वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ १४६ से – १४८ तक

 

36. गुप्त पत्र


सेनापति भद्रिक बड़ी देर तक शून्य अर्धरात्रि में अकेले चिन्तित भाव से पट-द्वार में इधर-उधर टहलते रहे। उस समय उनके मस्तिष्क में कुछ परस्पर-विरोधी ऐसे विचार चक्कर लगा रहे थे, जिनका उन्हें निराकरण नहीं मिल रहा था। उन्होंने बहुत देर तक कुछ सोचकर दीपक ठीक किया और आसन पर आ भोजपत्र निकाल लेखनी हाथ में ली। इसी समय किसी के पद-शब्द से चौंककर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। सोम को देखकर उन्होंने आश्वस्त होकर कहा—

"तुम सोम, इस असमय में?"

"आर्य, एक चर है, राजगृह से पत्र लाया है।"

"पत्र क्या सम्राट् का है।"

"नहीं आर्य, सेनापति उदायि का पत्र है।"

"तो तुम पत्र ले आओ और चर की व्यवस्था कर दो।"

इतना कहकर सेनापति लिखने में लीन हो गए। सोम पत्र हाथ में लेकर चुपचाप मण्डप में खड़े हो गए।

लेख समाप्त होने पर सेनापति ने कहा—"भद्र, मुहर तोड़कर पत्र निकालो।"

सोम ने ऐसा ही किया।

सेनापति ने स्निग्ध-कोमल स्वर से कहा—"पत्र पढ़ो भद्र।" पत्र पर दृष्टि डालकर सोम ने कहा—"आर्य, पढ़ नहीं सकता, वह सांकेतिक भाषा में है।"

"अच्छा, तो कोई गुप्त पत्र है। वह संकेत-तालिका ले लो भद्र और तब सावधानी से पढ़ो।"

सोम ने पढ़ा— "...मैं आशा करता हूं कि शीघ्र ही आपको 'महाराज' कहकर सम्बोधित करूंगा।" सोम ने झिझककर सेनापति की ओर देखा। सेनापति ने मुस्कराकर कहा—

"पढ़ो भद्र, यह राजविद्रोही नहीं, राजनीति है। मगध-सम्राट् ही अकेले महाराज नहीं हैं और भी हैं। फिर अब सोमभद्र, जब तुमने आशा ही आशा हमें दी है तो फिर चम्पा के सिंहासन पर दधिवाहन के स्थान पर भद्रिक कुछ अनुपयुक्त भी नहीं है। कासियों का गण मगध साम्राज्य में मिल ही चुका है और अंग, बंग, कलिंग के महाराज मेरे अधीन हैं। मल्ल लड़खड़ा रहे हैं। मेरे अधीन भी पचास सहस्र सेना सुरक्षित है, जो इच्छानुसार उपयोग में लाई जा सकती है। फिर कलिंग महाराज ने बीस सहस्र सैन्य और सौ जलतरी देने का वचन दिया है..."

"परन्तु भन्ते सेनापति..."

"भद्र, पहले पत्र पढ़ लो।" सोम ने फिर पढ़ना प्रारम्भ किया—

"आपका ध्यान मैं तीन बातों की ओर आकर्षित करना चाहता हूं। प्रथम यह कि सम्राट ने श्रावस्ती पर चढ़ाई कर दी है। श्रावस्ती के महाराज प्रसेनजित् कौशाम्बीपति उदयन से उलझ रहे हैं। सम्राट् इसी अभिसन्धि से लाभ उठाना चाहते हैं। उधर अवन्तिराज चण्डमहासेन ने भी उन्हें उकसाया है। परन्तु मुझे विश्वस्त सूत्र से मालूम हुआ है कि सम्राट के कोसल पर अभियान करने का छिद्र पाकर चण्डमहासेन मगध की ओर आ रहा है। आर्य वर्षकार इस ओर सावधान अवश्य हैं, परन्तु आपके चम्पा में फंस जाने तथा सम्राट के अवध पर अभियान करने से मगध की रक्षा चिन्तनीय हो गई है। तिस पर महामात्य कहीं गुप्त यात्रा पर गए हैं तथा नगर मेरे अधीन है। इससे इस समय चण्डमहासेन का मगध पर अभियान हमें बहुत भारी पड़ सकता है, यद्यपि चाणाक्ष आर्य वर्षकार एक युक्ति कर गए हैं।"

इतना पत्र सुन चुकने पर सेनापति आसन से उठकर टहलने और बड़बड़ाने लगे। वे कह रहे थे—"सम्राट् की मति मारी गई है, अथवा यह वर्षकार की अभिसन्धि है? वे क्या बन्धुल मल्ल के शौर्य को नहीं जानते? अस्तु, पढ़ो पत्र सोम?"

"देवी अम्बपाली को सम्राट ने उपहार भेजा था। वह उसने लौटा दिया। सम्राट् इस पर बहुत उद्विग्न हुए हैं। आर्य वर्षकार उन्हें इस कार्य के लिए उकसा रहे हैं। वे चाहते हैं कि जल्द किसी बहाने वैशाली पर आक्रमण हो जाए। असल बात यह है कि वे अम्बपाली से किसी प्रकार सम्राट की घनिष्ठता बढ़ाकर काश्यप की विषकन्या का अम्बपाली के आवास में प्रवेश कराना चाहते हैं। परन्तु सम्राट ने स्पष्ट रूप में मगध छोड़ते समय आदेश दिया था कि उसका प्रयोग चंपाधिपति पर किया जाए। आश्चर्य नहीं कि वह इस पत्र से प्रथम ही चंपा पहुंच चुकी हो।"

सोम के माथे से पसीना चूने लगा। सेनापति क्रुद्ध भाव से धम्म से आसन पर आ बैठे। बैठकर उन्होंने कहा—"समझा, वह कुटिल ब्राह्मण इसीलिए सेना नहीं भेज रहा था। अच्छा, और क्या लिखा है?"

सोम ने पढ़ा—"मथुरा का अवन्तिवर्मन, सुना है मगध पर आक्रमण की तैयारी कर रहा है।" इसी से सम्राट् ने मुझे उसका अवरोध करने को सीमा-प्रान्त पर जाने का आदेश दिया था। परन्तु आर्य वर्षकार ने वह आदेश रद्द कर दिया और राजधानी का कार्यभार मुझे सौंपकर स्वयं अन्तर्धान हो गए हैं।"

"ठहरो सोम, सोचने दो—वह कुटिल गया कहां?"

सोम चुपचाप खड़ा रहा। सेनापति ने एकाएक उद्विग्न होकर कहा—

"सोम, क्या यह सम्भव नहीं कि वर्षकार चम्पा ही में आया हो?"

"यदि ऐसा है तो आर्य, हमें बहुत सहायता मिलेगी।"

"परन्तु श्रेय?" सेनापति भद्रिक की भृकुटि टेढ़ी हुई। मगध के ख्यातनामा वीर सेनानायक की यह कुटिल राज्य-वासना देखकर सोम विचार में पड़ गया।

सेनापति ने बड़ी देर चुप रहकर दीर्घ निःश्वास लेकर कहा—"सोमप्रभ, चाहे जो हो, श्रावस्ती में सम्राट को अवश्य मुंह की खानी पड़ेगी। हां, वैशाली का गणतन्त्र मगध साम्राज्य की गहरी बाधा है। क्यों न फिर अम्बपाली ही हमारी सम्पूर्ण कूटनीति और विग्रह का केन्द्र रहे। होने दो सम्राट् की उस पर आसक्ति। हमारे लिए लाभ ही लाभ है। तो भद्र सोम, मैं तुम्हें दो गुरुतर संदेश देता हूं। कदाचित् अब हम लोग न मिल सकें। यदि तुम्हारी योजना सफल हो तब भी और न हो तब भी, जितना सम्भव हो, द्रुत गति से चम्पा से प्रस्थान करना और सेनापति उदायि से मिलकर मेरा मौखिक संदेश कहना कि जल्दी न करें। सर्वथा नष्ट कर देने की अपेक्षा अपनी कल्पनाओं को कुछ काल के लिए स्थगित कर देना अधिक अच्छा है।"

इतना कहकर सेनापति चुपचाप एकटक युवक के मुख की भावभंगी को देखते रहे। युवक लौह-स्तम्भ के समान स्थिर खड़ा रहा। उसने कहा—"भन्ते सेनापति का संदेश अक्षरशः आर्य उदायि की सेवा में पहुंच जाएगा।"

"तब दूसरी बात भी सुनो सौम्य," सेनापति ने और निकट मुंह करके और भी धीरे-से कहा—

"मेरे महान् प्रतिद्वन्द्वी इस ब्राह्मण वर्षकार को अपना विश्वासपात्र बनाना। केवल वैशाली का पतन ही ऐसा है, जिस पर मैं, सम्राट् और यह कुटिल ब्राह्मण तीनों का त्रिकूट सहमत है, यद्यपि तीनों की भावनाएं पृथक् हैं। सम्राट् अम्बपाली को प्राप्त करना चाहते हैं और यह ब्राह्मण उत्तर भारत से सम्पूर्ण गणराज्यों का उन्मूलन किया चाहता है। किन्तु मेरा उद्देश्य कुछ और ही है।" कुछ देर ठहरकर सेनापति ने कहा—"भद्र सोम, उदायि से कहना कि ऐसा करें, जिससे यह कुटिल ब्राह्मण स्वयं वैशाली जाए और सूनी राजधानी में अकेले सम्राट् ही रह जाएं।"

सेनापति की आंखों से एक चमक निकलने लगी। उनका स्वर उद्विग्न हो गया। पर उन्होंने शान्त ही रहकर कहा—"सोम भद्र, थोड़ी बात और शेष है।"

"मेरी पचास सहस्र रक्षित सैन्य है, उसका मैं तुम्हें अधिनायक नियुक्त करता हूं। आवश्यकता होने पर उसका उपयोग मगध के लिए करना।"

युवक ने मौन भाव से सेनापति का आदेश ग्रहण किया। सेनापति ने कहा—"तो भद्र सोम, अब दो दण्ड रात्रि व्यतीत हो रही है। तुमने जिस कठिन असाध्य-साधन का संकल्प किया है उसकी बेला निकट है। अपना अद्भुत काम करो। मैं अनिमेष भाव से उसके फलाफल का निरीक्षण करूंगा।"

सोम अभिवादन करके जाने लगे तो सेनापति ने लपककर उन्हें खींचकर छाती से लगा लिया और कहा—"ऐसे नहीं सोमभद्र, आज के अभियान के सेनानायक मैं नहीं, तुम हो। अभिलाषा करता हूं कि सफल हो।"

सोम एक बार सेनानायक को मौन भाव से फिर अभिवादन करके चुपचाप चलकर फिर अन्धकार में समा गए।