प्रसाद ग्रन्थावली
जयशंकर प्रसाद, संपादक रत्नशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: लोकभारती, पृष्ठ ४१ से – १४० तक

 

आवरण मे विन्यस्त हो इदताभिमानिनी होना ही व्यस्त होना है वैशिष्टयेन यत् अस्त । यत , पदाथजगत इदभूत है और उसमे चेतना कारणत और कायत भी सलीन होती है अत व्यवहारत व्यस्त को कायलीनता की रूढ सजा मिलती चली आ रही है । मूल स्वरूप से मूल स्वभाव का छिन्नत्वेन अस्तप्राय होना व्यस्त पदवाच्य है। वृत्र के वध प्रसग म प्राप्त ऋचा 'अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वचमधिसाना जघान वृष्णोनि प्रतिमानवुभूपन्पुरुत्रा वृत्रो अशयव्यस्त (ऋक् १-२-७) के सायणभाष्य म व्यस्त शब्द का अभिप्राय 'व्यस्त विविध क्षिप्त से लिया गया है। यहा सृष्टि के वैसे विद्युत्कणा के समन्वयन से एक भुवनात्मक समाधान का इगित है स्पन्द विशिष्ट श्रद्धामय मानव को विकल्पमयी- तकमयी बुद्धि के समीप समन्वय पूवक रहकर, हृदय और बुद्धि मे 'विनिमय कर दे कर कममा त' हो राष्ट्र नीति देखना है । श्रद्धा (हृदय) और मनु (मन) परस्पर पूरक है इसीलिये 'मैं अपने मनु को खाज चली-सरिता नग उपवन कुजगलो । मन को हृदय म स्थिति मिलती है-'यतो निर्यातिविपया यस्मिश्चैवप्रलीयते हृदय तद्विजानियात् मनसस्थिति कारक' । श्रद्धा मनु का स्थिति देती है, ऐसा नहीं कि श्रद्धा का क्षन चैतम मात्र हो उससे विषया के उद्गम है, उसम विकरपो के स्वप्न भी है जा चेतन से पदाथ के विकास के सत्य से सवादित है। 'श्रद्धा का या स्वप्न किन्तु वह सत्य बना था । कि तु, उसके हाथो विकल्प रथ की जो वत्गा है वह कल्याणमय सकल्प के आलोकित तन्तुओ से ग्रथित है। उपादान के तात्विक के सयमन मे कहती है- देव असफलताओ का ध्वस प्रचुर उपकरण जुटा कर आज पड़ा है बन मानव सम्पत्ति पूर्ण हो मन का चेतन राज ध्वसरूप वे देव असफलतायें अब ऋक्य रूप म मानव की वास्तविक सम्पदा है जिनसे एक नई मानवी संस्कृति के उद्भव और विकास की प्रतिज्ञा कामायनी देतो है-'पूण हो मन का चेतन राज ।' सृष्टि मूल परक आधार-दृष्टि मे भेद के कारण ही कामायनी मे मानव समाज की परिकल्पना प्राक्तन और अनैतिहासिक मानी जाती है जो दृष्टि भेद के अतिरिक्त इस व्यापक परिवेश के सम्पूर्ण उपक्रम चिन के आकलन मे असमथ रहने से असम्भव नही। कामायनी मे इतिहामतत्व के प्रति भी चेतनानिष्ठ दृष्टि है जिसका परिणाम बनता है वस्तुपरक इतिहाम । प्रसाद वाङ्गमय ॥४८॥ यह प्राक्तन भाव नही नवीन विकसित दृष्टि है जिसकी उपेक्षा उसे अवास्तविक नही सिद्ध करेगी । मानवी सामूहिक चेतना के स्तर को रपश करती इतिहास की परिधि का उल्लेख सम्भावित सशय के निवारणाथ आमुख मे प्रस्तुत है । सदैव से वस्तुनिष्ठ इतिहास घोखने की रूढ परम्परा के प्रति यह अश्रुतपूर्व विद्रोही स्वर है न कि कोई अनेतिहासिक अथवा प्राक्तन भाव । कामायनी अपनी साथकता इस सन्दभ मे स्पष्ट करती है-'चेतना का सुन्दर इतिहास निखिल मानवभावो का मत्य' । वस्तु को प्रतीयमान जगत का हेतु मानने पर उस वस्तु का वस्तुत्व भी जान लेना होगा जो अभी विज्ञान ( भौतिक) की शोधशाला से प्रमाणित और स्थिर नही हो पाया है और कदाचित् शक्ति की प्रारम्भिक कक्षाआ मे ही अभी वह घूम रहा है । भौतिक विज्ञान के समक्ष अन्ततो गत्वा एक दुरूह ग्रन्थि चेतना की पडी है जिसे वह कैसे सुलझाये-सकारे, शतिया से यह एक मौलिक प्रश्न बना है। चेतना को सरकाले मे वस्तु- हेतुत्व समाप्त होता है और पदाथ सक्रियता के प्रसग म चेता की उपेक्षा नही हो सकती । सुतराम् उसे, अन्तजगत-बाह्यजगत के मध्य और उन्ही का आश्रित एक स्फुरण मान लिया गया ससकोच और अनिवायतावश । और फिर यह कहने की सुविधा हो गई कि वस्तु एव वस्तु महति का परिणाम चेतना है । किन्तु वस्तु को सात्म-सक्रिय मानने से विरक्ति है । सशय उठता है कि यदि वस्तु हेतु है, तो उसे स्वाधीन होना चाहिये फिर चतना से चालित और पुरपाचीन क्यो ? विन्तु, विज्ञान को प्रगति जैसे जैसे सूक्ष्मता की थोर अग्रसर हो रही है उसमे तत्व जिज्ञासा निष्ठावती हो रही है यह मानव समाज के लिये शुभ है। द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते-होते स्थूल स्तर का भौतिक विज्ञान (जिसके अथ अन्नमय कोष एक पारिभापिर शब्द होगा) अगले सूक्ष्म स्तरो के अशोलन मे निष्ठावान हो गया, और प्राणिक इयत्तामा की प्रतीति उसे प्रत्यक्ष हाने लगी। सोवियत वैज्ञानिक प्रैशिको ने पहली बार पदाथ की पांचवी स्थिति यायोप्लाज्मा को पाया। यही नहीं भारी शक्ति वाले वैद्युतिक उपकरणा की सहायता से भय और आसाश-देह वाले फोटो ग्राफ वहाँ 'क्रीिलियन औरा' के तकनीक से लिये गये हैं यद्यपि ये स्तर अपेक्षाकृत सूक्ष्म रहने पर भी चेतना के पदायित स्तर ही हैं और मनोनय विज्ञानमय-आनन्दमय स्तर तो सभी बहुत दूर हैं रितु भौतिक स्निान उनके द्वार सटपटा रहा है, यह कम नहीं । जड और चेतन को परिभाषा मे, चेतन की विरक्षणता स्वाधीनता प्राक्वथन ॥४९॥ म और जड की परवशता मे निष्ठित है। प्रकारान्तरेण मे चेतन के ही क्षिप्त-अनगुण्ठित भाव का निवचा जड द्वारा होता है। उभय म तत्व प्राधान्य विलक्षण नहीं है एक ही है। जल के तरलत्व और प्रवाह-म्वाधीनता को जल और उस जल की ही अवगुण्ठित भावगत सघनता को मि कहा जाता है । इस मूलभूत प्रश्न और उसका समाधान लेकर कामायनी प्रथित है जहा वह एक ही तत्व अपने गतिमय बहिरल्लास म जल कहा जाता है और अन्तविलासित स्थितिमयता मे हिम होता है। उसको प्राविधिकआख्या कही प्रकृति-पुस्प तो वही शक्ति और शिव द्वारा दी जाती है। 'एक तत्व की थी प्रधानता कहो उसे जड या चेतन'। और फिर अन्त मे उभय भाव चैतन्य समरस हो समाधान करते हैं उम प्रश्न का जिस मान खण्डश मनुज की स्थूल अनुषग प्राय विपमता के निरसन म ही समाहित मान लिया गया है-'समरस ये जड या चेतन 'तय' 'सुन्दर साहार' बनता है जिसमे समान-चेतना का विलास होता है अर्थात् जड और चेतन भिन मूत्य वाले नही रहते ऐसे चेतन विलास के अन्तभुक्त आनन्द का अखण्ड भाव चमत्कृत होता है । विवा आनन्द के भी विगलित भेद सस्कारोपरि 'चेतनता एक विलसती' है। ध्यान रहे कि आनन्द मे लेशत उसी प्रकार द्वैत रहता है जिस प्रकार ईश्वरतत्व मे अधिकार मल और सदा शिवतत्व म भोगमल रहता है और शिव स्वशक्ति की पृथगानुभूति म मूल अज्ञान अथवा महाशन्य पदवाच्य होता है । सुतराम् कामायनी के इस अन्तिम छद चेतनता एक विलसती आनन्द अखण्ड घना था म वतमानता अद्वय चैत य के विलास या स्फुरण की है जहा आनद उपरत है। अस्तु जड और चेतन प्रसग म सयोजक विन्दु का भी कामायनी मे चिन्तन है जड और चेतन की परस्पर समवयभूमि का भी चिन्तन है और, यह सयोजक वि दु या समन्वय भूमि स्वयमेव कामायनी है । जो, अपने पिता का काम के शब्दो म- यह लीला जिसकी विक्म चली वह मूलशक्ति थी प्रेमाला उमका सन्देश सुनाने को ससृति में आई यह अमला हम दानो को सन्तान वही कितनी सुन्दर भाली भाली रगो ने जिनसे खेला हो ऐसे फूला की वह डाली जड चेतनता की गाठ वही सुलझन है भूल सुधारो की वह शीतलता है शातिमयी जीवन के उष्ण विचारो की और वस्तुत कामायनी मनु के ऐहिर-आमुग्यिक, जड़-चेतन उभय स्तरा प्रसाद वाङ्गमय ॥५०॥ की समन्वयभूमि या सयोजक विन्दु है । अमला चिच्छक्ति, प्रेमाला किंवा पर प्रमास्पदीभूता कामरला के सन्देश अपने 'जगमगल सगीत' के मा यम से देती है । ऐमे सयोजक विन्दु का क्या भिन्न प्रस्थानी म भिन्न नामो मे हुआ है। चित् अचित के सयोजक विन्दु को द्वेत वादी शैव-प्रस्था। महामाया कहत है वैष्णव-परम्परा में यह अप्राकृत विशुद्ध-सत्व है योग (पातजल) म प्रकृष्ट मत्व यही है बार महायान का नाविमत्व भी यही है आगम को अभेद-परम्परा इसी का कामविन्दु बहती है, और कामायनी काम को बैदवी सतति है 'कामगोरजा कामायनी श्रद्धाना- मपिका' के संप में सायण द्वारा इसका उरलेख इसके ऐतिह्य-कथन म पर्याप्त है। क्रान्ति की वृत्ति वडी व्यापर है, वह मानव-ममाज के ऊपरी धरातल पर ही नहीं, चैतम-पीठिका पर ही नहीं अपितु, प्रकृति के अय स्तर पर भी सक्रिय रह परिपत्तन और विकास की गति अग्रसर करती है वस्तुत विकासात्मक परिवतन इसके पीछे सकरप भत रहता है। सुतराम, प्रकति का यह अतजात झान्ति तत्त्व अपनी सहज सक्रियता म अतिचारी देवा को अनायास ही समाप्त कर देता है। प्रतिकरण और अतिचरण की तीव्रता के तारतम्य पर कान्ति की प्रखरता निभर करती है और वही उसकी उपलब्धियो को भी स्थिर करती है। “बढने लगा विलाम वेग सा वह अति भैरव जलसघात" और फिर "देव-दम्भ के महामेव मे सब कुछ ही बन गया हविष्य" क्योकि "प्रकृति रही दुर्जेय पराजित हम सब थे भूरे मद म" } आगे चरकर भी मनु के अतिचरण के प्रतिकार मे " तरिक्ष म महाशक्ति हुकार कर उठी" और प्रतिकार के लिये रुद्र को नु' दिया (मह रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्महिपे शरवे हन्त का उ~देवीसूक्त ऋग्वेद) । देवयुग का अवशिष्ट प्राणो मनु बाहर से सब कुछ सोकर भी सस्कार-सम्पदा संजोये रहा “मेरा सब कुछ क्रोध मोह के उपादान से गठित हुआ' किन्तु सारम्बत प्रदेश की प्राणिक क्रान्ति के आन्तर उन अतिचारी देव-सस्वारो की भी सवथा पराजय हो जाती है और तब मनु आदिम सवहारा रूप मे बोल उठते हैं--"मैं इस निजन तट म अधोर, सहभूष व्यथा तीसा समीर" "मै शून्य बना मत्ता खोकर"। यह सवहारा रूप ही उसे आगे चल कर मिलने वाली अनुग्रह-सम्पदा की प्रतिज्ञा है-- "यस्यानुग्रहमिच्छामि तस्य सवहाम्यहम्"। शून्य असत् और अन्धकार को जैसी तीखी दशा रहती है वैमा हो प्राक्पयन ॥५१॥ होने की सभावना के दिन अभी युगो वाद लौटने वाले थे तब सामूहिक चेतना विसीण, अभिसुप्त और अगठित थी, व्यस्त थी किन्तु भावी भविष्य के उत्तरदायित्व सभालने के लिये स्पन्दित होती अभी एक चैतस- पीठिका प्रस्तुत हो रही थी। सुतराम्, सामान्य काव्य चिन्तन को तत्र उसको वाणी बोलनी थी जिनके अन पर वह पलता था। सम्पक और विचार के विनिमय साधन सीमित थे । तीन वर्षों मे हुएनत्साग चीन से भारत आ सकते थे और अतिशा को वहा तक पहुँचने मे सकारण और भी अधिक समय लगता था। वर्षों को दूरी मासो मे सिमटी मास दिवस वने जिनके काम मुहूत्त करने लगे और अब मानव चन्द्रधरा की रज का स्वामी हो चुका । उस समय तो वैसी बात थी नही तब तो सूर के कृष्ण का मचलना कि 'मैया में तो चन्द्र खिलौना लेहो' एक अपूरणीय माग के साथ ही कदाचित भव के सुदूर भविष्य की परिभाषा भी थी जो आज वत्तमान बन गई । अतएव, काव्य केद्र महानो, शक्ति-साधन सम्पन्नो के क्रान्तिवृत और नाडी जाल के सम्पात-बिन्दु-स्वरूप राहु से ग्रस्त रहा। उनकी इच्छा-आवश्यक्ता की पूर्ति का साधन होकर, उनको नाराशसियो से लोकमानस को प्रभावित रखने का यन्त्र बना रहा । जव इससे अवकाश मिल तब आत्मा-परमात्मा, ब्रह्म माया, निगुण-सगुण की व्यायामशाला में उसने लोकमानस की प्रतिभाओ का उपयोग किया । समाज के बौद्धिक योगक्षेम का स्वरूप तब कुछ और था जो पिछली कई शतिया म केवल रामचरितमानस का चित्य बन सका उसके कवि तुलसो सामान्य जीवन के तिक्त-मधुर फल खाकर जिये, किसी दरबार के मन पर नहीं पले । समाज की चैतस आवश्यकताओ की पूर्ति के लिये, सामूहिक चेतना के अव्यक्त शक्तिया को परिणति मे अनुरूप प्रतिमा का गठन होता हैं जो व्यक्ति निष्ठ नही समष्टि-परक रहता है इसीलिये वैसे व्यक्तित्व समष्टि की सम्पदा होते हैं और उनमे निहित श्रेयज्ञान की सत्ता उन व्यक्तिगत स्थानीय केन्द्रो के नष्ट हो जाने पर भी निविशेष रूप से विद्यमान रहती है सस्थित रहती है । वैसो श्रेयज्ञान की सत्ता ने प्रसाद के प्रेय कलेवर मे अधिष्ठान ग्रहण किया मानव चिन्तन के विकास में यह एक ऐसी घटना हुई जिसके पूर्वापर प्रभाव का निरपक्ष और पूरा पूरा आक्लन अभी शेप है । मौलिक अथ मे काव्य जरा मरण से अबाधित सामथ्य का का पर्याय है पश्य देवम्य काव्य न ममार न जीयत' (ऋक् १० ५५ ५) । सहिता काल म काव्य वस्तु, जातीय सपद विपद उद्भव पराभव और योगक्षम फो अन्तरात्मिक एंव सावभौम स्तर पर चिन्त्य 1 प्रसाद वाङ्गमय ॥५४॥ बनाकर ममष्टिपरक था गाथा काल मे वह व्यक्तिनिष्ठ होने लगा जिनम मानवी अन्तद्वन्दो के बाह्य प्रतिनिधि रूप शूरो और समाज पर छाप छोड़ने वाले विद्वानो समर्यो और असमर्थों के संघर्ष की भावप्रवण छन्दमयी रचनाओ (विशेषत आर्याछन्द) में वास्तविक चरित्र अपनी गाथायें पहने लगे । काल की शू खला न ढूंढ पाने पर उनकी सत्यता सहसा और सवथा अनैतिहासिक-अवास्तविक नही हो सकती। ऐसो गाथाये गाने वाले आरयार सहिता भाग नहीं बन पाये क्याकि उनमे व्यक्ति निष्ठा थी घटनापरक सत्य के बहिरगी इदबोध से उनक आयतन गठित थे और लोकचित्र के परिवतनशील पट उनकी रंगभूमि रहे जब कि ऋचा भाग लोक के शाश्वत मूल्यो के आन्तरात्मिक उद्ग्रन्यन म सचेष्ट रह रूपकीय सकेतो से प्रतीको के रूपमे इन्द्र, वरुण आदि द्वारा आत्मा देह आदि के परिकर मे समप सन्देश देता है। काव्य-चेतना की वग निष्ठा धीरे धीरे उपरत होने लगी, उमकी भूमिका लोक-मगल की अभीप्मा लेने लगी, किन्तु वस्तुत अभिजात लोक मगल की परिभाषा अभी अधूरी थी। देश और जाति के घेरे को तोड समग्र मानव जाति और सकल मेदिनी मण्डल को व्याप्त बनाते अतीत और अनागत को अपने वत्तमान मे खीचकर काव्य-चेतना को सावभौमिकी और सार्वायुपी बनाना सामथ्य-पराक्रम की भागीरथी बहाना था। युग की दशाओ और मानवी विकास के उपक्रम की व्याकुल पुकार अब काव्य चेतना के उपकण्ठो पर गूंजने लगी। मनुज की पराधीनता उमकी सावदेशिकी दरिद्रता अधिपति-अधिकृत के विपमा- वस्थान जनित शोपण अब उसकी विचारपद्धति के आयाम बदलने लगे। जीवन की परिभाषा उतरोत्तर व्यापक होतो दृष्टि और मूल्यो मे भारी परिवत्तन करने लगी। पदाथ-सम्पदा रेकर सृजन और सक्षय के चरणो मे डग भरता आर्थिक सामाजिक परिवेश द्रुततर हो उठा पशु मनुष्य के कर्मों का यात्रिकीकरण भावो का भी यात्रिकीकरण करने लगा और यन्त्र अध्यव साय बौद्धिक स्तर की सीमा पर टकराने लगा। सुतराम समाज के वर्गों की परिभाषा सास्कृतिक मूल्यों के आधार पर अहर्निश परिवर्तित होती सारहीन हो उठी। बस्तुत वग सधप से अधिक तीव्र और महत्त्व पूर्ण हो उठा अपनी ज्वाला से जलते-बुझते वगसस्थारो का सघष । कामायनी मे भी "नतित नटेश" ये युगलपाद सहार और सृजन के ही हैं किन्तु नर्तित नटेश की प्राविधिक आस्या में वे सभी कोटियां उनके प्राक्कथन ॥५५॥ 1 अन्तभूत है जो पदाथ से चैतन्यपय त सम्भव हैं मनु की सघर्प तपस्या मे एक दीप्त सत्य रूप वे युगलपाद प्रत्यक्ष होते है । बीसवी शती के द्वार पर खडी प्रसाद को सारस्वत प्रतिभा को युगावरोव मे युगप्रश्नो पर ठहरना, सोचना और ममझना पडा-लोक मानस के आसमग्र योगक्षेम की बलवती अभीप्सा और विश्वमागल्य के अभिजात सकरप ने उसे कुछ आगे बढने और भविष्य को सावभौम दृष्टि से ग्रहण करने की प्रेरणा दी, जिस भविष्य मे मानव को अतरिक्ष वेध करना था। उम प्रतिभा के ठहरने, सोचने और समझने के पड़ाव के रूप मे प्रसाद साहित्य की अन्य सभी कृतियां हैं, कामायनी को, जहा उस सकरप का सिद्धि मिलती है छोड शेष समस्त प्रसाद माहित्य इस रूप मे ग्रहण किया जा सकता है। कामायनी को जानने की चेष्टा स्वयमेव समग्र प्रसाद साहित्य को जानने की चेष्टा उसी प्रकार है जैसे "एकमेव विज्ञात सव विज्ञात भवति"। कामायनी के वस्तुतत्त्व और उसके विभिन्न अगो पर अनेक दृष्यिा से बहुत कुछ लिखा जा चुका और लिखा जायेगा। विन्तु उसके दर्शन उसके मनोविज्ञान, उसके साहित्य और उसमे निहित इतिहास-तत्त्व की गवेषणा करते हुये कवि दृष्टि उपेक्षित नही रहनी चाहिये । उनके जीवन- काल मे ही ऐसे प्रमगो का सूत्रपात हो चुका था और अस्पष्ट एव साग्रह-सापेक्ष समीक्षायें होने लगो थी जो वास्तविक दृष्टि से परिचित न रहने के कारण तथ्य-समीपी न थी । भविष्य मे ऐसी उलझना के बढने की आशका म उन्हे आवश्यक प्रतीत हुआ कि बिना किसी मतवाद और खण्डन मण्डन के उस वास्तविक सिद्धान्त दृष्टि का परिचय दे दिया जाय जिससे उनके साहित्य का आयाम अपने प्रकृत आलोक म देखा जा सक्ता हो । सुतराम् काव्य, नाटक, रम रगमच, रहस्यवाद, छायावाद प्रभृति उस समय उठे और चचित प्रसगो पर उन्होने सूशली मे कतिपय निबन्ध लिखे और साहित्य की प्रयोजनीयता और साहित्यकार वम के प्रति अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया जिससे उनके साहित्य पे चरम कथ्य कामायनी के हेतु, वस्तुतत्त्व और उसके स्वरूप सगठन को अमिज्ञा सहज रहे। वहा कहा गया "जब सामूहिक चेतना छिन भिन होकर पीडित होने लगती है, तब वेदना को विवृति आवश्यक हो जाती है। कुछ लोग कहते हैं साहित्यकार को आदशवादी होना ही चाहिये और सिद्धान्त से प्रसाद वाङ्गमय ॥५६॥ हो आदशवादी धार्मिक प्रवचनकर्ता बन जाता है। वह समाज को कैसा होना चाहिये यही आदेश करता है। और यथाथवादी सिद्धान्त से ही इतिहासकार से अधिक कुछ नही ठहरता क्योकि यथाथवाद इतिहास को सम्पति है। वह चिचित्र करता है कि समाज कैसा है या था, किन्तु साहित्यकार न तो इतिहासकर्ता है और न धमशास्त्र प्रणेता'। इन दोना के कलव्य स्वतन्त्र हैं। साहित्य इन दोनो की कमी को पूरा करने का काम करता है। साहित्य समाज की वास्तविक स्थिति क्या है, इसको दिखाते हुये भी उसमे आदर्शवाद का सामजस्य स्थिर करता है । दुम-दग्ध जगत ओर आन दपूर्ण स्वग का एकीकरण साहित्य है इसीलिये असत्य अघटित घटना पर कल्पना को वाणो महत्त्वपूर्ण स्थान देती है, जो निजी सौन्दय के कारण सत्य पद पर प्रतिष्ठित होती है। उसम विश्व मगल की भावना ओतप्रोत रहती है।" (यथाथवाद और छायावाद) महाकाव्य के सम्बन्ध मे वहा ये पक्तियाँ मिलती हैं- 'मानव के सुरा-दुख की गाथायें गायी गई हैं। उनका केन्द्र होता या चोरोदात्त विख्यात लोकविश्रुत नायक । महाकाव्यो मे महत्ता की अत्यन्त आव- श्यक्ता है । महत्ता ही महावाव्य का प्राण है"। (आरम्भिक पाठ्यकाव्य) 'नाटक मे, जिसमें आनन्दपथ का, साधारणीकरण का, सिद्धान्त था, रघुतम के लिये भी स्थान था। प्रकरण इत्यादि मे जन साधारण का अवतरण किया जा सकता था, परन्तु विवेक परम्परा के महाकाव्यो मे महानो की ही चर्चा आवश्यक थी'। 'काव्यधारा मानव मे राम है-या लोकातीत पग्मशक्ति है इसी के विवेचा में लगी रही। मानव ईश्वर से भिन्न नहीं है यह बोध यह रसानुभूति विवृत नहीं हो सकी। रस की प्रचुरता यद्यपि थी क्यो कि भारतीय रीति ग्रयो ने उन्हे श्रव्य मे भी पहले प्रयुक्त कर लिया था, फिर भी नाट्यरसो का साधारणीकरण उनम नही रहा'। (भारम्भिक पाठ्य काव्य ) ऊपर दिये गये उद्धरणा से (काव्य और क्ला तथा अ य निवन्ध के ) स्पष्ट होता है कि काव्य की १ सु० इतिवृत्तवशायातात्यवन्वाननुगुणा स्थिति, उत्प्रेन्याप्यन्तराभीष्ट रसाचित षयो नय (ध यालाक ३-११) कविनाकाव्यमुपनिवघ्नता सवात्मना रस परत पेण भवितव्यम् । ततिवृत्त यदि रमानुगुणास्थितिपश्येत्त-माभनत्वापि स्वत प्रतया रसानुगुण क्यान्तरमुत्पादयेत् । न हि कवेगितिवृत्तभावनिवहिण मिनित्प्रयोजनम् इतिहासाश्पतत्सिद्धे । (लाचन टीका) प्राक्कथन ॥५७॥ प्रयोजनीयता और कविरम के तद्यावधि आगत और प्रस्तुत स्वरूप कामायनी के कवि के निवप पर विश्वामागल्य के अथ श्रेय प्रेय सवित सुवण नहीं ठहरे फिर उनसे युग बोध की वैसी प्रतिमा क्या कर ढलती जिसके चरणो मे समस्या और समाधान के अक्षत पुष्प सज हो। काव्य जगत के चक्रवर्ती उन विवेक परम्परा वाले महत्ताप्राण महा काव्यो के माध्यम से मानवी सवेदनाओ की गाथा गाई गई जिनके नायण सुवण के मेरु हाते थे वसुधा के जलते रज-कण नहीं। वहाँ लघुतम के लिये कोई स्थान नहीं था उन नायको के अथ और समाज तन्न पृथक्-लक्षण विशिष्ट और परिग्रह विपुल होते थे जा कही-यही लोकोत्तर-सीमा का भी स्पश करते फिर लोकसामान्य चेतना के भावाभाव-गत कम्पनो की शुक्म्प-लहरी उनमे कैसे उठती? सुतराम् कामायनी के युग मे आममग्न लोकमगल हो पाव्य का प्रयोजन बना ( वह कामायनी जगत की मगल कामना अवेली) जिसको सहज प्रतिज्ञा को चरिताथ करने के लिये सरप की दिशा पक्डनी पड़ी और 'आत्मा की सकरपात्मक अनुभूति' का परिणाम काव्य पुरप का प्राण बना। मणि किरीटी चक्रवर्ती स्प म धीरोदात्त नायक अकेले अभिनय मे केवल स्वगत ही बोल सकता है सुतराम, नाटको मे जनसामान्य के विना काम नहीं चलता। और सामान्य-जन-सवेदन महाकाव्य मुख से नही बोल सक्ते, अत प्रयोजनीयता की दृष्टि से नाटक और का य की विधाओ के समवय से इस रूपक-वृत्ति वाले काव्य कामायनी की कल्पना साकार हुई जिसमे जनमामान्य-सवेदनो के मूलभूत-स्फुरण काव्य रग पर उपस्थित हो अपनी गाथायें गा सके। क्सिी घिसेपिटे टक्साली धीरोदात्त नायक को ले महाकाव्य के प्रस्तुति की तो वहां दृष्टि ही नहीं फिर वैसे लक्षण ढूँढने और पाने न पाने की बात ही व्यथ है । मौलिक दृष्टि यहां जनसामान्य को अतर्जात सवेदन गाथा पर है और उसी स्तर पर कामायनी के अनुनायर मनु का अभिनय सफल भी होता है। गत मन्वन्तर का घीरोदात्त मनु नये मवन्तर म सामा य-जन की भूमिका म सवेदन के हेतुतत्व ले उपस्थित होता है और, जहाँ वह अपने पिछले उच्छृङ्खल अतिचरण उठाने लगता है वही उसके दप को प्रकृति का अन्तर्जात विद्रोह-तत्व चूर कर देता 1 काव्य चेतना मे लघुतम को स्थान मिले, सूक्ष्मतम स्फुरणो की परिचर्चा हो सके, विश्वा तीणता विश्वमयी हो अपने यथाथ कह सके और अपना भूला विसरा प्रसाद वाङ्गमय ॥५८॥ निजरूप मानवता की पहचान मे आ जाय, यह स्पक वृत्ति के सहारे प्रत्यभिज्ञा की दिशा पकड कर ही सम्भव था मात्र रचना उपक्रम मे निज के सीमित भावद्रव से ढले किसी कोरे काव्य या महाकाव्य के बूते नही । मानव जाति की यात्रा के मध्यवर्ती पडावो या युगो के परिधिवर्ती कथानक लेकर ऐसे आधारभूत तथ्यो का सफल विवेचन भी सम्भव न था। इसके अथ राम, कृष्ण या बुद्ध जैसे लोकोत्तर चरित नायक प्रयोजनीय नहीं हो सकते थे अपितु उन चरितो की वह अपर्णा-जननी- मूति ही युक्त हो सकती थी जो मानवता के प्रथम चरण म अपना सवस्व समपण किये उत्पीडन और दलन को पहली बलि बनो। यहा काव्य शास्त्रीय नियमो क प्रति विद्रोह काव्य की सात्विक ( सत्वगत ) निष्ठा के लिये आवश्यक हो गया कवि ने 'करपना का काम म ले आने का अधिकार' युक्तत प्रयुक्त किया। आदि विन्दु से चलकर गुण दोपो के प्रारम्भिक रूपो को विचारते आनन्द समाधान की चैतन्यमयो दृष्टि लिये, लोकाग्नि के आदिम ताप झेलती 'सकल्प अधजल' वाली कामायनी (श्रद्धा ) के चरित नायकत्व में ही ऐसी परिकर पना साकार हो सकतो थी अन्यन और अन्यतया कदापि नही क्थमपि नही । सास्कृतिक प्रगति की कुक्षि से उद्भूत और वैषभ्य-जनित मानव समाज को समस्याओ के निदान और उपचार के लिये प्रयोजनत, दुखो की निवृत्ति और आनन्द की अवाप्ति के अथ अन्य शब्दो म 'दुस दग्ध जगत और आनन्दपूण स्वग के एकीकरण' हेतु मानव को सामूहिक चेतना को वस्तु से हेतु पयन्त उसके आसमग्र, अद्वित और समष्टि रूप मे लेना-देखना होगा। उस अन्तनिहित चेतना की खण्डात्मिका अनुभूति और अवच्छेदगत अभिव्यक्ति एक और जहा विषमता विस्तार से जगत को 'दुखदग्ध करने के लिये तदनुकूल भूमिका प्रस्तुत करती है वही दूसरी ओर चेतना के परम-साम्य भाव और उसके अन्तर्जात भावरूप अर्थात् 'आनन्दपूण स्वग का निषेध भी करती है स्वरूप विधान्ति का माग काटो से रूध देती है। स्वरूप के, अवयवी के, अगो को विदारित विक्षिप्त प्रक्षिप्त अथवा एक ही शब्द मे व्यस्त कर तद्गत अभावो के पृथकश निरसन की योजना किसी मौलिक अमोध समाधान की दृष्टि से वायवीय ही रहेगी। वैसा करना एक सामायिक और चरणात्मक उपशामक उपचार तो हो प्राक्कथन ॥ ५९॥ सस्ता है, किन्तु रोग को सस्थागत निराति और उस मूलाच्छेद या सवथा-निरास नहीं। सुतराम समस्यागत उपरागों का विलोप और सभी स्तरो पर उनका वस्तुत निवारण, सहसा और विक्रान्तत पैसे अनुभूत और अभिव्यक्त हो इसके अनुशीलन म प्रसाद भारती का कामायनी-चरण एक स्पकीय गति लेसर उठता है। उन चरणो मे, अतीत के ध्वसोस उपारण ले अनागत को समुज्वल बनाने की लय है । भौतिक जगत पर 'अमृत सन्तान' मानव के पूण स्वामित्व की एव महती कल्पना है जिसम पाच भौतिव' जगत पर उसमा पूर्ण और वस्तुत नियन्त्रण हो अशनि और कारका जिसके सास के कारण न बनें अपितु मनुज के इगिता पर वे चला करें मानवी सृष्टि को ऐसे धरारल पर ल जाने के प्रतिज्ञा कामायनी म प्रस्तुत है- "डरो मत अरे अमृत सतान अग्रसर है मगलमय वृद्धि, पूर्ण आपण जीवन-केन्द्र विची आवेगी सकल समृद्धि । देव अमफलताओ का ध्वस प्रचुर उपकरण जुटाकर आज पडा है वन मानव सपत्ति, पूण हो मन का चेतन राज । चेतना का सुन्दर इतिहास-अखिल मानव भावा का सत्य विश्व के हृदय पटल पर दिव्य अक्षरा से अक्ति हो नित्य । विधाता की कल्याणी सृष्टि सफल हो इम भतल पर पूर्ण, पटे सागर, पिसर ग्रह पुज और ज्वालामुखियां हो चूर्ण । उन्हे चिनगारी-सदृश सदर्प कुचलती रहे खडी सानद, आज से मानवता की कोत्ति अनिल, भू जल म रहे न वद । जवि के फूटें वित्तने उत्स द्वीप, कच्छप डूबे उतराय किन्तु वह खडी रहे दृढ मूत्ति अभ्युदय का कर रही उपाय । विश्व की दुयलता बल वने, पराजय का बढता व्यापार हँसाता रहे उसे सविलास शक्ति का क्रीडामय सचार । शक्ति के विद्युत्क्ण जो व्यस्त विकल विखरे है हो निम्पाय । समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय" परस्पर विभक्त करने वाली मानवी सस्कृति की कृत्रिम ग्वाइयां पाट दी जायें (पटें सागर) सग्रहमूल केन्द्रीकरण के मणि खचित किरीट जो युगो से 'वहुतो' के अभाव के कारण बने है विघटित कर दिये जाएँ (विखरें ग्रह पुज) अशन वसन की चिन्ता शिखाओ वाली वग वैषम्य - प्रसाद वाङ्गमय ।। ६०॥ जनित विभीपिकायें निरस्त कर दी जायं (और ज्वालामुखियां हो चूर्ण) और इन सब प्रत्यावायो को एक नगण्य स्फुलिंग सदृश कुचल कर दृप्त मानवता को दृढमूर्ति अपनी सम्पूण सति मे उठ सडी हो । विश्व का दुवल विन्दु' उसका बल बने । वर्गात्पीडन चक्र मे प्रथमत पिष्ट, अवला- भूत नारी अपने बलात् छीने गये अधिकारो को अधित कर बलमूत्ति हो जाय । शक्ति अबला नही सवला होकर ही शक्तिमान को स्पन्दित करती है। युगो के अन्तराल मे दीख पड़ने वाले उसपे पराजय एक श्रीडावृत्ति मान है किसकी, यह प्रश्न अन्य है। मूल मे समाज मातृ सत्तापरक है जिसके प्रतिपेध मे पितृ सत्ता का उदय हुआ और इस क्रिया प्रतिक्रिया में विखण्डित शक्ति प्रतिमा अब ममन्वित होकर ही उस मानवता को विजयिनी बना सकती है जो उसकी सन्तानधारा है। नर और नारी समन्वय भूमिका पर ही सृष्टि मगल कर सकते हैं विषम भूमि एक को अनुवर्रा और दूसरे को पुस्पाथहीन बनाती है। समाज म आदि वगसघर्ष भूमि नर और नारी के मध्य बनी और यही भमि वग सघष का अन्तिम कुरक्षेत्र होने के योग्य भी है । एतदय मानव के भावात्मक, भावगत और भावनिष्ठ उस सत्य को देखना होगा और, उस तदथ चेतना का इतिहास जानना होगा जो शाश्वत-अभिनय रत होकर अपनी अभिव्यक्ति म स्थूल घटना के क्षणों का इतिहास बन जाती है केवल पदाथ सत्य अथवा सत्य की क्षण भगिमायें ही नही । विश्वसृष्टि के मच पर गिरने उठने वाली प्रति- सीराओ में समष्टि चेतना का अनवरत दृश्य रूपक चलता है, इस रूपकीय रसानुभूति की विवृति मे कहा है- एप प्रकाश रूप आत्मा स्वछन्दो ढोक्यति निज रूपम् पुन प्रक्टयति झटित्ति क्रमवशाद् एप परमाथने शिवरसम् रूपकीय साधारणीकरण म रस की यह एक विमल झांकी है। यहाँ परमाय और शिवरस को सम्प्रदाय अथवा धम को 'चरमे' से न देस मूलत उद्दिष्टि अर्थात परमाथ और, ससृति के अथ मगलमय, पोषक और प्रेयरस अर्थात शिवरस और आत्मा को सहज-स्वतन्त्र प्रकाश रूप निज चैतन्य के अथ मे ग्रहण करने मे युगबोध से कही विसवाद नहीं। यह उमीलन निमीलन नाटयधम का मूल और सहार सृजन के युगलपाद' वाले नटराज की भावमूर्ति भी है। स्वच्छन्द विया निरावृत प्रकाश रूप- आत्मा की ढाक्ने उपारने को सहज-लीला उसकी विमशरूपिणी शक्ति के माध्यम से चलती है जिसमे विश्व ससृति रूप उसकी सतान के प्राक्कथन ॥६१॥ उदयास्त सम्पन्न होते रहते हैं। रस द्वारा ही विश्व का पोषण आप्यायन होता है। करणामयो विश्व माता अपने शिशु को रसपान द्वारा ही आनन्द मग्न और जीवन्त रखती है-रस ही सृष्टि मूल है। सत्ता (सत् + ता) रस द्वारा ही विजिज्ञास्य और विज्ञात होती है 'रसोवै स'। इसको मगलमयी सत्ता के, स्नेह निष्यन्दिनी-मातृमूर्ति से प्रवाह के निवचा मे ऋचा कहती है- यो व शिवतमोरसस्तस्यभाजयतेह न । उशतीरिवमातर ॥ ( १०-९-२) ऐसे रूपकीय रसानुभूति के धरातल पर सचरित साहित्य दुखदग्ध जगत और आगन्दपूण स्वग का वैसा एकीकरण अनायास ही कर लेगा जिसे प्रसाद भारती साहित्य का स्वरूप मानती है और जहाँ दुखमय दिग्दाहो से पीयूष के मेघ सम्पृक्त रहते हैं। साहित्य यदि 'दुसदग्ध जगत और आनन्दपूण स्वग का एवोकरण' नही कराता तो, या तो वह विधि निषेध-परख धमशास्त्र बनेगा अथवा विवेक की सशयात्मक खनित्री से निकला किसी घटना विशेप का दृष्टि विशेष युक्त उल्लेख होगा किंवा विकल्पध्वसावशेषो से उत्खनित सीमित तथ्यो का कोई पुराभिलेख होगा किन्तु, रसभाव की प्रेय प्रचुर सष्टि उस साहित्य मे सम्भव न होगी। वैसे एकोकरण का माग नाट्यरसो के साधारणीकरण से ही सम्भव है । वह रसानुभूति, मानव ईश्वर से अभिन्न ही नही स्वय ईश्वर ही है-इस सहज बोध म है। सुतराम् मानव, व्यक्ति नही समष्टिभूत मानव, महत्तम है स्वयमेव ईश्वर है। और महत्ता ही महाकाव्य का प्राण है। विवेकपरम्परा में महानो की चर्चा महाकाव्या मे रहती है समष्टिभूत महत्तम मानव की नही जिसमे लघुतम और जनसाधारण ही प्रधानत उपादानभूत है। जो अणोरणीयान है वही तो महतो महीयान है और वह, युगो से उपेक्षित क्षुद्रतम बना मानव हो तो है ? जिसके अथ कहा है 'मनुष्य देहमास्थायछन्नास्ति परमेश्वर' मानव के शोषण, उपेक्षा और उसकी कदथना के विरोध मे साहित्य जगत म यह अप्रतिम विद्रोही स्वर है, एक ऐसे क्रान्ति की घोषणा है जिसने निहित स्वाथपरक सामन्ती विचार धारा को अपने ढग से चुनौती दी है । तक म युक्ति से अधिक काम लिया गया है । समथन म शास्त्र वाक्य भी अनायास जुटते रहे। वस्तुत मानव मे राम है अथवा वह कोई लोकोत्तर सत्ता है इसकी कहापोह से बेचारे मानव का क्या सधा, प्रसाद वाङ्गमय ॥६२॥ . वह जहाँ का तहां पड़ा रहा। विलक्षण और चमत्कार भरे तकासव को उसे लत पड़ गई और मध्य वग के ऐसे वाग्विलास उसके लिये एन्द्र जालिक आक्पण-केन्द्र वन गए। उसे बताया तो जाता है कि राम जैसा आचरण करो रावण जैसा नहो, किन्तु अपने को राम मत मानो, अथत अपने राम को जानो नहीं। यह क्या विडम्बना नही? अनुग्रह को महिमा के सन्दर्भ में यद्यपि गुंसाई जी ने बताया 'जानत तुमहिं तुमहिं होइ जाई' किन्तु विकल्प धारा के 'तुमुल कोलाहल' में ऐसी 'हृदय की बात' कोन सुनता फलस्वरूप वह (मानव) अपने को राम न जान सका फिर वैसा आचरण कैसे करता ? सुतराम समाज के रावणीव्रण दाह और पीडा से उसे विकल किये है। साहित्य ने इस दिशा म समाज का क्या उपकार किया? उस पर सर्वाधिक गुस्तर दायित्व था। दुख दग्ध जगत और आनन्दपूण स्वग के एकीकरण को साहित्य मानने का अथ होगा दानो को स्वतन्त्र सत्ता एव तज्जननी वेपम्य के उपसगां का निरास और निषेध और वैसे साहित्य मे सवमागत्य की सवसुन्दरता से मण्डित समाजमूर्ति का चिन सहज हो प्रतिफलित रहेगा। विडम्बनाओ के विद्रोह म उन निबन्धा मे स्थापना मिलती है। चिन्तन और अनुभूति की तपस्या म कामायनी के लिये वह पीटिका प्रस्तुत हुई जिस पर समष्टिभूत मानव अपने मौलिक समस्या का समाधान यथाथ के वास्तविक विम्ब आदश के निमल मुकुर म पा सके, और जिसके पान राम, कृष्ण और बुद्ध के भी पूवज हो और, जो सृष्टि के उद्भव से लय पयन्त की बहुस्तरणीय क्या कह सके । पान महत्ता और भूमिका स्फोति के सन्दभ मे ये तथ्य अवलोकनीय है जिसके आलाक में दिव्याक्षरो मे अकित मानव भावो के सत्य से समन्वित 'चतना का सुन्दर इतिहास निखिल मानव भावो का सत्य विश्व के हृदय पटल पर दिव्य अक्षरो से अकित हो नित्य' (श्रद्धा सग) कामायनी मे देखा जा सकता है । रूपक सत्ता पर, चैतन-दृष्टि से विचार के वाद पदार्थ दृष्टि से भी उसे देख लेना है । गुणमयी प्रकृति का अस्तित्व गुणो के विपमावस्थागत परस्पर घात मे स्फुरित है। मात्रा और स्फूर्तिगत अनवरत परिवत्तनो से गुणो मे परिच्छिन्नत्वेन उ मुख विमुख, मगत विसगत, संयुक्त वियुक्त आदि द्वन्द्वात्मक विरोधिभावगत वस्तुतत्व पदाथ रूप में परिणत हो जाते हैं जिनके नानात्व की सहति के काय को जड से चैतन का विकास मानने वाले विश्व कहते है । अनेकात्म विचारधारा की प्राक्कथन ॥६३॥ विश्रान्ति वा यह स्थल होता है। वही गुणो को भी पदार्थरूप या रूपाधीन माना जा जाता है। गुणो। घटन मे प्रस्तुत तत्व सहति रूपाकार होपर यत प्रतिक्षण प्रतिपद परिवतनाधीन है अत उनमे, अन्य शब्दो मे घटना मे तो अनित्यता का आरोप सहज है वितु घटित विश्व की तथता और वतमानता का वस्तुगत निषेध कहाँ ? विश्व चाहे सहतिजन्य वहा जाय अथवा स्वोन्मिष्ट विन्तु है एक घटना का पदाय भूत कठोर सत्य । और, इसे ही अमत्य मान बैठो से मनोपियो । तत्व चिन्तन को कहा ठाव मिलेगा? जगत मिथ्या कहने वालो की शास्त्रीय व्यायामशाला फिर कहा होगी? पदाचित, यह उपक्रम कुछ वैसा ही होगा जैसा कृषि-वाणिज्य व योगक्षेम को उपेक्षा और हेयता दते समग्र मेदिनीमण्डल को पीतपाय से ढंक कर भी गृहपनि के द्वार से पिण्डपात की अभिलापा। इस घटन क्रिया से समग्र भूत-तथता वो सहति यो एवं पटना- प्रवाह के रूप म लेने की सुविधा हो जाती है और फिर एक ऐसा अद्धविराम आता है जो कुछ के लिये पराविश्राति का स्थल बन जाता है, फलत प्रमाणवार्तिक अलमिति के स्वर म 'सहती हेतुता तेपाम्' कह देता है। किन्तु उस कारण भूत सहति के कारण पर विचार की आवश्यक्ता न हुई आर सुविधानुमार मोमासा वही राय दी गई। ध्यातव्य है कि सहति पनिया म सहत इकाइयां सहत हो कर भी एकी भूत ही होती' इयत्तायें मिलित होकर भी आस्तित्व रमतो है, उनकी प्रकृति केवल अशात्मक्तया उपहत होती है। उनके गुणो म साम्य नही आता सुतराम प्रकृति का सवथा निरास नहीं होता। यदि उनम साम्य आ जाय तो फिर सवत की दशा होगी विवत्त की नहीं। फिर सहति म हेतुता ही तो है हेतु पहा? पदाथगत नानात्व की सहति से चेतना के विकास की करपना करते हुये भी चेतनगत चेतना की चेतना सामा यत अनदेखी रह जाती है । फलत पदाथगत नानात्व की अभ्यास-दृष्टि चेतना मे भी नानात्व का आरोप करती है सुतराम् अद्वय चैत य के विस्मृति की पहली छाप लिये द्वयता तत उसके परवर्ती मुद्राका से बनेकात्म-अचेतन पदाथ भूतबहुता के स्थान पर पदाथ-नानात्व की सहति से चेतना का विकास मान उमकी ( चतना की) परिच्छेदा म कल्पना कर ली जाती है, फलत पदाथभूत चैतन्य अपने अगो म स राग और सरक्त प्रसाद वाङ्गमय ।।६४ ॥ नही वि गग और विरक्त होता है और चिति केन्द्रो का सघष अनवरत हो जाता है। चेतनता का भौतिक विभाग, कर जग को बाँट दिया विराग चिति का स्वस्प यह नित्य जगत वह प बदलता है शत शत कण विरह मिलनमय नृत्य निरत उत्लासपूण आनन्द सतत तल्लीनपूण है एक राग झकृत हे केवल 'जाग जाग' (दशन) चिति केन्द्रो मे जो सघष चला करता है द्वयता का जो भाव सदा मन मै भरता है (सघप) पदाथ से चेतना के विकास अथवा चेतन से पदाथ के उन्मीलन इन दो मे किसी भी सरणि से चलने पर विश्व के रपकतत्व की सिद्धि है । अपनी साद्यन्तता में भी आदि अनन्त रूप भी मासमान वैचित्रय से भरा परस्पर विरोधि समागम से प्रस्तुत और गुणात्मक परिवतनो मे रयात, यह विश्व एक रूपक वृत्ति से स्फुरित है-'लीला का स्पन्दित आह्लाद है "चितमय' का 'प्रभापु ज' 'प्रसाद' अथवा 'प्रभापु ज चितिमय' की प्रसनता किंवा 'प्रसाद' है।' विश्वगत घटना प्रवाह मे घटको का आविर्भाव तिरोभाव छायामय और चलित चित्रो के सदृश-मरूप है जो एक रूपकीय सत्ता की परिणति घोषित करते हैं अथवा चेतन जिसकी प्राविधिक आस्या 'नतित नटेश' है 'परिवत्ता के पट' उठा पदाथ एव उसके सृष्टि-महार को गति चैतन्य देता 'नृत्य निरत' है। विश्व २ घटक-पदाथतत्त्व ऐसी रूपकीय सहति मे विरोधिसमागम- पूर्वक स्वत मच रुप हो परिणतिया अथवा गुणात्मक परिवत्तन प्रस्तुत करते ह । इनमे प्रत्यक्ष घटनासत्य के 'स्पग्रहण की चेष्टा अथवा कायता सचिराम और क्षयिणी होकर भी अपनी कायसत्ता की अविरामता और उसके अक्षय भाव का परिचय देती है- कार्यता क्षयिणीचात्र पुन कायश्च अक्षयम् (स्पन्दसन्दोह) १ जगचित्र रामलिख्य स्वेच्छातूलिक्यात्मनि स्वयमेव गमालाप सन्तुष्टा परमाद्भुतम (परावासना) भारायत जगच्चित्र सकल्पादव सवस्व (त्रिपुरा रहस्य) जगनाट्यप्रवत्तयिता सुप्ते जगति जागत्य (प्रत्यभिमा दीया) विसृष्टा गेप मद्वाज गभ परोक्य नाटक प्रस्ताव्यहरमहतुत्वत्त पोप मवि क्षम (स्तवरितार्माण) प्राक्रथन "६५) नट की रगचेष्टा अभिनय पदवाच्य है । छायामय चलचिनो मे पूवक्षण सम्पन्न घटनाओ के विम्वानुवार एक आवरण भित्ति पर उदयास्त पाते है। किन्तु इस परोक्ष अथवा अपरोक्ष घटित अभिनय मे नट के वास्तविक स्वरूप का अवगृहन और अयरूप की विधृति ही रूपक वृत्ति के मन प्राण-देह हैं । स्थूल कोपो के अन्वेपण करते करते जो विलक्षण प्रतीतिया होती हैं वे अन्तराल बाहुत्य का कथन करती हैं। उनमे भी चल रहे नटन-नत्तन के वैद्युतिक-तरग स्तर तक ही हम यन्त्र साधन से पहुंच पाये है-आगे क्तिना पथ शेप है ? कौन जाने ? किन्तु विस्मय तब होता है जब प्रगति और विकास के पक्षवर इसी विन्दु पर 'इदमित्यम' बोल देते हैं । यहा प्रगति रुकती है और अगति उपस्थित होती है। पदाथ सहति मे हेतुता कहने से यह अभिप्राय भी लिया जाता है वि हेतु पदाथगत न हो उनके परस्पर मेलन से विगलित भेद-सस्कार दशा के प्रति उन्मुखी प्रक्रिया मे, उसकी एकीभूत अवस्था किंवा अद्वयी भूत भाव मे परनिष्ठित है सुतराम् पदाथ या भूत तथता तो जडात्मिका हुई, और उसका मेलन एक चैतन्यमयी क्रिया हुई। सहति अथवा मेलन उन्मुखी भाव मे होता है जिसका मूल एक सकल्प विन्दु मे निहित रहता है। विकरपात्मक विमुखी भाव मे मैलन सभव नही । मेलन या उन्मुखी भाव के चेतन क्रिया की परिणति म पदाथ सहति किंवा विरोधिसमागम स्फूत है और गुणा के गुणनफल की भी यह उद्गम भूमि होगी जिनमे गुणात्मक परिवत्तन सभूत है। निष्क्पत , परस्पर उन्मुखीभाव की गाढता मे एकीभूतावस्था हेतुता की जननी है न कि निमुखी विकल्पो की वियुक्त असहत और अनेकात्म जडमानता । हेतुता कहते ही उसके अभिमानी हेतु का प्रसग आ जाता है । यत यन्त्रारुढ होकर हम हेतु सरणि के पिसी छोर पर नहीं पहुंच पाये मत अहेतु की वास्तविक्ता या उसके हेतुभूत रहने को कथा को एक कल्पना या मिथ्या-अनुमान बता देना कोई विस्मय को बात नही और फिर गुणमयी प्रकृति की कठिन धातु को पिघला कर एक नए साचे म ढालने की बात तो और भी उपहास की वस्तु होगी। फिर, वैसे हेतुभूत पदाथतत्व की सहति का यह प्रतिक्षण उदयास्त भी तो रूपक ही है । सुतराम रूपी का निजम्प या स्वरूप कुछ और ही होगा जिसके भगिमा को परिणतियो से यह विश्व रूपक प्रस्तावित प्रसाद वाङ्गमय ॥६६॥ और प्रस्तुत होता है। उस सहति में उन्मीलित उसके निज का क्या वह स्वरूप नहीं जिसके अश्यवीभूत रह समस्त तत्व समुदाय स्पन्दित है और जो अनेक न होकर ही रूपकोचित नाना ग्राह्य-ग्राहक भूमिकाधि- वासित अगण्य रूप सस्करणो मे परिच्छिन्नत्वेन भासमान है। यह पदायगत सहति विक्रम भावान्तर मे उदयार्थी हो आविर्भावपदवाच्य होगा और पदार्थों का प्रभृतित्व विलयन तिरोभाव होगा फिर यह तो हेतु नही परिणाम है । स्मृति विस्मृति और उसकी सन्ध्या का झिलमिल प्रकाश है जिसमे चैतन्यमयी सत्ता अपना स्वरूपगोपन कर रूपक- जीवन बनी है। स्वरूप की विस्मति और घृतरूप मे यथामभव गाढतम निष्ठा, अभिनय की प्रतिज्ञा है । अ-हेतु की लीला अथवा सचरणस्प हेतु का परिणाम विश्वाकार है। जैसे शून्य के अभाव मे, उसे आधार माने विना अको की दूरी ससझना सम्भव नही उसी प्रकार हेतु निषेध की जो अहेतुकी दशा है वही सर्वाधार और वही पदाथादय और तत्व सहत्ति को भूमि हो सकती है। अहेतु का ही स्फुरण लोला है। ( त्वमेव स्वान्मान परिणमायितु विश्ववपुषा)। बहुधा कामायनी मे प्रत्यभिज्ञा अथवा निक-दशन की विवृति बतायी जाती है । शेवागम की बातें कही जाती है। जो विक अथवा प्रत्यभिज्ञा को जो एक सम्प्रदायपिटक मान बैठे है, वे कदाचित उमकी मौलिक दृष्टि एव प्रयोजनीयता के प्रति न्याय से विमुख है। शैवागमा का विस्तार विधा प्रस्थित होकर, भेद भेदाभेद अभेदपयन्त स्फीत है। सुतराम् बहुप्रस्थानोय, अनेक-दृष्टि अवलोक्ति एव आधारभेद से भिन्न रूपाव- स्थानीय व्यापकम्प शवागम शब्द का व्यवहार कामायनी के लिये कहाँ तक उचित होगा, उदाहरणरूप जिसके अत्तमुक्त वीरशैव मत स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर को ही त्रिपुर रहता है जो अपेक्षाकृत स्यूल है। वीरशैव मत समाधि को सामरस्य मानता है जब कि अभेद धारा मे सामरस्य, निर्विकल्प-सविकल्प आदि समस्त दशाओ को क्रोडोकत करते सवथा विलक्षण है यही नहीं निक माग मे तो लोकानन्द और समाधि सुख भिन्न अथ नही रखते-'लोकानन्द समाधिसुख' शिवसून १-१०) । यद्यपि कुछ स्थत कामायनो मे ऐसे पाये जाते हैं जिनम प्रत्यभिज्ञा के सिद्धान्तो की छवि मिलती है । यथा-'कर रही लीलामय आनद',आदि । किन्तु इन्हे ही अलमित्ति मान बैठना सगत न होगा। वस्तुत प्रत्यभिना का भाव रूप क्या है, और उस दशन को तत्वसत्ता को मिस रूप प्रकार म प्रसाद भारती ग्रहण करती है, जिसमे एक शाश्वत चिन्तन धारा और - प्राक्कथन ॥६७ द्रष्टा और - युगवोत्र, उभय सवादित है यह ध्यातव्य होना चाहिये। क्या दर्शन और साहित्य को पृथक्श देविने मानने से ऐसा सम्भव है ? लोक-जीवन के लिये अव्यवहाय वस्तु की न तो दशन मे उपयोगिता होगी न साहित्य मे प्रयोजनीयता ही । विस्तार से बचने के लिये यहा निक और सामरस्य के प्रसग छोड रहा हूँ, यद्यपि वे प्रयोजनीय हैं यथावकाश उहे आलोचित किया जायगा। दृष्य के समन्वित मयोजन की प्रक्रिया म एक स्थितिमयी गति और गनिमयी स्थिति प्रस्तुत हो भावरथ के चक्के चला देती है और वाङ्गमय मे चेतना का अन्तमुख सचार हो उठता है-जिसे दशन की वाणी बता कर साहित्य की अभिजात धारा को मर मे सुखाने को उन्हे सुविधा हो जाती है जो अदशन मे उपरमित रहना चाहते है। वाग्रस को चरमावस्था की ओर जाते देखना, या तो वे चाहते ही नही या जानते नही । सुतराम्, 'पुरुषस्य वाग्रस' की सुधा से सुधि वचित रहती है प्रकारन्तरेण जिन्हे काल के बौने चरण ही प्रिय है और जो, उमके उस चिरप्रवाही समग्र धारा के महानिर्घोप से भीत है, जो महाकाल की स्थिति तक जाने को चली है। इस यात्रा का उपक्रम ही काल प्रवाह है, जिसकी उपेक्षा सम्भव नही । दशन एक गतिमय स्थिति है। क्रिया भी है सज्ञा भी दशा भी है दिशा भी। सज्ञा मान मान लेन से उस पर वेदात कथित शुद्ध ब्रह्म जैसी निष्क्रियता का आवरण पड़ जाता है, जिसे हटा उसे सक्रिय करने के अथ ऐसी माया आवश्यक होती है जो स्वय एक आवरण कही जाती है। यदि माया कोई आवरण डाल सकती है तो क्या हटा नही साती? यदि वह ब्रह्म मे क्षोभोत्पाद कर सकती है तो उसे शात भी कर सकती है, कृतित्व तो उसी माया म निहिति वताया जाता है। प्रतीत होता है कि विदेशियो द्वारा आक्रान्त और पराभूत-प्राय जाति जो विकास और प्रगति से दूर जा चुकी थी और आत्ममकुचित सामती युग मे जो रही थी, अपने परमतत्व को, ऐसे निष्क्रिय ब्रह्म रूप के अतिरिक्त अन्य कल्पना करनेम अक्षम थी, जो कि म-बोध होने के साथ हो सक्रिय भी हो। अतएव इतिहास के उन अधेरे क्षणो में अपने साध्य किंवा ब्रह्म को व्यावृत्ति एव त्याग अथवा स यास द्वारा पाने की एक विवशता थी अनुवृत्ति और ग्रहण को समयता पराभूत समुदाय मे सम्भव नही सुतराम भारतीय चितनपारा को तव वाध्य हा कर इस दिशा म मुडना पडा । वही जाति जब स्वतन आया की पराक्रमी जाति प्रसाद वाङ्गमय ॥६८॥ %3D . थो तर माया उसके पराक्रम प्रतीक इन्द्र को कर्मदायिनी शपिन थी। (इद्रो मायामि पुररुप ईयते-ऋक् ६-४७-१८) इतिहास । मलिन पार म उन्ही मार्यो के वशयगे द्वारा माया आवरण मोर प्रत्याय मात्र मान ली गई। सुतराम बाय विचारधारा का गतिमय दर्शन-- उमका क्रियामय रूप अब निष्क्रियता का स्तूप बन गया। इस प्रसग म प्रमाद-वाङ्गमय को प्रारम्भिक उठान अथवा प्रजभाषा वाल म हो भावी युग बी, लोग वेदना को, और विश्वमागत्य की सशक्त पुार मिलता है। ऐसो ब्रह्म रेइ करिहैं जो नहिं वह्त सुनत नाहिं जो कछु जो जन पोर न हार है। दान क्रियामय रह पर ही गति ममन्त्रित और जीवन्त रह सस्ता है। इसरिये भारतीय परम्पग म दशन मूलन जोवन-व्यवहार की गतिमया सत्ता के अथ प्रतिष्ठिन हुआ न मि जोवन से पृथन पेशल आदश-परा और दुष्पापणीय एक सिद्धान्त निन्दु अथा वाग्विाम मात्र । उसे ज्ञान स्प म मानने के साथ ही क्रियात्मा भी मानना ही हागा अन्यथा स्थिरमगल शिव से उसकी स्प दशक्ति को पृथव पर भर की उपासना बग्ने र अय ही क्या? प्रत्यभिज्ञा की धुरी महाकाल शिव उम्तुत कोई आकार कल्प वान वा कपना तरु का फल, जलाक्षतापास्य जटाभम्म क्लापो परिमित विग्रह नहीं। उस महबर की तात्विक व्याख्या मे भास्कररण्ठ कहते हैं-महेश्वर नानक्रियास्पमहैश्ययुक्त , सिद्ध -स्वयमिद्धनिजात्मरूपतया स्थित , न तु बहि साधनीयतया स्थित भगति, सिद्धा हि व्यवहारसमये पि तत्वाग्णस्मतिमगन्धादिमूलभूतयोजव ज्ञानक्रियाशक्तियुवतपरप्रमातृ- रूपातरतत्वमेव महेश्वरतया जााते न तु वहि कमपि भस्मादिभूपित मूढोपासनामानाथ कपित परिमित दवावशेषम् । ( ईश्वरप्रत्यभिज्ञा निमशिनो ज्ञानापियार ८ आह्निक- भास्करी)। प्रत्यभिज्ञा क्या है ? विस्मृत अविज्ञात का ज्ञात अभिज्ञा है जिसे तथागत-बुद्ध दिव्य ज्ञान के अथ मे रेते हैं विन्तु अनन्तर भी वहाँ सवाचि पानो रोप रह जाती है। पुराज्ञात विन्तु अधुरा विस्मृति की स्मृति का पुन लौटना प्रत्यभिज्ञा पदवाच्य है। जिस आवरण से ढक अभिन और विज्ञात स्वभार विस्मृत होकर भिन प्रतीत होने लगता है उस यावरण का निरास ही प्रत्यभिज्ञा है । प्रत्यभिज्ञा को तत्त्वत ग्रहण न कर सकने की दशा म उसका स्वरुप सम्प्रदाय परक और धम-मृरक मान रेन की सुविधा हा जाती है और निरपेक्षतया स्थित सवसामान्य, प्राक्कथा ॥ ६९ ॥ मान स्पन्दसत्ता बुद्धि के घरौदे मे बद कर अनेक स्पो म बताई जाती है, यह केवल बौद्धिक कौशल है। अपने एक लिंगात्मक प्रतीक में वह अलिंग-सतान जाने किस अतीत से विश्व-पीठिका पर आसीन और आदत है । भूगोल के सभी भागो म चाहे वे अफ्रीका के गहन वा मे हो, हिमालय को दुगम घाटियो मे हो अथवा योरप अमरीका मे हा अरब ईरान के मरु जागल प्रदेशो म हो अथवा वर्मा मलाया के सघन वनो म, यह प्रतीक अविज्ञात काल से चिन्तन और ध्यानसमपण का केन्द्र बना है। क्या मानव ने ज्ञानोन्मेप को उपा मे ही सृष्टि के प्रेरक अवस्थापक और समाहारक किंवा उसके उन्मीलक और निमोलक रहस्य की तत्वसत्ता का आभास अपने चित्त के अभिजात मुकुर मे महज ही पा लिया था ? जो, युगो के ओघ द्रदेशा म विस्तार विकेन्द्रण की झझा झेल कर भी निभृत कोणो मे अपनी परम्परा-सना बनाए हे ही, उस 'निराभास' का आभास उस सुप्त स्थानीय अणु मे अन्तर्जातत्वेन अनुम्यूत रहा, मानव रूप जिसका बृहण मात्र है। पूजने और पूजवाने के लिये सृष्टि प्रक्रिया के इस मूल रहम्य का चाहे बहुविध विडम्बन क्या न किया जाय किन्तु सात्त्विक अन्वेषण की निष्ठा उस सदैव अपनी तथता म पाती रही, उस तथता को कितने समीप से, यह प्रश्न दूसरा है। अचेतन के रहस्या के स्वामी भौतिक विज्ञान का चेतना के रहस्य तक अभी पहुँचना है। बहुवा उसे 'शिश्नदेव और अनार्यों के पूज्य के रूप म देखा जाता है। मानवी सामूहिक चेतना लाखा लाखा वर्षों पूर्व अपना प्रस्थान विन्दु छोड चली होगी और किती ओघ और स्थाना तरण, युग और महायुग बीतने पर आय्य अनाय्य, दश विदेश और जाति प्रजाति के विभाजना म समष्टि चेतना के कृतिम खण्ड बने होगे, कीन कह सस्ता है ? फिर उन सभी खण्डा ने ज्ञानान्मेप प्रथम उपा की लालिमा को नाना अनुम्प रूप प्रकारो मे इसे सचित रया हो ता आश्चय क्या ? सुतराम् वह एक देशीय या एक जातीय परम्परा तो हो ही नहीं साती। प्रसाद वाङ्गमय का सकल्प विदु प्रेम पथिक है जो प्रथमत सवत् १९६३ म प्रस्तुत हुआ अथात् कवि के १७ वप के वयम् मे। इसका प्रकाशन इन्दु मे सवत् १९६६ म हुआ। इसी वप से इन्दु का प्रकाशा प्रारम्भ हुआ था। पेम पथिक के प्रथम सस्करण की भूमिका (१९७०) म आठ वर्षों पूर्व प्रजभाषा रुप म इसके लिम्वे जाने का उल्लस है। प्रत्यभिज्ञा दृष्टि से शोध प्रस म केवल कामायनी के पने उलटना ही पयाप्त नही कामायनी वे मनु की चेतना 'रही विस्मति सिंधु म स्मृति नार विकल अकूल' को जब कूल किनारा मिलता है तब पहचानते है प्रमाद वागमय ॥ ७० ॥ "वही छवि ! हाँ वही वैसे । किन्तु क्या यह भूल ?" और प्रेम-पथिक का 'किशोर' तापसी चमेली को पहचान लेने पर कहता है "कौन चमेली? अरे दयानिधि यह क्या कैमी लीला है ?" भारतीय साहित्य म यह प्रत्यभिज्ञा का तत्व जब जब अपने आन्तर स्पश की सात्विक निष्ठा से उदित हुआ, विश्व को दृष्टि चमत्कृत हुई है, विस्मित हुई है। तत्व सयोग म विस्मय का आना तो कोई कुतूहल की बात नहीं, यह तो एक भूमिका है। ( विस्मयो योग भूमिका) विश्व साहित्य का उज्ज्वल रिक्थ शाकुन्तल क्या प्रत्यभिज्ञा की रूपकीय अभिव्यक्ति नही ? प्रमाद वाग्मय म प्रत्यभिज्ञा की स्वतन्त्रसरणि हे । साय विन्दु तक पहुंचने का एक मौलिक माग है, सुतगम् प्रस्थान विशेष का आरापित-आलोक व्यवहाय नहीं यद्यपि उनसे विवाद न तो तत्वत है न ता भावत अपितु वह अत स्फूर्ति है। इस दृष्टि का परिचय उस महत्वपूर्ण मवन् १९६६ मे लिखित भवित नामक निबन्ध मे या प्राप्त है-'मनुष्य जब आध्यात्मिक उनति करने लगता है, तब उसके चित म नाना प्रभार के भाव उत्पन्न हाते है । और उन्ही भावो के पर्यालोचन म उसके हृदय म एक अपूर्व शक्ति उत्पन्न होती है, उसे लोग चिन्ता कहत हैं। वह चितित मनुष्य ससार मे क्सिी 'अधटन घटना पटीयसी शक्ति की लीला देग्वते देखते मुग्ध होकर उस शक्तिमान की खोज करता है। जब वह भ्रमता है, तब उसे उन पथप्रदशको की मधुर सान्त्वनामयी वाणी क्ण गाचर होती है-"श्रद्धाभक्तिज्ञानयोगादवैहि । अस्तु । यदि उस सव शक्तिमान को कोई ऊँची वस्तु मान लिया जाय, तो भवित उसे पाने का दूसरा सोपान है, नही तो ऐसा हो मान लिया जाय कि किसी निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचने की, एक सहारे की श्रखला है, जिममे कि ये चार कडिया हैं। इनम ऐसा घना सम्बन्ध है कि वह किमी प्रकार मे नही छूट सकता। मानव सृष्टि धारा प्रवाह की तरह उस महासागर की ओर जा रही है । उस धारा प्रवाह म श्रद्धा जल है, भक्ति वेग है तथा उसका गमन ही ज्ञान है, और उसका याग हो जाना ही महासम्मेलत है। श्रद्धा 'भवित' मे केवल नामान्तर है, श्रद्धा का पूर्ण स्वरूप भक्ति है, भवित विना पहचाने होती नही, और विना मिल जाना भी नही जाता, इसी से कहते हैं कि इनका परस्पर धना सम्बन्ध है । इसे नामा तर अथवा भावभेद भी मान सकत है। श्रद्धा के परिपाक म भक्ति से उसे मनुष्य कहता है-'सत्य' जब उसके मगलमय स्वरूप का देखता है, तब उसके मुख मे अनायास ही- प्राक्कथन ।।७१॥... 'शिव'-निकलता है, पुन मनुष्य उस आलोक्कि सा दय से आदित होकर कहता है--'सय शिव सुन्दरम् । ( इन्दु का फागुन सवत् १९६६-चित्राकार मे सग्रहीत ) कामायनी शियर की यात्रा का यह आदि सोपान है । आसू मे यह दृष्टि सक्रिय और प्रौढतर भाव म मम्मुख आती है--विस्मृति समाधि लेती है जिसमे मगल की सम्भावना का विश्वास दृढ होता है । द्वन्द्व परस्पर उन्मुख दशा म मिलित होते हैं, सग और प्रलय को सध्या तो होती है किन्तु पुन उदित होने की एक मम्भावना लिय- विस्मति समाधि पर होगी वर्षा क्याण जलद की सुख सोये थका हुआ सा चिता छुट जाय विपद की चेतना लहर न उठेगी जीवा समुद्र थिर होगा सन्ध्या हो सग प्रलय को विच्छेद मिलन फिर होगा विस्मृति की अव्युत्थित दशा किंवा स्फुरित अवस्था में जिस स्मति का जागण होता है उसमे वह 'चेतना लहर' नही उठती जिसमे 'जीवन समुद्र' आलोडित हाकर सुख दुस 'विच्छेद मिलन की प्रतीत कराता है । मग प्रलय किंवा उन्मीला निमालन का वह अकाल पदवाच्य मन्धि काल हाता है वहा न ता विरह की वास्तविक्ता है न मिलन का यथाथ न तो सुख की वेदना है न दुख की वेदना, कारण ये सभी द्वन्द्वात्मक और द्वयता परक है और अपने अनुकूल परिस्थिति मे ही जीवत रह सकते है। अद्वय सामरस्यमयी प्रत्यभिज्ञा मे इन्ह कहा स्थान ? किन्तु अभी उसको अर्थात् विस्मति की समाधि दशा है, उसका समग्र तिरोभाव नहीं। और, समाधि से तो व्युत्थान भी सम्भव है । कारण, ज्ञानलेप के रूप लिये, कम और सम्कार की सन्धि म जागरित उस वासना (अनादि) का पूर्णत प्रहीण होना उस समाधि म भी सम्भव नहीं जिसके क्षोभ के परिणाम द्वन्द और विपमता मे वीजभत है । नव हो जगी अनादि वामना मधुर प्रकृतिक भूख समान, चिर-परिचित-सा चाह रहा था, छन्द सुखद करके अनुमान । (आशा) अनुग्रह की मगल मूर्ति की अनुभूति से हो उम विस्मृति का पूणत विदग्य होना सम्भव है, उम शक्ति-शरीरी का प्रसाश, सर शाप पाप का कर विनाश नतन म निरत, प्रकृति गल कर, उस कात्ति सिंधु म धुल मिल कर म्वरूप धरती सुन्दर, क्मनीय बना था भीषणतर, होरप-गिरि पर विद्युत विलास, उल्लसित महा हिम धवल हास प्रमाद वाङ्गमय ।।७२।। अपना - दवा मनु ने नतित नटेश, हत-चेत पुकार उठे विशेप, 'यह क्या । श्रद्धे । वस तू ले चल, उन चरणो तक दे निज सबल सर पाप-पुण्य जिसमे जल-जल, पावन वन जाते है निमल, मिटते असत्य से ज्ञान लेश, समरस असण्ड आनन्द वेश" और तब आसू की 'चेतना लहर' अपनी महाव्याप्ति में समुद्र बन जाती है- वैसे अभेद सागर म प्राणो का सृष्टिक्रम' लिये जीवा अब लहर भान रह जाता है । नयाभूत अतस्तरग जीवन फिर पूणवोध की भूमि पर समष्टिगत चेतन समुद्र में समरमता म रसमयोदशापन होता है । एव, अभिव्यक्ति की प्रक्रिया किंवा व्यक्तीकरण मे जो स्वभाव के भावा कार खडे होते हैं वे फिर व्यक्ति पदवाच्य हो जाते हैं। व्यक्ति शब्द स्वय अपनी कथा कह रहा है। विश्वचेतना को वह पूर्णकामावस्था होती है जहा। चेतन समुद्र म जीवन लहरो सा विसर पड़ा है, कुछ छाप व्यक्तिगत, अपना निमित्त आकार खड़ा है। आसू की 'चेतना लहर' कामायनी के "चेतन समुद्र" म परिणत हा--एक महाविम्ब प्रस्तुत करती है । भारतीय काव्य के धगतल पर जिन व्यग्योदित भावाकारो के प्रमग म 'विम्ब विधान' का कथन हो रहा हे उसे पश्चिमीय 'इमेजरी' के अथ म प्राय ले लिया जाता है जो कदाचित् भ्रान्तिमूलक है वहा ऐद्रिक और प्राणिक स्तरो के अतिरिक्त विम्बा को अन्य भावभमि दुलभ है और, मानम वरातल के बाद तो विम्ब चमत्कृति वहा अनुभेय भी नहीं । जब कि भारतीय चिन्तन और आगे बढ विज्ञान एव आनन्द भूमि की अगला खोल बिम्ब और उम अनुकार पाता है, यह उसकी दृष्टि-परक चरम उपलब्धि है जहाँ पहुँच कर कहा जाता है 'आस्वा दनात्मानुभवो रम काव्याथमुच्यते' । एक दृष्टि ( माण्डूक्य कारिका) आत्मानुभूति या साक्षात्कार के पथ मे 'रसास्वाद' को बाधक मानती है उम दृष्टि के दृष्ट रस मे 'रसोवै स' की वह विराट 'स' सत्ता (तैत्तिरीय) न होगी अपितु विक्रपाधिवासित रसास्वाद की कोटिया होगी जिनमे अद्वयानुभूति न पा कर आचाय गौडपाद में प्रज्ञया नि म्सग हाने की ऐसी व्यवस्था का मिलना कुछ अस्वाभाविक नहीं । प्राक्कथन ॥७३॥ पश्चिमोय काव्यशास्त्र प्लेटो से चल कर अधुनापि एक निणप- दृष्टि पाने के लिये प्रयोगावस्था से ससरित हो रहा है यह वात बय है कि काव्य प्रयोजनीयता के प्रमग मे प्लेटो की लोकमगल परक एकायनी दृष्टि आगे चल विशीर्ण हुई, कारण प्लेटो की समाज-करपना सामान्य नही बग निष्ठ रही और भात्मानुभूति को वह व्यापक्ता भी वहां नही मिली जो यहाँ सुलभ रही। वैमी दशा मे जीवन दृष्टि-अनुकूलित तत्व चितन का ही वहां प्रसार हो सका तत्व विचारपरक जीवन दृष्टि का जागरण न हो पाया जो विकल्प डोर से बधे काव्य को सकल्प विन्दु तक अग्रसर करती। रोक्मगल की भारतीय परिभाषा सदैव से आनह्म- स्तम्ब स्फोत रही । अस्तु, इस प्रमग की विवेचना म जाने से व्योरे तथा विपया तर का भय है । कुतकोय विवेचनो के आयाम को तुलना म भी 'इमेजरो' का मूल्याकन अल्प ही बैठता है। मस्कृत काव्य शास्त्र मे यह पिम्वभाव अलकारत स्वीकृत हुआ है जहा बिम्ब प्रतिविम्ब चमत्कृति दृष्टात-अलकार पदनाच्य होता है (माहित्यदपण )। किचिदन्तरेण काव्यदपण के निदशन अलकार द्वारा यह नामान्तरित है । सुप्त वाच्याथ भार जाग्रत व्यग्याय म विम्ब इगनीय है स्वनि सम्प्रदाय इसका क्थन अपने ढग स करता है । कि तु, आज इस बिम्ब को शव्दत और भावत जैसे वाच म ग्रहण किया जा रहा है वह भारतीय काव्यशास्त्र के उतना समीप नही जितना क्राशे या जुग प्रभृति के निकट है। यह भी ध्यातव्य होगा कि सभ्यता और समाज के विकास के साथ साथ उपमान का क्षेत्र भी विस्तत हुआ सुतराम भारतीय काव्यशास्त्र को अपने मागका को अनुकूलत विकसित विस्तृत करना होगा। प्राय अपरोक्ष बिम्ब के आधार पर परोक्ष बिम्ब कल्प्य होते हैं । इन्द्रियवग के प्रमातृपद पर अधिष्ठित हो विषय-वग से व्यवहार की दशा म और मनस् के प्रमाता स्थानीय हा उसके इन्द्रिय विषय बग से बहिमुख-व्यवहार की दशा में ऐकन्द्रि निम्न का स्थान है मन के बहिमुखत्व की न्यूनतरात्मिक्ता म जहा आतर हेतु की जिज्ञासा का जागरण होता है वहा मानम बिम्ब का उदय सम्भव है । अतस्थ सक्रियता और बहिरग निष्क्रियता म इन्द्रिय चग की मनात्मुसी दशा स्वप्नावस्था ( साधारण ) पदवाच्य है। इस साधारण स्वप्नावस्था के अतिरिक्त एक विशेष स्वप्नावस्था वह हाती ह जहा इन्द्रिय और विषय के वर्गों के समाहार पूवक मन इन्द्रियोन्मुग्व नहीं अपितु मात्मान्मुख रहता है ( गर्भेचित्तविकासाद्विशिष्ट विद्यास्वप्न ) तन, आत्मा पमाता रूप म वैसे मन से अन्तव्यवहार की दशा म होता है यहाँ भी एक विम्ब भूमि सम्भा है किन्तु मन के आत्मोन्मुखी प्रसाद वाङ्गमय १७४॥ भार की प्रग्वरता अथवा आत्मा के ही तीन भाकपण मे, मन का रिलय भी सम्भावित है, फिर वैसी दशा मे पिम्प का प्रश्न नही आत्मा के ऐसे प्रमाता रूप का उदय निजानुभूति को गाढ सकरपमयता मे ही सम्भव है जहा कहा जा सकता है 'हम रोल एक हमी हैं और जिसकी अनुभूति स्वयमेव एक महाविम्ब है-काव्य है काव्य के इस स्प और ऐमी प्रयोजनीयता का विनियोग 'आस्वादनात्मानुभवो रम काव्यार्थमुच्यते' द्वारा इगित है। किन्तु, इन सभी स्तरो के विम्ब-सन्दभ म विधान अथवा निर्माण के म्वामित्व को कल्पना और जल्पना महकृति के ही माक्ष्य दगे | प्रसाद भारती की दृष्टि म यह सामान्य-सम्पदा है कोई 'निजी जायजाद' नहीं । वह भी निन्मयो ज्ञान-धारा की सीरी-सत्ता है जो माया के इन्द्रधनुपी चीर मे लिपटी एक भगिमा मी झलक जाती है उप क्षणोपला भगिमा का अभिव्यक्ति के कुछ उपस्करणा से सजा देने मान से उस मूर वस्तु पर जा स्वत एक अनुवृति है, अपना 'कजा मुग्वालिफाना' मानते हुये क्या अपने का ही उलित नही किया जा रहा है । भावावृष्टि और उमवे हठपूवक मघट्ट म बने शब्द-रेखा के चिन और सहजादित प्राप्त विम्ब के शब्दानुसार मे नीरक्षीर विवेक मनम कोई यत्र अभी प्रस्तुत नही हो पाया। विम्यानुकार की प्राजलता पर काव्य रक्षणा का उत्स्प निभर करता है। किन्तु वस्तुत यह विम्ब तो नहीं अपितु प्रतिबिम्ब कहा जा सकेगा जो काव्य-सरस्वतो वैसर-स्तर पर अथवा मातृका-मुकुर म देती है। सुतराम्, एतदथ भी अभिधान ही उपयुक्त शब्द हो सकता है, विधान अथवा निर्माण नहीं । समस्त ज्ञान निविशेपत मध्यमा वाक् म स्फुरित रहकर यथा काल मातृका म अधिष्ठान ग्रहण करते हैं। एव बोधात्मक ज्ञान की अनुभव-मत्ता वागात्मक रूप को अगीकार कर देती है, फिर बैसर व्यवहार मे उसका वागथ विवेक हाता है। निम्ब एमे बोवात्मक ज्ञान के वागोन्मुखता की प्रक्रिया का मध्यवर्ती प्रसग है। जिनका प्रति स्पण कम और सस्कार के मध्य स्फुरित वामना, निवन्धित मान करती है। और इस स्तर पर अभिव्यक्ति म जा प्रसाधन प्रस्तुत किये जाते ह वे ही अपने और निजी अथवा मौलिक कहे जा सकते हैं, मूलवस्तु नही-जिसे विम्ब रहा जाता है। एक धुंधली अया का तद्वत् अस्पष्ट अवतार और मुकुर पर पड़ने वाले रश्मि-व्यूह का प्रतिविम्व वडा अतर रखता है। जहा रश्मि-व्यूह प्रावतथन ॥५॥ वा प्रतिविम्ब अन्य भित्ति को अपित करने की क्षमता रखता है वहा छाया अपनी अस्पष्टता म विलीन हो जाने को बाध्य है। 'काव्य और कला' निवन्ध म काव्य का 'जात्मा को सकल्पात्मक अनुभूति और व्यक्ति निरपक्ष बताते कहा गया है-'इसी कारण हमारे साहित्य का आरम्भ काव्यमय है । वह एक द्रष्टा कवि का सुन्दर दशन है। सत्पात्मक मल अनुभूति कहने से मेरा जो तात्पय है उसे भी समय लेना होगा। आत्मा की मान शक्ति की वह असाधारण अवस्था, जो श्रेय सत्य को उमके मूल चारत्व म सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य मे मफल्पात्मक अनुभूति कही जा सकती है। काई भी यह प्रश्न कर सक्ता है कि सत्पात्मक मन की सव अनुभूतिया श्रेय और प्रय दाना ही मे पूर्ण होती है, इसम क्या प्रमाण है ? नितु इमलिये माय-ही माथ अमाधारण अवस्था का भी उत्ख किया गया है। अमावारण अवस्था युगो की ममष्टि अनुभूतिया म अन्तनिहित रहती है, क्योकि सत्य अथवा श्रेय ज्ञान कोई व्यक्तिगत मत्ता नही, वह एक शाश्वत चेतनता है, या चिन्मयी ज्ञान पारा है, जो व्यक्तिगत स्थानोयो द्रा के नष्ट हो जाने पर भी निनिशेप प से विद्यमान रहती है। प्रकाश की किरणारे ममान भिन्न भिन सस्कृतियो के दपण म प्रतिफलित होकर नालोक को सुन्दर और कज्जस्वित बनाती है ।' ज्ञानालो की आनन्दमयी रश्मिया मोदय बाध को निजानन्दमयी परिणति होकर निरपक्षत विकल्पमयी मस्कृतिया का अपनी अचल मकरपमयता बार भार सम्पदा से ओतप्रोत कर देती है जिनकी अवधारणा कवि कम की एक अमापारण आर अप्रमेय अवस्था है प्रसाद वाग्मय की मूलचतना इस अवस्था म भावत और अनुभावत अवस्थित है। जा सकल्पात्मर मूल अनुभूति तत्त्वत , भावत आर पदाथत 'श्रेय सत्य का उमो मूल चाम्त्व म सहमा ग्रहण' पर प्रसाद वाङ्गमय की काव्यभूमि का उन्मीलन पिये है वही अनुभूति अपने निबन्ध नान, अनवच्छिन्न जाध एव स्वतन्त्र प्रकाश के समन्वित प्रती "ध्रुवतारा" द्वारा "शेषगीत" म शब्दित हा जपन नायतन म प्रमाद वाङ्गमय क भावजगन की समची अभिन्यक्ति अक्स्थ किये है। यह प्राक्कथन बाध्यत एक असामा य त्वरा म प्रस्तुत हुआ, जिसमे विषय का सक्षिप्त विवचा हो हा पाया जा यथा कयचित् अपनी कभी आर त्रुटियो वे सहित विनम्रभावेन सुधीजना के सम्मुख उपस्थित है। बुद्धपूर्णिमा, २०३२ वै० रत्नशकर प्रसाद प्रमाद वाङ्गमय ।।७६॥ आदि इन्द हारे सुरेश, रमेम, घनेस गनेसहू शेप न पावत पारे पारे है कोटिक पातकी पुज "कलाघर" ताहि छिनो लिखि तारे तारेन की गिनती सम नाहिं सुजेते तरे प्रभु पापी विचारे चारे चले न विरचिहू के जो दयालु राकर नेकु निहारे ॥ प्रथा कविता.लेवन काल ईसवी सन १९०१ वाम१२ तार तीन ारम्भिक कवितायें प्रारम्भत "कलाधर' उपनाम से पूज्य पिताजी ( श्री जयशकर प्रसादजी ) कवितायें लिखा करते थे ऐसो प्राय छोटी बड़ी चार सो कृतिया थी जिहें कुछ घरेलू कारणवश सन १९०६ में उहाने कारखाने की जलती भट्ठी को अर्पित कर लिया। किन्तु उही के पैतृक अधिष्ठान 'सुधनी साह' की गद्दी के पुराने कागदो में कारखाने का उस समय का मुद्रित विनापन पत्र उपलब्ध हुआ जिसे 'प्रसाद की का यमयी हस्तलिपि' इतने दिनों से संजोये रखने का सौभाग्य प्राप्त है । इस पावन ऋक्य को प्रतिच्छवि और लिपिपाठ अगले पष्ठोंपर दिया जा रहा है। जहाँ "कलाधर" छाप वाली व्रज भाषा की कविताए प्राप्त है। चिनाशार ३ cuando riconoscim niel 03 लायी Barn 41144 izazon of chic miantan Constiane C0m amitramanand cukevin dulunae a १,५०ी 43 my HiBansaA4124 २४९ - Admin sigen oronalinim जा गोकपिल की tatutebar- Entertमश्री feminarianna Ration ५६ मा 63 - जीया ही anी पहिलाहीही ?|| letin ५ो? Jan ma Rangan iyamire आसन तेरे अमोल कपोल मनोरथ जो तेहि पै बिठलायो नैन के आसव चारु गुलावी छकाय के ही मतवालो बनायो कु तलदाम म फासि के ताहि भले विधि ही पुनि नाच नचायो बाहर जान न पावत रूप रहे अग मै औ पर उफनायो कीन्ही कठोरता जो हमते तक हाय की हूक हिये रहि जायगी दीठि वचाय के फेरत जो रुख तौ ह को न की मिलि जायगी नोके विचरि ले ये मनमाहि 'कलाधर' हूँ की कला घटि जायगी प्रेमी के राह को छोडिबे की सिल तेरी निसानी हिये धरि जायगी तोरि के नेह को काचो तगा तुम कोन्ही दगा यह नीक ना कीन्ही जो यह तेरे रही मनमाहितो क्यो पहिले ही नही कहि दीन्ही नैन की हाला छकाय बेहाल के फेरि ले कुन्तल मे कसि दीन्ही बेबस कै के 'कलाधर' को दिल दागि के काहे प्रिये तजि दोन्ही चिनाधार ॥५॥ th चित्राधार अयोध्या का उद्धार - वन मिलन प्रेमराज्य - पराग - मकरन्द बिन्दु अयोध्या का उद्धार महाराज रामचन्द्र के बाद कुश को कुशावती और लव को थावस्ती इत्यादि राज्य मिले तथा अयोध्या उजड़ गई । वाल्मीकि रामायण में क्सिी ऋषभ नामक राजा द्वारा उसके फिर से बसाए जाने का पता मिलता है पर तु महाकवि कालिदास ने अयोध्या का उद्धार कुश द्वारा होना लिखा ह । उत्तर काण्ड के विषय में लोगो का अनुमान है कि वह बहुत पीछे बना । हो सकता ह कि कालिदास के समय में ऋषभ द्वारा अयोध्या का उद्धार हाना न प्रसिद्ध रहा हो। अस्तु, इसमें कालिदास का ही अनुसरण किया गया है। -लेखक प्रसाद वाङ्गमय ॥८॥ अयोध्या का उद्धार "नव तमाल क्ल कुज सो धने सरित-तीर अति रम्य हैं वने । अरघ रैनि महँ भीजि भावती रसत चारु नगरी 'कुशावती" । युग याम व्यतीत यामिनी बहुतारा किरणालि मालिनी। निज शान्ति सुराज्य थापिके शशिकी आज वनी जु भामिनी।। विमल विधुकला को कान्ति फैली भली है सुललित बहुतारा हीर-हारावली है। सरवर-जलहूँ मे च द्रमा मन्द डोले वर परिमल पूरो पौन कीन्हे कलोले। मन मुदित मराली जे मनोहारिनी है मदकल निज पीके सग जे चारिनी है। तह कमल-विलासी हँस की पाति डोले द्विजकुल तरुशाखा म क्यों मन्द वोले।। चियापार ॥९॥ करि-करि मृदु केली वृक्ष की डालियो से सुनि रहस क्था के गुज को आलिया से । लहि मुदित मरन्दै मन्द ही मन्द डोले यह विहरण प्रेमी पौन कीन्हे कलोल ।। विशद भवन माही रत्न दीपाकुराली निज मधुर प्रकाश चन्द्रमा में मिलाली । विधुकर-धवलामा मन्दिरो की अनोखी सरवर महं छाया फैलि छाई सुचोखी । विविध चित्र बहु भाति के लगे मणि जडाव चहुँ ओर जो जगे । महल माहि बिखरावती विभा मधुर गन्धमय दीप की शिखा ॥ कुशराज-कुमार नीद मे सुख सोये शुचि सेज पै तहा । विखरे चहुँ ओर पुष्प के सुखमा सौरभ पूर है जहा ।। मुखचन्द अमन्द सोहई अति गम्भीर सुभाव पूर है । अधरानहि-वीच खेलई मृदु हासी सुखमा सुमूर है ॥ तह निद्रित नैन राजही नव लीला मय शोल ओज हैं । मनु इन्दुहि मध्य साजही युग सकोचित-से सरोज है। तह चारु ललाट सिन्धु मे नहि चिन्ता लहरी पिराजही। अति मन्दहि मन्द कान म मनुवीणा ध्वनिसो सुवाजही ॥ बढि पञ्चम राग म जवे सुविपच्ची ध्वनि कान मे पड़ी। जगि के तहं एक भामिनी अघ मदे दृग ते लख्यो खडी। प्रसाद वागमय ॥१०॥ पुतरी पुखराज की मनो सुचि साचे महँ ढारि के बनी। उतरी कोउ देव-कामिनी छवि मालिन्य विपादमो सनी।। कर बीन लिए बजावती रजनी मे नहिं कोउ सग है । वनिता वर-रूप-आगरी सहजै हो सुकुमार अग है ।। कल-वण्ठ-व्वनी सु कोमला मिलि वीणा-स्वर सो सुहात है । कुश नीरव लम्बे सुने जनु जादू सवही लखात है।। "तुम वा कुल के कुमार हो हरिचन्द्रादि जहा उदार से। निज दुख सह्यो तज्यो नहीं सत राख्यो उर रत्न-हारसे ।। "अनरण्य दिलीप आदि ने जेहिको यल अनेक सो रच्यो। रघुवश-जहाज सो लखो यहि साम्राज्य महाधि मे बच्यो ।। "अनराजक्ता तरग मे फैसि के धारनि वे अधार है। तेहि को सबही यही है "कुश" याको वर-वर्णाधार है। "तव वश सुकीर्ति को सौ अनुहास्यो उदधी वहै अजे । निज फूलन मो बढे नही अरु मर्यादहुँ को नही तजै ।। "जेहि वीति-क्लाप-गध सो मदमाती मलयानिलो फिरे । हिम शेल अधित्यकान लौं सवको चित आनन्द सो भरे।। चित्राधार ॥११॥ "जेहि वश-चरित्र को लिसे कवि वात्मीकि अजौ सुख्यात है। तुमही । निज तात सामुहे शुचि गायो वह क्यो भुलात है। "जेहि राम राज्य को सदा रहिहे या जग माहिं नाम है। तेहि के तुमहुँ सपूत हो चित चेतो बिगरयो न काम है। "तुम छाइ रहे कुशवती अरु सोये रघुवश की ध्वजा । उठि जागहु सुप्रभात है जेहि जागे सुख सोवती प्रजा ॥" नीरव नील निशीथिनी नोखी नारि निहारि। विपति विदारी वीरवर, वोले वचन विचारि ॥ "देवि ! नाम निज धाम, काम कौन ? मोते कहौ । अरु तुम येहि आराम- माहि आगमन किमि कियो? "तुम रूप निधान कामिनी यह जैसी विमला सुयामिनी । रघुवशहि जानिहो सही परनारी पर दीठ दें नहीं । "तुम क्यो बनी अति दीन? क्यो मुख लखात मलीन ? निज दुख मोहिं वताउ कछु करहुँ तासु उपाउ ॥ "जव ला करवाल धारिहैं रघुवशी दृढ चित्त मान के। कुटिला भृकुटि न देखिहें सुरभि, ब्राह्मण औ तियान के । प्रसाद वाङ्गमय ॥१२॥ शोचहु न चित्त महँ शक नाही मोचहु विपाद निज हीय चाहि । ईश्वर महाय लहि है सहाय मेटहुँ तुम्हार दुख, करि उपाय ॥" सुनि अति सुख मानी सुन्दरी मजु वानी गदगद सु गिराते यो कह्यो दीन-वानी । "तुम सुमति सुधारी ईश पीरा निवारी अब सुनहु बिचारी है, क्था जो हमारी ।। "सुख-समद्धि सर भाति सो मुदा रहत पूर नर नारि ये मुदा अवध-राज नगरी सुमोहती लखत जाहि अलकाहु मोहती ॥ "इक्ष्वाकु आदिक की विमल- कीरति दिगन्त प्रकासित्ता। सो भई नगरी माग कुल- आधीन और विलामिता ॥ नहि सक्यौ सहि जव दुख तव आई अही ले के पता । सो मोहिं जानहु हे नरेन्द्र । अवध नगर की देवता ॥ "जहँ लग्यो पिपुल मतग- तुग मदा झरै मदनीर को। तहँ निमि लसे बहु वक्त व्यथ शृगालिनी के भीर को ॥ जहें हयन हेपा विक्ट- ध्यति, शत्रु-हृदय कैंपावती । तह गिद्धनी-गन है सुछन्द विहारि पे सुख पावती ॥ जह परत कोवित पलित- वोमन्नाद अतिहि सुहावने । सो सुनि सक्त नहिका , कारन ये कुचोल भयावने ॥ चित्रापार ॥१३॥ जहँ कामिनी कल किंकिनी घुनि सुनत श्रुति सुख पावही । तहं विकट झिल्लीरव सुनत सुक्हत नही क्छु आवही ॥ "कुमुद" नाम इक नाग वश है समुझि ताहि यह बोर अश है। विगत राम जनहीन दीन है निज अधीन करि ताहि लीन है ॥ उजरी नगरी तक तहा मणि-माणिक्य अनेक है परे । तेहि वो अधिकार में किये सुख भोगै मव भाति सो भरे । रघु, दिलीप, अज आदि नृप, दशरथ राम उदार। पारयो जाको सदय ह. तासु उद्धार । निज पूवज-गन की विमल- वचि जाय। कुमुद्वती सम सुन्दरी, औरह लाभ वरवीर "डरहु न नेहु चित्त में धरे रहो धीर, कारिह उवारी अवध को।" भोर होत ही राजसभा मे बैठे रघुकुल-राई। प्रजा, अमात्य आदि सही ने दियो अनेक बधाई॥ श्रोत्रिय गनहि बुलाइ, सकर- राज दान मजि, पयानो कीरति हू लवाय।। सुनि, बोले प्रमाद वामय ॥१४॥ A जब अवध की सीमा लख्यो तब खडे ह्र सह सैन के । अरु कुमुद पहँ पठयो तवै निज दूत, शुचि सुख देन के॥ "बिनु वृझि तुम अधिकृत कियो यह अवधि नगरि सुहावनी । तेहि छोडि के चलि जाहु, नतु सगर करौ ले के अनी ॥" वह तुरत आयो सैन ले, रन हेतु कुश के सामुहे। इतहूँ सुभट सव अस्त्र लै तह रोष सो सबही जुहे ।। तहँ चले तीर, नराच, भत्ल, सुमल्ल सही भिरि गये। तरवारि की बहु मारि बाढी दुई दल के अरि गये ।। वढयो क्रोध करि कुश कुमार धनु को टकारत। प्रल तेज शरजाल छाडि चहुँ दिशि हुँकारत ॥ अम्वर-अवनिहि एक कीन्ह, पर सा सर छायो। अरगिन भरि-भरि नीर नैन भागे मग कुश प्रभाव लग्वि हीन होय के, कुमुद आप हिय माहि जोय के । निज निवास महँ जायके छिप्यो ताहि दूत कुश को तहा दिप्यो ।। परमा रमणी कुमुदती धन-रत्नादि ममेत सग लै, पुश को मिलि तोप दीजिये नहिं तो सैन सजाव जग लै॥ पायो॥ चित्राधार ॥१५॥ सुदर सहज सुभाव वदन पर मुनि-मन मोह । सूधी विमल चितौन मृगन से नैन लजोह ।। जेहि पविन मुख भाव लखे सपही सुर नारी। निज विलोल नव-हास विलासहिं करती वारी ॥ बैठो मालिनि तीर सुभगवेतसी-बुज म । विलसत परिमल पूर समीरन केश-पुज मे ॥ युगल मनोहर बनगाला अति सुन्दर सोहें। "प्रियम्बदा-अनुसूया ।" जावे नाम मिठोहैं ।। "री अनुसूया । देखु सामुहे चम्पक-लतिका । भरी सुरचि सुकुमार अग अगन मो कलिका ।। मन-ही-मन कुम्हिलात चिरत वेहाल विचारी । 'प्रियम्बदा' हग भरि चोली उमास लै भारी ।। "कोमल-क्सिलय माहिं क्ली धारति अलबेली। कुदन-सो रग जासु गढन मन हरन नवेली ॥ अपर कुसुम-कलिका सो करत फिरे रंगरेली । याहि न पूछत कोउ मधुकर सर ही अवहेली ॥ "याम मधुर मरन्द, पराग,सुगध मवै है । सुन्दर रूप, सुरग, जाहि-लसि और रजै है। पै स्खे परिमल पै सवही पाक चढावत । जैसे सूधो भाव न सब को हिय ललचावत ॥ "मातो मधुकर ह मधु-अव, विवेक न राग्वै । मुरि मुसुक्यान मनोहर पलियन को अभिलाखे ।। सूधी चम्पव-लता नहीं जानत रस केली। यहि विचार कोउ मधुकर नहिं अकहि निज मेलो ।। "इनको कुटिल स्वभाव कोऊ इनको का दोस। स्वारथ रत परपीर नही जानत किमि तोमै ॥ पाइ समीपहिं जाही सो वाही सो पागे । ये तो परम विलासी, नहिं जानत अनुरागे ।' बोली 'अनुसूया' यो-अनखि-"तोहिं का सूझी। जो बिनही बातन पर, वातन मार्हि अरुझी ।। तुम बनवासी काउ दूजा-नहिं सुनिवे वारा। बन म नाच्यो मोर कहो किन आइ निहारो?" प्रसाद वाङ्गमय।॥१८॥ "बहु लतिका नरु वीरुध, जे मम बाल सनेही । तिनको सिञ्चन करहु, अहै तुव कारज एही ॥ यह अशोक को पादप जामे किसलय कोमल ! औरहु परम रसाल लखहु करना कदम्ब भल ।।" "अहै माधवी लता मृदुल-कलिका-नव धारति । 'शकुन्तला' के विरह-अश्रु की बूंद पसारति ।। तिज मनाल सी वाहनि सो भरि गागरि आनी। जाको साझ-मवेरे सीचति दै-दे पानी।" "ये सब सोचन हेतु अहिं बातें तुम करती। कुसुम चूनिवो और यहै, क्यो वरमत अरती ॥" शकुन्तला को नाम सुने दूजी यो बोली- श्यो हत नाहन दवी आग यो कहि पुनि खोली ।। पाइ राज-सुख सखियन को निज हाय । विसारी। बहुत दिवस वीते, निज-खबर न दोन्ही प्यारी ॥ अहो गौतमी हू कछु कहत न रजधानी की। मम वनवासिनि सम्वी जु शकुन्तला रानी की॥" "नगर नागरी महरानिन के सैन अनोखे । वह सूची बन-बाला पिय को वैसे तोरो॥ जाने दे, पिन काज कहा बैठी बतरावत । पाइ पिया कोपम मयिहि विन पूछन आवत । अहिं गुपहिं आहार देयो हैं हम वारी । बहुत भोर भई सु कुटीरहिं चलिये प्यारी ।।" तर काश्यप को शिष्य तहा गालव चलि आयो । "कण्व कहा है " पूछ्यो तिनसो अति हरपायो ।। "अग्निहोत्र-शारा मे"-वहि दोनो वन वाला। बुसुम-पान लीन्हो उठाइ मारुति की माला ।। लजत मराली गमन लगे, ये दोनो आली। यलर-वरान ममेटि चली ले कुसुल उतालो ।। पोक्लि सो निज स्वर मिलाइ यह बोलत बोली। निज पाश्रम पै पहुँची वै गर करत ठिठोली ॥ तुमुम-पान धरि गुग्न्समीप निज सिरहि झुगाई। वन्दन पर बैठी वे, मनकी माहिं दुराई। चियापार ॥ १९॥ वोल्यो गालव करि प्रणाम भपिवर को कर सो- "ले सँदेस हम आये हैं अपने गुरवर सो॥ महाराज दुप्यन्त सहित निजसुत प्रियवर के। शकुन्तला-संग मिले, शाप छूट्यो मुनिवर के ॥ "बहु प्रत धारि अनेक कष्ट सहि पुनि सुख पायो । सुखद पुन मुस चद्र देखि अति हिय हरपायो । दलित कुसुम अपमानित-हिय, वाला बेचारी। शकुन्तला निज पति-सुख पायो पुनि सुकुमारी ।। गद्गद कण्ठ, सिथिल-वानी अति ही सुखसानी । बोले कण्व-महर्षि पम, अविरल ज्ञानी ।। "सवही दिन नहिं रहत दुख ससार मंझारी। क्हु दिन की है जोति कहूँ है चन्द्र उजारी॥" प्रियम्बदा अनुसूया हूँ अति ही हिय हरपा । थान्दित ह सुखद अथु निज आखिन बरपी । पायो जब सवाद मोहर निज अभिलाषित । भयो प्रफुल्लित तहिं वहै, तप-वन चिर-तापित ॥ "हेमक्ट ते उतरि मरीची के थाश्रम सो। आवत है दुपयन्त-सहित निज श्री अनुपम सो॥" मातलि आय क्ह्यो ज्या ही, सब ही हिय हुलसे । तह अनन्दमय ध्वनी उठी तबही ऋषिकुल से॥ शकुन्तला दुष्यन्त, बीच म भरत सुहावत । धम, शाति, आनद, मनहुँ साहिं चलि आवत ॥ देसत हो अबुलाय उठी, तुरतहि वन वाला। प्रियम्बदा, अनुसूया, विकसी ज्या मदु माला ।। भाट सखी गन सो, तबही वह रोवन लागी। हप विपाद असीम, अनन्दित है पुनि पागी॥ शकुन्तला निज बाल-सखी गल सो कहुँ लागे । बढ्यो अधिक आवेग माहि, नहिं गल भुज त्यागे।। करण, प्रेम प्रवाह, वढ्यो, वा शुद्ध तपोवन । बरसन लग्यो मनोहर मजुल मुंद आनंद-धन ॥ श्रद्धा, भक्ति, सरलता, सव ही जुरी एक छन । चिन-लिखे-से चुप कें देखत खडे एक मन ।। प्रसाद वागमय ॥२०॥ कछुक वर पर कण्व-चरण पर निज सिर नाई। करि प्रणाम कर जोरि, खडे भै विधुकुल राई ।। कुशल पूछ पुनि कण्व, दियो आशीप अनुपम । भरतहु पुनि की ह्यो प्रणाम, लहि मोद महातम ॥ शकुन्तला सो पालित तब, वह मृग तह भायो । सिर हिलाई अरु चरण चूमि आनन्द जनायो। माधवि रता मनोहर को निज करते परस्यो। वह तप-वन तव अधिक मनोरम ह सुचि दरस्यो ।। यज्ञ-भूमि को करि प्रणाम, आनन्द समैठे। पूर्व मिलन के कुज माहि, कछु छन सर बैठे ।। शकुन्तला दुष्यन्त, भरत, मालिनि के तीरन । वन-वामिनि वाला युग के सँग लागी बिहरन ॥ प्रियम्बदा मुख चूमि भरत को लेत अक मे। शकुन्तला अनुसूया सँग बिहरत निशक में। निजि बीते दिवसन की सुमधुर कथा सुनावत । चुप है ये दुष्य त सुनत, यति ही सुख पावत ॥ सरल-स्वभावा बन-बासिनि, वे सर वरपाला। क्थानुकूल सुधारत भाव-अनेक रसाला ।। पति सा बिछुरन-मिलन समय को कहि वहु वातें। चिर दुखिया आनन्दित ह सब मोद मनाते॥ प्रियवदा तव दुष्यन्तहि दोन्हा उराहनो। "महा परम धाम्मिक, तेरी है बहु सराहनो। शकुन्तला को शाप हेतु विस्मृत तुम कीन्हो । याही वन हम रहो, खोज हमरो हू लोन्हो? "अहो हात है अधिक निठुर र सर, नारी सो। जो लो मुस सामुहे बहें तो लो प्यारी मो ।। नहिं तो पोन वहा को, मो, पासा नाते । वह दिन पे जो मिले, तरी पूछी नहिं वाते ॥" अनुसूया हेमि बोली-"ये ता अति सूघे हैं। इनको यहै स्वभान पहा यामे तू पहें ।। गन्तला मुगरयाइ पह्यो-"जाने दे सपियो। इनवे भर वातन को अपने हिय म रपियो । शिवाधार ॥२१॥ अव यह मेरी एक विनय धरि ध्यान सुो तू । इनके विमल चरित्रन को हिं नेव गुने तू ॥ जामें फिर नहिं विछुरै, सब यह ही मति ठानो । सदन हमारे सग चलो अति ही सुस मानो।" यज्ञ प्रज्ज्वलित वन्हि, लसे सव ही प्रणाम क्यि । कण्व महर्षि अनन्दित का अभिवादन हू क्यि ।। शकुन्तला कर जोरि पिता सो हिय सकुचाती। कह्यो-"विनय परियो-कछु है पै नहिं पहि आती।।' घोले षण्व--"वहो, जो कुछ तुमको बनो है।" शकुन्तला ने कह्यो-"सखी-सग मोहिं रहनो है । इन ससियन के बिना अहा हम अति दुख पायो।" कण्व "अस्तु" कहि, सपको अति आनन्द बढायो । कञ्चन कक्न किकिनि का चलनाद सुनावत । नन्दन-फानन युसुमदाम सौरभ सो छावत॥ निज अमन्द सुचिचन्द-वदन सोभा दिखरावत । जगमगात जाहिरहि जवाहिर को चमकावत ॥ निज अनूप अति ओपदार आभा दिखरावत । चञ्चल चीनाशुक अञ्चल को चलत उडावत ।। पेश कदम्बन कलित कुसुम-कलिका विखरावत । मन्जु मेनका को देख्यो सब उतरत आवत । यथा उचित अभिवादन सव ही कियो परस्पर । शकुन्तला माता सो लपटी अतिहि प्रेम भर ।। भरत चन्द्रमुख चूमि भइ वह हिय सो हरपित । प्रियम्बदा-अनुसूया सिर कीन्हो कर परसित ।। कण्व दियो आसीस जाहु सव सुख सो रहियो । जीवन के सव लाभ प्रेम परिपूरित लहियो ।। चिर बिछुरे सब मिले हिये आनन्द बढावन । मालिनि-तरल-तरग लगी मगल को गावन ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥ २२॥ सब नरा निज मुदर मुनमुन मनि पागे । हिये ह यारद मुग्नि, मुन मन लागे॥ प्रेम-राज्य (पूर्वाद्ध) बाल विभावर सोहत, अरण किरण अवली सो। कृष्णा मोडत निजनव, तररित जल लहरीमो ॥ मलयजधीर पवन बन-उपवन महं सन्चरही। पोक्लि कुल क्लनाद परत अति मधुर विहरही ।। टालीरोट सुयुद्धमृमि म प्राव सूर्यकेतु महराज, प्रतिपक्षी बहु यवन राज मिति मेन मजायो । वोसम सग कादरता, 7 दृश्य दिवायो।। सिंहद्वार पर गडे नरेश लयं सेना का। याचवराजे यूथप सँगधेरै बनाता॥ सेनापति सह मैच, युद्धभूमिहि चर दाहा। पार वप मा वाल्य इव आगमन सुसीन्दा ।। विजयनगरे। महाबलः ॥ चदोरज्वल मुम मयुर, निमा होमी को भारत । महज मगेने बग, मनादर ताहि संवारत ।। कहो"प्रिया को विरह, तुमहिलसि सबहि बिसारी किन्तु वत्स यह वीरसम्म, कुलप्रथा हमारी ।। सो अब तुमहि त्राण की आशा हिय महं धारौ । काहि समपहुँ तुमहिं, चित्त नहिं कुछ निरधारी ॥' आयो तहं इक भील-यूथपति दुहुँ करजोरे। चरनन पै सिरनाइ, कह्यो अति वचन निहारे- "महाराज | यह राजकुवर हमको दै देहू । राखेंगे प्रानन प्यारे को सहित सनेहू ॥ अनुज एक सह भील, सैन्य आज्ञा पालन को। आपहि की सेवा मे है सेना चालन को ।। हिम गिरि कटि महँ, इनका लै हमहूँ चलि जैहैं। शनु न कोक इनको, सोजनते । कहुँ पैहैं । जव हम सुनिहैं विजय आपकी तो पुनि ऐहैं। कीन्हें नेक बिलम्ब न याम कछु फल ह हैं । "अस्तु' क्ह्यो पुनि शिरहि सूघि आलिंगन की हो। बालक को मुख चूमि, तुरत भीलहि दे दीन्हो । "दादा" कहि अकुलाइ उठ्यो तरही वह बालक । नैनन मो भरि नीर को नरगन के पालक 11 "दादा' येही है तुम्हरे, इनही पो कहियो । मेरे जीवन प्रान, मदाही सुखसे रहियो ।।" या कहि के मुस फेरि, अश्व पै निज चडि लीन्हो । सीचि म्यानते सड्ग, युद्ध समुख चलि दीन्हो ।। आवतही नरनाह, देखि सब छत्री सेना। अति उमगित भइ अग आनद अटैना ।। वीर वृद्ध महराज, बदन पर हासी रेसा । सव को हिय उत्साहित कीन्हा सव ही देसा ॥ जयतु जयतु महराज, क्ह्यो तव सवही फौजें। जलधि वीर रस मे, ज्या उडि उठी बहु मोजें। फरनि उठे भुजदण्ड, वीर रससा उमगाहे । चमक उठी तरवार, वम्म अरु चम सनाह ।। सैना करि कै भाग, एक सैनप को सौंप्यो। अरु एकहि ले आप अकेले रनको रोप्यो। प्रमाद वाङ्गमय।॥२४॥ शनुन ऊपर। . तव हर हर कहि कीन्ह्यो धावा गरड करत जिमि धावा, पन्नग प्रवल चमू पर ।। भिडे वीर दुहुँ ओर चली, कारी तरवाएँ । एक वीर सिर हेतु, अप्सरा तन मन वारें। दावि लियो क्षतीन, यवन के सब सेना को । भागन को नहिं राह, घेरि लीन्हो सर नाको। विकल क्यिो तरवार मारमो व्यथित भये सन । भागे यवन अनेक, लखें जहँही अवसर जर ।। है रणमत्त परे तवही सब पीछे छनी॥ तुरतहिं मार ताहि, जनहि देखें कोउ अत्री । परि कादरता क्छुर, यवन जे रन सो भागे । तेक मिलि तर लीन्ह्यो, घेरि वीर पथ त्यागे ।। उन क्षत्रिन सग महाराज, तिनमह पिरि गयक । सेनापति तह तिनहि, छुडावन को नहिं अयक ।। अहो । लोभ बस करत, काज से नर नारी । करत आत्म-मर्यादा, धम्म सवहि को वारी ।। रापत पछु। विचार नही यह पुय पाप सो। तृष्णा को मीचत, नर नित आस "भाप" सो।। नित्य परत जो पालन, तामो परत महाछल । यह विधि परत उपाय, वढाउन यो अपनो बल ।। चाहत जासो जोन, परावत है यह तामो। याको कोउ जीतत नहिं हारे सर यामी ।। परिपे वीर उम्मयर लरिने निज अरगिन सो। रापि स्वधर्म महान, टर्यो नहिं अपने पन सो ॥ मारि म्लेच्छनम परि, अनूप वर योर याम को। सूर्यापेतु तब गये, सुगद निज अस्तधाम यो॥ विश्वम्भर पे शान्त र पहें बायय रीन्हों। बागुतोष राय वा शान्ति अभिनव तेहि दोहा॥ "भारमभूमि पय तुग, पशुपम मान । भये जहा यह राा, अतुल महान ।। चियापार ॥२५॥ भये नृपति जह इक्ष्वाकु वलवान । जहा प्रियव्रत जनमे, विदित जहान ।। भये नृपति सिरमौर जहा दुप्यत । जन्म लियो जहँ भरत सुकीति अनन्त ।। जम्बूद्वीपहिं बाट्यो, करि नवसण्ड । निज नामते बसायो, भारतसण्ड ।। जिनके रथ सहसारथि, नभला जाहि । जिनके भुजवल-सागर को नहिं थाहि ।। जिनके शरण लहे, निर्विघ्न सुरेश । अमरावती विराजहिं, चार हमेश ।। जिनके प्रत्यञ्चा की, सुनि टनकार । अरिशिर मुकुटमणिन को सहै न भार ।। भये भीष्म रणभीम, हरण अरिदप । जामदग्निते रच्यो समर परि दप ॥ जिनकी देव प्रतिज्ञा को सुख्याति । गाइगाइ नहिं वाणी अजहुँ अधाति ।। विजय भये जिन भये पराजय नाहिं । जिनके भुजवल ते, प्रसन्न ह्र चाहि ॥ दियो पाशुपत व्योमकेश निपुरारि । किया दिग्विजय डारयो शनुन मारि ॥ जिनके क्रोध अनल मह, सुवा नराच । आहुति अक्षौहिणी, भई सुनु साच ।। वसुन्धरे तव रक्त--पिपासा धन्य । मरी जहा चतुरगिनि सैन अगन्य ॥ करि पुकम्म यह जब वह, क्षनी-फुल-बलक-अति । सेनापति यवन के, सैनप पह निशक मति ॥ गयो लेन निज पुरस्कार, तव सव उठि धाये । मातृ भूमि द्रोही कहि, अति उपहास बनाये ॥ तब अति क्षुब्ध चित्त, गृहको वह लौटन लाग्यो । देस्यो गृह के द्वार, एक बाला मन पाग्यो । प्रसाद वाङ्गमय ॥ २६॥ - . गृह मे देरयो नाहिं कोउ अति कुण्ठित भो हिय । ललिता को लोन्ह्यो उठाइ, अरु मुख चुम्वन किय ॥ रोइ कहन लागी वाला, तव अति दुख सानी। छाडि मोहि जननी हू, गई कहा नहिं जानी ॥" पुनि लखि वाला कर मह, पन एक अति आकुल । लीन्हो ताहि पढन को, तब वह सैनप व्याकुल ॥ पढ्यो ताहि "नहि अहौ-अहो तुम पती हमारे । तुम्हरे सन्मुख महाराज, किमि स्वग सिधारे ॥ तुम आशा मय वाला को, लीन्हे हिय पोयो । तुमहि क्षमा हित स्वग-मांहि महराजहिं तोसौ ॥ वह निराश निज हृदय, लिये तवही कुलघालक । कोन्ही उत्तर गमन, तबै सेना को पालक॥ कृष्णा वी नव तरल वीचि, अति कृष्णा लागे। अरु वह मलयजपवन नाहिं बहि हिय अनुरागै ॥ चित्राधार ॥२७॥ प्रेम-राज्य (उत्तराद्ध) सुरसरि-तीर तमाल कुञ्ज, श्यामल वनराजी। हिमगिरि धवल उतुग, सुखाया जल महं छाजी ॥ कुसुम सहित तरवर, की साखा जल भल परसत । परिमल पूर प्रभजन सों जहँ जन मन हरपत ।। कोकिल, कीर, मराल कलनाद करत जहँ विलसही। विकच कमल मकरन्दरि, मधुकर को मन हुलसही ॥ नवल प्रफुल्ल रसाल, बाल पादप के छाही । बैठी वालाएक सुभग, श्री अंग अंग माही ।। कुसुम कलिनसों बने, मनोहर भूखन सोहैं। सहजहिं छवि छलपति, जह दोक नैन हँसोहैं । कलसी जल भरि धरि रही, मृगछौना थिर सामुहे । कर पर कोर मराल ढिग, सिखी वृदहू जहँ जुहे ॥ प्रसाद वाङ्गमय ॥२८॥ चकित नयन ते लखत, पवन क्रीदत अलक्न भो । विमल वीचि के वीच झुक्त झूमत कमलन सो । कोकिल को कलनाद, सुनत धरि ध्यान रसाला। चतुर चितेरे चित्रित, सोह्र रहि वह वाला ॥ लखि मूरति शान्त सुरसरी हूँ को मन्द प्रवाह है। कुञ्जन मे छपिके मुमन, देसत सहित उछाह है ।। उठी बाल धरिगति मराल-मी चली बकुलतर । लागी अवचय करन, कुसुस सुकुमार निहिं कर ॥ कदली पात पिछाइ जतन-सो धरि ता ऊपर । लागी गूंथन माला, छोटे बडे मनोहर ॥ कीरहिँ, मगछौनहि, सिखिहि, यथा उचित पहिरावही । वेऊ नीचे गल किये, पहिरि मनी सुसपावही ।। यद्यपि मुस मुसुक्यात, छिपावत है कपोल म । तद्यपि हासी उछलि रही है दृगविलोल मे ॥ सुधर दन्त की पाति, मनो मुकता चुनिराखे । विमल कान्ति विधुमाहि, सुधाके निन्दुहि राखे । सहज सुमद वालक वदन, मचिसो देखत बनतही । आवत है पग चापिके, तस्ओटन मे छिपतही ॥ कलकिशोर वय चारु, नवल यौवन के रँगसो । वीर रसोज्ज्वल व्यञ्जर मजुल गठा सुअंगसो ।। दया वीर को प्रगट रूप सुमनोहर मोहत । मदनहु वदन जुलखै, रहे ठाढो नहि जोहत ॥ मोहत को नहिं माधुरी, छवि लखि हिय हरवात है। तरुवर हरियालीन मै, बालक विमल विभात है ॥ वाला के हग मी चि, कह्यो "हमको न जु बोलो?" “च द्रकेतु" कहि पुनि बोली, वाला "दृग खोलो।" उठे युगल हंसि दै दे, ताला मनसो हरपत । मनहुँ सरदघन मोतो की बूंदें ज्यो वरसत ॥ तारागन सह चन्द्र, लसै उज्ज्वल हीरन के ज्यो हार, निशा रानी के गर मे ॥ नवल चन्द्रिका की लहरं, तरलित हिय करती। विधु मण्डल ते विमल, सुधा यूँदै ज्या परती ।। अम्बर म। चित्राधार ॥ २९॥ छाया सो - 2 नील समुज्ज्वल गगन, नील तरचर को थेनी। नीलिमा-मयी सुरमरि सुपदेनी ॥ हँसत सुधावर तामे, रसि प्रतिविम्य मनोहर । लखि स्वरूप गरिता, आरसी ज्या निज भुसवर ।। अमर तरगिनि पुलिन, सिला पर युगल सुधाकर । चन्द्रकेतु ललिता, सेवत समीर सुखमावर॥ भील बालमन की अवली, नीरद की पाती। घिरि बैठे हैं एक सग, अति छटा लपाती॥ भील बाल इक बोत्या, "सुनिये सखा हमारे । आजु मनोहर निशा, परी क्रीडा मिलि प्यारे॥ च द्रवेतु ललिता को, साज राजा रानी । अर सर सहचर प्रजा, आमात्य, सैन्य, सैनानी ॥ दुगुम पलिनसा गाछि, मनोहर भुकुट बनाई। ललित मल्लिका हार, दिया गलमह पहिराइ ।। कामल रिसलय रासि, मिलहि सिंहासन साज्यो चद्रकेतु राजा वनि, ललिता-मह तहँ राज्यो। छोटे तीर कमान लिये, छोटे सब बालक । छोटी सैन्य सजाइ, वडे तहं सेना पालक । भील बाल मिलि राज, साज अति सुघर सजायो । चन्द्रवेतु ललिताहूँ, तिनमह मिलि सुस पायो । कोउ कहत "अब सर हम, बन आखेट करेंगे। अर नहिं जन काहूसों, अब हम कहुँ डरैगे॥' कोउ कहत "अब पथिरन कहें निभय लूटेगे। ऐमो राजा पाय, महोत्सव म जूटेंगे।' चन्द्रकेतु सुनि ये बातें बोत्यो अकुलाई। "तुम सब क्यो पापाणहृदय, वैसी कठिनाई ॥ अहो ल्सो यह विश्वेश्वर की सृष्टि अनूपम । शिवस्वरुप तिनमाहि, विराजत रखि सवही सम ।। यह विराट ससार तासु, अव्यक्त रूप है। यामे जगन की आभा, राजत अनूप है। शान्तिमयी दिग्वस्त्र सहित वह मनहर मूरति । चिताभस्म तममय, पै गुचि हिमगिरिसो पूरति ॥ प्रसाद वाङ्गमय॥३०॥ , चन्द्र सूय्य युगनेन, जवहिं वह अपने पेखत । तबही तममय जगत माहि नर आखिन देसत ॥ लखहु अहै यह व्योमकेग, अवली अति उज्ज्वल । तिनमहं नागमणिा सम तारे लसत समुज्ज्वल ।। गरल कण्ठ सबजन को दोष रहत धारे ही। अग्नि नयन तीसरो, रहत पलकन आडे हो । पराशक्ति वह प्रकृति, मक महँ अति छवि छावत । धम्म-वृषभ की असवारी, मन मह शुचिभावत ।। लसत समीप पडानन, वाहनहूँ को देखो। वीर सिंह चुप माधि, अहो बैठ्यो अवरेखो। तह गणेश को मपक हू को करहु कल्पना । पन्नगहू मन मारि, करत नहिं कछुक जत्पना ।। लवहु परस्पर परम, विरोधी कैसे शुचि सो। पान करत वह प्रेम-सुरसरी धारा रुचि मो ॥ भूननाथ सब भूतन संग क्रीडत है अविरल । पशुपति निज पगुगन, प्रतिपारत प्रेम सहित भल ॥ विशम्भर नित भरत और पोपत निज जन को। तुम सब व्यय पिरोध सहित धारत निज मन को। जो यह अनुचित करहु, विरोध तवै सुनि लीजै । निज विरोध मय राज्य, और काहू को दीजै ॥" तहि छिन तहँ इक वृद्ध, भील सन्मुख चलि आयो। सजल नयन कर बाधि, कह्यो मनसों हरपायो॥ "अहो बहै यह राज्य सबै विपि तुम्हरे लायक । अब सो तुमहिं बनोगे, हम सबके वरनायक ॥' शैशव सरल मंगोच सहित बोल्यो तब बालक । "दादा" तुम तो सवही विधि हो हमरे पालक । घाइ लग्यो अकुलाइ, अक मो है आनन्दित । वृद्ध रुमाली अश्रुन सीचि रियो ति पुलक्ति । शान्त मुखाकृति तापस-वेग तहाँ इक बायो। जेहि को देवत ललिता मुग्व रज्जा सों छायो। चरण गह, यो अति आकुलता, सकोच भरी सो । तापस लियो उठाइ ताहि, सुचि सुमन छगे सो।। चिनाचार॥३१॥ वोत्यो तापस आशिप-मह आनंद हिय भर फो। चवेतु के परपे धरि, रलिता के कर यो। "वनदेवी स्वर्गीया-सुसमा लरिता तू है । यह अनुरूप कुमार-हेतु सब लायक तू है। येहि सो तुम दोनो मिलि, प्रेम सुगाठिहि वाघो । तिज सुकुमार हृदय-मह पेमहि को आराधो ।। गगा यमुना के संगम सो प्रेम की धारा। सो सीचो या वन्य देश को मधुर अपारा ॥ ईश पाते नवविद्या, इन महें परचारो। हा असभ्य भीलन मह राज्य थापि विस्तारो॥ "जय राजा को" जय रानी की घोले वाल्व । तव हंगि घोले भील वृद्ध बालक वे पालव ।। "स्थ्यकेतु निज सुतहि, निसानी सम मा हि दोनो। आजु मिली जोडी विधि, यह अति सुन्दर कोनो ॥" "च द्रोतु मम स्वामी सुत, धन धन विश्वेश्वर । चिरजोन मम वत्म, होहु तुम श्रीराजेश्वर ।। दृग उठाइ लखि व्योम, पहयो तापस कर जोरे । "नाथ दास तुम्हरो यह, पोन्ही पाप धनेरे ॥ क्षमा करहु अव कोप दृष्टिते नहिं मा हि देयो । निज सुत भी सुत पत्नी को कृपया अवरेसो ॥ सहित स्नेह पुनि कह या, "सुपद" तुम सुसमो रहिये । क्षमा प्राथना करन मोहि, ईश्वर सों पहिये ॥' चन्द्रकेतु ललिता तब, दोना कर घर लीनो । यह यो “अवज्ञा भई कौन, जो तुम तजि दीनो ॥ भीलहि लपि पुनि वह यो, “यतन हमहूँ ते परिहैं। लहि इक्न्त हम यम्म हेतु अनुतापहि जरिह ॥" या कहि तापस दोनो के मिर पर कर रारयो। "विश्वेश्वर अन क्षमहु" अमृतमय मुससो भारयो । चद्रकेतु को रतन, जटित सिर मुकुट पिन्हायो । ललिता को मौक्तिका हार, गलमह अतिभायो । पहिरतही वह रतन मुकुट मोती की माला । अद्भुत् परिवत्तन को वारयो चालक वाला ॥ प्रपाद पाहमय ॥ ३२॥ यह किशोर नवचन्द्रकैतु ललिताहु किशोरी । तन्मय लखत परस्पर इकटक अद्भुत जोरी ॥ लखे नवल यह "प्रेमराज्य ।" अति है आनन्दित । चमकि उठ्यो नव चार-चन्द्र तारागन वन्दित ।। पराग अमोम "बाबा" मुयाप्त व रहें । अष्टमूर्ति सुरम्य शस्यावलि सो प्रपूरिता । अनन्त सौ दय्य विभा विराजिता ॥ सुअन्न ते पालत है जहान को । "धरा" धरै मूर्ति महा विधान को॥ विशाल ज्वालावलि सो प्रभा भरी। अमन्द आलोकहु ते जु सुदरी ॥ हविष्य को चार सुगन्ध है खरी। लसे सु "वैश्वानर" मूत्ति माधुरी॥ विनापार उपाधि है जीवन जानु डराब की। महान्धि है राखन मर मीद का॥ असीम आनद वग्ग पर है। प्रसन "कोलार" मुदिव मृर है ।। अखण्ड ब्रह्मा विनाम है जहा। अनन्त यो पर मुनीर है महा !! सहन मुमार उग ने रहे। ॥३३ "समीर" प्रभात मे सुन्दर रूप वारिदै । भ्रमे हुए पान्थ श्रमै निवारिक ॥ सु प्राणधारी-गन हेतु प्रान है। सौन्दर्य भरो महान है॥ असख्य नक्षन के सुलोक का। विराट-राजा-सम है अशोक को॥ प्रकाश सो पूर प्रभा पसारि कै। "दिनेश "नाशे अघ को प्रचारि कै॥ निशा सुराका मह मञ्जु भासि के । कला दिखाव सुखमा प्रकासि के ॥ सुधा-झरी-सी वरसे अमन्द है। महान राजे नभ चार "चन्द्र" है॥ दुखी जनो के दुख को निवारि के । सुखी करे धम्म महा प्रचारि के । आतिथ्य-सेवा-रत मोद को भरै। मनुष्य सत्वम्म सुयज्ञ को करै ॥ बसुन्धरा अम्बु, धनन्जयादि में। बिहायसी, पीन, दिनेश आदि मे ।। शशाक औ सज्जन म सुभावती । प्रभो, तिहारी सुखमा प्रभावती॥ प्रसाद वाङ्गमय ।।३८॥ कल्पना-सुख हे कल्पना सुखदान । तुम मनुज जीवन प्रान ।। तुम विसद व्योम समान । तव अन्त नर नहिं जान । प्रत्यक्ष, भावी, भूत । यह रगे निविध जु सूत ॥ तव तानि प्रकृति सुतार । पट बिनत सुचि ससार ॥ येहि विश्व को विश्राम । अरु कछुक जो है काम ॥ सबको अहो तुम ठाम । तव मधुर ध्यान ललाम ।। तव मधुर मूत्ति अतीत । है करत हीतल सीत ॥ व्याकुल करन को मीत । तुम करहु कबहु सभीत ।। शैशव मनोहर चिन ! तुम रचहु कबहुँ विचित्र ।। मनु धूल धूसर वाल । पितु गोद खेलत हाल ॥ तव सुखद भावी मूत्ति । जेहि कहत आशा-स्फत्ति ॥ मनुजहिं रखे विलमाय । जासो रहे सुख पाय ।। नवजात शिशु को व्यान । हुलसावही पितु प्रान ।। वह कमल कोमल-गात । जनु खेल्हि कहि तात || कहुँ प्रेममय ससार । नव प्रेमिका को प्यार ॥ कल्पित सुछाया चिन । बहु रचहु तुम जग भित्त ।। तव शक्ति लहि पामोल । यवि परत अद्भुत रोल ॥ राहि तृण-सविन्दु तुपार । गुहि देत मुक्ताहार ।। जह सुन्दरी ने नैन । वह रचत तहं सुख दैन । जलजातो जुग पात । तह गोल मनि सुविभात ॥ येहि भाति पौतुप पेलि । सर नियति को अवहेलि । जो परत नर सुख मानि | सो तव कृपा को जानि ।। तुम दान परि आनन्द । हिय को करहु सानद ॥ नहि यह विषम ससार । तह बहा शान्ति बयार ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥४०॥ मानस . . मानस । तुम मानस सम विमल विशाल। अगिनित वीचि बिलोल मनोहर माल ॥ उठत, चारु मिलि जात करत अति केलि । तव तरग अति मधुर सुधा अवहेलि ।। तव पुलिनोपरि बैठि मनुज मनमान । सुनत अनोखी तव तरग की तान । चिन्ता, हप, विपाद, क्रोध, निर्वेद । लोभ, मोह, आनन्द, आदि बहु भेद ॥ है यह मकर-निकर अरु मत्स्य महान । आशा सान ॥ चुंगत मौज भरि तेहिं करपना-मराल । विहरत बहु विधि "शोच" भरालिनि जाल ।। ग्रसत कबहुँ कल्पनाहि मकर महान। व्यथित होत यह मानि दुख अनजान ॥ सूक्षम अति तव कज-नाल को तन्तु । तवहूँ है फेसि जात भयावह जन्तु ।। तव तरग की सीमा यहि विधि नाहि । खेल्त जामहं चित-मराल सुख चाहि ।। भरे रतन मुकता की चियाधार ॥४१॥ शारदीय शोभा प्रभात विलसत मधुर समीर प्रवास, मानहुँ प्रभात यो सोरो। क्लरव मधुर विहग-संग, परि मुदित परत चित धोरो ।। औरहु मधुर दिवाकर, करहिं पसारत जब निजु सुन्दर । अलिकुल - मिपित सरोरह- गन को पीत करत सुमनोहर ॥ जलवण - भूपित शस्यश्यामला धरनी तर सुमन सौरभित शिखर बनाली, जल-लहरी पर सीरो।। पूरा। प्रसाद वाङ्गमय ॥४२॥ केरो। वा रजनी औरहु सुन्दर अति लखात आगमन सुसन्ध्या तापर शात विहगम-सग मनोहर रजनी हेरो॥ इन्दु वला परिवेष्ठित तारा - निकर व्याम-मुक्ता - सम । पै रजनी राज्य माहि नहिं वायु प्रभात मनोरम ॥ नाहि विहगम क्लरव, नाहिं सुवाल दिवावर किरनें। नहिं अरविन्द-विकास-महित नव ओसणा की झरने ॥ ये मिलि करत अराम संग ये नाही। शोभत अपने मो, शुचि रजनो माही॥ चित्राधार॥ ४३॥ सव सहचर हैं चद्रकला या चन्द्र निसि फलि रही निसिनाथ-धला । किरणावलि कान्ति लसे अमला ॥ बिलसै चहुँ ओर लखात भला । निधि छीर मनो बिहरै कमला ।। अमला किरणावलि पूर समी। सुरनारि कपोल-कला हुलसी ।। बिलस रतनाकर, अम्वर म- रतनेस न जासु काऊ बर म ।। कमला जल केलिहि हेतु रम । उडुराज किधी नलिनीगन म॥ शुचि व्योम-सरोवर के जल मे । शशि कै मुख-पज विकासन म । सुमहोत्पल है कि मयक क्ला। यह बारिधि कै शुचि व्योम झला ।। यह चारु पराग मरन्द सनो। बरसैपि जुन्हाइहिं चन्द मनो। प्रसाद वाङ्गमय ॥४४॥ रसाल-मजरी ऋतुनायक के कृपा दृष्टि ते यह अति लोनी । धारयो नवल "रमाल मञ्जरी" सुधर सलोनी ॥ कछुर मधुर मारन्द अवहिं यामे भीन्यो है । अब रो कोउ मधुकर मरन्द नाहि लीह्नयो है ।। अहो विमल मलयानिल । नेक धीर धरि आवो । कावेरी के रम्य तीर सो देगि न धागो । वरचम कुलवामिनि अञ्चल का नाहिं उडावो । नव मुकुलित मञ्जरी अहै इत धीरे आवो ॥ अरे नेक हटि टु डार पे ते मुन कोकिल ! मुनि तर पञ्चम राग जात मजरी अहै हिल ।। तव नैनन को लाली यह तो महि ना सवि है। नेक मधुर म्बर बालु पास रहि कैसे यरि है ।। वयो इतनी इतगत चले आवत हो इतनो। नेयहु रखन विचार नही हो अपने हितको॥ पुन मुमुद वन माहि कोजिये तो ग पेठी। मलयानिर । जो में चिवमै मजरी नवेरी॥ पीत-पटी कटि माहि रग सावरो निहारो। सवही भाति नन्दनन्दन को ही अनुकारो॥ करत फिरत मधुपान कुसुम नित नित प्रचीन सा । मधुकर । यह मञ्जरी अहै समुदित नवीन सो॥ बिनवौं तुमसो नेक कृपा करिकै सुनि लीजे । ममुझि सिखावन भलो चित्त मे ठाव सुदीजे ॥ चचलता तजि देहु अजू अपनी विचारि के। मजु मजरी पाइ भार दोजे सम्हारि के॥ प्रसाद पागमय ॥४६॥ रसाल ममीरन मन्द मन्द चलि अनुकूल, म्वेलत रमाल सग अति सुखमूल। उदार चरित तुम तवर राज, तुम्हरे सहाय बरी होत ऋतुराज । मजरो मधुर गन्ध कानन पूरित, मधु लोभी मधुकर निकर गुजिन । करत मुदित मन नवल मृजन, तुमसो सुखद और कौन है सुजन । ग्रीपम-निदाघ महँ शीतल मुछाया, श्रमित पथिर कह देह मन भाया। हरित मपन स्प तर निग्मत, पथिव हृदय महं सुख वरस्वत। निहारि नवर धन पुरवित ता, परव, कोपर नव परि वितगा। सहत अपार या परम रसाल, विहंग परत गान वैठि तव डाल। चियापार us वर्षा मे नदी-कूल सघन सुन्दर मेघ मनहर गगन सोहत हेरि । चरा पुलक्ति अति अनन्दित रूप धरि चहुँ फेरि ॥ लता पल्लवित राजै कुसुमित मधुकर सो गुञ्जित । सुसमय शोभा लखि मन लोभा कानन नव रजित ।। विजुलि मालिनि नव कादम्बिनि सुन्दर रूप सुधारि । अमल अपारा नव जल धारा सुधा देत मनु ढारि ॥ सुखद शीतल करत होतल विमल अनिल सुधीर । तरगिनि-कूल अनुकूल आइ चलत मेटत पीर ॥ तरग तरल चलत चपल लेत हिलोर अपार । कूलन सो मिल करै खिल खिलि तटिनि विस्तृत धार ।। वत्ति वेगवति चलत ज्यो अति मनुज ता वस होत । तरगिनी-धारा चलत अपारा चार कल कल होत ॥ कूल-तम्सनी अति सुख देनी सुन्दर रूप विराजे । वर्षा नटिनि के पट मनोहर, चार किनारी राजै ॥ प्रसाद वागमय ॥४८॥ उद्यान-लता सुमनावलि मो लदि मोद-भरी, पतिया सुलखात नवीन हरी॥ भरि अब अहो तुम भेंटति को, तरु के हिय दाह समेटति को। टक राइ सरे हग फूलन ते, मकरन्द भरे असुवा-क्न तुम देवति हो केहि आम-भरी । नहिं बोलति हो तरु-पाम सरो॥ यह नीरम है तर जानत ना। अति सोमः जानि अजान तना ।। जितनी भुजगच पमारति हो, तितनो यह रूख निहाति हो । मलिया जहँ मीचि लगावत है। तहहो तुमको मन भावत है ।। तर पाइ ममोपि मुपागति हो। तेहि नै गर घाद सुलागति हो । चित्रावार ॥४९॥ प्रभात-कुसुम घरे हिय माहिं असीम अनन्द । सने शुचि सौरभ सो मकरन्द | समीरन मे सुखमा भरि देत । प्रभातिक फूल हियो हरि लेत॥ मनो रमनी निज पीय प्रवास । फिरी लखि नै निज वैठि निवाम ।। निरेसत अश्रु भरे निज नैन । अहो इमि राजत फूल सचैन । कहो तुम कौन लख्यो शुभ-रूप । गही इतनी प्रतिमा सुअनूप ।। पड्यो तुम पै कहु कौन प्रकाश । इतो तुम माहि लखात विकास ॥ दिवाकर को कर सगम पाइ। अहो तुम फूल फिरो इतराइ ॥ अरे नहिं जानत फूल अजान । यहै करिहें तव मदन मान" प्रसाद वाङ्गमय ॥५०॥ विनय जो सव व्यापक तऊ सबसे परे हैं। जो सूक्ष्म हैं पर तक सुधा धरे हैं। जो शब्द मे रहत शब्द न पार पावै । ताकी महान महिमा कवि कौन गावै ।। जो भानु मध्य नित भासत ओज धारे। शीताशु जासु लहि कान्ति प्रभा पसारे॥ जाको सुगन्ध मलयानिल पाइ डोले ।। ताके महान गुण - ग्रथिहिं कोन खोले । जाने कृपा कहिँ पाइ तरगशाली। गम्भीर गज्जन करै निधि फेन माली ।। कैसो अनत वह देव दयालु सोहै। जो वैठि के सुमन मन्दिर माहि मोहै ।। जो नित्य सौरभ सने मणि-पद्मवासी। जो हस मानम सरोवर को विलामी ॥ जो पुण्य छोर पय पावन को विचारै । आनन्द के तरल वीचिन मे विहारे । जो कल्पवृक्ष नित फूलत मोद भीने । जा देत स्वच्छ मगल ह नवीने॥ ससार को सदय पालत जोन स्वामी । वा शक्तिमान परमेश्वर को नमामी। चित्राधार ॥५१॥ शारदीय महापूजन विश्व म आलोक चार लखात नव चहुँ ओर । धीर शीतल पौन पूर पराग वहत अधोर ।। नील निमल नवल सोहत सुपद मञ्जु अकाश । सुप्रसन महेश की लहिं महाशक्ति विकाश ।। शारदीय स्वरूप धरि आगमन जननी कीन्ह । धाय सो भरि के धरा को अमित सुख फर दोन्ह ।। देखिये यह विश्व व्याप्त महा मनोहर - मूर्ति । चित्तरजन परति आन द भरति है धरि स्फूति ॥ देवबालागन सचे पूजन करत सुग पाइ। तारकागन कुसुम माला देत है पहिराइ । चन्द्र का कपूर-नीराजन विमल आलोक । साजही सब शील सयुत धारि हृदय अशोक ॥ स्वच्छ नीर सुम्वादु सो मानहैं दया की धार । मोद को है लहत सव ही गहत गुनहिं अपार ।। कोटि कठन सो क्ढत क्ल कीर्ति नाद महेशि । विश्वधारिणि विश्वपालिनि जयति जय विश्वेशि ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥५२॥ विभो आलाकपूण सब लोकन म बिहारी । आनन्द क द जगवन्द्य विभो पुरारी ।। ब्रह्माण्ड मण्डल अखण्ड प्रताप जाके । पूरे रहे निगम हूँ गुण गाइ थाके ।। ईशान नाम तव, नाथ अनाथ के हो । विख्यात है' विरुद सद्गुण गाथ के हो । जो पै निहारि मम कमहिं ध्यान देहौ । तो आशुतोष पद ख्यातहिं को नसैहौ । जानी न जाय केहि कारण रीझते हो। क्यो मूढ मानव जनो पर सीझते हो । प्यारे मनुष्य उरमध्य निवास तेरो । सन्माग क्यो नहिं बतावहु जाहि हेरा॥ वीणा सुतार नहिं सुन्दर साजती है। आनन्द राग भरि क्या नहिं वाजती है। गावो सुचित्त शुचि मन्दिर माहि मेरे। पावो असीम सुख मोद महा घनेरे । हो पातकी तदपि हौं प्रभु, दाम तेरो। हो दास नाथ तव है हिय आस तेरो॥ है आस चित्त महें होय निवास तेरो। होवै निवास महं देव । प्रकास तेरो॥ चिनाधार ॥५३॥ विदाई सोयो सोयो जागिवे, रि आगम पहिचान । काहि पुकारयो वेग सो, अहो पपीहा प्रान॥ ही नहिं जातौ पहा ते, आय परे तुम मीत । अवही जो तुम जात हौ करत यहै अनरीत ॥ प्रकृति सुमन बरसत रही, भली रही अवरात । वा मिलिबे के समय मे, तेहि जनि करहु प्रभात ॥ नव बसन्त सो अतिथि तुम, आवहु हिय हरखाय । छोडि जात ग्रीपम तपन, जामा जिय जरि जाय ।। आवत बरसत नेहरस, अहो प्रेम घन मोत । करि लकीर दुरि जाहुगे धरि चपला की रीत॥ तुमते वढि कोळ नही, छली अहै जग माहिं । आवतही अधिकार म, करत सबै चित चाहि ॥ मनमानिक चित चाहिये, पहिले लीन्हा छीन । जान समय नीलाम करि, किय कोडी को तीन ॥ प्रिय जबही तुम जाहुगे, क्छु। यहाँ ते दुरि । आखिन मे भरि जायगी, तव चरनन को धूरि ॥ प्रसाद वाङ्गमय ॥५४॥ , इन पुतरिन पै आपने चरनन के रज गार ।। निठुर, हृदय तुम ले चले, इत आसू के धार । तेरे पथ को सीचिह, रखिह ताहि सँवार ॥ क्रीडा कमल हृदय भयो, तेरे करको मीत । सर सो विलगानो अहै, सोच्यो दै रस प्रीत ।। जाहु, हमारे आह ये, रच्छक तुम्हारे पास । जो लेऐहै खीचि पुनि, तुमको हमरे पास ॥ चित्राधार ॥५५॥ --- नीरद अहो नवल नीरद नवनीर नीर विधि सा भरि । बैठि समीरन वाहन पै गम्भीर गरज धरि ।। अम्बर-पय-आरूढ कृषक-गन को हरखावत । लोक दृष्टि ते सरहिं लखत जवही तुम आवत ।। भरे विमल जल झलकत नील नलिन अवली सो। अम्बर छाया है कादम्बिनि की पटली सो।। लखे नचत है शिखी मगन मदमत्त भये से। अहो समीरन नेर रहन दे इन्हे ठये से ।। हरित भूमि सकुलित शस्य सो सुरस रम्य बन । तिन महँ विहरत इतउत इन्द्रवधूटी गन घन ।। मेघ मण्डली मण्डित उत अम्बर शुचि राजत । तिनम दामिनि छटा सलोनी सुधर विराजत ॥ ल्खो अवहिं ये लगे परन पुनि सघन फुहारे । परिमल सुरभित वारि बूद पुनि वाधि कतारे ।। अब तो इन राख्यो न भेद अम्बर धरती मे। वारि सून सो बाधि दियो है एक्तती मै॥ प्रसाद वाङ्गमय ॥५६॥ प्रबल पवन लहि सग जलद के जल की धारा । धारत अद्भुत स्य मनोहर अति विस्तारा ॥ वेलिन को हहराइ छुडावन चहै तरुन सो। व्यथित होइ लपटाइ रही जे भरी करुन सो॥ X X X इत चातक चित लाइ लखत है तेरे मुख को। मधुर वारि शीतल की आशा धारे सुख को॥ क्यो इतनो तरसावत हो निज प्रेमीगन को। स्वाती लो पछताइ देहुगे जल सुखमन को॥ यह तुम लीन्हे अक माहि दामिनि सो। गरजत पुलकि पसीजत धावत सग मानिनि सो॥ नेक न रखहु विचार पथिक अरु विरही जन को। गरज न जानत, तेहिं रहत है धुन गरजन को॥ जान परत नहिं है गम्भीराशय तव मन को । करत कहा हो काह करोगे अपने मन को। पै हम हिय ते देत असीस अहं तुम को नित । समय समय पुनि आय सुधारस को वरसह इत ॥ चित्राधार ॥५७॥ शरद-पूर्णिमा सु पूरब माहिं उग्यो छवि धाम । क्ला विखरावत है अभिराम ॥ अकास विभासत पूरन चन्द । समीरन डोलत मन्दहि मन्द ।। न बोलत है कहुँ कोक्लि कोर । सबै चुप साधि रहे धरि धीर ।। कनौं हिलिजात अहै द्रुम पात । समीर जवै तिन मे सरसात ॥ सुधा वरसावत है नभ चन्द । मनो प्रकृती हिय धारि अनन्द ।। सु मोहनि मन्न सुधारि सराग । बिखेरत है जग माहिं पराग | निसापति को लखि कै वधराज । भग्यो तम अग छिपावन काज। मनो द्रुम कन्दर मे थल पाइ । लियो विसराम अरामहिं जाइ॥ नदी धरनी गिरि कानन देश । सु छाजत है सब ही नव भैश ॥ धरे सुख सा सबही शुभरूप । लखात मनोहर और अनुप ॥ प्रसाद वाङ्गमय ।।५८॥ संध्या तारा सध्या के गगन महँ सुन्दर वरन । को ही झलकत तुम अमल रतन ।। तारा तुम तारा अति सुन्दर लखात । तुम्हे देखिये को नहिं आनंद समात ॥ अनुकूल प्रतीची सो लखि दिनकर । लहि मलिनाभ छाया वारि मनोहर ॥ प्राची सन्ध्या सुकुमारी अति अनुपम । गहत अपूर्व एक तारा आशा सम ।। निराश हृदय शून्य विस्तृत गगन । आलोक्ति तारा आशा देखि ह्र मगन ॥ प्रभात मिलन आशा मनु हिय परि। एक टक देखे प्राची तरुणि सुमिरि ॥ नीलमनि माला माहि सुन्दर लसत । हीरव उज्ज्वल खण्ड विकाश सतत ॥ शामिनी चिकुर भार अति घन नील । तामे मणिसम तारा मोहत सलील ।। चित्राधार ॥ ५९॥ भान्त तरग तुग माला गिजित । पेनिल गम्भीर मिंधु सिाद बाधिा ।। हेरि पुहू म गाविस जिगि भयभीत । दीप पय दारहिं एयत राप्रीत ।। यमार सरग लगि भीत तिमिजन । निराश हृदय धारि सतापिन मा ।। शान्ति निगा महिपो पा राज चिन्द स्प। तुमहिं लगत मध्या ताग शुभरप॥ प्रसाद वाङ्गमय ।।६० चन्द्रोदय विशद विमल आलोक जासु अति ही मुद मगलकारी। चन्द नवल सुखधाम सोइ नभ मे निजकर विस्तारी॥ कुमुदिनि पूरन काम महा छविधाम निशा को स्वामी। मधुकर गन हुलमावन जन-मन भावन शुचि नभगामी । गहन विपिन सम गगन तासु वरवीर केगरी भारी । केशर वर विखराइ चन्द्र घूमत है बनि वनचारी। तम आखेट परत है डोलत सो लमि के भयभाजे । मनु श्रम युद्ध करा ते उपज्यो सो तारागन राजे॥ देव गोप जन मह्यो मही सम छोर सिन्धु चितलाई। नव नवनीत अश उडि लाग्यो के अम्बर छनि छाई॥ प्रकृति देवि निज लीला कन्दुक विधा किये कल्वेली। दियो उछाल गगन महं राजत सो परिपे रंगरेली ॥ नोट गगन पर युजर को यह सोहै घण्टा भारी। ध्वनि तापी नलिनी विकास हि मधुकर को गुजारी।। उज्ज्वल ना धन नीर गगन महें चन्द थमन्द प्रकामी। राजे जिमि नदनन्द गरे में कौस्तुभ चि सुखमामी ॥ चित्राधार ॥६१॥ श्याम सलोने गगन हृदय महँ चन्द महाछवि पावै । श्माम सुंदर हिय मनु व्रजवाला प्रेम विम्ब दरसावै ।। शून्य हृदय विरही को तामैं प्रिया बदन सुख देवै । तैमहि शून्य विशाल गगन महं चन्द हिलोरे लेवे ॥ राजत सुन्दर चन्द अमन्द सुअक महा छबिधारी। चन्दवदनि के भाल विन्दु सुख सदन सुज्यो मनहारी।। रावा निशि ललना को सुन्दर के कपोल मनभावै । अक तासु तिल रूप धारि अति माधुरता मरसावै ॥ प्रसाद वाङ्गमय ।।६२॥ इद्र-धनुष लखहु नील सित असित पीत आरक्तिम शोभा । मिलि एकहि सँग अद्भुत प्राची मे मन लोभा ॥ छितिज छोर लो कोर दाबि धनुपाकृति सोहै। सन्ध्या को आलिंगित वह सबको मन मोहै ।। काञ्चनीय निज करन डारि भूमण्डल ऊपर । पश्चिम दिशि को जात लखहु यह भानु मनोहर ॥ इत प्राची मे धनुप लखायो रंग अनुपम री। भेंट देत जनु भानुहि रतनन गगन जौहरी ।। नन्दन कानन विहरण शील अप्सरागन को। सूषित पट बहु रंग हरत है जे मुनिमन को ।। विधी गगन तारकस तानि बहु रग तार को। फेरत तिन पर रग घर अनगिनित वार को ॥ पावस धनहिं विदारन हेतु लियो जिमि दिनकर । पश्चिम दिगि को गये गगन मे धनुप राग्विकर ॥ विधी सघन धन को कमान है अति सुन्दर यह । जेहि छिपाइ पुनि माधि चलावत वारि वान यह ॥ पावस ऋतु को विजय वेजयन्ती के फहरत । नवल चितेरो सब रगा का लिसि जनु विहरत ॥ विधो भानु वे सप्त अश्व की है वल्गा यह । विधी मेघ-वाहन वाहन पै धरे धनुप यह ॥ चियाधार ॥६३॥ हृदय म करिके कवि नियोजित सुन्दर कल्पना । जब धरै प्रतिमा छवि अल्पना ।। जलद माल तरगिनि धार मे। प्रविसि कूलन और पहार म ।। तरल वीचि निनादन मे कहूँ। प्रकृति के मधुराक्षर को पढे ।। करन व्यक्त चहै वहि भाव को । पर न पावत कोउ उपाव को। तिमि करो तुम केलि अमन्द सो। छन्द सो॥ तदपि नाहिं कवौं दरसात हो। प्रगट होन चहौ छिपि जात हो। गगन सो पिन अन्त गंभीर हो। जलधि सो तुम नीरद नीर हो । बहुल नक्र - कुलाकुल भी रहो। तदपि रेहु उसास न धीर हो । कबहुँ बह्नि विलोडित होय के। धरत धातुहिं ज्या गिरि गाय के॥ तिमि रही मनही मा रोय के। सब विपाद विसारहु सोय के || निज लहे मगनाभि सुग व सो। मृग फिरै वन म मद अन्ध सो॥ (कुसुम सौरभ जानि) निराश है। पुनि सुधारत भूल उदास है ।। तिमि लहे निज सौरभ मोद मो। क्छुक सोजत काहि विनोद सा ॥ पुनि रही धरि के तुम मौन को। तुरत त्यागत हो भ्रम गौन को । कल निनादिनि वीर तरगिनी। जवहि गावति है रस रगिनी ।। तुम मिलावत वीन तबै चही । कोउ सुने तव ता चुप ह रहौ ।। प्रमाद वाङ्गमय ॥६६॥ सुमन देखि खिले खिल जात हो । अलिन मे तुरतै मिल जात हौ ।। कलिन खोलत हो रस रीति सो। पर न गूजत हो नव नीति सो॥ चित्राधार ॥६७॥ विस्मृत प्रेम अभिनवेन्दु कला दरसाति है। सुखभरी विमला अधराति है॥ सब लखात वहै छबि पूर है। तदपि क्यो हिय है चकचूर ह्वे ॥ सबहिं विस्मत सिन्धु तरग मे । प्रणय की लिपि धोइ उमग म॥ यदपि उज्ज्वल चित्त कियो नि । तदपि क्यो नहिं राग अजी तजै॥ हिय क्ही तुममे कहें बानि है। नहिं बिसारत जो निज आनि है । सुमेहदी जिमि ऊपर है हगे। अरणिमा तउ भीतर है भरी ॥ शुचि समीरन सौरभ पूर को । परसि चेतत कौन सुदूर को॥ कमल कानन के मकरन्द को। विमल आनन पूरन चन्द को ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥६८॥ प्रकृति की सुखमा लखते मुदा । सुख समूह जुरे रहते सदा ।। विमल तारन को लखि ज्योति यो। तम विभास कहो अब होत क्यो ? ॥ कुसुम के लखि मञ्जु विकाश को। भ्रमर गूजत है लहि आश को।। हृदय अस्फुट गूजत क्यो कभी? लखत फूल सुकौन कही अभी ॥ घन तमावृत शून्य आकाश सो। हिय भयो यह हाय निराश सो॥ तबहुँ रश्मि लवात विभा भरी। ध्रुव समान सुकौन प्रभाधरी ? चियावार Met विसर्जन तारवागन क्या गगन म हँसत मन्दहि मन्द । क्या मलिन कर कान्ति ह्र के धावते ही चन्द ॥ रे निलज्ज न लाज तोहिं विचारि के यह आज । जोन दशन म तिहारे मिल्यो है सुखसाज ॥ सौ सबै ही मलय-मारत-सग दोन उडाय । फूल है अवशेप सौरभ-हीन कोमल काय ॥ क्यो कमलिनि कुञ्ज पुञ्ज पराग सरवर माहिं । घोरि के सुरभित करो जल कौन हित चित चाहि? सो न वेगवती नदी अब हाय, हिय यह मान । जो करेगी बात वीचिन के तुम्हारे कान ।। हाय, मृगतृष्णा भ्रमावत रहयो जो चहुँ लेरि। सो चमक हूँ वालुकावण धारिहै नहिं हेरि ।। सबहिं विस्मृति वियो हे प्रिय | चन्द्रिका-निधि माहि । कोक्लेि। बहु कोन कहिके चेतिही अब नाहिं ॥ यदपि है भूलन चहति चित चैति के गुन गाथ । तदपि भूलहिं चेतिहै चित चेति पूरब साथ ॥ वा मधुर तम माहिं जौन प्रकाश ते तुम चन्द । चित्तरञ्जन करत ताको काज नहिं अब मन्द । जाहु विस्मति अस्त शैल निवास को चित चाहि । शान्ति की नव अरण क्रान्ति प्रकाशिहै हिय माहि ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥७०॥ रद-बिन्दु राते नैन कोन्हे तू कहा ते मदमाते पिक, सीखी यह बातें नेक धोर धरिके कहो। सुनत न और की गुनत कछु और ही, 'प्रसाद' कौन बात जो अधीरता इती गहो ।। विसुक विसेखि कचनार को निरेखि तेहि, डार वैठि ऐठि कौन रगराते है रहो ॥ हेरौ मलयानिल, बसन्तहि को टेरौ हो, लगाये धुन कोन की, कही तो कोन को चहौ ॥ कौन सुख पाय टक लाय अहो चातक यो, घन ओर देखत सबै सुधि बिसारि कै॥ दीन देखि दया जोगि जानि के क्बी तो वह, एक दया दीठि सम बूंद देहै डारिदै । सोक ना पिघलिहै पखान वनि सोपी हिये, मोती जानि राखिह 'प्रसाद निरधारि कै ॥ फारिकै निरिहै तक वा वेधो जाइहै, ना फल कछु पाई है यो प्रीति को पसारि के। सीचे जौन प्रेम सो प्रमोद ताके उर होत, सौरभ उदोत अति सुन्दर हौ नेम के ॥ परम पुनीत परिमल के निकेत जासो, सीतल है हीतल 'प्रसाद' अति छेम के । सिरिस सुमन सुकुमार तुम जैसे वैसे, भ्रमर विनोद मे घरैया नव नेम के। कल कुसुमाकर के केवल रतन तुम, कानन मे पुय पूर पोखे पुज प्रेम के॥ सरिता सुकूलन में तपसी बने से तरु, सरल सुभाव खडे हृदय उदार ते॥ छाया देत काहू को पथिक जौन तापित है, तोछन दिवाकर ते दुखित दवार ते ॥ नवल प्रमोद सो करत हिय मोद मय, सुन्दर सुस्वादु फल देत निज डार ते॥ स्वारथ मे मूढ नर थोडे निज लाभ हेतु, तक ताहि काटत है कुमति कुठार ते ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥७४। फेरि रुख जात हो कहाँ को प्रिय नेक इतै, चितै चित चैन देहु लेहु सुधि आओ तो ।। अमल कमल हिय प्रेम निन्दु सिञ्चित है, आसन सुबैठि के 'प्रसाद' सरसामो तो॥ चरन कमल इन नैन जल धारन ते, सीचिहौं तिहारे अव हिय हरखाओ तो॥ नाहिं तरसाओ नेक दया दरसाओ आओ, बेगि प्रानप्यारे नेक कण्ठ सो लगाओ तो॥ पुलकि उठे हैं रोम-रोम खडे स्वागत को, जागत हे नैन बस्नी पै छपि छाओ तो॥ मूरति तिहारी उर अन्तर खडी है तुम्हे, देसिवे के हेतु ताहि मुख दरसाओ तो।। भरिप उछाह सो उठे है भुज भेटिवे को मेटिबे को ताप, वयो 'प्रसाद' तरसाओ तो ॥ हिय हरखाओ प्रेम रस बरसाओ आमओ बेगि प्रानप्यारे नेक कण्ठ सो लगायो तो।। अलक लुलित अलि अवली समान वनि, हिय के रसाल सुधारस बरसाओ तो।। प्रेम परिमल-परिपूरित दिगन्त करि, क्सिलय अगुली सो निक्ट बुलाओ तो ॥ खिलंगो हृदय-बन नव राग जित ह्र, परसि 'प्रसाद' यो बसन्त बनि आओ तो।। कोक्लिा कलित कण्ठ प्रोति राग गाओ आओ, बेगि प्रानप्यारे नेक वण्ठ सो लगाओ तो।। रञ्जित क्यिो है कुसुमाकर ने कानन को, नैन मनियारे अरुनारे जनि पीजिये। कीजिये जो रन्जित तो जीवन अधार । मेरे, हिय अनुराग भरि नवरग भीजिये। प्रानन के प्यासे क्यो भये हो इतो रोप करि, भरि-भरि प्याले प्यारे प्रेम रस पीजिये ॥ दीजिये 'प्रसाद' सुख सौरभ को लीजिए जू, नेक्हू तो चित्त मे दया को ठौर दीजिये ॥ चिनाधार ॥५॥ वैनन कहत आवत हौ अन्तर मे अन्तर रखत तक, जपत निरन्तर हो अन्तर न जानि ।। नैनस बसत काहे कसत कसौटी, यहा सवै खरे सुवरन पर अनुमानि के । हिये चैन न परत, तुम सैनन 'प्रसाद' क्यो कहत अनजानि के ।। पञ्च नहिं जानो, ही विपञ्ची बूझ देखो, किन राग है बजत गुनी लीजो पहिचानि के॥ दखिके अमल मुखचन्द हिय भीतर हू, अतिहि अमन्द क्हो होत उजियागे क्यो ? नूपुर मधुर धुनि सुनत विहाल होत, चचल कुरग मन चौक्डी बिसारो क्यो? कौन सो भरा है जादू नैनन की सैना म, चैन छन नाहिं जात गात ना सभारो क्या ? देखत ही ताहि पहिचानो सो परत, कहो बरवस ही लागत 'प्रसाद वह प्यारो क्यो? मानस की तरल तरग उठे रग भरी, पाइके बयार सुख सार स्वच्छ जल पर ॥ रूप के प्रभाव भरि आदि अपार खिल्यो, हृदय स्वभाव मकरन्द ले अमल पर ॥ सीचत युगल गयुम्भ सुधा-वारन ते, प्रेम पूरन अचल पर । को हो तुम आइकै हृदय म निवास क्यिो, आसन जमायो जनु कमला कमल पर । फूल भले फूल करि कोटिन उपाय निज, वदन दिखाय दरमा अभिमान को॥ मलयज भ्रमर फिरत चहुँ ओर ताप, माली नित फेरा परे परि गुण गान को। एरी क्ली भली हो छिपाये रहो अग, मकरन्द अभिलाप को करत पहिचान को ये तो सर आप ही फिरेंगे तेरे आस गुा, आप ही ते ग्रहण करत सनमान को। पूजत 'प्रसाद' प्रसाद वागमय ॥६॥ करुणानिधान सुन्यो तेरी यह वान, नित दीन दुखियान पै तिहारी कृपा कोर है ।। तक ये पुकारत हैं आरत भये से क्या, संवारत न काज निज देखि दीन ओर है ।। सांचे ही भये हो नाथ पाहन के, जौन तुम्हे दीनन की आह न हिलावै करि सोर है। करुणा-समुद्र जो पे तरल तरग करि, तुमही डुबाओ तो वताओ कोन जोर है ।। पाइ आच दुख की उठत जव आह, सब धीरज नसाय तब कैसे थिर होइये ।। पावत न और ठौर तुम्हरी सरन छोड, रहे मुख मोड तुम, काके सौहँ रोइये ।। छाय रही आह तिहुँ लोकन मैं मेरे जान, तेरी करुना ते ताहि कैसे करि गोइये ॥ हिलि उठे ह्यि जहां आमन तुम्हारो, तक तुम ना हिलत ऐसे अचल न होइये ॥ आसुन अन्हात निन्हें आसुतोप देत, जो पुकारत निरीह, तवै बेग उठि धावते ॥ आरत अधर्मी अति कूर जो पतित होत दुखके समुद्र, तिन्हें वायके वचावते ॥ अतिही मलीन जिन्हें आशा कछु नाहिं, करि करना क्टाक्ष हँसि हेरो तिन्हें चावते ॥ दीन-दुख देखिये की परी तुम्हे वान, दीनबन्धु तुम्हे नाहक खुसामदी वतावते ॥ भूलि भूलि जात पदकमल तिहारो कहा, ऐसी नीच मूढ मति कीन्ही है हमारी क्यो ? घायके धसत काम क्रोच मिन्यु सगम मे, मनको हमारे ऐसी गति निरधारी क्यो? झूठे जग लोगन में दौरि के लगत नेह, सांचे सच्चिदानंद मे प्रेम ना सुधारी क्यो? विकल विलोकत, 7 हिय पोर मोचत हो एहो दीन-बन्धु दीनबन्धुता बिसारी क्या? चित्राधार ॥७७॥