संग्राम/४.२
(स्थान—सबलसिंहका कमरा, समय—१० बजे दिन।)
सबल—(घड़ीकी तरफ देखकर) १० बज गये। हलधरने अपना काम पूरा कर लिया। वह ९ बजेतक गंगासे लौट आते थे। कभी इतनी देर न होती थी। अब राजेश्वरी फिर मेरी हुई। चाहें ओढ़ूं, बिछाऊं या गलेका हार बनाऊं। प्रेमके हाथों यह दिन देखनेकी नौबत आयेगी, इसकी मुझे जरा भी शंका न थी। भाईकी हत्याके कल्पनामात्रसे ही रोएं खड़े हो जाते हैं। इस कुलका सर्वनाश होनेवाला है। कुछ ऐसे ही लक्षण दिखाई देते हैं। कितना उदार, कितना सच्चा! मुझसे कितना प्रेम, कितनी श्रद्धा थी! पर हो ही क्या सकता था। एक म्यानमें दो तलवारें कैसे रह सकती थीं। संसारमें प्रेम ही वह वस्तु है जिसके हिस्से नहीं हो सकते। यह अनौचित्यकी पराकाष्ठा थी कि मेरा छोटा भाई जिसे मैंने सदैव अपना पुत्र समझा मेरे साथ यह पैशाचिक व्यवहार करे। कोई देवता भी यह अमर्य्यादा नहीं कर सकता था। यह घोर अपमान! इसका परिणाम और क्या होता? यही आपत्तिधर्म था। इसके लिये पछताना व्यर्थ है। (एक क्षणके बाद) जी नहीं मानता, वही बातें याद आती हैं। मैंने कंचनकी हत्या क्यों कराई? मुझे स्वयं अपने प्राण देने चाहिये थे। मैं तो दुनियाका सुख भोग चुका था। स्त्री, पुत्र, सबका सुख पा चुका था। उसे तो अभी दुनियाकी हवातक न लगी थी। उपासना और आराधना ही उसका एकमात्र जीवनाधार थी। मैंने बड़ा अत्याचार किया।
(अचल सिंहका प्रवेश)
अचल—बाबूजी, अबतक चाचाजी गंगास्नान करके नहीं आये।
सबल—हां देर तो हुई। अबतक तो आ जाते थे।
अचल—किसीको भेजिये जाकर देख आये।
सबल—किसीसे मिलने चले गये होंगे।
अचल—मुझे तो न जाने क्यों डर लग रहा है। आजकल गंगाजी बढ़ रही हैं।
(सबल सिह कुछ जवाब नहीं देते।)
अचल—वह तैरने दूर निकल जाते थे।
(सबल चुप रहते हैं।)
अचल—आज जब वह नहाने जाते थे तो न जाने क्यों मुझे देखकर उनकी आंखें भर गई थीं। मुझे प्यार करके कहा था 'ईश्वर तुम्हें चिरञ्जीवि करें।' इस तरह तो कभी आशीष नहीं देते थे।
हैं, अचल कंचन सिहके कमरेकी ओर जाता है।)
सबल—(मनमें) अब पछतानेसे क्या फायदा। जो कुछ होना था हो चुका। मालूम हो गया कि कामके आवेगमें बुद्धि, विद्या, विवेक सब साथ छोड़ देते हैं। यही भावी थी, यही होनहार था, यही विधाताकी इच्छा थी। राजेश्वरी, तुझे ईश्वरने क्यों इतनी रूप गुण-शीला बनाया? पहले पहल जब मैंने तुझसे बात की थी, तूने मेरा तिरस्कार क्यों न किया, मुझे कटु शब्द क्यों न सुनाये? मुझे कुत्ते की भांति दुत्कार क्यों न दिया? मैं अपनेको बड़ा सत्यवादी समझा करता था। पर पहले ही झोंकेमें उखड़ गया, जड़से उखड़ गया। मुलम्मेको मैं असली रंग समझ रहा था। पहली आंचमें मुलम्मा उड़ गया। अपनी जान बचाने के लिये मैंने कितनी घोर धूर्ततासे काम लिया। मेरी लज्जा, मेरा आत्माभिमान, सबकी क्षति हो गई! ईश्वर करे हलधर अपना वार न कर सका हो और मैं कञ्चनको जीता जागता आते देखूँ। मैं राजेश्वरीसे सदैवके लिये नाता तोड़ लूंगा। उसका मुंहतक न देखूंगा। दिलपर जो कुछ बीतेगी झेल लूंगा।
ओर टकटकी लगाकर देखते हैं।
ज्ञानी—अभी बाबूजी नहीं आये। ११ बज गये। भोजन ठण्ढा हो रहा है। कुछ कह नहीं गये, कबतक आयेंगे?
सबल—(कमरे में आकर) मुझसे तो कुछ नहीं कहा।
ज्ञानी—तो आप चलकर भोजन कर लीजिये।
सबल—उन्हें भी आ जाने दो। तबतक तुम लोग भोजन करो।
ज्ञानी—हरज ही क्या है आप चलकर खा लें। उनका भोजन अलग रखवा दूंगी। दोपहर तो हुआ।
सबल—(मनमें) आजतक कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने घरपर अकेले भोजन किया हो। ऐसे भोजन करनेपर धिक्कार है। भाईका वध कराके मैं भोजन करने जाऊं और स्वादिष्ट पदार्थों का आनन्द उठाऊं। ऐसे भोजन करनेपर लानत है। (प्रगट) अकेले मुझसे भोजन न किया जायगा।
ज्ञानी—तो किसीको गंगाजी भेज दो। पता लगाये कि क्या बात है। कहां चले गये। मुझे तो याद नहीं आता कि उन्होंने कभी इतनी देर लगाई हो। जरा जाकर उनके कमरेमें देखूं मामूली कपड़े पहनकर गये हैं या अचकन पाजामा भी पहना है।
(जाती है और एक क्षणमें लौट आती है।)
ज्ञानी—कपड़े को साधारण ही पहन कर गये हैं, पर कमरा न जाने क्यों भांयँ भांयँ कर रहा है, वहां खड़े होते एक भयसा लगता था। ऐसी शंका होती है कि वह अपनी मसनदपर बैठे हैं पर दिखाई नहीं देते। न जाने क्यों मेरे तो रोएं खड़े हो गये और रोना आ गया। किसीको भेजकर पता लगवाइये।
(सबल दोनों हाथोंसे मुंह छिपाकर रोने लगता है।)
ज्ञानी—हायँ, यह आप क्या करते हैं! इस तरह जी छोटा न कीजिये। वह अबोध बालक थोड़े ही हैं। आते ही होंगे।
सबल—(रोते हुए) आह ज्ञानी! अब वह घर न आयेंगे अब हम उनका मुंह फिर न देखेंगे।
ज्ञानी—किसीने कोई बुरी खबर कही है क्या? (सिसकियां लेती है।)
सबल—(मनमें) अब मन में बात नहीं रह सकती। किसी तरह नहीं। वह आप ही बाहर निकली पड़ती है। ज्ञानीसे मुझे इतना प्रेम कभी न हुआ था। मन उसकी ओर खिंचा जाता है। (प्रगट) जो कुछ किया है मैंने ही किया है। मैं ही विषकी गाठ हूं। मैंने ईर्षाके वश होकर............यह अनर्थ किया है। ज्ञानी मैं पापी हूँ, राक्षस हूं, मेरे हाथ अपने भाईके खूनसे रंगे हुए हैं, मेरे सिरपर भाईका खून सवार है। मेरी आत्माकी जगह अब केवल कालिमाकी रेखा है! हृदयके स्थानपर केवल पैशाचिक निर्दयता। मैंने तुम्हारे साथ दगाकी है। तुम और सारा संसार मुझे एक विचारशील, उदार पुण्यात्मा पुरुष समझते थे, पर मैं महान पापी, नराधम, धूर्त हूँ। मैंने अपने असली स्वरूपको सदैव तुमसे छिपाया। देवताके रूपमें मैं राक्षस था। मैं तुम्हारा पति बनने योग्य न था। मैंने एक पतिपरायण स्त्रीको कपटचालोंसे निकाला, उसे लाकर शहर में रखा। कंचन सिंहको भी मैंने वहाँ दो तीन बार बैठे देखा। बस! उसी क्षणसे मैं ईर्षाको आगमें जलने लगा और अन्तमें मैंने एक हत्यारेके हाथों......रोकर भैयाको कैसे पाऊँ? ज्ञानी, इन तिरस्कारके नेत्रोंसे न देखो। मैं ईश्वरसे कहता हूं तुम कल मेरा मुंह न देखोगी। मैं अपनी आत्माको कलुषित करने के लिये अब और नहीं जीना चाहता। मैं अपने पापोंका प्रायश्चित एक ही दिनमें समाप्त कर दूंगा। मैंने तुम्हारे साथ दगा की, क्षमा करना।
ज्ञानी—(मनमें) भगवन् पुरुष इतने ईर्षालु, इतने विश्वासघाती, इतने क्रूर, वज्रहृदय, होते हैं! आह! अगर मैंने स्वामी चेतनदास की बातपर विश्वास किया होता तो यह नौबत न आने पाती। पर मैंने तो उनकी बातोंपर ध्यान ही नहीं दिया। यह उसी अश्रद्धाका दण्ड है। (प्रगट) मैं आपको इससे ज्यादा विचारशील समझती थी। किसी दूसरेके मुँहसे यह बातें सुनकर मैं कभी विश्वास न करती।
सबल—ज्ञानी मुझे सच्चे दिलसे क्षमा करो। मैं स्वयं इतना दुखी हूं कि उसपर एक जौका बोझ भी मेरी कमर तोड़ देगा। मेरी बुद्धि इस समय भ्रष्ट हो गई है। न जाने क्या कर बैठूं। मैं आपेमें नहीं हूँ। तरह-तरहके आवेग मनमें उठते हैं। मुझमें उनको दबाने का सामर्थ नहीं है। कंचनके नामसे एक धर्मशाला और ठाकुरद्वारा अवश्य बनवाना। मैं तुमसे यह अनुरोध करता हूं। यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है। विधाताकी यह वीभत्स लीला, यह पैशाचिक तांडव जल्द समाप्त होनेवाला है। कचनकी यही जीवन-लालसा थी। इन्हीं लालसाओंपर उसने जीवनके सब आनन्दों, सभी पार्थिव सुखोंको अर्पण कर दिया था। अपनी लालसाओं को पूरा होते देखकर उसकी आत्मा प्रसन्न होगी और इस कुटिल निर्दय आघातको क्षमा कर देगी।
(अचलसिंहका प्रवेश)
ज्ञानी—(आंखें पोंछकर) बेटा, क्या अभी तुमने भी भोजन नहीं किया?
अचल—अभी चचाजी तो आये ही नहीं। आज उनके कमरेमें जाते हुए न जाने क्यों भय लगता है। ऐसा मालूम होता है कि वह कहीं छिपे बैठे हैं और दिखाई नहीं देते। उनकी छाया कमरेमें छिपी हुई जान पड़ती है।
सबल—(मनमें) इसे देखकर चित्त कातर हो रहा है। इसे फूलते-फलते देखना मेरे जीवन की सबसे बड़ी लालसा थी। कैसा चतुर, सुशील, हंसमुख लड़का है। चेहरेसे प्रतिभा टपकी पड़ती है। मनमें क्या क्या इरादे थे। इसे जर्मनी भेजना चाहता था। संसारयात्रा कराके इसकी शिक्षाको समाप्त करना चाहता था। इसकी शक्तियोंका पूरा विकास करना चाहता था पर सारी आशाएं धूलमें मिल गईं (अचलको गोदमें लेकर) बेटा, तुम जाकर भोजन कर लो मैं तुम्हारे चचाजीको देखने जाता हूँ।
अचल—आप लोग आ जायंगे तो साथही मैं भी खाऊंगा। अभी भूख नहीं है।
सबल—और जो मैं शामतक न आऊं?
अचल—आधी राततक आपकी राह देखकर तब खा लूंगा। मगर आप ऐसा प्रश्न क्यों करते हैं?
सबल—कुछ नहीं योंही। अच्छा बताओ, मैं आज मर जाऊं तो तुम क्या करोगे?
ज्ञानी—कैसा अशगुन मुंहसे निकालते हो। अचल—(सबलसिंहकी गर्दनमें हाथ डालकर) आप तो अभी जवान हैं, स्वस्थ हैं, ऐसी बातें क्यों सोचते हैं?
सबल—कुछ नहीं, तुम्हारी परीक्षा करना चाहता हूँ।
अचल—(सबलकी गोदमें सिर रखकर) नहीं कोई और ही कारण है। (रोकर) बाबूजी मुझसे छिपाइये न, बतलाइये आप क्यों इतने उदास हैं, अम्मां क्यों रो रही हैं? मुझे भय लग रहा है। जिधर देखता हूँ उधर ही बेरौनकी सी मालूम होती है, जैसे पिंजरेमेंसे चिड़िया उड़ गई हो।
घुस आते हैं, और थानेदार तथा इन्सपेक्टर और सुपरिन्टेन्डेन्ट
घोड़ोंसे उतरकर बरामदेमें खड़े हो जाते
हैं, ज्ञानी भीतर चली जाती है, अचल
इन्सपेक्टर—ठाकुर साहब,आपकी खानातलाशी होगी। यह वारएट है।
सबल—शौकसे लीजिये।
सुपरिण्टेण्डेण्ट—हम तुम्हारा रियासत छीन लेगा। हम तुमको रियासत दिया है, तब तुम इतना बड़ा आदमी बना है और मोटरमें बैठा घूमता है। तुम हमारा बनाया हुआ है। हम तुमको अपने काम के लिये रियासत दिया है और तुम सरकारसे दुशमनी करता है। तुम दोस्त बनकर तलवार मारना चाहता है। दगाबाज है। हमारे साथ पोलो खेलता है, क्लबमें बैठता है, दावत खाता है और हमीसे दुशमनी रखता है। यह रियासत तुमको किसने दिया?
सबल—(सरोष होकर) मुगल बादशाहोंने। हमारे खानदानमें २५ पुश्तोंसे यह रियासत चली आती है।
सुपरिण्टेन्डेण्ट—झूठ बोलता है। मुगल लोग जिसको चाहता था जागीर देता था, जिससे नाराज हो जाता था उससे जागीर छीन लेता था। जागीरदार मौरूसी नहीं होता था। तुम्हारा बुजुर्ग लोग मुगल बादशाहोंसे ऐसा ही बदखाही करता जैसा तुम हमारे साथ कर रहा है तो जागीर छिन गया होता। हम तुमको असामियोंसे लगान वसूल करनेके लिये कमीसन देता है और तुम हमारा जड़ खोदना चाहता है। गाँवमें पञ्चायत बनाता है, लोगोंको ताड़ी शराब पीनेसे रोकता है, हमारा रसद बेगार बन्द करता है। हमारा गुलाम होकर हमको आंखें दिखाता है। जिस वर्तनमें पानी पीता है उसीमें छेद करता है। सरकार चाहे तो एक घड़ीमें तुमको मिट्टीमें मिला दे सकता है।
(दोनों हाथोंसे चुटकी बजाता है।)
सबल—आप जो काम करते हैं वह काम कीजिये और अपनी राह लीजिये। मैं आपसे सिबिक्स और पालिटिक्सके लेक्चर नहीं सुनना चाहता।
सुपरि०—हम न रहे तो तुम एक दिन भी अपनी रियासतपर काबू नहीं पा सकता।
सबल—मैं आपसे डिसकशन (बहस) नहीं करना चाहता पर यह समझ रखिये कि अगर मान लिया जाय सरकारने ही हमको बनाया तो उसने अपनी रक्षा और स्वार्थसिद्धि के ही लिये यह पालिसी कायम की। जमींदारोंकी बदौलत सरकारका राज कायम है। जब जब सरकारपर कोई सङ्कट पड़ा है जमींदारोंने ही उसकी मदद की है। अगर आपका खियाल है कि जमींदारोंको मिटाकर आप राज्य कर सकते हैं तो भूल है। आपकी हस्ती जमींदारोंपर निर्भर है।
सुपरि०—हमने अभी किसानोंके हमलेसे तुमको बचाया नहीं तो तुम्हारा निशान भी न रहता।
सबल—मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता।
सुपरि०—हम तुमसे चाहता है कि जब रैयतके दिल में बदखाही पैदा हो तो तुम हमारा मदद करे। सरकारसे पहले वही लोग बदखाही करेगा जिसके पास कुछ जायदाद नहीं है, जिसका सरकारसे कोई कनेकशन (सम्बन्ध) नहीं है। हम ऐसे आदमियों का तोड़ लिये लोगोंको मजबूत करना चाहता है जो जायदादवाला है और जिसका हस्ती सरकारपर है। हम तुमसे रैयतको दबानेका काम लेना चाहता है।
सबल—और लोग आपको इस काममें मदद दे सकते हैं, मैं नहीं दे सकता। मैं रैयतका मित्र बनकर रहना चाहता हूँ, शत्रु बनकर नहीं। अगर रैयतको गुलामीमें जकड़े ओर अन्धकारमें डाले रखने के लिये जमींदारोंकी सृष्टि की गई है तो मैं इस अत्याचारका पुरस्कार न लूँगा चाहे वह रियासत ही क्यों न हो। मैं अपने देश-बन्धुवोंके मानसिक और आत्मिक विकासका इच्छुक हूँ। दूसरोंको मूर्ख और अशक्त रखकर अपना ऐश्वर्य्य नहीं चाहता।
सुपरि०—तुम सरकारसे बगावत करता है।
सबल—अगर इसे बगावत कहा जाता है तो मैं बागी ही हूँ।
सुपरि०—हां यही बगावत है। देहातोंमें पंचायत खोलना बगावत है, लोगोंको शराब पीनेसे रोकना बगावत है, लोगोंको अदालतोंमें जानेसे रोकना बगावत है, सरकारी आदमियोंका रसद बेगार बन्द करना बगावत है।
सबल—तो फिर मैं बागी हूँ।
अचल-मैं भी बागी हूँ।
सुपरि०—गुस्ताख लड़का।
इन्स०—हजूर कमरेमें चलें, वहां मैंने बहुतसे कागजात जमा कर रखे हैं।
सुपरि०—चलो।
इन्स—देखिये यह पंचायतों की फिहरिस्त है और पंचोंके नाम हैं।
सुप०—बहुत कामकी चीज है।
इन्स०—यह पंचायतोंपर एक मजमून है।
सुप०—बहुत कामकी चीज है।
इन्स०—यह कौमके लीडरोंकी तस्वीरोंका अल्बम है।
सुप०—बहुत कामका चीज है।
इन्स०—यह चन्द किताबें हैं, मैजिनीके मजामीन, वीर हारडीका हिन्दुस्तानका सफरनामा, भक्त प्रहलादका वृत्तान्त, टाल्स्टायकी कहानियां।
सुप०—सब बड़े कामका चीज है।
इन्स०—यह मिसमेरिजिमकी किताब है।
सुप०—ओह, यह बड़े कामका चीज है।
इन्स०-यह दवाइयोंका बक्स है।
सुप०—देहातियोंको बसमें करनेके लिये! यह भी बहुत कामका चीज है।
इन्स०—यह मैजिक लालटेन है।
सुप०—बहुत ही कामका चीज है। इन्स०—यह लेन देनकी बही है।
सुप०—(Most Important) बड़े कामका चीज़। इतना सबूत काफी है। अब चलना चाहिये।
एक कानिस्टेबल—हजूर, बगीचेमें एक अखाड़ा भी है।
सुप०—बहुत बड़ा सबूत है।
दूसरा कान्स०—हजूर, अखाड़ेके आगे एक गऊशाला भी है। कई गायें-भैंसे बंधी हुई हैं।
सुप०—दूध पीता है जिसमें बगावत करनेके लिये ताकत हो जाय। बहुत बड़ा सबूत है। वेल सबलसिंह हम तुमको गिरफ्तार करता है।
सबल—आपको अधिकार है।
(चेतनदासका प्रवेश)
इन्स०—आइये स्वामीजी; तशरीफ लाइये।
चेतन—मैं जमानत देता हूँ।
इन्स०—आप! यह क्योंकर!
सबल—मैं जमानत नहीं देना चाहता। मुझे गिरफ्तार कीजिये।
चेतन—नहीं, मैं ज़मानत दे रहा हूँ।
सबल—स्वामीजी, आप दयाके स्वरूप हैं, पर मुझे क्षमा कीजियेगा, मैं ज़मानत नहीं देना चाहता। चेतन—ईश्वरकी इच्छा है कि मैं तुम्हारी जमानत करूं।
सुप०—वेल इन्सपेक्टर, आपकी क्या राय है? जमानत लेनी चाहिये या नहीं?
इन्स०—हजूर स्वामीजी बड़े मोतबर, सरकारके बड़े खैरख्वाह हैं। इनकी जमानत मंजूर कर लेने में कोई हर्ज नहीं है।
सुप०—हम पांच हजारसे कम न लेगा।
चेतन—मैं स्वीकार करता हूं।
सबल—स्वामीजी! मेरे सिद्धान्त भङ्ग हो रहे हैं।
चेतन—ईश्वरकी यही इच्छा है।
चेतनदासके पैरोंपर गिर पड़ती हैं)
चेतन—माई तेरा कल्याण हो।
ज्ञानी—आपने आज मेरा उद्धार कर दिया।
चेतन—सब कुछ ईश्वर करता है।
(प्रस्थान)