संग्राम/१.६
पहर, गांवके लोग बैठे बातें कर रहे हैं।
एक किसान--बेगार तो सब बन्द हो गई थी। अब यह दलहाईकी बेगार क्यों मांगी जाती है?
फत्तू--जमींदारकी मरजी। उसीने अपने हुकुमसे बेगार बन्द की थी। वहीं अपने हुकुमसे जारी करता हैं।
हलधर--यह किस बातपर चिढ़ गये? अभी तो चार ही पाँच दिन होते हैं तमाशा दिखाकर गये हैं। हमलोगोंने उनकी सेवा सत्कारमें तो कोई बात उठा नहीं रखी।
फत्तू--भाई राजाठाकुर हैं, उनका मिजाज बदलता रहता है। आज किसीपर खुश हो गये तो उसे निहाल कर दिया, कल नाखुश हो गये तो हाथीके पैरोंतले कुचलवा दिया। मनकी बात है।
हलधर--अकारन ही थोड़े किसीका मिजाज बदलता है। वह तो कहते थे अब तुम लोग हाकिम हुक्काम किसी को भी बेगार मत देना। जो कुछ होगा मैं देख लुंगा। कहां आज यह हुकुम निकाल दिया। जरूर कोई बात मरजीके खिलाफ हुई है।
फत्तू--हुई होगी। कौन जाने घर हीमें किसीने कहा हो असामी अब सेर हो गये, तुम्हें बात भी न पूछेंगे। इन्होंने कहा हो कि सेर कैसे हो जायंगे, देखो अभी बेगार लेकर दिखा देते हैं। या कौन जाने कोई काम काज आ पड़ा हो। अरहर भरी रखी हो दलवाकर बेच देना चाहते हों।
कई आदमी--हां ऐसी ही कोई बात होगी। जो हुकुम देंगे वह बजाना ही पड़ेगा नहीं तो रहेंगे कहां।
एक किसान--और जो बेगार न दें तो क्या करें?
फत्तू--करनेकी एक ही कही। नाकमें दम कर दें, रहना मुसकिल हो जाय। अरे और कुछ न करें लगान की रसीद ही न दें तो उनका क्या बना लोगे। कहाँ फिरियाद ले जावोगे और कौन सुनेगा। कचहरी कहां तक दौड़ोगे। फिर वहां भी उनके सामने तुम्हारी कौन सुनेगा!
कई आदमी--आजकल मरनेकी छुट्टी ही नहीं है, कचहरी कौन दौड़ेगा। खेती तैयार खड़ी है, इधर ऊख बोना है, फिर अनाज माड़ना पड़ेगा। कचहरीके धक्के खानेसे तो यही अच्छा है कि जमींदार जो कहे वही बजावें। फत्तू--घर पीछे एक औरत जानी चाहिये। बुढ़ियोंको छांट कर भेजा जाय।
हलधर--सबके घर बुढ़िया कहां हैं?
फत्तू--तो बहू-बेटियों को भेजने की सलाह मैं न दूंगा।
हलधर--वहाँ इसका कौन खटका है।
फत्तू--तुम क्या जानो, सिपाही हैं, चपरासी हैं, क्या वहाँ सबके सब देवता ही बैठे हैं। पहलेकी दूसरी बात थी।
एक किसान--हां, यह बात ठीक है। मैं तो अम्माको भेज दूंगा।
हलधर--मैं कहांसे अम्मां लाऊ?
फत्तू--गांवमें जितने घर हैं क्या उतनी बुढ़ियां न होंगी। गिनो-१-२-३-राजाकी मां चार...उस टोलेमें पांच, पच्छिम ओर सात, मेरी तरफ ९--कुल पच्चीस बुढ़ियां हैं।
हलधर--घर कितने होंगे?
फत्तू--घर तो अबकी मरदुम सुमारीमें ३० थे। कह दिया जायगा पांच घरोंमें कोई औरत ही नहीं है, हुकुम हो तो मर्द ही ज हों।
हलधर--मेरी ओरसे कौन बुढ़िया जायगी?
फत्तू--सलोनी काकीको भेज दो। लो वह आप ही आ
गई। (सलोनी आती है)
अरे सलोनी काकी, तुझे जमींदारकी दलहाईमें जाना पड़ेगा।
सलोनी--जाय नौज, जमींदारके मुंहमें लूका लगे, मैं उसका क्या चाहती हूँ कि बेगार लेगा। एक धुर जमीन भी तो नहीं है। और बेगार तो उसने बन्द कर दी थी?
फत्तू--जाना पड़ेगा, उसके गांव में रहती हो कि नहीं?
सलोनी--गांव उसके पुरखोंका नहीं है, हां नहीं तो। फतुआ मुझे चिढ़ा मत, नहीं कुछ कह बैठूंगी।
फत्तू--जैसे गा गा कर चक्की पीसती हो उसी तरह गा गा कर दाल दलना। बता कौन गीत गावोगी?
सलोनी--डाढ़ी जार मुझे चिढ़ा मत, नहीं गाली दे दूंगी। मेरी गोदका खेला लौंडा मुझे चिढ़ाता है।
फत्तू--कुछ तूही थोड़ी जायगी। गांवकी सभी बुढ़िया जायंगी।
सलोनी--गंगा असनान है क्या? पहले तो बूढ़ियां छांट कर न जाती थीं। मैं उमिर भर कभी नहीं गई। अब क्या बहुओंको परदा लगा है। गहने गढ़ा-गढ़ा तो वह पहनें, बेगार करने बूढ़िया जायं!
फत्तू--अबकी कुछ ऐसी ही बात आ पड़ी है। हलधरके घर कोई बुढ़िया नहीं है। उसकी घरवाली कल की बहुरिया है जा नहीं सकती। उसकी ओरसे चली जा।
सलोनी--हाँ उसकी जगहपर चली जाऊंगी। बिचारी मेरी बड़ी सेवा करती है। जब जाती हूँ तो बिना सिरमें तेल डाले और हाथ पैर दबाये नहीं आने देती। लेकिन बहली जुता देगा न?
फत्तू--बेगार करने रथपर बैठ कर जायगी।
हलधर--नहीं काकी, मैं बहली जुता दूंगा। सबसे अच्छी बहलीमें तुम बैठना।
सलोनी--बेटा, तेरी बड़ी उम्मिर हो, जुग जुग जी। बहलीमें ढोल मजीरा रख देना। गाती-बजाती जाऊंगी।