वैशाली की नगरवधू/48. सोम की भाव-धारा

वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ १७८ से – १८० तक

 

48. सोम की भाव-धारा

बाहर आकर सोम थकित भाव से एक सूने चैत्य के किनारे एक वट-वृक्ष के सहारे आ बैठे। अपना विशाल खड्ग उन्होंने लापरवाही से एक ओर फेंक दिया। वह शून्य दृष्टि से आकाश को ताकते रहे। उस गलती हुई रात में उस एकांत भीषण स्थान में बैठे हुए सोम बहुत-सी बातें विचारते रहे। ओस से भीगे हुए गुलाब के पुष्प की भांति कुमारी का शोकपूर्ण मुख उनकी दृष्टि से घूम रहा था। एक प्रबल राज्य के राजा की राजनन्दिनी किस भांति उसी के उद्योग और यत्न के कारण इस अवस्था को पहुंची, यही सब सोच-सोचकर उनका नवीन, भावुक, तरुण और वीर हृदय आहत हो रहा था। रह-रहकर उन्हें आचार्य काश्यप की बातें याद आ रही थीं। राजतन्त्र की इस कुत्सा पर उन्हें अभी कुछ सोचने का अवसर ही न आया था। असुरप्री में तथा चंपा में वह कुण्डनी का अद्भुत कौशल, साहस और सामर्थ्य देख चुके थे। वह जान गए थे कि आचार्य की बात झूठी नहीं, इस अकेली कुण्डनी ही में एक भारी सेना की सामर्थ्य निहित है। राज्यों की लिप्सा में किस प्रकार निरीह-निर्दोष हृदय-कुसुम इस प्रकार दलित होते हैं, यह सोच-सोचकर सोम का हृदय मर्माहत हो रहा था, परन्तु बात केवल भूत-दया तक ही सीमित न थी। सोम का तारुण्य भी कुमारी को देखकर जाग्रत हुआ था। कुण्डनी के उत्तप्त साहचर्य से यत्किंचित् उनका सुप्त यौवन जाग्रत हुआ था, परन्तु उसे विषकन्या जान तथा भगिनी-भावना से वह वहीं ठिठक गया था। अब इस अमल-धवल कुसुम-कोमल सुकुमारी कुमारी के चंपकपुष्प के समान नवल देह और लज्जा, संकोच, दुःख और शोक से परिपूर्ण मूर्ति पर उनका सम्पूर्ण तारुण्य जैसे चल-विचल हो गया। उन्होंने प्रण किया मेरे ही कारण कुमारी की यह दुर्दशा हुई है। मैं ही इसका प्रतिरोध करूंगा।

बहुत देर तक सोम यही सोचते रहे। उन्हें यह भी ध्यान न रहा कि कोई उनके निकट है। पर कुण्डनी छाया की भांति उनके साथ थी। बहुत देर बाद कुण्डनी ने कहा—

"क्या सोच रहे हो सोम!"

सोम ने अचकचाकर कुण्डनी की ओर देखा। फिर शांत-संयत स्वर में कहा—"कुण्डनी, कुछ हमारे ऊपर भी चम्पा की कुमारी की विपन्नावस्था का दायित्व है।"

"मूर्खता की बातें हैं। हम मगध राज-तन्त्र के यन्त्र हैं। हमें भावुक नहीं होना चाहिए।"

कुछ देर सोम चुपचाप आकाश को ताकते रहे, फिर वह एक लंबी सांस लेकर बोले—

"तुम कदाचित् ठीक कहती हो कुण्डनी, परन्तु मेरा तो अभी से सारा पुरुषार्थ गल गया और अब संभवतः राजनीति में भाग लेने की मुझमें शक्ति ही नहीं रह गई।"

"यह तुम क्या कहते हो सोम? आर्य अमात्य को तुमसे बड़ी-बड़ी आशाएं हैं। अभी हम जिस गुरुतर कार्य में नियुक्त हैं, हमें उधर ध्यान देना चाहिए।" "अब तुम राजगृह लौट जाओ कुण्डनी, अब मेरे तुम्हारे मार्ग दो हैं।"

"परन्तु उद्देश्य एक ही है।"

"संभवतः वे भी दो हैं। तुम राजसेवा करो।"

"और तुम?"

"मैं राजकुमारी की सेवा करूंगा।"

कुण्डनी हंस दी। उसने निकट स्नेह से सोम के सिर पर हाथ रखा और स्निग्ध स्वर में कहा—

"सोम, तुम्हें मालूम है, कुण्डनी तुम्हारी भगिनी है।"

"जानता हूं।"

"सो तुम्हारा एकान्त हित कुण्डनी को छोड़ और दूसरा कौन करेगा?"

"तो तुम मेरा हित करो।"

"क्या करूं, कहो?"

"राज-सेवा त्याग दो।"

कुण्डनी ने हंसकर कहा—"और तुम्हारे साथ रहकर राजकुमारी की सेवा करूं?"

"इसमें हंसने की क्या बात है कुण्डनी? क्या यह सेवा नहीं है?"

"है।"

"फिर?"

"उनकी सेवा कर दी गई।"

"अर्थात् उन्हें रानी से राह की भिखारिणी और अनाथ बना दिया गया?" सोम ने उत्तेजित होकर कहा।

"यह कार्य तो हमारा नहीं था, राजकार्य था प्रिय। हमने तो विपन्नावस्था में उनका मित्र के समान साथ दिया है।"

"तो कुण्डनी, अब उनका क्या होगा? सोचो तो!"

"कुछ हो ही जाएगा। जल्दी क्या है! अभी तो हम श्रावस्ती जा ही रहे हैं।"

"नहीं, मैं राजकुमारी को वहां नहीं ले जाऊंगा।"

"उन्हें कहां ले जाओगे?"

"पृथ्वी के उस छोर पर जहां हम दोनों अकेले रहें।"

"कुण्डनी को कहां छोड़ोगे?" कुण्डनी हंस दी, उसने फिर सोम के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा—

"यह ठीक नहीं है, प्रिय।"

"तब?"

"विचार करो, राजकुमारी क्या सहमत होंगी?"

"मैं कह दूंगा कि मैं दास नहीं हूं..."

"... और मागध हूं, उसका पितृहन्ता और राज्यविध्वंसक शत्रु!"

"किन्तु, किन्तु..."

सोम उत्तेजित होकर पागल की भांति चीख उठे, उन्होंने कहा—

"मैं उन्हें चम्पा की गद्दी पर बैठाऊंगा। मैं मगध से विद्रोह करूंगा।" "यह तो बहुत अच्छी योजना है सोम। फिर तुम अनायास ही चम्पाधिपति बन जाओगे। किन्तु राजकुमारी क्या तुम्हें क्षमा कर देंगी?"

"इतना करने पर भी नहीं?"

"ओह, तुम उनका मूल्य उन्हीं को चुकाओगे और फिर उन्हें अपनी दासी बनाकर रखोगे?"

"दासी बनाकर क्यों?"

"और किस भांति? तुम राजकुमारी की विचार-भावना की परवाह बिना किए अपनी ही योजना पर चलते जाओगे और समझोगे कि राजकुमारी तुम्हारी अनुगत हो गईं।"

"तो कुण्डनी, मैं राजकुमारी के लिए प्राण दूंगा।"

"सो दे देना, बहुत अवसर आएंगे। अभी तुम चुपचाप श्रावस्ती चलो। राजकुमारी को निरापद स्थान पर सुरक्षित पहुंचाना सबसे प्रथम आवश्यक है। हम लोग छद्मवेशी हैं, पराये राज्य में राजसेवा के गुरुतर दायित्व से दबे हुए हैं, राजकुमारी को अपने साथ रखने की बात सोच ही नहीं सकते। फिर तुम एक तो अज्ञात-कुलशील, दूसरे मागध, तीसरे असहाय हो; ऐसी अवस्था में तुम राजकुमारी को कैसे ले जा सकते हो? और कहां? हां, यदि उनकी विपन्नावस्था से लाभ उठाकर उन पर बलात्कार करना हो तो वह असहाय अनाथिनी कर भी क्या सकती है? परन्तु सोम, यह तुम्हारे लिए शोभनीय नहीं होगा।" सोम ने कुण्डनी के चरण छुए। उनके दो गर्म आंसू कुण्डनी के पैरों पर टपक पड़े। सोम ने कहा—"कुण्डनी, स्वार्थवश मैं अधम विचारों के वशीभूत हो गया। तुम ठीक कहती हो, उन्हें निरापद स्थान पर पहुंचाना ही हमारा प्रथम धर्म है।"

"तो अब तुम सोचो। बहुत रात हो गई। हमें एक पहर रात रहते ही यह स्थान त्यागना होगा। मैं शंब को जगाती हूं। वह प्रहरी का कार्य करेगा।"

सोम ने और हठ नहीं किया। वह वहीं वृक्ष की जड़ में लंबे हो गए। कुण्डनी ने स्नेहपूर्वक उत्तरीय से उनके अंग को ढक दिया और फिर एक स्निग्ध दृष्टि उन पर फेंककर मठ में चली गई।