वैशाली की नगरवधू/51. वर्षकार का यन्त्र

वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ १९१ से – १९३ तक

 

51. वर्षकार का यन्त्र

सम्राट् ने राजधानी में लौटकर देखा, अवन्तिपति चण्डमहासेन प्रद्योत ने राजगृह को चारों ओर से घेर लिया था। नगर का वातावरण अत्यन्त क्षुब्ध था। सम्राट् थकित और अस्त-व्यस्त थे। राजधानी में महामात्य उपस्थित नहीं थे, न सेनापति चण्डभद्रिक ही थे। सेना की व्यवस्था भी ठीक न थी। चंपा में फैली हुई सैन्य लौटी न थी और सेना का श्रेष्ठ भाग श्रावस्ती में बिखर गया था। सम्राट् ने तुरन्त उपसेनापति उदायि को बुलाकर परामर्श किया।

सम्राट ने कहा—

"भणे सेनापति, यह तो विपत्ति-ही-विपत्ति चारों ओर दीख रही है। मालवपति ने राजगृह को घेरा है, हम विपन्नावस्था में हैं ही, अब तुम कहते हो कि मथुरापति अवन्तिवर्मन प्रद्योत की सहायता करने आ रहा है।"

"ऐसा ही है देव।"

"तो भणे सेनापति, ये दोनों ग्रह परस्पर मिलने न पाएं, ऐसा करो।"

"किन्तु देव, आर्य महामात्य का कड़ा आदेश है कि युद्ध किसी भी दशा में न किया जाए।"

"उन्होंने यह आदेश किस आधार पर दिया है?"

"अपने यन्त्र के आधार पर।"

"वह यन्त्र क्या है?"

"उसे गुप्त रखा गया है।"

"कौन उसके सूत्रधार हैं?"

"आचार्य शाम्बव्य काश्यप।"

"तो भणे सेनापति, काश्यप को देखना चाहता हूं।"

"परन्तु काश्यप राजधानी में नहीं हैं।"

"कहां हैं?"

"अमात्य ने उन्हें छद्म रूप में कहीं भेजा है?"

"आर्य अमात्य यह सब क्या कर रहे हैं? भणे सेनापति, करणीय या अकरणीय?"

"करणीय देव।"

"तो फिर हमें संप्रति क्या करणीय है?"

"अमात्य की प्रतीक्षा।"

"जैसे हम लोग कुछ हैं ही नहीं, सब कुछ अमात्य ही हैं।"

"देव क्या युद्ध करना चाहते हैं?"

"भणे सेनापति, युद्ध हम दो सम्मिलित सैन्यों से कैसे कर पाएंगे। हमारे पास सेना कहां है?"

"देव, मैं किसी असम्भाव्य की प्रतीक्षा में हूं।"

"कब?"

"किसी भी क्षण।"

इस समय एक चर ने आकर सूचना दी—"देव, शत्रु रातों-रात नगर का घेरा छोड़ भाग गया। उसकी सेना अत्यन्त विपन्नावस्था में भाग रही है।"

"यह कैसा चमत्कार है सेनापति? चर, क्या कुछ और भी कहना है?"

"देव, आचार्य शाम्बव्य ने आश्वासन भेजा है कि प्रद्योत की ओर से देव निश्चित रहें। हां, जितनी सैन्य संभव हो सीमान्त पर तुरन्त भेज दें, वहां आर्य अमात्य अवन्तिवर्मन का अवरोध कर रहे हैं। परन्तु उनके पास सेना बहुत कम है।"

"बस या और कुछ?"

"देव, आचार्य ने कहा कि प्रद्योत को अपने ही सेनानायकों पर अविश्वास हो गया है। इसी से वह रातोंरात अपने नीलगिरि हाथी पर चढ़कर एकाकी ही भाग खड़े हुए हैं, उन्हें पकड़ने का यह अच्छा समय है।"

"तो भणे सेनापति, उसे पकड़ो और उसकी भागती हुई सैन्य को अव्यवस्थित और छिन्न-भिन्न कर दो। मैं अपनी अंगरक्षक सेना लेकर सीमान्त पर अमात्य की सहायता के लिए जाता हूं। आप प्रद्योत के कार्य में कृतसंकल्प हो सीमान्त पर ससैन्य पहुंच जाएं।"

"देव की जैसी आज्ञा! अब देव आज्ञा दें तो निवेदन करूं अमात्य का यन्त्र मुझे विदित है।"

"पहले तो कहा था, गुप्त है!"

"गुप्त था, चण्ड के पलायन तक।"

"तो कहो भणे, अमात्य ने कैसा यन्त्र किया कि प्रद्योत को इस प्रकार भागना पड़ा?"

"अमात्य ने प्रद्योत के अभियान की सूचना पाकर जहां-जहां स्कन्धावार-योग्य स्थान थे, वहां-वहां बहुत-सी मागधी स्वर्ण-मुद्राएं प्रथम ही धरती में गड़वा दी थीं।"

"अरे, इसका अभिप्राय क्या था?"

"उन्हीं स्थानों पर प्रद्योत के सहायक राजाओं और सेनानायकों ने डेरे डाले। तब प्रद्योत को भरमा दिया गया कि ये सब सेनानायक और राजा मगध के अमात्य से मिल गए हैं और बहुत-सा हिरण्य ले चुके हैं। खोजने पर मगध मुद्रांकित बहुत-सा हिरण्य उनकी छावनी की पृथ्वी से खोद निकाला गया।"

"और इस भ्रम में प्रद्योत को किसने डाला?"

"आचार्य काश्यप ने। वे मगध से विश्वासघात करके मालव सैन्य में चले गए थे। चण्ड प्रद्योत उनका मित्र है।"

सम्राट ने हंसकर कहा—"भणे सेनापति, मगध को जैसे दो अप्रतिम सेनापति प्राप्त हैं, वैसे ही दो कूटनीतिज्ञ ये ब्राह्मण भी।"

"ऐसा तो है ही देव। तो फिर मैं प्रद्योत को देखूं।"

"अवश्य, सेनापति और मेरी अंगरक्षक सेना भी तैयार रहे। मैं दो प्रहर रात्रि व्यतीत होने पर कुछ करूंगा।"

"जैसी देव की आज्ञा!"