सत्यार्थ प्रकाश/द्वितीयसमुल्लास:

अथ द्वितीयसमुल्लासारम्भः ॥
अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामः ॥
मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुष वेद ॥

यह शतपथ ब्राह्मण का वचन है । वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् माता दूसरा पिता और तीसरा आचायें होवे तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है । वह कुल धन्य ! वह सन्तान बडा भाग्यवान् ! जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों । जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है उतना किसी से नहीं । जैसे माता सन्तानों पर प्रेम और उनका हित करना चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं करता इसलिये (मातृमान्) अर्थात् “प्रशस्ता धार्मिकी माता विद्यते यस्य स मातृमान्” धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर जबतक पूरी विद्या न हो तबतक सुशीलता का उपदेश करे ॥


माता और पिता को आतिउचित है कि गर्भाधान के पूर्व मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य, दुर्गन्ध, रूक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड के जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभ्यता को प्राप्त करें जैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करे कि जिससे रजस् वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम गुणयुक्त हो । जैसा ऋतुरामन की विधि अर्थात् रजोदर्शन के पांचवें दिवस से लेके सोलहवें दिवस तक ऋतुदान देने का समय है उन दिनों में से प्रथम के चार दिन त्याज्य हैं, रहे १२ दिन उनमें एकादशी और त्रयोदशी रात्रि को छोड़के बाकी दश रत्रियों में गर्भाधान करना उत्तम है और रजोदर्शन के दिन से लेके १६ वी रात्रि के पश्चात् न समागम करना । पुनः जबतक ऋतुदान का समय पूर्वोक्त न आवे तबतक और गर्भस्थित्ति के पश्चात् एक वर्ष तक संयुक्त न हों । जब दोनों के शरीर में आरोग्य, परस्पर प्रसन्नता, किसी प्रकार का शोक न हो । जैसा चरक और सुश्रुत में भोजन छादन का विधान और मनुस्मृति में स्त्री पुरुष की प्रसन्नता की रीति लिखी है उसी प्रकार करें और वर्त्तें गर्भाधान के पश्चात् स्त्री को बहुत सावधानी से भोजन छादन करना चाहिये । पश्चात् एक वर्ष पर्यन्त की पुरुष का सङ्ग न करे । बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम, शान्ति आदि गुणकारक द्रव्यों ही का सेवन करती रहै कि जबतक सन्तान का जन्म न हो ॥


जब जन्म हो तब अच्छे सुगन्धियुक्त जल से बालक का स्नान नाड़ीछेदन करके सुगन्धियुक्त घृतादि के होम[] और स्त्री के भी स्नान भोजन का यथायोग्य प्रबन्ध करे कि जिससे बालक और स्त्री का शरीर क्रमशः आरोग्य और पुष्ट होता जाय । ऐसा पदार्थ उसकी माता व धायी खावे कि जिससे दूध में भी उत्तम गुण प्राप्त हों । प्रसूता का दूध छः दिन तक बालक को पिलावे पश्चात् धायी पिलाया करे परन्तु धायी को उत्तम पदार्थों का खान पान माता पिता करावें जो कोई दरिद्र हों धायी को न रख सकें तो वे गाय वा बकरी के दूध में उत्तम ओषधि जो कि बुद्धि पराक्रम आरोग्य करनेहारी हों उनको शुद्ध जल में भिजो औटा छान के दूध के समान जल मिला के बालक को पिलावें । जन्म के पश्चात बालक और उसकी माता को दूसरे स्थान में जहां का वायु शुद्ध हो वह रक्खें, सुगन्ध तथा दर्शनीय पदार्थ भी रखें और उस देश में भ्रमण कराना उचित है कि जहां का वायु शुद्ध हो और जहां धायी, गाय, बकरी आदि का दूध न मिल सके वहां जैसा उचित समझे वैसा करें क्योंकि प्रसूता स्त्री के शरीर के अंश से बालक का शरीर होता है इससे स्त्री प्रसवसमय निर्बल होजाती है इसलिये प्रसूता स्त्री दूध न पिलावे । दूध रोकने के लिये स्तन के छिद्र पर उस ओषधि का लेप करे जिससे दूध स्रवित न हो । ऐसे करने से दूसरे महीने में पुनरपि युवति होजाती है । तबतक पुरुष ब्रह्मचर्य्य से वीर्य्य का निग्रह रक्खे, इस प्रकार जो स्त्री वा पुरुष करेंगे उनके उत्तम सन्तान दीर्घायु बल पराक्रम की वृद्धि होती ही रहेगी कि जिस से सब सन्तान उत्तम बल पराक्रमयुक्त दीर्घायु धार्मिक हों । स्त्री योनिसङ्कोचन, शोधन और पुरुष वीर्य्य का स्तम्भन करे । पुनः सन्तान जितने होंगे वे भी सब उत्तम होंगे ॥


बालकों को माता सदा उत्तम शिक्षा करे जिससे सन्तान सभ्य हों और किसी अन्य से कुचेष्टा न करने पावें। जब बोलने लगे तब उसकी माता बालक की जिह्वा जिस प्रकार कोमल होकर स्पष्ट उच्चारण कर सके वैसा उपाय करे कि जो जिस वर्ण का स्थान प्रयत्न अर्थात् जैसे “प” इसका ओष्ठ स्थान और स्पष्ट प्रयत्न दोनों ओष्ठों को मिलाकर बोलना, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत अक्षरों को ठीक २ बोल सकना । मधुर, गम्भीर, सुन्दर, स्वर, अक्षर, मात्रा, वाक्य, संहिता, अवसान भिन् २ श्रवण होवे । जब वह कुछ २ वोलने और समझने लगे तब सुन्दर वाणी और बड़े, छोटे, मान्य, पिता, माता, राजा, विद्वान् आादि से भाषण, उनसे वर्त्तमान और उनके पास बैठने आदि की भी शिक्षा करें जिससे कहीं उनका अयोग्य व्यवहार न हो के सर्वत्र प्रतिष्ठा हुआ करे जैसे सन्तान जितेन्द्रिय विद्याप्रिय और सत्संग मे रुचि करें वैसा प्रयत्न करते रहें । व्यर्थ क्रीड़ा, रोदन, हास्य, लड़ाई, हर्ष, शोक, किसी पदार्थ में लोलुपता, ईर्ष्या, द्वेषादि न करे, उपस्थेन्द्रिय के स्पर्श और मर्दन से वीर्य की क्षीणता नपुसकता होती और हस्त में दुर्गन्ध भी होता है इससे उसका स्पर्श न करें । सद सत्यभाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नवदन आादि गुणों की प्राप्ति जिस प्रकार हो करावे । जब पांच २ वर्ष के लड़का लड़की हों तब देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करावें । अन्य देशीय भाषा के अक्षरों का भी । उसके पश्चात् जिनसे अच्छी शिक्षा, विद्या, धर्म परमेश्वर, माता, पिता, आचार्य, विद्वान, अतिथेि, राजा, प्रजा, कुटुम्ब, बन्धु, भगिनी, भृत्य आदि से कैसे २ वर्तना इन वातो के मन्त्र, श्लोक, सूत्र, गद्य, पद्य भी अर्थसहित कण्ठस्थ करावे । जिनसे सन्तान किसी धूर्त के बहकाने में न आवे और जो २ विद्याधर्मविरुद्ध भ्रान्तिजाल में गिरानेवाले व्यवहार हैं उनका भी उपदेश करदें जिससे भूत प्रेत आदि मिथ्या बातों का विश्वास न हो ।


गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन् ।

प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुध्यति ॥

मनु॰ अ॰ ५ से ६५ ॥

अर्थ - जब गुरु का प्राणान्त हो तब मृतक शरीर जिनका नाम प्रेत है उसका दाह करनेहारा शिष्य प्रेतहार अर्थात् मृतक को उठानेवालों के साथ दशवें दिन शुद्ध होता है। और जब उस शरीर का दाह होचुका तब उसका नाम भूत होता है अर्थात् वह अमुकनामा पुरुष था, जितने उत्पन्न हों वर्त्तमान में आ के न रहें वे भूतस्थ होने से उन का नाम भूत है। ऐसा ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त के विद्वानों का सिद्धान्त है परन्तु जिस को शङ्का, कुसङ्ग, कुसंस्कार होता है उसको भय और शङ्कारूप भूत, प्रेत, शाकिनी, डाकिनी आदि अनेक भ्रमजाल दुःखदायक होते हैं । देखो जब कोई प्राणी मरता है तब उसका जीव पाप के वश होकर पुण्य परमेश्वर की व्यवस्था से सुख दुःख के फल भोगने के अर्थ जन्मान्तर धारण करता है। क्या इस अविनाशी परमेश्वर की व्यवस्था का कोई भी नाश कर सकता है ? अज्ञानी लोग वैद्यकशास्त्र व पदार्थविद्या के पढने सुनने और विचार से रहित होकर सन्निपात ज्वरादि शारीरिक और उन्मादकादि मानस रोगों का नाम भूत प्रेतादि धरते हैं । उनका औषधसेवन और पध्यादि उचित व्यवहार न करके उन धूर्त, पाखण्डी, महामूर्ख, अनाचारी, स्वार्थी, भङ्गी, चमार, शूद्र, म्लेच्छादि पर भी

विश्वासी होकर अनेक प्रकार के ढोंग, छल, कपट और उच्छिष्ट भोजन, डोरा, धागा आदि मिथ्या मन्त्र यन्त्र बांधते बंधवाते फिरते हैं, अपने धन का नाश, सन्तान आदि की दुर्दशा और रोगों को बढ़ाकर दुःख देते फिरते हैं । जब आंख के अंधे और गांठ के पूरे उन दुर्बुद्धि पापी स्वार्थियों के पास जाकर पूछते हैं कि महाराज “इस लड़का, लड़की, स्त्री और पुरुष को न जाने क्या होगया है ?” तब वे बोलते हैं कि “इसके शरीर में बड़ा भूत, प्रेत, भैरव, शीतला आदि देवी आगई है जबतक तुम इसका उपाय न करोगे तबतक ये न छूटेंगे और प्राण भी ले लेंगे । जो तुम मलीदा व इतनी भेंट दो तो हम मन्त्र जप पुरश्चरण से झाड़ के इनको निकाल दें” तब वे अंधे और उनके सम्बन्धी बोलते हैं कि “महाराज ! चाहे हमारा सर्वस्व जावो परन्तु इनको अच्छा कर दीजिये” तब तो उनकी बन पड़ती है । वे धूर्त कहते हैं “अच्छा लाओ इतनी सामग्री, इतनी दक्षिणा, देवता को भेंट और ग्रहदान कराओ” । झांझ, मृदङ्ग, ढोल, थाली लेके उसके सामने बजाते गाते और उनमें से एक पाखण्डी उन्मत्त होके नाच कूद के कहता है “मैं इसका प्राण ही ले लूँगा” तब वे अंधे उस भङ्गी चमार आदि नीच के पगों में पड़ के कहते हैं “आप चाहें सो लीजिये इसको बचाइये” तब वह धूर्त बोलता है “मैं हनुमान हूं, लाओ पक्की मिठाई, तेल, सिन्दूर, सवामन का रोट और लाल लंगोट” “मैं देवी वा भैरव हूँ, ला पांच बोतल मद्य, बीस मुर्गी, पांच बकरे, मिठाई और वस्त्र” जब वे कहते हैं कि “जो चाहो सो लो” तब तो वह पागल बहुत नाचने कूदने लगता है, परन्तु जो कोई बुद्धिमान उनकी भेंट पांच जूता दंडा वा चपेटा लातें मारे तो उनके हनुमान् देवी और भैरव फट प्रसन्न होकर भाग जाते हैं, क्योंकि वह उनका केवल धनादिहरण करने के प्रयोजनार्थ ढोंग है ॥
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द्वितीयसमुल्लास:।।

और जब किसी ग्रहग्रस्त ग्रहरूप ज्योतिर्विदाभास के पास जाके वे कहते हैं "हे महाराज! इसको क्या है?" सब वे कहते हैं कि "इस पर सूर्यादि क्रूर ग्रह चढ़े है, जो तुम इनकी शान्ति, पाठ, पूजा,दान कराओ तो इसको सुख होजाय नहीं तो बहुत पीड़ित होकर मरजाय तो भी आश्चर्य नहीं"। (उत्तर) कहिये ज्योतिर्वित् जैसी यह पृथिवी जड़ है वैसे ही सूर्य्यादि लोक हैं वे ताप और प्रकाशादि से भिन्न कुछ भी नहीं कर सकते, क्या ये चेतन हैं जो क्रोधित होके दुःख और शान्त होके सुख दे सकें? (प्रश्न) क्या जो यह संसार में राजा प्रजा सुखी दुःखी हो रहे हैं यह ग्रहों का फल नहीं है? (उत्तर) नहीं, ये सब पाप पुण्यों के फल हैं। (प्रश्न) तो क्या ज्योतिःशास्त्र झूठा है? (उत्तर) नहीं, जो उसमें अंक, बीज, रेखागणित विद्या है वह सब सच्ची, जो फल की लीला है वह सब झूठी है। (प्रश्न) क्या जो यह जन्मपत्र है सो निष्फल है? (उत्तर) हां, वह जन्मपत्र नहीं किन्तु उसका नाम "शोकपत्र" रखना चाहिये क्योंकि जब सन्तान का जन्म होता है, तब सबको आनन्द होता है परन्तु वह आनन्द तबतक होता है कि जबतक जन्मपत्र बन के ग्रहों का फल न सुनें। जब पुरोहित जन्मपत्र बनाने को कहता है तब उसके माता पिता पुरोहित से कहते हैं "महाराज! आप बहुत अच्छा जन्मपत्र बनाइये" जो धनाढ्य हो तो बहुतसी लाल पीली रेखाओं से चित्र विचित्र और निर्धन हो तो साधारण रीति से जन्मपत्र बना के सुनाने को आता है तब उसके मा बाप ज्योतिषिजी के सामने बैठ के कहते हैं ‘इसका जन्मपत्र अच्छा तो है मगर ज्योतिषी कहदा है जो है सो सुना देता हूं, इस जन्मग्रह बहुत अच्छे और मित्रग्रह भी बहुत अच्छे हैं जिनका फल धन ऊय और प्रतिष्ठावान, जिस सभा में जा बैठग तो सब के ऊपर इसका तेज पड़ेगाशरीर से आारोग्य और राष्यमानी होगा’ इस्यादि बातें सुनके पिता आदि बोलते हैं ‘वाह २ ज्योतिषीजी आप बहुत ! अच्छे हो, ज्योतिषीजी समझते हैं इन बातों कार्य सिद्ध नहीं होता तब ज्योतिषी बोलता है कि ‘यद् प्रह तो बहुत अच्छे हैं, परन्तु ये ग्रह क्रूर हैं अर्थात् फलाने २

प्रह के योग से ८ वर्ष में इसका मृत्युयोग है’’ इसको सुनके माता पितादि

पत्र के जन्म के अ!नन्द को छोड के शोकसागर में डूबकर ज्योतिपीजी से कहते हैं कि ‘‘महाराज जी ' अब हम क्या करें ?' तब ज्योतिषीजी कहते हैं ‘‘उपय में करो गृह स्थ पूछे ‘‘क्या उपाय करे' योतिषीजी प्रस्ताव करने लगते हैं कि ‘'एस २ दान करोग्रह क मन्त्र का जप करओो और नित्य नाहों को भोजन

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सत्यार्थप्रकाश.॥

कराओगे तो अनुमान है कि नवग्रहों के विघ्न हट जायेंगे" अनुमान शब्द इसलिये है कि जो मरजायगा तो कहेंगे हम क्या करें, परमेश्वर के ऊपर कोई नहीं है, हमने तो वहुतसा यत्न किया और तुमने कराया उसके कर्म ऐसे ही थे। और जो वचजाय तो कहते हैं कि देखो, हमारे मन्त्र, देवता और ब्राह्मणों की कैसी शक्ति है ! तुम्हारे लडके को बचा दिया। यहां यह वात होनी चाहिये कि जो इनके जप पाठ से कुछ न हो तो दूने तिगुने रुपये उन धूर्तों से ले लेने चाहिये। और जो वचजाय तो भी ले लेने चाहिये और क्योंकि जैसे ज्योतिपियो ने कहा कि "इसके कर्म और परमेश्वर के नियम तोड़ने का सामर्थ्य किसी का नहीं' वैसे गृहस्थ भी कहें कि "यह अपने कर्म और परमेश्वर के नियम से बचा है तुम्हारे करने से नहीं" और तीसरे गुरु आदि भी पुण्यदान कराके आप ले लेतेहैं तो उनको भी वही उत्तर देना, जो ज्योतिषियो को दिया था।

अब रह गई शीतला और मन्त्र तन्त्र आदि ये भी ऐसे ही ढोंग मचाते हैं कोई कहता है कि "जो हम मन्त्र पढ़ के डोरा वा यन्त्र बना देखें तो हमारे देवता और पीर उस मन्त्र यन्त्र के प्रताप से उसको कोई विघ्न नहीं होने देते" उनको वहीं ! उत्तर देना चाहिये कि क्या तुम मृत्यु, परमेश्वर के नियम और कर्मफल से भी वचा सकोगे? तुम्हारे इस प्रकार करने से भी कितने ही लड़के मर जाते हैं और तुम्हारे घर में भी मर जाते हैं और क्या तुम मरण से बच सकोगे? तब वे कुछ :| भी नहीं कह सकते और वे धूर्त जान लेते हैं कि यहा हमारी दाल नहीं गलेगी। इस-से इन सब मिथ्या व्यवहारों को छोडकर धार्मिक, सब देश के उपकार कर्ता, निष्कपटता से सब को विद्या पढ़ानेवाले, उत्तम विद्वान् लोगों का, प्रत्युपकार| करना, जैसा वे जगत् का उपकार करते हैं, इस काम को कभी न छोड़-ना चाहिये। और जितनी लीला रसायन, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण। आदि करना कहते हैं उनको भी महापामर समझना चाहिये, इत्यादि।| मिथ्या बार्तो का उपदेश बाल्यावस्था ही में सन्तानों के हृदय में डाल दें कि जिस-से स्वसन्तान किसी के भ्रमजाल में पड़के दु ख न पावें और वीर्य की रक्षा में श्रानन्द और नाश करने में दु खप्राप्ति भी जना देनी चाहिये। जैसे "देखो जिस।

के शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है तब उसको पारोग्य, बुद्धि, वल प र' के यहत सस की प्राप्ति होती है। इसक रक्षण में यही रीति है कि विपयों की कथा, विपया लोगों का संग, विपर्यों का ध्यान, स्त्री का दर्शन, एकान्त सेवन,
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द्वितीयसमुद्दास:॥

मंग प र रूप दि फर्म से प्राप्तचारी लोग पृथ रहकर उत्तम शिक्षा और थिा फो प्राप्त होवे 1 जिसके शरीर मे वीर्य नही होता वह नपुंसक महा सरां प्री २ जिसका प्रमारोग होता है वह दुर्बल, निस्तेज, निर्बुद्धि, उत्साह, स[8भ, चैर्य, बल, पररहित है जो Iअनद डर्षों से होकर नष्ट हो जाता। तुम लोग सुविधा मोर बिया) के प्रमएवार्य की रक्षा करने में इस समय चूकग तf पुनइस जन्म में तुगतो यह्य ष मूल्य मय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक cम लांग गृ: मेंr के करनेवाले जीते हैं तभीतक तुमको विद्या प्रहण 1 "58 (र का ग बढ़ना IItव इसी प्रकार की अन्य २ शिक्षा भी माता॥ '3। पिगकरें इन्चेि ‘सामातृ पितृमान शब्द का प्रण उक्त वचन में किया है। 41 स्म से ५ वें प तक वालंका को माता, ६ ठे वप से ८ वे वर्ष तक पित लिए w "tर ९ में वर्ष के आरम्भ में दूिन अपने सन्तानो का उपनयन करक ! चर्व डन में "प्रथीन अटा पृ विद्वान् और पूर्ण विदुषी की शिक्षा और विद्यद्यान फेरबाले वहां राह घोर लड़कियों को भेज दें और शूद्रादि बर्ण उपनयन किये 1 ना विद्याभ्यास के लिये गुरुकुल म भेज दे। उन्हीं के सन्तान विद्वान, सभ्य और iदत ctत हैं, जो पढ़ने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते किन्तु ताडना तें करते रहते हैं, इसमें व्याकरण सहभाष्य का प्रमाण है: सामः पाणिभिनन्ति गुरवो न विपक्षितैः। ललनाभांयंण दोषास्तानाश्रयिण गुणाः ॥ आ० ८। १। ८ ॥ अर्थ--जो माता पिता और आचार्य सन्तान और शिष्यों का ताडन करते हैं वे जानो अपने सन्सन और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्ता वा शिष्यों का लाड़न करते है वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं क्योंकि लडन से सन्तान और शिष्य दोषयुक तथा ताड़ना से गुणयुक होते हैं और सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और ! लाइन से आसन्न सदा रा करें।,परन्तु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईय, प से तड़न न करें किन्तु ऊपर से भयप्रद्यान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें। जैसी अन्य शिक्षा की वैसी चोरीजारीआलस्य, प्रसाद, मादक द्रव्य, मिथ्याभा पण, हिंसा, क्रूरता, ईष्र्या, द्वेष, मोह आदि दोषों के छोडने और सत्याचार के प्रहण

करने की शिक्षा करेंक्योंकि जिस पुरुष ने जिसके सामने एक बार चोरीजारी
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सत्यार्थप्रकाश:।।

मिथ्याभाषणादि कर्म किया उसकी प्रतिष्ठा उसके सामने मृत्युपर्यन्त नदf होती। जैसी हानि प्रतिज्ञा को मिथ्या करनेवाले की होती है वैसी अन्य किसी की नहीं । इससे जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करनी उसके साथ वैसी ही पूरी करनी चाहिये अथन जस किसी ने किमी से कहT कि ' में तुम को बा तुम मुम से श्रमुक समय ) में भिगा वा मिलना अथत्रा श्रमुक वस्तु अमुक समय में तुमको मैं अँग' इसको ! वैसे ही पूरी करे नहीं तो उसकी प्रतीति कोई भी न करेगा इसलिये सदा सब भाषण और सत्यप्रतिज्ञायुक्क सब को होना चाहिये । कि सी को अभिमान न करना चाहिये, छलकपट वा कृतघ्नता से अपना ही हृदय दुखित होता है तो दूसरे की क्या कथा कहनी चाहिये । छल और कपट उसको कहते हैं जो भीतर और बाहर और रख दूसरे को मोह में डाल और दूसरे की हानि पर ध्यान न देकर स्वयो- जन से करना 1 ‘कृतनता उसको कहते हैं कि किसी के किये हुए उपकार ! को न मानना । क्रोधादि दोष और कटुवचन को छोड़ शान्त ोंर मधुर व चन दें। बोले और बहुत बकवाद न करे । जितना वोलना चाहिये उससे न्यून वा अधिक न बोले । वडों को मान्य दे, उनके सामने उठकर जा के उच्चासन पर बैठावे प्रथम ‘नमस्ते" करे उनके सामने उत्तमासन पर न बैठे, सभा में वैसे स्थान में 1 बैठे जैसी अपनी योग्यता हो और दूसरा कोई न उठावे, विरोध किसी से न करे, संपन्न होकर गुणों का प्रहण और दोषों का त्याग रक्खे, सज्जनों का संग करें दुष्टों का त्याग, आपने माता, पिता और आचार्य की तन मन और धनादि उत्तम उत्तम पदार्थों से प्रीतिपूर्वक सेवा करे । है - यान्यस्माक७ सुचरितानि तानि स्वयोपास्यानि नो इतराणि ॥ तैत्ति० प्रपा० ७ । अ० ११ ॥ इसका यह अभिप्राय है कि माता पिता आचार्य अपने सन्तान और शिष्य फो सद्म सत्य उपदेश करे और यह भी कहें कि जो २ हमारे धर्मयुक्त कर्म हैं उन उनका प्रहण करो २ दुष्ट कर्म और जो हों त्याग करोजो उनका कर दिया , २ सत्य का प्रकाश और प्रचार कर । किसी पाखण्डी, दुटाचारी सनुष्य है जाने उन २ ' और और आचाट्र्य पर न जिम २ उपम कर्म के लिये साता, पिसा विश्वास करें श्नाहा ट्रैवं उस २ का यथेष्ट पालन करें जस मःता पिता ने धर्म, विवr, अच्छे आचरण के श्लोक ‘निघण्ट ‘iनेस क7 : " अष्टाध्यायी अथवा अन्य सूत्र बा

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द्वतायपुलास:।।

i दन्त्र कण्ठस्थ करये हों इन २ का पुन: अब विद्यार्थियों को विदित करावे। जैसे प्रथम समुस्स में परमेश्वर का व्याख्यान किया है उसी प्रकार मानके उस- की उपासना करें जिस प्रकार आरोग्य, विद्या और बल प्राप्त हो उसी प्रकार

  • भोजन छाइन और व्यवहार करे करावें अर्थात् जितनी क्षुधा हो उससे कुछ न्यून

भोजन मांसादि सेवन , अज्ञात गम्भीर जल प्रवश करेंसम व के से अलग रहैंमे न करें फ्यकि जल जन्तु वा किसी अन्य पदार्थ से दुःख और जो तरना न जाने ता इय ही जा सकता है ‘‘नाविज्ञाते जलाशये' यह मनु का वचन है, अविज्ञात जलाशय में प्रविष्ट होके स्नानादि न करे । दृष्टिलत न्यसेत्पाद, वस्त्रत पिचेत् । जल सत्यवता वदलावमनठत समाचरत : मनु० अ०६, ४६ ॥ अर्थ --नीचे दृष्टि कर ऊंचे नीचे स्थान को देख के चलेवस्त्र से छान के जल पीये. सत्य से पवित्र करके वचन बोले, मन से विचार के आचरण करे । मैं माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः । न शोभते सभमध्ये हंसमध्ये वको यथा ॥ चाणक्यनीति अध्या० २ । श्लो० ११ ॥ ये माता और पिता अपने सन्तानों के पूर्ण बैरी हैं जिन्होंने उनको विद्या की ! प्राप्ति न कराईवे विद्वानों की सभा मे वैसे तिरस्कृत और कुशोभित होते हैं जैसे? हंसों के बीच में बगुला। यही माता, पिता का कर्त्तव्य कर्म परमधर्म और कीर्ति का काम है जो अपने सन्तानों को तन, मनधन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त करना। यह बालशिक्षा से थोडासा लिखा इतने ही से बुद्धिमान है ! लाभ हुन सम लग II इति श्रीमद्यनन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाश सुभाषाविभूषिते बालशिक्षाविषये द्वितीय' समुल्लास: सम्पूर्णः ॥ २ ॥ ।

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  1. बालक के जन्म समय में “जातमसंस्कार” होता है उसमें हवनादि वेदोक्त कर्म्म होते हैं वे “संस्कारविधि” में सविस्तार लिख दिये हैं ।