वैशाली की नगरवधू/33. पशुपुरी का रत्न-विक्रेता

वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ १३८ से – १४० तक

 

33. पशुपुरी का रत्न-विक्रेता

चम्पा के पान्थागार में पर्शुपुरी के एक विख्यात रत्न-विक्रेता कई दिन-से ठहरे थे। उनके ठाठ-बाट और वैभव को देखकर सभी चम्पा-निवासी चमत्कृत थे। पान्थागार के सर्वोत्तम भवन में उन्होंने डेरा किया था और राज्य की ओर से उनकी रक्षा के लिए बहुत से सैनिक नियुक्त कर दिए गए थे। रत्न-विक्रेता के पास सैनिकों की एक अच्छी-खासी सेना थी। रत्न-विक्रेता को अभी तक किसी ने नहीं देखा था। लोग उनके सम्बन्ध में भांति-भांति के अनुमान लगा रहे थे। इसका कारण यह था कि उनके सेवकों में अदना से आला तक सभी शाहखर्च थे। वे कार्षापण का सौदा खरीदते और स्वर्ण-दम्म देकर फिरती लेना भूल जाते। ऐसा प्रतीत होता था कि स्वर्ण को वे मिट्टी समझते हैं। परन्तु सबसे अधिक चर्चा की वस्तु रत्न-विक्रेता की पुत्री थी, जो प्रतिदिन प्रातः और संध्याकाल में अश्व पर सवार हो दासियों और शरीर-रक्षकों के साथ नित्य नियमित रीति से वायु-सेवन को जाती तथा मार्ग में स्वर्ण-रत्न दरिद्र नागरिकों को हंसती हुई लुटाती थी। उसके अद्भुत अनोखे रूप, असाधारण अश्व-संचालन और अविरल दान से इन चार-पांच ही दिनों में पशुपुरी के रत्न-विक्रेता के वैभव और उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में भांति-भांति की झूठी-सच्ची चर्चा नगर में फैल गई थी। अभी दो दिन पूर्व उनसे मिलने नगर के महासेट्ठि धनिक आए थे और रत्न-विक्रेता तथा उसकी पुत्री को उन्होंने कल निमन्त्रण दिया था। आज स्वयं चम्पा के अधीश्वर परम परमेश्वर महाभट्टारक श्री दधिवाहनदेव पान्थागार में पधार रहे थे। इसी से पान्थागार के द्वार मण्डप और लताओं से सजाए गए थे। भीतर-बाहर बहुत-सी दीपावलियां सजाई जा रही थीं। सैकड़ों मनुष्य काम में जुटे थे। राजमार्ग पर अश्वारोही सैनिक प्रबन्ध कर रहे थे।

रात्रि का प्रथम प्रहर बीतने पर चम्पाधिपति ने पान्थागार में राजकुमारी चन्द्रभद्रा के साथ प्रवेश किया। पशुपुरी के उस रत्न-विक्रेता ने द्वार पर आकर महाराज और राजकुमारी का स्वागत किया और सादर एक उच्चासन पर बैठाकर अपनी पुत्री से महाराज का अर्घ्य-पाद्य से सत्कार कराया। रत्न-विक्रेता के विनय और उससे अधिक उसकी पुत्री के रूप-लावण्य को देखकर महाराज दधिवाहन मुग्ध हो गए। कुमारी चन्द्रप्रभा ने हाथ पकड़कर हंसते हुए रत्न-विक्रेता की पुत्री को अपने निकट बैठा लिया। महाराज ने कहा—"चम्पा में आपका स्वागत है सेट्ठि! हमें आपको देखकर प्रसन्नता हुई है। मैंने सुना है, आप बहुत अमूल्य रत्न लाए हैं। राजकुमारी उन्हें देखना चाहती है।"

रत्न-विक्रेता ने अत्यधिक झुककर महाराज का अभिवादन किया, फिर एक दास को रत्न-मंजूषा लाने का संकेत किया। दास कौशेय-मण्डित पट्ट पर मंजूषा रख गया। उसमें से बड़े-बड़े तेजस्वी मुक्ताओं की माला लेकर रत्न-विक्रेता ने कहा—"देव चम्पाधिपति प्रसन्न हों। यह मुक्ता-माल मोल लेकर बेचने योग्य नहीं है। पृथ्वी पर इसका मूल्य कोई चुका नहीं सकता। यदि देव की अनुमति हो तो मैं यह मुक्ता-माल राजकुमारी को अर्पण करने की प्रतिष्ठा प्राप्त करूं।"

उन बड़े-बड़े उज्ज्वल असाधारण मोतियों को महाराज दधिवाहन आंख फाड़-फाड़कर देखते रह गए। रत्न-विक्रेता ने आगे बढ़कर वह अमूल्य मुक्ता-माल राजकुमारी के कण्ठ में डाल दी।

राजकुमारी ने आनन्द से विह्वल होकर दोनों हाथों में वह माला थाम ली।

इसके बाद रत्न-विक्रेता ने कहा—"अब यदि अनुमति पाऊं तो बिक्री-योग्य कुछ रत्न सेवा में लाऊं। कदाचित् कोई राजकुमारी को पसन्द आ जाए।"

"उसने संकेत किया और दास ने बड़ी-बड़ी रत्नमंजूषाएं कौशेय पट्ट पर रख दीं। उनमें एक-से-एक बढ़कर रत्नाभरण भरे पड़े थे। राजकुमारी ने कुछ आभरणों को छांट लिया। किन्तु महाराज दधिवाहन उन सब असाधारण रत्नों से अधिक रत्न-विक्रेता के कन्या रत्न की ओर आकर्षित हो रहे थे, जो रह-रहकर बंकिम कटाक्ष से उन्हें पागल बना रही थी।

चम्पाधिपति ने बहुत-से रत्नाभरण खरीदे। अन्त में उन्होंने उठते हुए कहा—"हम आपसे बहुत प्रसन्न हैं। इस समय मागध-सैन्य ने चम्पा को घेर रखा है, इससे आपको और आपकी सुकुमारी कन्या को असुविधा हुई होगी।"

"मेरी पुत्री का देव को इतना ध्यान है, इसके लिए अनुगृहीत हूं। यह बिना माता की पुत्री है। महाराज, राजकुमारी ने इसे सखी की भांति अपनाकर जो प्रतिष्ठित किया है, उससे इसे अत्यन्त आनन्द हुआ है।"

"राजकुमारी चाहती है, आप जब तक यहां हैं, आपकी पुत्री राजमहालय में उन्हीं के सान्निध्य में रहे। आपको इसमें कुछ आपत्ति है?" महाराज ने छिपी दृष्टि से रत्न-विक्रेता की पुत्री को देखकर कहा, जो मन्द मुस्कान से राजा के वचन का स्वागत कर रही थी।

रत्न-विक्रेता ने कहा—"यह तो उसका परम सौभाग्य है। राजकुमारी उसे अपने साथ ले जा सकती हैं। यहां परदेश में देव, यह अकेलापन बहुत अनुभव करती है।"

राजकुमारी ने हंसकर रत्न-विक्रेता की कन्या का हाथ पकड़कर कहा—"चलो सखी, हम लोग बहुत आनन्द से रहेंगे।"

उसने विनय से मस्तक झुकाया। प्रधान दास ने उत्तरी वासक उसके कन्धों पर डालते हुए अवसर पाकर धीरे-से उसके कान में कहा—"बैशाखी की रात को चार दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर।"

और वह विनय से झुकता पीछे हट गया। रत्न-विक्रेता की पुत्री ने, जो वास्तव में कुण्डनी थी, पिता के चरणों में प्रणाम किया। दोनों ने दृष्टि-विनिमय किया।

महाराज राजकुमारी और रत्न-विक्रेता की कन्या को लेकर चले गए। उनके जाने पर रत्न-विक्रेता ने द्वार बन्द करने का आदेश दिया। फिर एकान्त पाकर अपने नकली केश और परिच्छद उतार फेंका। दास भी निकट आ खड़ा हुआ।

"सब ठीक हुआ न सोम?"

"हां, आर्य!"

"सेनापति भद्रिक की सहायता मिल जाएगी न?"

"सब ठीक हो गया है, आर्य।"

"आयुष्मान् अश्वजित अपना कार्य कर रहा है?" "जी हां, वह लुहार बना हुआ है। चम्पा के सम्पूर्ण मागध नागरिकों को उसने सशस्त्र कर दिया है।"

"बहुत अच्छा हुआ। वे कितने हैं?"

"बारह सौ से अधिक।"

"ठीक है। सेट्ठि धनिक ने चम्पा के बहुत-से सार्थवाहों की हुंडियां मेरे आदेश से खरीद ली हैं। बैशाखी के दिन प्रभात ही वे भुगतान मांगेंगे। मैं जानता हूं, राजकोष में स्वर्ण नहीं है। महाराज दधिवाहन मेरे रत्नों के मूल्य में जो स्वर्ण देंगे वह चम्पा के स्वर्णवणिकों से लेकर। बस, खाली हो जाएंगे और वे नगर-सेट्ठि की हुंडियां नहीं भुगता सकेंगे।"

"इसी बीच मागध नागरिक नगर में विद्रोह कर देंगे और यह हुंडियावन ही उसका कारण हो जाएगा। किन्तु कुण्डनी?"

"वह अपना मार्ग खोज लेगी। वैशाखी की रात्रि के चौथे दण्ड के प्रारम्भ होते ही दधिवाहन मर जाएगा।"

"तो ठीक उसी समय चम्पा-दुर्ग के पच्छिमी बुर्ज पर मागध तुरही बजेगी और समय तक तमाम प्रहरी वश में किए जा चुके होंगे। इसके बाद दो ही घड़ी में उन्मुक्त द्वार से मगध सेनापति प्रविष्ट हो दुर्ग अधिकृत कर लेंगे।"

"उत्तम योजना है। अब मैं इसी क्षण प्रस्थान करूंगा। तुम मेरे रोगी होने का प्रचार करना तथा बैशाखी पर्व तक सब-कुछ इसी भांति रखना। परन्तु किसी से भेंट करने में असमर्थ बता देना।"

"जैसी आज्ञा, किन्तु..."

"ठहरो, तुम सोम, बैशाखी के दिन चार दण्ड रात्रि रहते ही श्रावस्ती की ओर प्रस्थान करना। चम्पा-दुर्ग पर मागधी पताका देखने के लिए प्रभात तक रुकना नहीं। वहां सम्राट् विपन्नावस्था में हैं।" इतना कहकर मगध महामात्य ने आसन त्यागकर ताली बजाई।

एक दास ने निकट आकर अभिवादन किया।

अमात्य ने कहा—"कितनी रात्रि गई अभय?"

"रात्रि का द्वितीय दण्ड प्रारम्भ है आर्य।"

"और मेरा अश्व?"

"वह तैयार है।"

"कहां?"

"निकट ही, उसी उपत्यका के प्रान्त में।"

"ठीक है।"

अमात्य आगे बढ़े। सोम ने कहा—"क्या मेरा असुर आर्य का पथ-प्रदर्शन करे?"

"नहीं, मेरी व्यवस्था है।"

वे एकाकी ही अन्धकार में अदृश्य हो गए।