संग्राम/३.३
मसहरीके अन्दर लेटे हुए हैं। समय—११ बजे रात।)
सबल (आपही आप) आज मुझे इसके बर्ताव और बातोंमें कुछ रूखाईसी मालूम होती थी। मेरा बहम नहीं है, मैंने बहुत विचारसे देखा। मैं घण्टेभरतक बैठा, चलने के लिये जोर देता रहा पर उसने एक बार नहीं करके फिर हां न की। मेरी तरफ एकबार भी उन प्रेमकी चितवनोंसे नहीं देखा जो मुझे मस्त कर देती हैं। कुछ गुम सुम सी बैठी रही। कितना कहा कि तुम्हारे न चलनेसे घोर अनर्थ होगा, यात्राकी सब तैयारियां कर चुका हूं, लोग मनमें क्या कहेंगे कि पहाड़ोंकी सैरका इतना ताव था, और इतना जल्द ठंढा हो गया, लेकिन मेरी सारी अनुनय विनय एक तरफ और उसकी एक 'नहीं' एक तरफ। इसका कारण क्या है? किसीने बहका तो नहीं दिया। हां, एक बात याद आई। उसके इस कथनका क्या आशय हो सकता है कि हम चाहे जहां जायं टोहियों और गोयन्दोंसे बच न सकेंगे। क्या यहां टोहिये आगये। इसमें कंचनकी कुछ कारस्तानी मालूम होती है। टोहियेपन की आदत उन्होंमें है। उनका उस दिन उचक्कोंकी भांति इधर-उधर, अपर नीचे ताकते जाना निरर्थक नहीं था। इन्होंने कल मुझे रोकनेकी कितनी चेष्टा की थी। ज्ञानीकी निगाह भी कुछ बदली हुई देखता हूँ। यह सारी श्राग कंचनकी लगाई हुई है। तो क्या कंचन वहां गया था? राजेश्वरीके सम्मुख जानेकी इसे क्योंकर हिम्मत हुई। किसी महफ़िलमें तो आज तक गया नहीं। बचपनहीसे औरतोंको देखकर में झेंपता है। वहां कैसे गया। जाने क्योंकर पाया। मैंने तो राजेश्वरीसे सख्त ताकीद कर दी थी कि कोई भी यहां न आने पाये। हमने मेरी ताकीदकी कुछ परवा न की। दोनों नौकरानियां भी मिल गईं। यहां तक कि राजेश्वरीने इनके जानेकी कुछ चर्चा ही नहीं की। मुझसे बात छिपाई, पेट रखा। ईश्वर, मुझे यह किन पापों का दंड मिल रहा है।
अगर कंचन मेरे रास्तेमें पड़ते हैं, तो पड़ें पर परिणाम बुरा होगा। अत्यन्त भीषण। मैं जितना ही नर्म हूँ उतना ही कठोर भी हो सकता हूँ। मैं आजसे ताकमें हूं। अगर निश्चय हो गया कि इसमें कंचनका कुछ हाथ है तो मैं उसके खूनका प्यासा हो जाऊँगा। मैंने कभी उसे कड़ी निगाहसे नहीं देखा। पर उसकी इतनी जुर्अत! अभी यह खून बिलकुल ठंढा नहीं हुआ है, उस जोशका कुछ हिस्सा बाकी है जो कटे हुए सिरों और तड़पती हुई लाशोंका दृश्य देखकर मतवाला हो जाता था। इन बाहोंमें अभी दम है, यह अब भी तलवार और भालेका वार कर सकती हैं। मैं अबोध बालक नही हूं कि मुझे बुरे रास्तेसे बचाया जाय, मेरी रक्षा की जाय। मैं अपना मुखतार हूँ, जो चाहूँ करूँ। किसीको चाहे वह मेरा भाई ही क्यों न हो, मेरी भलाई और हितकामनाका ठोंग रचनेकी जरूरत नहीं। अगर बात यहींतक है तो ग़नीमत है, लेकिन इसके आगे बढ़ गई है तो फिर इस कुलकी खैरियत नहीं। इसका सर्वनाश हो जायगा और मेरे ही हाथों। कंचनको एक बार सचेत कर देना चाहिये।
(ज्ञानी आती है)
ज्ञानी—क्या अभीतक सोये नहीं? बारह तो बज गये होंगे।
सबल—नींद को बुला रहा हूं पर उसका स्वभाव तुम्हारा जैसा है। आप ही आप आती है पर बुलानेसे भान करने लगती है। तुम्हें नींद क्यों नहीं आई?
ज्ञानी—चिन्ताकी नींदसे बिगाड़ है।
सबल—किस बातकी चिन्ता है?
ज्ञानी—एक बात है कि कहूं। चारों तरफ़ चिन्ताए हो चिन्ताएं हैं। इस वक्त तुम्हारी यात्राकी चिन्ता है। तबीयत अच्छी नहीं, अकेले जाने कहते हो। परदेसवाली बात है, न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। इससे तो यही अच्छा था कि यही इलाज करवाते।
सबल—(क्यों न इसे खुश कर दूँ जब जरा सा बात फेर देनेसे काम निकल सकता है) इस जरा सी बातके लिये इतनी चिन्ता करनेकी क्या जरूरत?
ज्ञानी—तुम्हारे लिये जरा सी हो पर मुझे तो असूझ मालूम होती है।
सबल—अच्छा तो लो, न जाऊँगा।
ज्ञानी—मेरी कसम?
सबल—सत्य कहता हूं। जब इससे तुम्हें इतना कष्टहो रहा है तो न जाऊँगा।
ज्ञानी—मैं इस अनुग्रहको भी न भूलूंगी। आपने मुझे उबार लिया नहीं तो न जाने मेरी क्या दशा होती। अब मुझे कुछ दंड भी दीजिये। मैंने आपकी आज्ञाका उल्लंघन किया है और उसका कठिन दंड चाहती हूँ।
सबल—मुझे तुमसे इसकी शंका ही नहीं हो सकती।
ज्ञानी—पर वह अपराध इतना बड़ा है कि आप उसे क्षमा नहीं कर सकते।
सबल—(कुतूहलसे) क्या बात है, सुनूं? ज्ञानी—मैं कल आपके मना करनेपर भी स्वामी चेतन-दासके दर्शनोंको चली गई थी।
सबल—अकेले?
ज्ञानी—गुलाबी साथ थी।
सबल—(मनमें) क्या करे बिचारी किसी तरह मन तो बहलाये। मैंने एक तरह इससे मिलना ही छोड़ दिया। बैठे २ जी ऊब गया होगा। मेरी आज्ञा ऐसी कौन महत्वकी वस्तु है। जब नौकर चाकर जब चाहते हैं उसे भंग कर देते हैं और मैं उनका कुछ नहीं कर सकता तो इसपर क्यों गर्म पडूं। मैं खुली आँखों धर्म और नीतिको भङ्ग कर रहूंगा, ईश्वरीय आज्ञासे मुँह मोड़ रहा हूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि इसके साथ जरा सी बात के लिये सख्ती करूं। (प्रकट) यह कोई अपराध नहीं, और न मेरी आज्ञा इतनी अटल है कि भङ्ग ही न की जाय। अगर तुम इसे अपराध समझती हो तो मैं इसे सहर्ष क्षमा करता हूँ।
ज्ञानी—स्वामी,आपके बर्तावमें आजकल क्यों इतना अन्तर हो गया है। आपने क्यों मुझे बन्धनोंसे मुक्त कर दिया है, मुझ पर पहलेकी भांति शासन क्यों नहीं करते? नाराज क्यों नहीं होते, कटु शब्द क्यों नहीं कहते, पहलेकी भांति रूठते क्यों नहीं, डाँटते क्यों नहीं। आपकी यह सहिष्णुता देखकर मेरे अबोध मनमें भांति भौतिकी शङ्काएं उठने लगती हैं कि यह प्रेम-बन्धन का ढीलापन न हो।
सबल—नहीं प्रिये, यह बात नहीं है, देश-देशान्तरोंके पत्र पत्रिकाओंको देखना हूँ तो वहाँकी स्त्रियोंकी स्वाधीनताके सामने यहांका कठोर शासन कुछ अच्छा नहीं लगता। अब स्त्रियाँ कौन्सिलोंमें जा सकती हैं, वकालत कर सकती हैं, यहांतक कि भारतमें भी स्त्रियोंको अन्यायके बन्धनोंसे मुक्त किया जा रहा है, तो क्या मैं ही सबसे गया बीता हूँ कि वही पुरानी लकीर पीटे जाऊँ।
ज्ञानी—मुझे तो उस राजनैतिक स्वाधीनताके सामने प्रेम बन्धन कहीं सुखकर जान पड़ता है। मैं वह स्वाधीनता नहीं चाहती।
सबल—(मनमें) भगवन्, इस अपार प्रेमका मैंने कितना घोर अपमान किया है? इस सरलहृदयाके साथ मैंने कितनी अनीतिकी है? आंखोंमें आंसू क्यों भरे आते हैं? मुझ जैसा कुटिल मनुष्य इस देवीके योग्य नहीं था। (प्रकट) प्रिये, तुम मेरी ओरसे लेशमात्र भी शङ्का न करो। मैं सदैव तुम्हारा हूँ और रहूंगा! इस समय गाना सुननेका जी चाहता है। वही अपना प्यारा गीत गाकर मुझे सुना दो।
ज्ञानी—(सरोद लाकर सबलसिंहको दे देती है) गाने लगती है—
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई।
माता छोड़ी पिता छोड़े छोड़े सगा सोई,
सन्तन सङ्ग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अब तो०॥