संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ १४६ से – १५६ तक

 


तृतीय अङ्क


पहलादृश्य
(स्थान--कंचनसिहका कमरा, समय--दोपहर, खसकी टट्टी

लगी हुई है, कंचनसिह सीतलपाटी बिछाकर लेटे हुए हैं, पंखा

चल रहा है।)

कंचन--(आप ही आप) भाई साहबमें तो यह आदत कभी नहीं थी। इसमें अब लेशमात्र भी सन्देह नहीं है कि वह कोई अत्यन्त रूपवती स्त्री है। मैंने उसे छज्जे परसे झाँकते देखा था, भाई साहब आड़में छिप गये थे। अगर कुछ रहस्यकी बात न होती तो वह कदापि न छिपते, बल्कि मुझसे पूछते कहाँ जा रहे हो। मेरा माथा उसी वक्त ठनका था जब मैंने उन्हें नित्य प्रति बिना किसी कोचवानके अपने हाथों टमटम हांकते सैर करते जाते देखा। उनकी इस भांति घुमनेकी आदत न थी। आजकल कभी न क्लब जाते हैं न और किसीसे मिलते-जुलते हैं। पत्रोंसे भी रुचि नहीं जान पड़ती। सप्ताहमें एक न एक लेख अवश्य लिख लेते थे, पर इधर महीनोंसे एक पंक्ति भी कहीं नहीं लिखी। यह बुरा हुआ। जिस प्रकार बंधा हुआ पानी खुलता है तो बड़े बेगसे बहने लगता है अथवा रुका हुआ वायु चलता है तो बहुत प्रचंड हो जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरुष जब विचलित होता है तो वह अविचारकी चरम सीमातक चला जाता है, न किसीकी सुनता है, न किसीके रोके रुकता है, न परिणाम सोचता है। उसकी विवेक और बुद्धिपर परदासा पड़ जाता है। कदाचित् भाई साहबको मालूम हो गया है कि मैंने उन्हें वहाँ देख लिया। इसीलिये वह मुझसे माल खरीदनेके लिये पंजाब जानेको कहते हैं। मुझे कुछ दिनोंके लिये हटा देना चाहते हैं। यही बात है, नहीं तो वह माल-वालकी इतनी चिन्ता कभी नहीं किया करते थे। मुझे तो अब कुशल नहीं दीखती। भाभीको कहीं खबर मिल गई तो वह प्राण ही दे देंगी। बड़े आश्चर्यकी बात है कि ऐसे-ऐसे विद्वान गम्भीर पुरुष भी इस मायाजालमें फंस जाते हैं। अगर मैंने अपनी आंखों न देखा होता तो भाई साहबके सम्बन्धमें कभी इस दुष्कल्पनाका विश्वास न आता।

(ज्ञानीका प्रवेश)

ज्ञानी--बाबूजी, आज सोये नहीं?

कंचन--नहीं, कुछ हिसाब-किताब देख रहा था। भाई साहबने लगान न मुआफ कर दिया होता तो अबकी मैं ठाकुरद्वारेमें जरूर हाथ लगा देता। असामियोंसे कुछ रुपये वसूल होते लेकिन उनपर दावा नहीं करने दिया।

ज्ञानी--वह तो मुझसे कहते थे दो चार महीनोंके लिये पहाड़ों की सैर करने जाऊंगा। डाक्टरने कहा है यहाँ रहोगे तो तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ जायगा। आजकल कुछ दुर्बल भी तो हो गये हैं। बाबुजी एक बात पूछूं बताओगे? तुम्हें भी इनके स्वभावमें कुछ अन्तर दिखाई देता है? मुझे तो बहुत अन्तर मालूम होता है। वह कभी इतने नम्र और सरल नहीं थे। अब वह एक-एक बात सावधान होकर कहते हैं कि कहीं मुझे बुरा न लगे। उनके सामने जाती हूँ तो मुझे देखते ही मानों नींदसे चौंक पड़ते हैं और इस भांति हंस कर स्वागत करते हैं जैसे कोई मेहमान आया हो। मेरा मुंह जोहा करते हैं कि कोई बात कहे और उसे पूरी कर दूँ। जैसे घरके लोग बीमारका मन रखनेका यत्न करते हैं या जैसे किसी शोक-पीड़ित मनुष्यके साथ लोगोंका व्यवहार सदय हो जाता है। उसी प्रकार आजकल पके हुए फोड़ेकी तरह मुझे ठेससे बचाया जाता है। इसका रहस्य कुछ मेरी समझमें नहीं आता। खेद तो मुझे यह है कि इन सारी बातोंमें दिखाव और बनावटकी बू आती है। सच्चा क्रोध उतना हृदय भेदी नहीं होता जितना कृत्रिम प्रेम।

कंचन--(मनमें) वही बात है। किसी बच्चेसे हम अशर्फी ले लेते हैं कि खो न दे तो उसे मिठाइयोंसे फुसला देते हैं। भाई साहबने भाभीसे अपना प्रेम-रत्न छीन लिया है और बनावटी स्नेह और प्रणयसे इनको तस्कीन देना चाहते हैं। इस प्रेममूर्तिका अब परमात्मा ही मालिक है। (प्रगट) मैंने तो इधर ध्यान नहीं दिया। स्त्रियाँ सूक्ष्मदर्शी होती हैं......।

(खिदमतगार आता है। ज्ञानी चली जाती है)

कंचन--क्या काम है?

खिदमतगार--यह सरकारी लिफाफा आया है। चपरासी बाहर खड़ा है।

कंचन--(रसीदकी बहीपर हस्ताक्षर करके) यह सिपाही को दो।

(खिदमतगार चला जाता है)

अच्छा, गाँववालोंने मिलकर हलधरको छुड़ा लिया। अच्छा ही हुआ, मुझे उससे कोई दुश्मनी तो थी नहीं, मेरे रुपये वसूल हो गये। यह कार्रवाई न की जाती तो कभी रुपये न वसूल होते। इसीसे लोग कहते हैं कि नीचोंको जबतक खूब न दबावो उनकी गाँठ नहीं खुलती। औरोंपर भी इसी तरह दावा कर दिया गया होता तो बातकी बातमें सब रुपये निकल आते। और कुछ न होता तो ठाकुरद्वारेमें हाथ तो लगा ही देता। भाई साहबको समझाना तो मेरा काम नहीं, उनके सामने रोब, शर्म और संकोचसे मेरी जवान ही न खुलेगी। उसीके पास चलू, उसके रङ्ग-ढ़ङ्ग देखूं, कौन है, क्या चाहती है, क्यों यह जाल फैलाया है। अगर धनके लोभसे यह माया रची है तो जो कुछ उसकी इच्छा हो देकर यहाँसे हटा दूँ। भाई साइबको और समस्त परिवारको सर्वनाशसे बचा लूँ।

(फिर खिदमतगार आता है)

क्या बार बार आते हो? क्या काम है? मेरे पास पेशगी देनेके लिये रुपये नहीं हैं।

खिद०—हजूर रुपये नहीं माँगता। बड़े सरकारने आपको याद किया है।

कंचन—(मनमें) मेरा तो दिल धक धक कर रहा है, न जाने क्यों बुलावे हैं कहीं पूछ न बैठें तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हो।

( उठकर ठाकुर सबल सिहके कमरे में जाते हैं।)

सबल—तुमको एक विशेष कारणसे तकलीफ़ दी है। इधर कुछ दिनोंसे मेरी तबीयत अच्छी नहीं रहती, रातको नींद कम आती है और भोजनसे भी अरुचि हो गई है।

कंचन—आपका भोजन आधा भी नहीं रहा।

सबल—हां वह भी जबरदस्ती खाता हूँ। इसलिये मेरा विचार हो रहा है कि तीन चार महीनोंके लिये मंसूरी चला जाऊं। कंचन—जलवायुके बदलनेसे कुछ लाभ तो अवश्य होगा।

सबल—तुम्हें रुपयोंका प्रबन्ध करनेमें ज्यादा असुबिधा होगी।

कंचन—ऊपर तो केवल ५०००) होंगे। ४२५०) मूलचन्दने दिये हैं, ५००) श्रीरामने और २५०) हलधरने।

सबल—(चौंककर) क्या हलधरने भी रुपये दे दिये?

कंचन—हां गांववालोंने मदद की होगी।

सबल—तब तो वह छूटकर अपने घर पहुँच गया होगा?

कंचन—जी हां।

सबल—(कुछ देरतक सोचकर) मेरे सफरकी तैयारीमें कै दिन लगेंगे?

कंचन—क्या जाना बहुत जरूरी है? क्यों न यहीं कुछ दिनोंके लिये देहात चले जाइये। लिखने-पढ़नेका काम भी बन्द कर दीजिये।

सबल—डाक्टरोंकी सलाह पहाड़ोंपर जानेकी है। मैं कल किसी वक्त यहांसे मंसूरी चला जाना चाहता हूँ।

कंचन—जैसी इच्छा।

सबल—मेरे साथ किसी नौकर चाकरके जानेकी जरूरत नहीं है। तुम्हारी भाभी चलनेके लिये आग्रह करेंगी। उन्हें समझा देना कि तुम्हारे चलनेसे खर्च बहुत बढ़ जायगा। नौकर, महरी, मिश्राइन, सभोंको जाना पड़ेगा और इस वक्त इतनी गुंजाइश नहीं।

कंचन—अकेले तो आपको बहुत तकलीफ होगी।

सबल—(खिझकर) क्या संसारमें अकेले कोई यात्रा नहीं करता। अमरीका करोरपतितक एक हैंडबैग लेकर भारतकी यात्रापर चल खड़े होते हैं, मेरी कौन गिनती है। मैं उन रइसोंमें नहीं हूं जिनके घरमें चाहे भोजनोंका ठिकाना न हो, जायदाद बिकी जाती हो, पर जूता नौकर ही पहनायेगा, शौचके लिये लोटा लेकर नौकर ही जायगा। यह रियासत नहीं हिमाक़त है।

(कंचनसिह चले जाते हैं।)

सबल—(मनमें) वही हुआ जिसकी आशंका थी। आज ही राजेश्वरीसे चलनेको कहूं और कल प्रातःकाल यहाँसे चल दूं। हलधर कहीं आ पड़ा और उसे सन्देह हो गया तो बड़ी मुशकिल होगी। ज्ञानी आसानीसे न मानेगी। उसे देखकर दया आती है। किन्तु आज हृदयको कड़ा करके उसे भी रोकना पड़ेगा।

(अचलका प्रवेश)

अचल—दादाजी, आप पहाड़ोंपर जा रहे हैं, मैं भी साथ चलूंगा। सबल—बेटा, मैं अकेले जा रहा हूँ, तुम्हें तकलीफ होगी।

अचल—इसीलिये तो मैं और चलना चाहता हूँ। मैं चाहता हूं कि खूब तकलीफ हो, सब काम अपने हाथों करना पड़े, मोटा खाना मिले और कभी मिले कभी न मिले। तकलीफ उठानेसे आदमीकी हिम्मत मजबूत हो जाती है, वह निर्भय हो जाता है, जरा-जरा सी बातोंसे घबराता नहीं। मुझे जरूर ले चलिये।

सबल—मैं वहाँ एक जगह थोड़े ही रहूँगा। कभी यहाँ, कभी वहां।

अचल—यह तो और भी अच्छा है। तरह तरहकी चीजें, नये नये दृश्य देखने में आयेंगे। भौर मुल्कोंमें तो लड़कोंको सरकारकी तरफसे सैर करनेका मौका दिया जाता है। किताबोंमें भी लिखा है कि बिना देशाटन किये अनुभव नहीं होता, और भूगोल जाननेका तो इसके सिवा कोई अन्य उपाय नहीं है। नक़शों और माडलोंके देखनेसे क्या होता है। मैं इस मौक़ेको न जाने दूंगा।

सबल—बेटा, तुम कभी २ व्यर्थमें ज़िद करने लगते हो। मैंने कह दिया कि मैं इस वक्त अकेले ही जाना चाहता हूँ, यहां तक कि किसी नौकरको भी साथ नहीं ले जाता। अगले वर्षमें तुम्हें इतनी सैरें करा दूँगा कि तुम ऊब जावोगे।

(अचल उदास होकर चला जाता है।)

अब सफ़रकी तैयारी करूं। मुखतसर ही सामान ले जाना मुनासिब होगा। रुपये हों तो जंगलमें भी मंगल हो सकता है। आज शामको राजेश्वरीसे भी चलनेकी तैयारी करनेको कह दूंगा, प्रातःकाल हम दोनों यहांसे चले जायँ। प्रेमपाशमें फंसकर देखूं, नीतिका, आत्माका, धर्मका कितना बलिदान करना पड़ता है, और किस-किस बनकी पत्तियां तोड़नी पड़ती हैं।