संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ ७८ से – ८६ तक

 


दूसरा दृश्य

समय--संध्या, स्थान--सबलसिंहकी बैठक।

सबल--(आपही आप) मैं चेतनदासको धूर्त समझता था, पर वह तो ज्ञानी महात्मा निकले। कितना तेज और शौर्य्य है। ज्ञानी उनके दर्शनोंको लालायित हैं। क्या हर्ज है। ऐसे आत्मज्ञानी पुरुषोंके दर्शनसे कुछ उपदेश ही मिलेगा।

(कंचनसिहका प्रवेश)

कंचन--(तार दिखाकर) दोनों जगह हार हुई। पूनामें थोड़ा कट गया। लखनऊमें जाकी घोड़ेसे गिर पड़ा।

सबल--यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई। कोई पांच हजारका नुकसान हो गया।

कंचन--गल्लेका बाजार चढ़ गया। अगर अपना गेहूँ दस दिन और न बेचता तो दो हजार साफ़ निकल आते।

सबल--पर आगम कौन जानता था।

कंचन--असामियोंसे एक कौड़ी वसूल होनेकी आशा नहीं। सुना है कई असामी घर छोड़कर भागनेकी तैयारी कर रहे हैं। बैल बधिया बेचकर जायँगे। कबतक लौटेंगे कौन जानता है। मरें, जियें न जाने क्या हो। यन्त्र न किया गया तो ये सब रुपये भी मारे जायँगे। पांच हजारके माथे जायगी। मेरी राय है कि उनपर डिगरी कराके जायदाद नीलाम करा ली जाय। असामी सबके सब मोतबर हैं लेकिन ओलोंने तबाह कर दिया।

सबल--उनके नाम याद हैं?

कंचन--सबके नाम तो नहीं लेकिन दस पांच नाम छाँट लिये हैं। जगरविका लल्लु, तुलसी भूफोर, मधुबनका सीता, नब्बी, हलधर, चिरौंजी.........

सबल--(चौंककर) हलधरके जिम्मे कितने रुपये हैं?

कंचन--सूद मिलाकर कोई २५०) होंगे।

सबल--(मनमें) बड़ी विकट समस्या है। मेरे ही हाथों उसे यह कष्ट पहुँचे! इसके पहले मैं इन हाथोंको ही काट डालूंगा। उसकी एक दया-दृष्टिपर ऐसे २ कई ढाई सौ न्यौछावर हैं। वह मेरी है, उसे ईश्वरने मेरे लिये बनाया है नहीं तो मेरे मनमें उसकी लगन क्यों होती। समाजके अनर्गल नियमोंने उसके और मेरे बीच यह लोहेकी दीवार खड़ी कर दी है। मैं इस दीवारको खोद डालूंगा। इस कांटेको निकालकर फूलको गलेमें डाल लूंगा। साँपको हटाकर मणिको अपने हृदयमें रख लूंगा। (प्रगट) और असामियोंकी जायदाद नीलाम करा सकते हो पर हलधरकी जायदाद नीलाम करानेके बदले में उसे कुछ दिनों हिरासतकी हवा खिलाना चाहता हूं। वह बदमाश आदमी है, गांववालोंको भड़काता है। कुछ दिन जेलमें रहेगा तो उसका मिजाज ठंढा हो जायगा।

कंचन--हलधर देखनेमें तो बड़ा सीधा भौर भोला आदमी मालूम होता है।

सबल--मना हुआ है। तुम अभी उसके हथकण्डोंको नहीं जानते। मुनीमसे कह देना, वह सब कार्रवाई कर देगा। तुम्हें अदालतमें जानेकी जरूरत नहीं।

(कञ्चन सिंह का प्रस्थान)

सबल--(आप ही आप) झानियोंने सत्य ही कहा है कि कामके वशमें पड़कर मनुष्यकी विद्या, बुद्धि, विवेक सब नष्ट हो जाते हैं। यह वह नीच प्रकृति है तो मनमाना अत्याचार करके अपनी तृष्णाको पूरी करता है। यदि विचारशील है तो कपट नीतिसे अपना मनोरथ सिद्ध करता है। इसे प्रेम नहीं कहते, यह है कामलिप्सा। प्रेम पवित्र, उज्वल, स्वार्थ रहित, सेवामय, वासना रहित वस्तु है। प्रेम वास्तवमें ज्ञान है। प्रेमसे संसारकी सृष्टि हुई, प्रेमसे ही उसका पालन होता है। यह ईश्वरीय प्रेम है। मानवप्रेम यह है जो जीवमात्रको एक समझे, जो आत्माकी व्यापकता- को चरितार्थ करे, जो प्रत्येक अणुमें परमात्मा का स्वरूप देखे, जिसे अनुभूत हो कि प्राणीमात्र एक ही प्रकाशकी ज्योति हैं। प्रेम उसे कहते हैं। प्रेमके शेष जितने रूप हैं सब स्वार्थमय, पापमय हैं। ऐसे कोढ़ीको देखकर जिसके शरीर में कीड़े पड़ गये हों अगर हम विह्वल हो जायं और उसे तुरत गले लगा लें तो वह प्रेम है। सुन्दर, मनोहर, स्वरूपको देखकर सभीका चित्त आकर्षित होता है, किसीका कम, किसीका ज्यादा। जो साधनहीन हैं, क्रियाहीन हैं या पौरुषहीन हैं वह कलेजेपर हाथ रखकर रह जाते हैं और दो-एक दिनमें भूल जाते हैं। जो सम्पन्न हैं, चतुर हैं, साहसी हैं, उद्योगशील हैं, वह पीछे पड़ जाते हैं और अभीष्ट लाभ करके ही दम लेते हैं। यही कारण है कि प्रेमवृत्ति अपने सामर्थ्य के बाहर बहुत कम जाती है। जारकी लड़की कितनी ही सर्व गुण पूर्ण हो पर मेरी वृत्ति उधर जानेका नाम न लेगी। वह जानती है कि वहाँ मेरी दाल न गलेगी। राजेश्वरीके विषयमें मुझे संशय न था। वहाँ भय, प्रलोभन, नृशंसता, किसी युक्तिका प्रयोग किया जा सकता था। अंतमें, यदि यह सब युक्तियाँ विफल होती तो...

(अचल सिहका प्रवेश)

अचल--दादाजी, देखिये नौकर बड़ी गुस्ताखी करता है। अभी मैं फुटबाल देखकर आया हूं, कहता हूं जूता उतार दे, लेकिन वह लालटेन साफ कर रहा है, सुनता ही नहीं। आप मुझे कोई अलग एक नौकर दे दीजिये, जो मेरे काम के सिवा और किमीका काम न करे।

सबल--(मुस्कुराकर) मैं भी एक ग्लास पानी माँगूँ तो न दे?

अचल--आप हँसकर टाल देते हैं, मुझे तकलीफ़ होती है। मैं जाता हूँ इसे खूब पीटता हूँ।

सबल-–बेटा, वह काम भी तो तुम्हारा ही है। कमरेमें रोशनी न होती तो उसके सिर होते कि अबतक लालटेन क्यों नहीं जलाई। क्या हर्ज है आज अपने ही हाथसे जूते उतार लो। तुमने देखा होगा ज़रूरत पड़नेपर लेडियाँतक अपने बक्स उठा लेती हैं। जब बम्बे मेल आती है तो जरा स्टेशनपर जाकर देखो।

अचल--आज अपने जूते उतार लूँ, कलको जूतों में रोगन भी आप ही लगा लूँ, वह भी तो मेरा ही काम है, फिर खुद ही कमरेकी सफाई भी करने लगूं, अपने हाथों टब भी भरने लगूँ, धोती भी छाँटने लगूँ।

सबल--नहीं यह सब करने को मैं नहीं कहता, लेकिन अगर किसी दिन नौकर न मौजूद हो तो जूता उतार लेनेमें कोई हानि नहीं है।

अचल--जी हाँ, मुझे यह मालूम है; मैं तो यहाँतक मानता हूं कि एक मनुष्यको अपने दूसरे भाईसे सेवा टहल करानेका कोई अधिकार ही नहीं है। यहाँतक कि साबरमती आश्रममें लोग अपने हाथों अपना चौका लगाते हैं, अपने बर्तन माँजते हैं और अपने कपड़ेतक धो लेते हैं। मुझे इसमें कोई उग्र या इनकार नहीं है, मगर तब आप ही कहने लगेंगे बदनामी होती है, शर्मकी बात है, और अम्मांजीकी तो नाक ही कटने लगेगी। मैं जानता हूँ नौकरोंके अधीन होना अच्छी आदत नहीं है। अभी कल ही हम लोग कण्व स्थान गये थे। हमारे मास्टर थे और १५ लड़के। ११ बजे दिनको धूपमें चले। छतरी किसीके पास नहीं रहने दी गई। हाँ, लोटा-डोर साथ था। कोई १ बजे वहां पहुंचे। कुछ देर पेड़के नीचे दम लिया। तब तालाबमें स्नान किया। भोजन बनानेकी ठहरी। घरसे कोई भोजन करके नहीं गया था। फिर क्या था, कोई गांवसे जिंस लाने दौड़ा, कोई उपले बटोरने लगा, दो तीन लड़के पेड़ोंपर चढ़कर लकड़ी तोड़ लाये, कुम्हारके घरसे हांडियां और घड़े आये। पत्तोंके पत्तल हमने खुद बनाये। आलुका भर्ता भौर बाटियाँ बनाई गई। खाते पकाते चार बज गये। घर लौटनेकी ठहरी। ६ बजते-बजते यहाँ आ पहुँचे। मैंने खुद पानी खींचा, खुद उपले बटोरे। एक प्रकारका आनन्द और उत्साह मालूम हो रहा था। यह ट्रिप (क्षमा कीजियेगा अंग्रेज़ी शब्द निकल गया) चक्कर, इसी लिये तो लगाया गया था जिसमें हम जरूरत पड़नेपर सब काम अपने हाथोंसे कर सकें, नौकरों के मुहताज न रहें।

सबल--इस चक्करका हाल सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई। अब ऐसे गस्तकी ठहरे तो मुझसे भी कहना,मैं भी चलूंगा। तुम्हारे अध्यापक महाशयको मेरे चलने में कोई आपत्ति तो न होगी?

अचल--(हँसकर) वहाँ आप क्या कीजियेगा, पानी खींचियेगा?

सबल--क्यों, कोई ऐसा मुशकिल काम नहीं है।

अचल--इन नौकरों में दो चार अलग कर दिये जायँ तो अच्छा हो। इन्हें देखकर खामखाम कुछ न कुछ काम लेनेका जी चाहता है। कोई आदमी सामने न हो तो आलमारीमेंसे खुद किताब निकाल लाता हूं। लेकिन कोई रहता है तो खुद नहीं उठता उसीको उठाता हूँ। आदमी कम हो जायंगे तो यह आदत छूट जायगी।

सबल--हाँ,तुम्हारा यह प्रस्ताव बहुत अच्छा है। इसपर विचार करूँगा। देखो नौकर खाली हो गया जावो जूते खुलवा लो।

अचल--जी नहीं अब मैं कभी नौकर से जूता उतरवाऊंगा ही नहीं और न पहनूंगा। खुद ही पहन लूंगा, उतार लूंगा। आपने इशारा कर दिया वह काफी है।

(चला जाता है)

सबल--(मनमें) ईश्वर तुम्हें चिरायु करें, तुम होनहार देख पड़ते हो। लेकिन कौन जानता है आगे चलकर क्या रंग पकड़ोगे। मैं आजके तीन महीने पहले अपनी सच्चरित्रतापर घमण्ड करता था। वह घमण्ड एक क्षणमें चूर-चूर हो गया। खैर होगा।......अगर और सब देनदारोंपर दावा न हो केवल हलधर ही पर किया जाय तो घोर अन्याय होगा। मैं तो चाहता हूँ दावे सभोंपर किये जायें लेकिन जायदाद किसीकी नीलाम न कराई जाय। असामियोंको जब मालम हो जायगा कि हमने घर छोड़ा और जायदाद गई तो वह कभी न जायँगे। उनके भागनेका एक कारण यह भी होगा कि लगान कहाँसे देंगे। मैं लगान मुआफ कर दूं तो कैसा हो। मेरा ऐसा ज्यादा नुकसान न होगा। इलाकेमें सब जगह तो ओले गिरे नहीं हैं। सिर्फ २-३ गाँवोंमें गिरे हैं, ५०००) का मुआमला है। मुमकिन है इस मुआफ़ीकी खबर गवर्मेण्टको भी हो जाय और वह मुआफ़ीका हुक्म दे दे, तो मुझे मुफ्तमें यश मिल जायगा। और अगर सरकार न मुआफ़ करे तो इतने आदमियोंका भला हो जाना ही कौन छोटी बात है। रहा हलधर, उसे कुछ दिनों के लिये अलग कर देनेसे मेरी मुशकिल आसान हो जायगी यह काम ऐसे गुप्त रीतिसे होना चाहिये कि किसीको कानों कान खबर न हो। लोग यही समझें कि कहीं परदेश निकल गया होगा। तब मैं एक बार फिर राजेश्वरीसे मिलूं और तकदीरका फ़ैसला कर लूं। तब उसे मेरे यहां आकर रहने में कोई आपत्ति न होगी। गांवमें निरावलम्ब रहनेसे तो उसका चित्त स्वयं घबरा जायगा। मुझे तो विश्वास है कि वह यहाँ सहर्ष चली आवेगी। यही मेरा अभीष्ट है। मैं केवल उसके समीप रहना, उसके मृदु मुसक्यान, उसकी मनोहर वाणी......

(ज्ञानीका प्रवेश)

ज्ञानी--स्वामीजीसे आपकी भेंट हुईं?

सबल--हां।

ज्ञानी--तो उनके दर्शन करने जाऊं?

सबल--नहीं।

ज्ञानी--पाखड़ी हैं न? यह तो मैं पहले ही समझ गई थी।

सबल--नहीं, पाखण्डी नहीं हैं, विद्वान हैं, लेकिन मुझे किसी कारणसे उनमें श्रद्धा नहीं हुई। पवित्रात्माका यही लक्षण है कि वह दूसरोंके हृदयमें श्रद्धा उत्पन्न कर दे। अभी थोड़ी देर पहले मैं उनका भक्त था। पर इतनी देरमें उनके उपदेशोंपर विचार करनेसे ज्ञात हुआ कि उनसे तुम्हें ज्ञानोपदेश नहीं मिल सकता और न वह आशीर्वाद ही मिल सकता है जिससे तुम्हारी मनोकामना पूरी हो।