सङ्कलन/१८ तुर्कों का उत्थान और पतन

काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ १०९ से – ११९ तक

 

१८
तुर्कों का उत्थान और पतन

लगभग छ: सौ वर्ष बीते कि तुर्क नाम की एक छोटी सी जाति उद्दण्ड मङ्गोल लोगों के भय से अपने घर, मध्य एशिया, से भाग कर आरमीनिया प्रदेश में पहुँची। वहाँ के सेलजूकवंशीय बादशाहों ने उसे अपनी शरण में लिया। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में, मङ्गोल लोगों ने सेलजूक-साम्राज्य पर चढ़ाई कर दी। उसकी समाधि पर एक छोड़ दस छोटे-छोटे राज्य स्थापित हुए। भगोड़ी तुर्क जाति के तत्कालीन अधिपति का नाम था उसमान। वह भी इस विप्लव से लाभ उठाने में पीछे न रहा। उसने भी कुछ भूमि दबा ली और राजा बन बैठा। अपने साहस और बुद्धि-वैभव से उसने अन्य राजों को भी शीघ्र ही अपने अधीन कर लिया। तुर्कों का वही पहला स्वतन्त्र राजा हुआ। तुर्कों में उसी के नाम पर पहले-पहल सिक्के चले और मसजिदों में ख़ुतबा पढ़ा गया। उसी के नाम पर तुर्क लोगों का नाम उसमानी और उनके भावी साम्राज्य का नाम उसमानी साम्राज्य पड़ा। योरप की भाषाओं में, इसी उसमानी शब्द का अपभ्रंश आटोमन हो गया। १३५९ में, मुराद ( प्रथम ) तुर्कौं का राजा हुआ। उसने अपना हाथ योरप की ओर बढ़ाया। योरप के दक्षिण-पूर्व में बालकन नाम का एक प्रायद्वीप है। उस समय उस पर कान्सटेन्टीनोपिल के ईसाई सम्राट् का शासन था। मुराद ने बालकन के एक बड़े भाग को बलवत् अपने अधीन कर लिया। योरप की ईसाई शक्तियाँ मुसलमानों के इस दबदबे से बहुत घबराई। कई ईसाई राजों ने मिलकर मुराद पर आक्रमण कर दिया। १३८९ में घोर युद्ध हुआ और मुराद मारा गया। परन्तु विजयी मुसलमान ही रहे। इस विजय से सर्विया देश उनके हाथ लगा।

धीरे धीरे तुर्कौं ने ईसाई राजों से बलगेरिया भी छीन लिया। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य काल में वे हंगरी राज्य की सीमा तक पहुँच गये। योरप में वे पहुँच तो दूर तक गये थे, ईसाई जातियों में उनकी धाक भी खूब बैठ गई थी, लोग उनके मुक़ाबले में आने से भी भय खाने लगे थे, परन्तु अभी तक वे वायजन्टाइन साम्राज्य की राजधानी, कान्सटेन्टीनोपिल नगरी को, जो उनके विजित देशों के एक कोने ही में पड़ती थी, न जीत सके थे। तुर्कों की यह परम अभिलाषा थी कि वे ईसाइयों के इस पुनीत नगर पर अपनी सत्ता जमावें। इस- लिए उन्होंने उसे कई बार घेरा भी, परन्तु वे सफल-मनोरथ न हुए। १४५१ में मुहम्मद द्वितीय तुर्कों का राजा हुआ। वह वीर और साहसी था। साथ ही उसका हृदय उच्चाकांक्षाओं

से भी पूर्ण था। उसने अन्त में, वह काम कर दिखाया जिसके लिए तब तक तुर्क लालायित थे। १४५३ में, उसने कान्स- टेन्टीनोपिल घेर लिया। घमासान युद्ध हुआ। अन्त में तुर्कों की तोपों के सामने दुर्ग की दीवारें खड़ी न रह सकीं। ईसाइयों का सारा परिश्रम और आत्मोत्सर्ग निष्फल हुआ। उनका सम्राट् भी युद्ध करते करते धराशायी हुआ। ईसाई संसार के परम पवित्र स्थान सेंट सोफ़िया नाम के गिरजा- घर पर ईसाई धर्म का सूचक 'क्रास' न रह सका । उस पर इसलामी चन्द्रमा चमकने लगा। विजयी मुहम्मद ने सगर्व नगर में प्रवेश करके उस नई मसजिद में नमाज़ पढ़ी। कान्स- टेन्टीनोपिल तुर्कौ की राजधानी बना। तुर्की राजा सुलतान हुए और उनका राज्य हुआ तुर्की साम्राज्य। आज इसी साम्राज्य को हम तुर्की या उसमानी साम्राज्य के नाम से पुकारते हैं।

इस विजय के कारण मुहम्मद योरप के इतिहास में विजयी मुहम्मद के नाम से प्रसिद्ध है। इसके बाद वह चुपचाप न बैठा रहा। उसने योरप में अपना राज्य और भी बढ़ाया। क्राइमिया और बोसनिया को जीता। ग्रीकों के द्वीप-समूह के कितने ही द्वीपों को उसने अपने अधिकार में कर लिया। उसका विचार इटली और स्पेन पर मुसलमानों का आधिपत्य स्थापित करने का था; परन्तु, १४८१ में, उसकी मृत्यु हो गई।

१५१२ में, सलीम प्रथम सुलतान हुआ। वह भी बड़ा

प्रतापी बादशाह था। उसने तुर्की साम्राज्य को और भी प्रशस्त किया। वह फ़ारिस की बहुत सी भूमि दबा बैठा। सीरिया और मिस्र को भी उसने जीता। उसका पुत्र सुलेमान भी पिता के सदृश ही हुआ। उसने योरप के कुछ द्वीपों, तथा अफ़रीक़ा के अलजियर्स और ट्रिपोली को ले लिया। हंगरी के राजा तक उसे कर देने लगे। इस सुलतान के समय में तुर्क लोग उन्नति की चरम सीमा तक पहुँच गये। उसकी सेना प्रथम श्रेणी की समझी जाती थी। उनका जहाज़ी बेड़ा भी इतना बड़ा था कि समुद्री युद्ध में उस समय कोई भी उसकी बराबरी न कर सकता था। उनकी पहुँच भी दूर दूर तक थी। हंगरी और आस्ट्रिया तो उनका घर-द्वार था। जर्मनी के मैदानों तक वे धावे मारते थे।

सुलेमान के बाद उसका पुत्र सलीम द्वितीय सुलतान हुआ। वह अपने योग्य पिता का अयोग्य पुत्र निकला। उसी के समय से तुर्की साम्राज्य के पतन का आरम्भ हुआ। इसके बाद जो सुलतान हुए, उनमें से अधिकांश अयोग्य ही नहीं, किन्तु दुरा- चारी, दुर्व्यसनी, डरपोक और निर्बल थे। साम्राज्य में सुशा- सन न रहा। अत्याचार, लूट-मार और दुराचार की वृद्धि होने लगी। जो जिसके मन में आता था, सो करता था। सेना को वश में रखना मुश्किल था। कितने ही सुलतान तुर्की सेना के हाथों मारे गये। बगावतें शुरू हो गई। सुलतानों का नाकों दम आ गया। ईसाइयों पर अत्याचार होने लगे। टर्की की इस

दुरवस्था के कारण उसके पड़ोसी राज्य, आस्ट्रिया और रूस, दिन पर दिन बलवान् होते जाते थे। अन्त में टर्की को निर्बल समझ कर, १७३९ में, रूस और आस्ट्रिया ने ईसाइयों की रक्षा के बहाने उससे युद्ध ठान दिया। यद्यपि टर्की का पतन हो रहा था, तथापि, अभी तक, वह इतना निर्बल न हो गया था कि उसे जो चाहता, हरा देता। आस्ट्रिया को हारना पड़ा। उसने और उसके मित्र रूस ने टर्की को कुछ ले-देकर अपना पीछा छुड़ाया। इस घटना से टर्की को सबक सीखना था। पर वह आँखें मूँदे अपनी पुरानी मस्त चाल से चलता रहा और कई बार ठोकरें खाने पर भी न चेता। इसका फल जो होना था, वही हुआ।

सेण्ट सोफ़िया नाम के गिरजाघर को तुर्कौं ने मसजिद बना डाला, यह ऊपर कहा जा चुका है। उसका तुर्की नाम है आयासोफ़िया; तथापि सैकड़ों वर्ष बीत जाने पर भी ईसाई-संसार ने उससे ममता नहीं छोड़ी। क्रास के स्थान पर चन्द्र-चिह्न देख कर, कान्सटेन्टीनोपिल के ईसाई यात्री के हृदय में अब तब शूल उठता है। पश्चिमी योरप की ईसाई जातियों का विश्वास है कि एक दिन ऐसा अवश्य आवेगा, जब सेन्ट-सोफ़िया में इसलामी अज़ाँ के बदले पादड़ियों के घण्टों का नाद सुनाई पड़ेगा। ये जातियाँ चुप भी नहीं बैठीं। समय समय इन्होंने सेन्ट सोफिया पर अधिकार प्राप्त करने का भरसक प्रयत्न भी किया। अठारहवीं शताब्दी के तृतीय और चतुर्थ चरण में रूस का शासन-सूत्र रानी कैथराइन के हाथ में

था। वह बड़ी ही चालाक और कट्टर ख़याल की रानी थी। वह तुर्कों को योरप से मार भगाना और कान्सटेन्टीनोपिल में ईसाई राज्य स्थापित करना चाहती थी। १७६८ से १७९६ ईसवी तक उसने टर्की को बहुत तङ्ग किया। वह टर्की से लड़ी भी। यदि आस्ट्रिया बीच बीच में उसकी गति का बाधक न बनता तो वह योरप से तुर्कौं को निकाले बिना न छोड़ती। तो भी उसने तुर्कौं के राज्य का बहुत सा भाग छीन लिया और सन्धि करते समय उनसे एक ऐसी शर्त करा ली जिसके कारण टर्की को पीछे बहुत सी विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं। उस शर्त के अनुसार रूस को तुर्की की राजधानी में एक गिरजा- घर बनाने का स्वत्व प्राप्त हुआ। सन्धि-पत्र में एक शर्त यह भी थी कि उस गिरजाघर से सम्बन्ध रखनेवाले ईसाइयों के विषय में यदि कभी रूस को कुछ कहना पड़े, तो तुर्कौं को उस पर अवश्य विचार करना चाहिए। इस शर्त से रूस ने अपना अच्छा मतलब गाँठा। वह टर्की की ईसाई प्रजा का संरक्षक बन बैठा।

इधर टर्की की दशा खराब ही होती गई। राज्य में उत्पात बढ़ता गया। वहाबी नाम का एक मुसलमानी पन्थ भी इसी समय निकल पड़ा। उसकी धार्मिक कट्टरता ने टर्की की ईसाई प्रजा के हृदय में अशान्ति की अग्नि और भी भड़का दी। उधर बालकन की ईसाई जातियाँ कुछ तो उकसाई जाने से और कुछ अपनी पड़ोसी अन्य जातियों को स्वतन्त्रता का सुख

अनुभव करते देख टर्की की गुलामी का तौक़ उतार फेंकने के लिए बेचैन होने लगी।

इस बीच में नेपोलियन ने मिस्र में फ्रान्स का झण्डा गाड़ दिया। परन्तु वह वहाँ अधिक दिनों तक न रह सका। इँग- लैंड नेपोलियन का परम शत्रु था। उसी की कृपा से बेचारा टर्की अपनी इस छीनी गई सम्पत्ति को फिर पा गया। ग्रीक लोग भी उधर स्वतन्त्र होने की फ़िक्र में थे। वे भी टर्की से लड़े-भिड़े। परन्तु अन्त में मुक़ाबिले में न ठहर सके। इधर रूस की सहायता से सर्विया-वाले उठ खड़े हुए। वे वर्षौ टर्की से लड़ते-भिड़ते रहे। अन्त में, १८१७ में, उन्होंने स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली। अब ग्रीक लोग चुप न बैठ सकें। वे फिर बिगड़े, पर बेतरह हारे। योरप के राज्यों ने बीच-बचाव कर देना चाहा; परन्तु टर्की ने उनकी एक न सुनी। इस पर, १८२७ में, इंग्लैण्ड, रूस और फ्रांस ने अपनी संयुक्त नाविक सेना लेकर टर्की पर चढ़ाई कर दी। फल यह हुआ कि टर्की हारा। ग्रीस स्वतन्त्र हो गया। रूस ने भी कुछ भूमि अपने राज्य में मिला ली। टर्की को इन झगड़ों से छुट्टी मिली तो मिस्त्र का मुहम्मद पाशा, सीरिया छीनने की नीयत से, उस पर आक्रमण कर बैठा। बड़ी मुश्किलों से, इँग्लैंड की कृपा से, उसे मुहम्मद के चंगुल से छुटकारा मिला।

१८५३ में रूस फिर टर्की से भिड़ पड़ा। इस युद्ध का कारण यह था कि अब रूस अपने को टर्की की सारी ईसाई

प्रजा का संरक्षक कहने लगा था। टर्की को यह बात अच्छी न लगी। उसने इसका विरोध किया। बस, फिर क्या था; युद्ध छिड़ गया। इस बार इँग्लैंड और फ्रांस ने टर्की की सहायता की। अन्त में रूस को नीचा देखना पड़ा। उसे कुछ दबना भी पड़ा। युद्ध के बाद टर्की ने घोषणा की कि अब से धर्म, भाषा और जाति के लिहाज़ से किसी के साथ कुछ रिआयत न की जायगी। योरप के राष्ट्रों ने भी वचन दिया कि उनमें से कोई भी, अब, टर्की के घरेलू झगड़ों में हस्तक्षेप न करेगा। यह युद्ध, इतिहास में, क्राइमियन युद्ध के नाम से विख्यात है।

टर्की ने करने को तो घोषणा कर दी, परन्तु उत्पात होते ही रहे और ईसाई यह शिकायत, करते ही रहे कि हमें कष्ट मिल रहा है। पर उन्हें सचमुच ही कष्ट मिलता था या नहीं, यह भगवान ही जाने। अन्त में, १८७७ में, सर्विया और मान्टोनिग्रो ने टर्की के विरुद्ध शस्त्र उठाया। रूस ने उनका साथ दिया। पर किसी ने टर्की का पक्ष न लिया। अन्त में टर्की को हार कर सन्धि करनी पड़ी। सर्विया, रुमानिया और मान्टीनिग्रो पूर्णतया स्वतंत्र हो गये। बलगेरिया नाम का एक बड़ा भारी ईसाई राज्य अलग बन गया। वह टर्की के अधीन रक्खा गया। बोसनिया और हर्ज़ीगोविना नाम के दो तुर्की प्रान्त आस्ट्रिया की देख-रेख में रहे; पर नाम मात्र के लिए। राज-सत्ता उन पर टर्की ही की मानी गई। ग्रीस ने अपनी सीमा बढ़ा ली। टर्की ने मैसीडोनिया प्रान्त में सुधार करने

का वचन दिया। टर्की साम्राज्य का योरपियन शरीर बिलकुल ही कट-छँट गया। इस कतरनी का, जिसने इतनी, काट-छाँट की, नाम है "बर्लिन की सन्धि"।

टर्की के भाग्य में इतनी ही दुर्गति न बदी थी। उसे अपने शरीर को और भी कटवाना पड़ा। १९०८ में, टर्की में एक नवीन भाव का सञ्चार हुआ। युवा तुकौं ने स्वेच्छाचारी सुल्तान अब्दुल हमीद को सिंहासन से उतार कर कैद कर लिया। उन्होंने एक पारलियामेंट बना ली। प्रजा की व्यवस्था के अनुसार काम करने की शपथ खानेवाले शाही ख़ानदान के एक आदमी को सुलतान का पद दिया। परन्तु उस क्रान्ति के समय टर्की को निर्बल देख कर आस्ट्रिया ने बोसनिया और हर्जीगोविना को हड़प लिया। उधर बलगेरिया भी स्वतन्त्र बन बैठा। अभी उस दिन इटली ने भी टर्की से ट्रिपोली छीन लिया। अब मिस्र में उसकी अंगुल भर भी ज़मीन न रह गई। यूरप में मैसीडोनिया और अलबानिया आदि दो एक सूबे जो टर्की के अधीन रह गये थे, वे भी अब गये ही समझिए । ईसाइयों की नज़रों में वे बेतरह खटक रहे थे। उन्हीं की प्राप्ति के लिए इस समय बालकन प्रायद्वीप में युद्धाग्नि प्रज्वलित है। ग्रीस, सर्विया, बलगेरिया और मांटिनिगरो मिल गये हैं। सब ने एक साथ टर्की पर चढ़ाई की है। भीतर ही भीतर योरप की और शक्तियाँ भी, अपना अपना आन्तरिक मतलब साधने के लिए, उन्हें पुचाड़ा दे रही हैं। ये लोग मन ही मन तुकौं से

कहते हैं -- "निकल जाव यूरप से। यूरप ईसाइयों के लिए है, मुसल्मानों के लिए नहीं। ईसाइयों पर एशियावालों को सत्ता चलाने का मजाज़ नहीं"। सारी बातों की बात यह है, और कुछ नहीं।

इस युद्ध का जो कारण बताया जाता है, वह यह है। टर्की के अधीन मैसीडोनिया नाम का जो प्रान्त योरप में है, उसके अधिकांश निवासी ईसाई हैं। बर्लिन की सन्धि के अनुसार यह तै हो गया था कि मैसीडोनिया को स्वराज्य दे दिया जाय। आन्तरिक मामलों में वह जो चाहे सो करे; केवल बाहरी बातों के विषय में वह टर्की के अधीन रहे। अब कहा यह जाता है कि टर्की ने मैसीडोनिया को स्वराज्य नहीं दिया। उसके ईसाई धर्मानुयायियों को क्रूर तुर्कौं के अत्याचार से बचाने और मैसीडोनिया में, बर्लिन की सन्धि के अनुसार, स्वराज्य स्थापन करने ही के लिए हम लड़ते हैं। सो मुसलमान-तुर्क अत्याचारी, और यूरप के ईसाई शान्ति के अवतार! इसी से योरप के चारों शान्ति-सागरों ने, सुनते हैं, युद्ध छिड़ने के पहले ही योरप के अन्तर्गत तुकौं के राज्य को, आपस में, कागज पर, बाँट लिया था। और अब तो यह सचमुच ही बँटा हुआ सा है; क्योंकि तुर्क बराबर हारते ही चले जाते हैं। बलगेरिया की फौज कान्स्टैन्टनोपिल के। पास पहुँच गई है। सो अब तुकौं का पैर वहाँ से उठ गया समझिए। महाशक्तियों का पारस्परिक संघर्षण बचाने के लिए कान्स्टैन्टिनोपल और डारडनल्स मुहाने पर

तुर्कों का कब्ज़ा रह जाय,तो चाहे भले ही रह जाय । पर वह भी औरों के लाभ के लिए,तुर्कों के नहीं।

एक समय था जब तुर्कों के नाम से योरप के बड़े बड़े साम्राज्य भयभीत रहते थे। मिस्र की उर्वरा भूमि और एशिया मायनर के धनवान देशों से लेकर ट्रिपली, अरब और अलजि- यर्स की मरुभूमि तक के अधिपति उन के चरणों पर सौगातें रखने में अपना परम सौभाग्य समझते थे। आज उन्हीं तुर्की का, जिनका संसार में इतना ऊँचा स्थान था और जिन का शताब्दियों तक बोल-बाला रहा, बड़ा ही बुरा हाल है। वे ठोकर पर ठोकर खाते हैं। लोग उन्हें पीछे से धक्के पर धक्के लगाते हैं। उनके अस्तित्व तक को मिटा देने का प्रयत्न हो रहा है।


सैकड़ों वर्षों से टर्की का सम्बन्ध योरप की महाशक्तियों से है । इन शक्तियों की काया-पलट हो गई। पर टर्की चुपचाप इस परिवर्तन को देखता रहा। अपने पड़ोसियों को उन्नत होते देख कर भी उसने सबक न सीखा। यदि वह अब भी न सीखेगा तो एशिया में भी उस की खैर नहीं । जिस की भुजा में बल है, वही सुख से संसार में रह सकता है। उसी से सब कोई डरता है। उसी के हक नहीं मारे जाते । उसी का सब कहीं आदर होता है । निर्बल का कहीं भी गुज़ारा नहीं।

[दिसम्बर १९१२

______


१२१