वैशेषिक दर्शन/ भाग 5
संयोग होता है। इन्हीं दोनों संयोगों के द्वारा वर्णरूप शब्द की आकाश में उत्पत्ति होती है। ध्वनिलक्षण शब्द भी ढोल और लकड़ी के संयोग से और ढोल आकाश के संयोग से, आकाश में उत्पन्न होता है। जब शब्द किसी एक स्थान में उत्पन्न होता है वहां से शब्द के तरंग आकाश मंडल में एक के बाद एक क्रम से उत्पन्न होते हुए जब कर्णस्थ आकाश देश में पहुँच जाते हैं तब उस कर्ण से उस शब्द का ग्रहण होता है।
बुद्धि (२४)
'बुद्धि' ज्ञान का नामान्तर है। ज्ञान दो प्रकार के होते हैं—अविद्या और विद्या। अविद्या चार प्रकार की है, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, स्वप्न। संशय और अनध्यवसाय में भेद यह है कि यह जो मैं देखता हूँ सो चीज गाय है या बैल हैं ऐसा रूप संशय का है, जिसमें सन्दिग्ध दो पदार्थों का ज्ञान भासित होता है। अनध्यवसाय में किसी भी पदार्थ का ज्ञान भासित नहीं होता। 'यह क्या है' यही स्वरूप अनध्यवसाय का है।
विद्या चार प्रकार की है, प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति, आर्ष।
प्रत्यक्ष और अनुमान का वर्णन न्यायदर्शन प्रकरण में सविस्तर किया गया है। इससे पुनरुक्तिभिया यहां लिखना अनावश्यक है। नैयायिकों के 'शब्द' प्रमाण को वैशेषिकों ने अनुमान ही में अन्तर्गत माना है। जैसे अनुमान में व्याप्तिज्ञान से ज्ञान उत्पन्न होता है वैसे ही शब्द ज्ञान में भी व्याप्तिज्ञान ही कारण है। जैसे अनुमितिज्ञान में साध्यसाधन की व्याप्ति ज्ञान का कारण होता है वैसा ही शब्द अर्थ की व्याप्ति का ज्ञान शाब्दज्ञान का कारण है। जब हम यह जान लेते हैं कि जहां घूम है वहां आग अवश्य है तभी घूम देखकर आग का अनुमितिशान होजाता है। उसी तरह जब हमको यह ज्ञान होजाता है कि 'घट' शब्द घड़ा ही का बोधक है, जब किसी आदमी को घड़ा की चर्चा करनी होगी तब 'घट' यही शब्द का उच्चारण करेगा, तभी हमको 'घट' शब्द के सुनने से घड़े का शब्दमान होगा।
उपमान को वैशेषिक "शब्द" में अन्तर्गत करते हैं। 'गाय के सदृश गवय है' यह जो शहरवाले आदमी को गवय को देखे बिना गवय का ज्ञान होता है सो तभी होगा जब उसको कोई गवय देखने वाला विश्वासपात्र आदमी कहेगा, की गवय गाय के सदृश होता है। इस वाक्य से उत्पन्न ज्ञान 'शाब्द' है। और शाब्द ज्ञान अनुमान है। क्योंकि जब कभी शब्द सुनकर निश्चितज्ञान मेरे मन में होगा तब अवश्य मेरे मनमें यह युक्ति आवेगी 'यह जो बात इस आदमी ने कहीं सो अवश्य सत्य है, क्योंकि यह सत्यवादी है'। यह स्पष्ट अनुमिति ज्ञान का स्वरूप है।
अर्यापत्ति और अभाव को भी नैयायिकों की तरह वैशेषिक अनुमान में अन्तर्गत मानते हैं।
स्मृति को नैयायिकों ने अप्रमाण माना है, परंतु वैशेषिकों ने इसको विद्या ही एक का प्रकार माना है। (प्रशस्तपाद प॰ १८६, २५६)।
शास्त्र प्रवर्तक ऋषियों को भूत भविष्यत् अतिन्द्रिय पदार्थों का भी ज्ञान उनके विलक्षणधर्म के द्वारा होता है, इस ज्ञान को 'आर्ष', 'प्रातिम' ज्ञान कहते हैं। (प्रशस्तपाद पृ॰ २५८)
तीसरा पदार्थ। कर्म
द्रव्य और गुण का विचार होगया। तीसरा पदार्थ 'कर्म' पांच प्रकार का है। एक कर्म एक ही द्रव्य में रहता है, सो भी भूत ही द्रव्य में। सब कर्म क्षणिक हैं। कर्म में गुण नहीं होता। गुरुत्व द्रवत्व प्रयत्न और संयोग से कर्म उत्पन्न होता है। अपने से उत्पन्न जो संयोग उसी से कर्म का नाश होता है। संयोग और विभाग को उत्पन्न करता है। कर्म असमवायि कारण होता है। अपने आश्रय में और दूसरे आश्रय में समवेत कार्य को उत्पन्न करता है।
कर्म के पांच भेद हैं—[१] उत्क्षेपण, ऊपर जाना। [२] अपक्षेपण नीचे जाना। [३] आकुञ्चन, सकुच जाना। [४] प्रसारण, फैलना। [५] गमन, चलना।
ये पांचों तरह के कर्म तीन तरह के होते हैं—[१] सत्प्रत्यय ज्ञानपूर्वक। जैसे जब हम जानकर अपना हाथ उठाते हैं तब हाथ का ऊपर जाना सत्प्रत्यय उत्क्षेपण हुआ। [२] असत्प्रत्यय, अज्ञानपूर्वक जैसे मैंने जानकर एक रबरके गेंदा को ऊपर फेंका, यह तो सत्प्रत्यय कर्म हुआ लेकिन फिर गिर कर जो वह गेंदा उछला तो यह कर्म असत्प्रत्यय हुआ। ये दो तरह के कर्म चेतन शरीर में या तत्सम्बद्ध वस्तुओं ही में होगा। [३] अप्रत्यय, अचेतन द्रव्यों का कर्म।
कर्म के ये कारण हैं—[१] नोदन अर्थात् ढकेलना, जैसे पंक में पैर डाला तो पंक हिल जाता है। [२] गुरुत्व जैसे घट के आधार को हटा लिया तो घट अपने गुरुत्व के द्वारा नीचे गिर गया। [३] वेग या संस्कार, जैसे धनुष से छूटा हुआ वाण दूर तक चला जाता है। [४] प्रयत्न-मैने प्रयत्न किया तो मेरा हाथ उठ गया।
श्वास में जो वायु का गमन रूपकर्म होता है उसका कारण है जागते हुए प्राणी में आत्मा वायु के संयोगपूर्वक प्रयत्न। और सोते हुये प्राणी में आत्मा वायु संयोगपूर्वक प्रयत्न। जिस प्रयत्न से प्राणी जीवन धारण करता है।
आकाश काल दिक् आत्मा इनमें कर्म नहीं है, क्योंकि ये अमूर्त हैं। मूर्ति उन्हीं द्रव्यों में होती है जिनका परिमाण अल्प है। जो द्रव्य सर्वव्यापी है उसकी मूर्ति नहीं हो सकती। मन में मूर्ति है इसमें कर्म भी है। इसी मन के कर्म से मन का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है। आत्ममनः संयोग पूर्वक इच्छा या द्वेष से मन में कर्म उत्पन्न होता है। मन में अपसर्पण और उपसर्पण रूप कर्म होते हैं। आत्ममनःसंयोगपूर्वक अदृष्ट-द्वारा जब किसी आदमी के जीवनधारण में कारण भूत धर्माधर्म नष्ट होगये तब जीवनधारण का प्रयत्न भी बन्द हो जाता है। फिर उसके प्राण के निरोध में कारणभूत धर्माधर्म जोर डालते है। इन्हीं के जोर से आत्ममनःसंयोग द्वारा मृत शरीर से जो मनस निकल जाता है उसी कर्म को 'अपसर्पण' कहते हैं। उसी धर्माधर्म के द्वारा उस मन का उस आत्मा के अतिवाहिक (सूक्ष्म) शरीर से सम्बन्ध होता है। इसी शरीर और मनस के द्वारा उस आत्मा को स्वर्ग और नरक का भोग होता है। पुनः शरीर ग्रहण के कारण भूत धर्माधर्म के जोर का अवसर आने पर फिर वह मन दूसरे स्थूल शरीर से सम्बद्ध होता है। इसी को 'उपसर्पण' कहते हैं।
चौथा पदार्थ सामान्य
'सामान्य' जाति को कहते हैं। जिसके द्वारा अनेक वस्तु एक समझी जाती हैं। जैसे दश मनुष्य एक इसीसे समझे जाते हैं कि वे मनुष्य हैं, इससे 'मनुष्यत्व' एक जाति हुई।
जाति दो तरह की है—अपर अर्थात् छोटी। और पर अर्थात् बड़ी। 'मनुष्यत्व' जाति पर हुई 'ब्राह्मणत्व' जाति की अपेक्षा, और अपर हुई 'जीवत्व' जाति की अपेक्षा। 'सत्ता' जाति एक ऐसी है जिससे 'पर' और कोई जाति नहीं है। और 'सत्ता' जाति के द्वारा केवल कई वस्तु एक समझी जासकती है, इसके द्वारा कोई वस्तु किसी वस्तु से भिन्न नहीं समझी जाती। जैसे 'ब्राह्मणत्व' जाति के द्वारा ब्राह्मण लोग और मनुष्यों से अलग समझें जाते हैं।
द्रव्य, गुण, कर्म इन्हीं तीन पदार्थों में जाति होती है।
कई वस्तुओं में किसी एक गुण के होने ही से उस गुण के द्वारा उन वस्तुओं की एक जाति नहीं मानी जाती। और अगर कोई वस्तु एक ही है तो उस की जाति नहीं मानी जाती। फिर पृथक् पृथक् जाति ऐसी ही मानी जा सकतीं जिनमें परस्पर हेर फेर या मिल जाने का सन्देह न रहे। जैसे 'भूर्तत्व' और 'मूर्तत्व' दो जाति नहीं है क्योंकि आकाश में भूतत्व है पर मूर्तत्व नहीं, मन में भूर्तत्व है भूतत्व नहीं पर पथिवी जल वायु में दोनों है। इससे ये दोनों एक दम पृथक् नहीं मानी गई हैं।
ऐसे ऐसे गुण जो की वस्तुओं में हों पर जिनके द्वारा स्वतन्त्र जाति नहीं कल्पित की जाती, ये 'उपाधि' कहलाते हैं।
जाति नित्य है परस्पर भिन्न है। एक है।
पांचवां पदार्थ विशेष।
'सामान्य' का विरोधी विशेष है। जैसे दस चीजों को एक मानने का कारण सामान्य होता है वैसेही जिसके द्वारा कोई वस्तु और सब वस्तुओं से अलग मानी जाय उसको 'विशेष' कहते हैं। परन्तु गुण बहुत से ऐसे ही हैं कि यद्यपि कई चीज़ों से कुछ चीजों को अलग करते हैं परन्तु इन कई चीजों में समान पाये जाते हैं। इससे ये गुण सामान्य के भी कारण हो जाते हैं। और 'सामान्य-विशेष' ऐसी मिली हुई संज्ञा इन की होती है। जैसे लाल रंग लाल वस्तु को और रंग की वस्तुओं से अलग करता है, पर कुल लाल वस्तुओं में समान है। इसी से असल विशेष वेही हैं जिनके द्वारा केवल वस्तु औरों से पृथक् समझी जाय। ऐसे गुण केवल वेही हो सकते हैं जो कि परमाणुओं ही में हैं। एक द्रव्य के परमाणु में जो गुण हैं वेही 'विशेष' कहलाते हैं। या नित्य द्रव्य जो हैं आकाश, काल, दिक्, आत्मा, इन्हीं के गुण 'विशेष' हो सकते हैं। मन अणु हैं इससे मन का गुण भी 'विशेष' हो सकता है। इससे जितने परमाणु हैं उन सभों में पृथक् पृथक् कोई कोई ऐसे गुण हैं जिनके द्वारा एक परमाणु दूसरे से अलग समझा जाता है। आकाशादि नित्य द्रव्य में भी कई गुण होंगे जिन से एक नित्य द्रव्य दूसरे नित्य द्रव्य से अलग समझा जाता है। इन्हीं गुणों को 'विशेष' कहते हैं। इन विशेषों का प्रत्यक्ष ज्ञान केवल योगियों ही को हो सकता है। हम लोग केवल उनका अनुमान कर सकते हैं।
विशेषों के मानने ही से प्रायः इस दर्शन के मानने वाले 'वैशेषिक' कहलाते हैं। परंतु कणाद सूत्र में विशेष का लक्षण नहीं पाया जाता है। केवल सूत्र १२ में विशेष की चर्चा पाई जाती है जहां पर सामान्य गुणों के वर्णन के अवसर में इनको अन्य विशेष से अलग कहा है। इसी मूल पर प्रशस्तपाद ने विशेषों का स्वीकार कर पहिले पहिल इसका लक्षणादि किया।
समवाय प्रकरण।
नित्य सम्बन्ध को समवाय कहते हैं। जैसे अवयव और अवयवों का सम्बन्ध। जब दो वस्तु कभी एक दूसरे से अलग नहीं पाई जाती तब उन दोनों के इस सम्बन्ध को 'अयुतसिद्धि' या 'समवाय' कहते हैं। संयोगादि सम्बन्ध का नाश होता है। समवाय का नाश नहीं होता। इसी से संयोगादि से इसको पृथक् सम्बन्ध माना है।
समवाय सम्बन्ध द्रव्यों में किसी सम्बन्ध से नहीं रहता। यदि ऐसा होता तो अनन्त सम्बन्धों की कल्पना आवश्यक होती जैसा शंकराचार्य ने शारीरकभाष्य में कहा है। इससे प्रशस्तपाद भाष्य में कहा है कि द्रव्यों में जो समवाय रहता है वह तादात्म्य रूप से। अर्थात् द्रव्यों से पृथक समवाय नहीं है। जैसे द्रव्यादि में सत्ता किसी सम्बन्धान्तर से नहीं रहती, द्रव्य है इसी से उस में सत्ता है इसी तरह, जब दो द्रव्य कभी पृथक नहीं रहते, बस इतनेही में इन में समवाय सम्बन्ध है ऐसा माना जाता है।
समवाय का प्रत्यक्ष नहीं होता। समवाय एक ही है।
॥ इति ॥
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काशी में मुद्रित।
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