायद ही कोई गाँव ऐसा होगा जहाँ से कोई न कोई दैनिक, साप्ताहिक या मासिक पत्र न निकलता हो। शहरों का तो कहना ही क्या है, उनमें तो महल्ले-महल्ले से दैनिक पत्र निकलते हैं।
साधारण समाचार-पत्रों के सिवा वह प्रत्येक राजनैतिक दल, धार्मिक सम्प्रदाय, पेशे और सभा-समाज के भी जुदे-जुदे पत्र निकलते हैं, इसके सिवा बालकों, स्त्रियों और हबशियों के भी अलग-अलग पत्र निकलते हैं, जिनमें उन्हीं के मतलब की बातें रहती हैं। विद्या, कला और विज्ञान की भिन्न-भिन्न शाखाओं के भिन्न-भिन्न पत्र प्रकाशित होते हैं। शिल्प या व्यापार सम्बन्धी कम्पनियों और राजकीय विभागों के पत्र अलग ही निकलते हैं। अमेरिका के विश्वविद्यालय भी अपने-अपने पत्र अलग-अलग निकालते हैं आध्यात्मिक विषयों के पत्र भी कुछ दिनों से बहुत बढ़ गये है। मतलब यह है कि अमेरिका में सब लोगों के काम के पत्र निकलते हैं।
अमेरिका के कुछ पत्र-संचालकों को छोड़ कर बाकी सब के पत्र निकालने का मुख्य उद्देश या तो किसी प्रकार का स्वार्थ साधन होता है या धनोपार्जन। केवल परोपकार के लिए कोई पत्र नहीं निकालता। वे लोग पत्रों को निकालते इस ढङ्ग से हैं कि सर्वसाधारण को खूब रुचिकर हों। इसलिये उनके ग्राहकों की संख्या थोड़े ही दिनों में लाखों तक पहुँच जाती है। फल यह होता है कि स्वार्थ सिद्धि के साथ-साथ प्रकाशकों को आर्थिक लाभ भी खूब होता है। कोई-कोई तो थोड़े ही दिनों में करोड़पति तक हो जाते हैं।
अमेरिका के बड़े-बड़े दैनिक समाचार पत्रों के प्रकाशित करने का प्रबन्ध बहुत अच्छा है। पत्र-सम्बन्धी प्रत्येक काम के लिये एक एक विभाग रहता है प्रबन्ध-विभाग का काम आय-व्यय का हिसाब रखना है। विज्ञापन विभाग का कर्त्तव्य विज्ञापनों को इकट्ठा करना, उन्हें उचित स्थान पर छपवाना और उनका लेखा रखना है। छपाई विभाग छपाई सम्बन्धी कुल काम करने का जिम्मेदार है। फोटो लेने, चित्र, तस्वीरें, नकशे खींचने-बनाने, दिल्लगी के चित्र बनाने और उनके ब्लाक तैयार करने का काम चित्र-विभाग के सिपुर्द रहता है। बिक्री विभाग वाले कर्मचारी ग्राहकों और थोकबन्दी एजेन्टों के पास पत्र भेजते हैं और नित्य बाज़ार में बेचने का प्रबन्ध करते हैं। लेख-विभाग कई हिस्सों में बैठा रहता है। नगर-सम्पादक का काम स्थानिक समाचार एकत्र करना है। संवाददाता लोग दिन भर नगर में घूमते, लोगों से मिलते और समाचार इकट्ठे करते रहते हैं। ज्योंही कोई समाचार मिला त्योंही उसे लिख कर नगर-सम्पादक को दे दिया। जो दैनिक पत्र सबेरे प्रकाशित होते हैं उनके दो नगर सम्पादक होते हैं। एक रात के लिए, दूसरा दिन के लिये। उनका काम यह है कि समाचार या लेख पाते ही जल्दी से देख जायँ और उस पर 'हेडिंग' दे दें। तब उसे "कापी-रीडर" लेता और उसका संशोधन करता है। तार-विभाग देश ही भर के नहीं, किन्तु संसार भर के समाचार इकट्ठा करता है। सम्पादकीय विभाग संपादकीय लेख और नोट तैयार करता है। साहित्य विभाग का काम ऐसे लेख तैयार करना है जिनसे पाठकों का मनोरंजन हो। अर्थात् यह विभाग छोटी-छोटी आख्यायिका, उपन्यास, यात्रा-वृत्तान्त, किसी स्थल, नगर या जाति के वर्णन और चुटकुलों से पत्र को विभूषित करता है। इन सब विभागों की देख-भाल एक मैनेजिंग एडिटर करता है। इस पद पर वही आदमी नियुक्त किया जाता है जो समाचार-पत्र-सम्बन्धी कामों का खूब अनुभव रखता हो। उसका मुख्य काम यह है कि पत्र-संबंधी सब कामों पर निगाह रक्खे और यह देखे कि सब कर्मचारी अपना-अपना काम ठीक-ठीक करते हैं या नहीं। सब विभागों के मुख्य कर्मचारी नित्य सवेरे और शाम को एक जगह इकट्ठे होते हैं और इस बात पर वादानुवाद करते हैं कि कौन विषय किस तरह प्रकाशित करना चाहिये। अमेरिका के प्रत्येक बड़े-बड़े दैनिक पत्र के कार्यालय से हर इतवार को एक साप्ताहिक संस्करण भी निकलता है। उसके सम्पादकीय कर्मचारी दैनिक पत्र के कर्मचारी से अलग रहते हैं।
यह हम पहले ही कह चुके हैं कि समाचार-पत्र संचालकों का कुछ न कुछ उद्देश्य जरूर होता है। यदि कोई ऐसा लेख लिखे जिससे उस उद्देश्य की पूर्ति में बाधा पड़ती हो तो वे उस लेख का भावार्थ एकदम बदल देते हैं और उसे अपने मतलब का बना लेते हैं। अभी हाल में "हिन्दुस्तान-रिव्यू" की दो संख्याओं में अमेरिका के अखबारों पर एक लम्बा लेख प्रकाशित हुआ है। उसके लेखक संत निहालसिंह ने लिखा है कि—"एक बार एक संपादक ने कत्ल के एक मुकद्दमे के विषय में विचार प्रकट करने के लिये मुझसे कहा। मैं लेख लेकर संपादक के पास गया। उसने उसे लेकर और लिखाई देकर मुझे बिदा कर दिया। दूसरे दिन लेख छपा। मैंने देखा कि उस लेख में मेरे हस्ताक्षर के सिवा मेरा कुछ नहीं है। मेरे लेख की भाषा और भाव बिलकुल बदल डाले गये थे। इसका कारण यह था कि इस मुकदमे में जिसको मैंने दोषी ठहराया था उसे पत्र संपादक बचाना चाहता था"। यद्यपि यह घृणित काम है। तथापि अखबार वाले इस बात की परवा नहीं करते। वे नित्य ऐसी चालें चला करते हैं।
सन्त निहालसिंह का कथन है कि अमेरिका के संपादक और संवाददाता बड़े चालबाज होते हैं। इसके कई उदाहरण भी आपने दिये हैं। आप लिखते हैं कि—"पश्चिमी अमेरिका के एक नगर में एशियावालों को निकालने के लिये लोग व्याकुल थे। अखबारों में इसकी धूम मची हुई थी। इस समय एक एशिया निवासी सज्जन वहाँ पधारे और एक बड़े भारी होटल में उतरे। एक अखबार का संवाददाता आपसे मिलने गया और प्रश्न करने लगा। पर आपने कुछ उत्तर न दिया; केवल इतनी बात कही कि मैं अपने देश का राजकर्मचारी हूँ, इसीलिये किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहता। संवाददाता धन्यवाद देकर चला गया। उसी दिन शाम को उस पत्र में एक एशियाई सज्जन से मुलाकात का वृत्तान्त निकाला। उसमें लिखा गया था कि यह एशियाई "भर्त्ती वाला एजेन्ट" है अर्थात् अमेरिका में एशिया से जितने आदमी आते हैं उन्हें यही लाता है। खैरियत यह हुई कि वे एशियाई महाशय वहाँ से चुपचाप तुरन्त खिसक गये; नहीं तो न मालूम वे लोग उनकी कैसी दुर्दशा करते।" आप ही के शब्दों में एक और किस्सा सुनिये—
"एक बार एक संवाददाता मेरे पास आया और हिन्दुस्तानी स्त्रीपुरुषों की तसवीर वाले कार्ड मुझसे माँगने लगा मैंने चार पाँच कोड़ी कार्ड दिखा दिये। इनमें से साड़ी पहने हुये पारसी स्त्री की तसवीर-वाला एक कार्ड उसने पसन्द किया और उसे एक घंटे के लिये माँगा। मैंने पूछा कि इसे क्या करोगे? इस पर उसने कहा—दफ़्तर के कुछ लड़कों से बाजी लगी है। वे कहते हैं कि पारसी स्त्रियाँ कमीज और पतलून पहनती हैं और मैं कहता हूँ कि ऐसा नहीं है।' पौन घंटे से भी कम समय में वह पोस्टकार्ड लेकर लौट आया। उसके चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी। मैं समझ गया कि वह बाजी जीत गया। उसने पन्द्रह रुपये का एक बिल दिखलाया और कहा कि यही मैंने जीता है। इसके बाद धन्यवाद देकर वह चला गया। इस घटना को मैं भूल गया था। पर कुछ ही घंटों में मेरे एक मित्र ने एक अखबार के एक लेख की तरफ मेरा ध्यान आकृष्ट किया। उसमें लिखा था कि इस शहर में पारसी-जाति की एक बागी औरत आई है। इसके सिवा जो तसवीर मैंने उस सम्वाददाता को दी थी उसकी खूब लम्बी-चौड़ी नकल भी उसमें छपी थी। उस तसवीर के नीचे लिखा हुआ था कि हिन्हुस्तान से आई हुई बागी औरत का यह अन्तिम फोटोग्राफ है।
पर अमेरिकन लोग ऐसी धोखेबाजी में कैसे फँस जाते हैं, इसका मुख्य कारण यह है कि अमेरिका के साधारण जन कुछ बड़े बुद्धिमान् या विद्वान् नहीं होते। उनकी शिक्षा केवल प्रारम्भिक होती है। इसके सिवा अखबारों को वे मन बहलाने की सामग्री समझते हैं। अखबारों में जो लेख आश्चर्यजनक व कौतूहलवर्द्धक होते हैं केवल उन्हीं को वे लोग पढ़ते हैं, और को नहीं। उनकी स्मरणशक्ति भी बहुत कमजोर होती है। उन्हें यह भी याद नहीं रहता कि अमुक चित्र पहले छप चुका है या नहीं। अखबार वाले इस कमजोरी से लाभ उठाते हैं। किसी मनुष्य, दृश्य या दुर्घटना के जो चित्र पहले छप चुके हैं उन्हीं को वे कुछ दिनों बाद दूसरे मनुष्य, दृश्य या दुर्घटना के बतला कर प्रकाशित करते हैं। जैसे यदि कोई बड़ा आदमी मरा और उनका फोटो तुरन्त न मिल सका तो वे लोग उसी की जैसी सूरत वाले दूसरे मनुष्य का चित्र छाप देंगे और यह प्रकट करेंगे कि खास मरे हुये मनुष्य का यह सब से ताजा फोटोग्राफ है। इसी तरह यदि बीच समुद्र में कोई जहाज डूबा और शीघ्र ही उसका फोटो न मिल सका तो किसी ऐसी ही पुरानी दुर्घटना के चित्रों में ब्लाक ढूँँढ़े जाते हैं और उन्हें छाप कर यह प्रकाशित किया जाता है कि अखबार के खास चित्रकार ने, मौके पर जाकर, इस दुर्घटना के दृश्यों के फोटोग्राफ लिये हैं। सन् १९०६ में सानफ्रांसिस्को नगर में बड़ी भयंकर आग लगी थी। उसके सम्बन्ध में भी एक अखबार वाले ने ऐसी ही जालसाजी की थी, पर वह प्रकट हो गई। फल यह हुआ कि अखबार के जिन कर्मचारियों के दोष से यह बात प्रकट हुई थी वे सब बरखास्त कर दिये गये। इसलिये नहीं कि उन्होंने जालसाज़ी की, किन्तु इसलिये कि जालसाजी में वे कामयाब न हो सके।
अमेरिकन अखबारों के संवाददाता खबरें एकत्र करने में बड़े ही प्रवीण होते हैं। अपने इस काम में वे लोग जैसा साहस, अध्यवसाय और उत्साह दिखलाते हैं उसका एक उदाहरण सुनिये। शिकागो की अदालत में कत्ल का एक मुकद्दमा चल रहा था। सारे देश में उसकी धूम मची हुई थी। लोग उसके समाचार जानने के लिये अत्यन्त उत्सुक रहते थे। हर एक अखबार यही चाहता है कि सब से पहले मैं ही इसकी खबरें सर्वसाधारण को सुनाऊँ। फैसले के दिन आने पर लोगों की उत्कंठा और भी बढ़ गई। प्रत्येक समाचार-पत्र वाला यह प्रयत्न करने लगा कि फैसले की खबर सब से पहले उसी को मिले। इस उद्देश को पूरा करने के लिये एक अखबार के तीन संवाददाताओं ने एक युक्ति निकाली। उसके अनुसार वे एक रस्सा और झूला लेकर अदालत में पहुँचे, जब जूरी लोग सलाह करने के लिये कमरे में बन्द कर दिये गये तब वे पहरेदारों की नजर बचाकर उस कमरे में छतपर चढ़ गये। कमरे के पीछे, अर्थात् इमारत के बाहरी तरफ, हवा आने-जाने के लिए एक खिड़की थी। तीनों संवाददाता उसी ओर पहुँचे। मकान कई मंजिला था। बीच के एक खण्ड में खड़े होकर दोनों ने रस्सा पकड़ लिया; एक उसे साधकर कुछ दूर नीचे उतर गया और खिड़की के पास ठहरकर रस्से पर बँधे हुये झूले पर बैठ गया। इस खिड़की से कमरे के अन्दर बन्द जूरियों की बातचीत अच्छी तरह सुन पड़ती थी। वहाँ वह पूरे पाँच घन्टे लटका रहा और जूरियों की कारवाई के नोट लेता रहा। दूसरे दिन उस अखबार में, जिसके यह संवाददाता थे, जूरियों की कारवाई की विस्तृत रिपोर्ट छपी। उसे देखकर सब लोग दंग रह गये। पहले तो अन्य अखबारों ने इसे बनावटी बतलाया; पर इसकी सचाई का सबूत पाने पर चुप हो गये। दूसरे दिन अदालत में दूना पहरा बिठाया गया। पर संवाददाताओं ने बड़ी चतुरता की, वे कचहरी के एक कोने में छिप रहे। जब चारों तरफ ताले लग गये तब एक अन्य खिड़की से जूरियों की कारवाई सुनने लगे। रात भर जूरियों की बहस होती रही। संवाददाता भी वहीं डटे रहे। दूसरे और तीसरे दिन भी यही हाल रहा। अर्थात् न जूरियों की बहस समाप्त हुई और न संवाददाताओं ने पीछा छोड़ा। जब जूरियों की सलाह पक्की हुई तब संवाददाता वहाँ से टले। इधर उस अखबार में जूरियों की प्रतिदिन की कारवाई रोज रोज प्रकाशित होती रही। पर लोगों की समझ में न आता था कि ये गुप्त बातें उसे कैसे मालूम हो जाती हैं, वे बड़े चक्कर में थे। असल बात मालूम होने पर केवल सर्वसाधारण ही ने नहीं, किन्तु जज ने भी संवाददाताओं के साहस और चतुरता की खूब प्रशंसा की। पहले ये ५४ रुपये प्रति सप्ताह पाते थे; इस काम के पुरस्कार में उनकी तनख्वाह दूनी से भी अधिक कर दी गई।
दैनिक समाचार पत्रों में जो कुछ रहता है उसका अधिक भाग पत्र के आफिस में नहीं तैयार किया जाता। आख्यायिकायें, उपन्यास, यात्रा-वृत्तान्त, प्रहसन, चुटकुले, दिल्लगी के चित्र आदि आदि अखबारी सिंडीकेट (Newspaper syndicate) से खरीदे जाते हैं। सिंडीकेटों में ऐसे लेखक या चित्रकार नौकर रहते हैं जिनके लेख या चित्र सर्वसाधारण खूब पसन्द करते हैं। इसके सिवा वे सुप्रसिद्ध उपन्यासकारों के उपन्यास भी खरीदते हैं। और होशियार आदमियों को अन्य देशों में भेज कर उनसे यात्रा-वृत्तान्त भी लिखवाते हैं। यात्रा-वृत्तान्त लिखने वाला एक अमेरिकन लेखक एक सिंडीकेट से सफरखर्च के सिवा डेढ़ लाख रुपये वार्षिक वेतन पाता है। बस, इसी तरह, इधर-उधर से इकट्ठा करके सिंडीकेट पूर्वोक्त लेख आदि अखबार वालों को बेंच देते हैं।
यह तो हुई शहर के अखबारों की बात। अब देहाती पत्रों का हाल सुनिये। उन लोगों को सिडीकेटों से पत्र का अधिक भाग छपा-छपाया मिल जाता है। इसके सिवा देश देशान्तरों की खबरें "समाचार-पत्र-समिति" के द्वारा मिल जाती हैं। बाकी रहीं स्थानिक खबरें, सो उनके लिए दो एक संवाददाता रख लिये जाते हैं। इस तरह उनका काम बड़े मजे में चलता है। यहाँ पर हम यह कह देना चाहते हैं कि सिंडीकेट का पत्र का जो छपा हुआ भाग बेचते हैं वह सादे कागज के मूल्य पर देते हैं इसमें उनकी कोई हानि नहीं। क्योंकि उसमें लेखो के सिवा विज्ञापन भी रहते हैं। इन विज्ञापनों से इतनी अधिक आमदनी होती है कि यदि वे उसे मुफ़्त में भी दे डाले तो भी कुछ नुकसान न हो। इसमें अखबार वालों को भी लाभ रहता है। क्योंकि उन्हें अखबार का तीन-चौथाई भाग छपा हुआ मिल जाने से छपाई नहीं लगती। अर्थात् छपाई के दाम और अधिकांश परिश्रम से वे बचे रहते हैं। इस तरह देहाती अख़बार वाले थोड़ी मिहनत और थोड़े खर्च में अच्छे-अच्छे अखबार निकाल सकते हैं और निकालते भी हैं।
सिंडीकेटों की तरह अखबारी सभाएँ (News paper unions) भी यही काम करती हैं। फर्क केवल इतना ही है कि ये सभायें छपे हुये कागज़ों की जगह कम्पोज किये हुये लेख़ों के प्लेट बहुत कम दामों पर बेचती हैं। अखबार वालों को केवल इतना ही काम करना पड़ता है कि उन्हें प्रेस पर जमाकर वे छाप देते हैं। इनके सिवा प्रकाशक समितियों (Publicity Bureaus) भी अमेरिका भर में फैली हुई हैं। उनका काम प्रति सप्ताह अखबारों में पत्र लिखना है। यह काम वे मुफ़्त करती हैं। इसका कारण यह है कि इन पत्रों में गुप्त विज्ञापन रहते हैं। जिन लोगों के विज्ञापन इनमें रहते हैं। वही लोग इनके जीवन के आधार होते हैं।
केवल देहाती अखबार ही नहीं, किन्तु मासिक पुस्तकें भी छपे हुये कागज़ के बल पर प्रकाशित होती हैं। मासिक-पुस्तक-प्रकाशक लोग हर महीने लेख खरीद लेते हैं। ये सब लेख केवल छपे ही नहीं किन्तु पुस्तकाकार बंधे भी होते हैं। केवल टाइटिल-पेज कोरा रहता है, उन पर प्रकाशक अपना नाम छाप देता है। इसके सिवा भीतर भी कुछ कोरे रहते हैं, जिनमें प्रकाशक अपने मतलब के लेख, विज्ञापन आदि छापता है। इस तरह थोड़े परिश्रम और खर्च से मासिक-पुस्तक-प्रकाशक लोग अच्छा फायदा उठाते हैं।
अमेरिका के अखबार वाले अपने पत्रों का प्रचार बढ़ाने की तरकीब खूब जानते हैं। इसीलिये वे चौंका देनेवाली खबरें, चित्र और कारटून प्रत्येक अङ्क में अवश्य प्रकाशित करते हैं। क्योंकि सर्वसाधारण उन्हें बहुत पसन्द करते हैं। इसके सिवा वे थोड़ी-थोड़ी सब तरह की बातें छापते हैं। इसलिये पत्रों को सब तरह के पेशे, विचार, रुचि और प्रवृत्ति के मनुष्य खरीदते और पढ़ते हैं। अमेरिकन लोग खेल तमाशे के बड़े शौकीन हैं। इसलिये सब अखबारवाले खेल-तमाशे का एक जुदा स्तम्भ और जुदा सम्पादक रखते हैं। इस स्तम्भ में सब तरह के खेल-तमाशों के समाचार और लेख प्रतिदिन प्रकाशित होते रहते हैं। अखबार भर में यह स्तम्भ अत्यन्त महत्वपूर्ण समझा जाता है। इसके 'हेडिंग' खूब बड़े-बड़े अक्षरों में ऐसे ढंग से लिखे जाते हैं कि रास्ते में जो उन्हें देखता है उसी से अखबार खरीदे और पढ़े बिना नहीं रहा जाता। इसके सिवा अखबारवाले ग्राहक बढ़ाने की एक और भी तरकीब करते हैं। वह यह कि त्योहार के दिन पत्रों के रंग-बिरंगे विशेष संस्करण निकालते हैं। उसे सर्वसाधारण बहुत पसन्द करते हैं और पत्र को अवश्य खरीदते हैं। इसलिये पत्र प्रकाशक अखबार के प्रचार बढ़ाने का ऐसा अच्छा मौका हाथ से कभी नहीं जाने देते।
अखबार की ख्याति बढ़ाने के लिये नित्य नई-नई तरकीबें निकलती रहती हैं। कोई समाचार पत्र-प्रकाशक सर्वसाधारण को मुफ़्त में लेक्चर या गाना-बजाना सुनाने या थियेटर दिखाने का प्रबन्ध करता है, कोई मुफ़्त में बर्फ बाँटता है, कोई बच्चों को सेंत-मेत दवा देता है, कोई गरमी के मौसम में झील के किनारे आरामगाह बनवा देता है, जहाँ गरीबों के लड़कों की परवरिश की जाती है। कोई अखबारवाला बेकार मनुष्यों और स्त्रियों की नौकरी मुफ़्त में लगवा देता है। इसी तरह समाचार-पत्र-प्रकाशक लोग अपने-अपने पत्रों को अनेक उपायों से प्रसिद्ध करते हैं कुछ पत्रवाले ऐसे भी हैं जो पुराने ढर्रे पर चलना ही पसन्द करते हैं। पर उनकी संख्या दिन पर दिन घटती बढ़ती जाती है।
[मार्च, १९०९