सङ्कलन/३ कोरिया और कोरिया-नरेश

काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ ७ से – १४ तक

 

कोरिया और कोरिया-नरेश

कोरिया एक प्रायद्वीप है। वह जापान के बहुत निकट है। कोरिया और जापान के बीच समुद्र का एक बहुत ही पतला भाग है। उसे कोरिया का मुहाना कहते हैं। जैसे फ्रांस और इंगलैन्ड के बीच "इंगलिश चैनल" है, कोरिया और जापान के बीच वैसे ही यह मुहाना है। इसी सन्निकटता के कारण कोरिया में रूस का सञ्चार जापान की आँखों का काँटा हो रहा है; वह उसे बहुत खटकता है। रूस का माहात्म्य यदि कोरिया में बढ़ा तो जापान की शक्ति कुछ अवश्य ही क्षीण हो जायगी। दोनों में छेड़ छाड़ बढ़ेगी; अतएव जापान की हानि सर्वथा सम्भव है। फिर एक ऐसी प्रबल शक्ति का पास आ जाना, जिसकी राज्य-बुभुक्षा कभी शान्त नहीं होती, कदापि मंगल-जनक नहीं हो सकता। कोरिया का दक्षिणी भाग जापान के निकट है और उत्तरी मञ्चूरिया से मिला हुआ है। मञ्चूरिया चीन का एक सूबा है; परन्तु उसे रूस ने दबा लिया है। अनेक आशायें और आश्वासन देकर भी और सन्धिपत्रों में छोड़ने की शपथ खा कर भी रूस उसे ग्रास ही किये हुए

है। मञ्चूरिया की सीमा कोरिया की सीमा से मिली होने के कारण, रूस भी कोरिया के बहुत निकट है। मञ्चूरिया का रूस के अधीन रहना जापान के लिए किसी प्रकार मंगल-जनक नहीं। परस्पर के इसी नैकट्य ने, और परस्पर की इसी प्रभुत्व- वृद्धि की कामना ने, रूस और जापान को उत्तेजित कर दिया है। युद्ध की मेघ-माला पूर्वी आकाश में, पीत और प्रशान्त सागर के ऊपर, बड़ा ही विकराल रूप धारण करके उमड़ आई है। इस लेख के प्रकाशित होने के पहले ही, रक्तपात रूपी प्रचण्ड धारासार के साथ उसकी भीम गर्जना शायद सुनाई पड़ने लगे।

कोरिया एक बहुत छोटा प्रायद्वीप है। उसका क्षेत्रफल कोई ८०,००० वर्ग मील है। वह पहाड़ी देश है। उसमें कितने, ही छोटे बड़े पहाड़ हैं, नदियाँ भी बहुत सी हैं। वहाँ की पृथ्वी के गर्भ में अनन्त सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा और कोयला भरा पड़ा है। एक बंगाली इञ्जिनियर वहाँ गये थे। उन्होंने अमे- रिका में जाकर एक व्याख्यान दिया है। उसमें उन्होंने कहा है कि इस भूमण्डल में और कोई देश ऐसा नहीं जहाँ खनिज द्रव्यों का इतना आधिक्य हो। इसी सम्पत्ति को लूटने की गुप्त इच्छा से रूस और जापान दोनों के मुँह से लार टपक रही है; दोनों लालायित हो रहे हैं।

कोरिया में सब आठ सूबे हैं। उसकी राजधानी सियूल नामक नगर है। च्यमलफू बन्दर से सियूल तक रेल जारी है। च्यमलफू से सियूल कुल २४ मील है। यह रेल जापानियों के प्रबन्ध से बनी है; वही उसके कर्ताधर्ता हैं। कोरिया में कोरिया ही की भाषा बोली जाती है; परन्तु उस पर वहाँवालों की प्रीति कम है। पढ़े लिखे आदमी बहुधा चीनी भाषा बोलते हैं। राजकार्य भी उसी भाषा में होता है। अच्छे अच्छे ग्रन्थ भी उसी भाषा में बनते हैं। राज्य प्रणाली सब चीन से नक़ल की गई है। चीन की तरह कोरिया में भी "मन्दारिन" हैं। परीक्षायें भी वैसी ही होती हैं; और, कोई भी कोरियावासी उनमें शामिल हो सकता है। पास हो जाने पर, और बातों का कुछ भी ख़याल न करके, उम्मेदवार को, उसकी योग्यता के अनु- सार जगह मिलती है। कोरियावाले पहले बौद्ध थे; अब भी कहीं कहीं इस धर्म का प्रचार वहाँ है, परन्तु चीन के "कन- फ्यूशश" नामक धर्म की वहाँ विशेष प्रबलता है। कोरिया- नरेश इसी धर्म के अनुयायी हैं। कोरिया में स्त्रियों का बहुत कम आदर होता है; परन्तु स्वतंत्रता उनको खूब है। बड़े बड़े घरों की स्त्रियों को छोड़कर और कहीं वे परदे में नहीं रक्खी जातीं।

पुराने ज़माने में जापान ने कोरिया को कई बार हराया है। १७९० ईसवी तक कोरिया-नरेश जापान की रक्षा में समझे जाते रहे हैं। परन्तु उसके बाद कोरिया ने चीन का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। कोरिया को यद्यपि सब तरह की स्वतंत्रता थी, परन्तु चीन-राज को उसे अपना राजेश्वर समझना पड़ता

था, और वार्षिक कर भी देना पड़ता था। १८७५ ईसवी में जापान ने दबाव डाल कर कोरिया के साथ एक सन्धि की। उसके अनुसार जापान को कई अधिकार मिले। उसका वहाँ प्रवेश हो गया, और धीरे धीरे महत्त्व बढ़ा। जापान का एक अधिकारी "रेसिडेंट" की तरह, वहाँ रहने लगा। जापान के जहाज़ कोरिया के बन्दरों में आने जाने लगे, जापानी व्यापारी भी वहाँ अधिकता से व्यापार करने लगे।

कोरियावाले अपने नरेश को देवता समझते हैं, देवता ही के सदृश वे उसको पूज्य मानते हैं। परन्तु राजा का वह नाम, जो उसे चीन के राजराजेश्वर से, सिंहासन पर बैठने के वक्त, मिलता है, मुँह से निकालना पाप है। राजा के शरीर को लोहे के शस्त्र से स्पर्श करना सबसे भारी अपराध है, उसका प्रति- शोध केवल प्राण-दण्ड है। लोहे का स्पर्श होना बहुत ही बुरा समझा जाता है। १८०० ईसवी में टेंग-सांग-ताप-बोंग नाम का राजा एक फोड़े से पीड़ित होकर मर गया, परन्तु उसको चीरने के लिए लोहे के शस्त्र का स्पर्श उसने स्वीकार नहीं किया। सियूल में घुड़सवार को यदि राजप्रासाद के पास से निकलना पड़े तो उसे घोड़े से उतरना पड़ता है। यदि कोई राजसभा में पैर रक्खे, और राजदर्शन करना चाहे, तो सिंहा- सन के सामने, हाथ-पैर लम्बे करके, पृथ्वी पर गिर कर, उसे दण्ड-प्रणाम करना पड़ता है।

कोरिया के वर्तमान नरेश का पवित्र नाम "ह्वनी ई" है। १८६४ में आप राजा हुए, और १८९७ में, आपने राजराजेश्वर की पदवी धारण की। आपका वंश कोरिया में १३९२ ईसवी से चला आता है। आप अपने वंश के तेरहवें नृपराज है। आपके अधीन एक मन्त्रिमण्डल है। वही क़ायदे-कानून बनाता है। वही सब विषयों का विधि-निषेध करता है। उसके मन्तव्यों का विचार राजेश्वर करते हैं और विचार करके उनको मञ्जूर करते हैं। १८९४ तक ह्वनी ई का राजत्व, चीन की रक्षा में, अखण्डित बना रहा। परन्तु इस वर्ष जापान ने कोरिया के ऊपर चीन का स्वत्व स्वीकार न किया। चीन और जापान के युद्ध का यह भी एक कारण हुआ। इस युद्ध में जापान विजयी हुआ। चीन के साथ उसकी सन्धि हुई। सन्धि में चीन ने कोरिया पर अपने प्रभुत्व का दावा छोड़ा। तव से कोरिया ने जापान की रक्षा में रहना क़बूल किया। जापान की सहायता से, कोरिया में, इन सात आठ वर्षों में बहुत कुछ सुधार हुआ है।

चीन से सन्धि-पत्र पर दस्तख़त कराके जापान जब निश्चिन्त हुआ, तब उसने कोरिया-नरेश से कहा कि सर्वसाधारण के सामने और पितरों के पवित्र मन्दिर में, वे चीन की प्रभुता परित्याग करने की शपथ करें। कोरिया-नरेश बड़े संकट में पड़े। परन्तु कर क्या सकते थे? जापान का बल, जापान का रण-कौशल वे देख चुके थे। इसलिए उसका आदेश उन्हें मानना ही पड़ा। १८९५ के जनवरी की ८ तारीख़ इस शपथ

के लिए नियत हुई। नरराज के महलों से लेकर पितृ-मन्दिर तक कोरिया के अश्वारोही सड़क पर दोनों ओर खड़े हुए। किस तरह? अपना और घोड़े का मुँह दीवारों की तरफ; अपनी पीठ और घोड़े की दुम नरेश की तरफ सड़क की ओर! कुछ देर में राजप्रासाद से अनेक पताकाधारी निकले और मन्दिर को चले गये। उनके पीछे कोरिया नरेश का सेवक-समूह, पीली पोशाक और पीली टोपी पहने बाहर आया। अनन्तर नरेश का रेशमी लाल रङ्गवाला छाता देख पड़ा। उसके बाद चार आद- मियों के कन्धे पर रक्खी हुई एक कुरसी में कोरिया-नरेश पधारे। आप, सदा अपनी प्रसिद्ध राजसी कुरसी पर, १६ आदमियों के कन्धों के ऊपर, निकला करते हैं; परन्तु इस अवसर पर आप उस ठाठ से नहीं निकले। आपका चेहरा ज़र्द था; मुँह से नाउम्मेदी टपक रही थी। उनके पीछे युवराज, फिर मन्दारिन, फिर सेना विभाग के अधिकारी, और अन्त में दूसरे लोग अपने अपने घोड़ो और ख़च्चरों पर बाहर निकले। इस प्रकार नरेश ने देव-मन्दिर में जाकर चीन का सम्बन्ध त्याग करने की, जापान की प्रभुता स्वीकार करने की, और जापान की आज्ञा को सिर पर रख कर तदनुकूल कोरिया में सब प्रकार के संशोधन करने की क़सम खाई। इस प्रकार चीन- जापान के युद्ध रूपी नाटक का यह आखिरी खेल ख़तम हुआ।

श्रीमती बिशप नाम की एक अँगरेज़ विदुषी ने "कोरिया और उसके पड़ोसी" (Korea and its Neighbours)

नामक एक पुस्तक लिखी है। उसमें उन्होंने कोरिया का अच्छा हाल लिखा है। वे कहती हैं कि कोरिया की महारानी की उम्र इस समय कोई ४२ वर्ष की होगी। वे बहुत दुबली पतली हैं, परन्तु देखने में बुरी नहीं मालूम होतीं। उनके केश सिवार के समान हैं; कुछ काले हैं, कुछ भूरे। उनका रंग पीलापन लिये हुए है, मुँह पर वे मुक्ता-चूर्ण मलती हैं, जिससे उनके मुख पर एक प्रकार का लावण्य आ जाता है। उनको देखने से मालूम होता है कि वे समझदार हैं। जब वे बात-चीत करती हैं, और वह बात चीत उनको अच्छी लगती है, तब उनके चेहरे पर ऐसा रंग आ जाता है, जिसे सुन्दरता में दाख़िल कर सकते हैं।

कोरिया-नरेश को जापान ने सभ्यता सिखलाना शुरू कर दिया है। दो वर्ष हुए, आपने कोरिया में खनिज विद्या का एक कालेज बनवाने का विचार किया था। इसके प्रवन्धकर्ता कोरियावाले ही होनेवाले थे, परन्तु अध्यापक और इञ्जिनियर फ्रांस से बुलाने का इरादा था। नहीं मालूम यह कालेज बन गया या नहीं।

महारानी विक्टोरिया को एक बार कोरिया-राज ने एक सम्मान-सूचक ख़िताब, पदक समेत, भेजा। महारानी ने भी कोरिया के राजेश्वर को सम्मान देना चाहा। इसलिए उन्होंने जी० सी० आई० ई० नामक इस देश से सम्बन्ध रखनेवाली और विशेष आदर-सूचक पदवी उनको प्रदान की। इस पदवी-दान के समय "स्टैन्डर्ड" नामक समाचार-पत्र का

प्रतिनिधि कोरिया में उपस्थित था। अँगरेजी "कानसल" पदवी सम्बन्धी पदक लेकर राज-प्रासाद में पहुँचा। उसने पहले राजेश्वर को बा-क़ायदा प्रणाम किया। फिर उसने अपने साथियों में से एक एक की पहचान कराई। राजेश्वर ने प्रत्येक की ओर सिर झुका कर उनके नामों को दुहराया। तदन्तर वार्तालाप आरम्भ हुआ। जहाँ पर यह उत्सव था, वहीं पास के एक कमरे में, कोरिया की महारानी और उनकी सहेलियाँ भी थीं। जो परदा पड़ा था, वह इतना पतला था कि उसके भीतर से उनके वस्त्राभूषण बख़ूबी देख पड़ते थे। इस उत्सव के लिए जो तैयारियाँ की गई थीं, उन्हें देख कर कोरिया नरेश ने प्रसन्नता प्रकट की। जब आपको पदवी-दान हुआ और आप तत्सम्बन्धी पदक आदि से सज्जित और सुशोभित किये गये, तब आपकी प्रसन्नता और तुष्टि का वारापार न रहा।

इस समय यही कोरिया-नरेश दो नृपति-सिंहों के पेच में पड़े हुए हैं। यद्यपि उनसे, इन दोनों में से कोई भी शत्रु भाव नहीं रखता, तथापि यह रणाग्नि, जो इस समय सुलग रही है, उन्हीं के देश को ग्रास करने के लिए है। इस सिंह-युग्म की चपेट में उनका भी कुछ अनिष्ट हो जाय तो आश्चर्य नहीं; क्योंकि उनकी प्रजा और सेना ने, सुनते हैं, बलवा शुरू कर दिया है और विदेशियों की मार काट के लिए हथियार उठाया है।

[मार्च १९०४.