वैशाली की नगरवधू/12. रहस्यमयी भेंट

वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ ४६ से – ५१ तक

 
12. रहस्यमयी भेंट

एक पहर रात जा चुकी थी। राजगृह के प्रान्त सुनसान थे। उन्हीं सूनी और अंधेरी गलियों में एक तरुण अश्वारोही चुपचाप आगे बढ़ता जा रहा था। उसका सारा शरीर काले लबादे से ढका हुआ था, उसके शरीर और वस्त्रों पर गर्द छा रही थी। तरुण का मुख प्रभावशाली था, उसके गौरवपूर्ण मुख पर तेज़ काली आंखें चमक रही थीं, उसके लबादे के नीचे भारी-भारी अस्त्र अनायास ही दीख पड़ते थे। तरुण का अश्व भी सिंधु देश का एक असाधारण अश्व था। अश्व और आरोही दोनों थके हुए थे। परन्तु तरुण नगर के पूर्वी भाग की ओर बढ़ता जा रहा था, उधर ही उसे किसी अभीष्ट स्थान पर पहुंचना था, उसी की खोज में वह भटकता इधर-उधर देखता चुपचाप उन टेढ़ी-तिरछी गलियों को पारकर नगर के बिलकुल बाहरी भाग पर आ पहुंचा। यहां न तो राजपथ पर लालटेनें थीं, न कोई आदमी ही दीख पड़ता था, जिससे वह अपने अभीष्ट स्थान का पता पूछे। एक चौराहे पर वह इसी असमंजस में खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा।

उसने देखा, एक पुराने बड़े भारी मकान के आगे सीढ़ियों पर कोई सो रहा है, तरुण ने उसके निकट जाकर उसे पुकारकर जगाया। जागकर सामने सशस्त्र योद्धा को देखकर वह पुरुष डर गया। डरकर उसने कहा––"दुहाई , मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है, मैं अति दीन भिक्षुक हूं, आज भीख में कुछ भी नहीं मिला, इससे इस गृहस्थ के द्वार पर थककर पड़ रहा हूं, आप जानते हैं कि यह कोई अपराध नहीं है।"

युवक ने हंसकर कहा––"नहीं, यह कोई अपराध नहीं है, परन्तु तुम यदि आज भूखे ही यहां सो रहे हो तो यह वस्तु तुम्हारे काम आ सकती है, आगे बढ़ो और हाथ में लेकर देखो!"

बूढ़ा कांपता हुआ उठा। तरुण ने उसके हाथ पर जो वस्तु रख दी वह सोने का सिक्का था। उस अंधेरे में भी चमक रहा था। उसे देख और प्रसन्न होकर वृद्ध ने हाथ उठाकर कहा––"मैं ब्राह्मण हूं, आपको शत-सहस्र आशीर्वाद देता हूं, अपराध क्षमा हो, मैंने समझा, आप दस्यु हैं, दरिद्र को लूटा चाहते हैं, इसी से...।" दरिद्र ब्राह्मण की बात काटकर तरुण ने कहा––"तो ब्राह्मण, तुम यदि थोड़ा मेरा काम कर दो तो तुम्हें स्वर्ण का ऐसा ही एक और निष्क मिल सकता है, जो तुम्हारे बहुत काम आएगा।"

"साधु , साधु, मैं समझ गया। आप अवश्य कहीं के राजकुमार हैं। आपकी जय हो! कहिए, क्या करना होगा?"

तरुण ने कहा––"तनिक मेरे साथ चलो और आचार्य शाम्बव्य काश्यप का मठ किधर है, वह मुझे दिखा दो।"

आचार्य शाम्बव्य काश्यप का नाम सुनकर बूढ़े ब्राह्मण की घिग्घी बंध गई। उसने भय और सन्देह से तरुण को देखकर कांपते-कांपते कहा––"किन्तु इस समय..." "कुछ भय नहीं ब्राह्मण, तुम केवल दूर से वह स्थान मुझे दिखा दो।"

"परन्तु राजकुमार, आपको इस समय वहां नहीं जाना चाहिए। वहां तो इस समय भूत-प्रेत-बैतालों का नृत्यभोज हो रहा होगा!"

"तो मालूम होता है, तुम यह स्वर्ण निष्क नहीं लेना चाहते?"

"ओह, उसकी मुझे अत्यन्त आवश्यकता है भन्ते, परन्तु आप नहीं जानते, आचार्यपाद भूत-प्रेत बैतालों के स्वामी हैं।"

"कोई चिन्ता नहीं ब्राह्मण, तुम वह स्थान दिखा दो और यह निष्क लो।"

युवक ने निष्क ब्राह्मण की हथेली पर धर दिया। उसे भलीभांति टेंट में छिपाकर उसने कहा––"तब चलिए, परन्तु मैं दूर से वह स्थान दिखा दूंगा।"

आगे-आगे वह ब्राह्मण और पीछे-पीछे अश्वारोही उस अन्धकार में चलने लगे।

बस्ती से अलग वृक्षों के झुरमुट में एक अशुभ-सा मकान अन्धकार में भूत की भांति दीख रहा था। वृद्ध ब्राह्मण ने कांपते स्वर में कहा––"वही है भन्ते, बस। अब मैं आगे नहीं जाऊंगा। और मैं आपसे भी कहता हूं इस समय वहां मत जाइए।" ब्राह्मण की दृष्टि और वाणी में बहुत भय था, पर तरुण ने उस पर विचार नहीं किया। अश्व को बढ़ाकर वह अन्धकार में विलीन हो गया।

मठ बहुत बड़ा था। तरुण ने एक बार उसके चारों ओर चक्कर लगाया। मठ में कोई जीवित व्यक्ति है या नहीं, इसका पता नहीं लग रहा था, उसका प्रवेशद्वार भी नहीं दीख रहा था। एक बार उसने फिर उस मठ के चारों ओर परिक्रमा दी। इस बार उसे एक कोने में छोटा-सा द्वार दिखाई दिया। उसी को खूब ज़ोर से खट-खटाकर तरुण ने पुकारना प्रारम्भ किया। इस पर कुछ आशा का संचार हुआ। मकान की खिड़की में प्रकाश की झलक दीख पड़ी। किसी ने आकर खिड़की में झांककर बाहर खड़े अश्वारोही को देखकर कर्कश स्वर में पूछा––"कौन है?"

"मैं अतिथि हूं। आचार्यपाद शाम्बव्य काश्यप से मुझे काम है।"

"आए कहां से हो?"

"गान्धार से!"

"किसके पास से?"

"तक्षशिला के आचार्य बहुलाश्व के पास से।"

"क्या तुम सोमप्रभ हो?"

"जी हां!"

"तब ठीक है।"

वह सिर भीतर घुस गया। थोड़ी देर में उसी व्यक्ति ने आकर द्वार खोल दिया। उसके हाथ में दीपक था। उसी के प्रकाश में तरुण ने उस व्यक्ति का चेहरा देखा, देखकर साहसी होने पर भी वह भय से कांप गया। चेहरे पर मांस का नाम न था। सिर्फ गोल-गोल दो आंखें गहरे गढ़ों में स्थिर चमक रही थीं। चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी-मूंछों का अस्त-व्यस्त गुलझट था। सिर के बड़े-बड़े रूखे बाल उलझे हुए और खड़े थे। गालों की हड्डियां ऊपर को उठी हुई थीं और नाक बीच में धनुष की भांति उभरी हुई थी। वह व्यक्ति असाधारण ऊंचा था। उसका वह हाथ, जिसमें वह दीया थामे था, एक कंकाल का हाथ दीख रहा था।
उसने थोड़ी देर दीपक उठाकर तरुण को गौर से देखा, फिर उसके पतले सफेद होंठों पर मुस्कान आई। उसने यथासाध्य अपनी वाणी को कोमल बनाकर कहा––"अश्व को सामने उस गोवाट् में बांध दो, वहां एक बालक सो रहा है, उसे जगा दो—वह उसकी सब व्यवस्था कर देगा और तुम भीतर आओ।"

तरुण घोड़े से उतर पड़ा। उसने उस व्यक्ति के कहे अनुसार अश्व की व्यवस्था करके घर में प्रवेश किया। घर में प्रवेश करते ही वह सिहर उठा। एक विचित्र गंध उसमें भर रही थी। वहां का वातावरण ही अद्भुत था। भीतर एक बड़ा भारी खुला मैदान था। उसमें अन्धकार फैला हुआ था। कहीं भी जीवित व्यक्ति का चिह्न नहीं दीख रहा था। वही दीर्घकाय अस्थिकंकाल-सा पुरुष दीपक हाथ में लिए आगे-आगे चल रहा था और उसके पीछे-पीछे भय और उद्वेग से विमोहित-सा वह तरुण जा रहा था। उनके चलने का शब्द उन्हें ही चौंका रहा था। मठ के पश्चिम भाग में कुछ घर बने थे। उन्हीं की ओर वे जा रहे थे। निकट आने पर उसने उच्च स्वर से पुकारा––"सुन्दरम्!"

एक तरुण वटुक आंख मलता हुआ सामने की कुटीर से निकला। तरुण सुन्दर, बलिष्ठ और नवयुवक था। उसकी कमर में पीताम्बर और गले में स्वच्छ जनेऊ था। सिर पर बड़ी-सी चुटिया थी। युवक के हाथ में दीपक देकर दीर्घकाय व्यक्ति ने कहा––"इस आयुष्मान् की शयन-व्यवस्था यज्ञशाला में कर दो।" फिर उसने आगन्तुक की ओर घूमकर कहा––"प्रभात में और बात होगी। अभी मैं बहुत व्यस्त हूं।" इतना कह वह तेज़ी से अन्धकार में विलीन हो गया।

वटुक ने युवक से कहा––"आओ मित्र, इधर से।"

तरुण चुपचाप वटुक के पीछे-पीछे यज्ञशाला में गया। वहां एक मृगचर्म की ओर संकेत करके उसने कहा––"यह यथेष्ट होगा मित्र?"

"यथेष्ट होगा।"

वटुक जल्दी से एक ओर चला गया। थोड़ी देर में एक पात्र दूध से भरा तथा थोड़े मधुगोलक लेकर आया। उन्हें तरुण के सम्मुख रखकर कहा––"वहां पात्र में जल है, हाथ-मुंह धो लो, वस्त्र उतार डालो और यह थोड़ा आहार कर लो। बलि-मांस भी है, इच्छा हो तो लाऊं!"

"नहीं मित्र, यही यथेष्ट है। मैं बलि-मांस नहीं खाता।"

"तो मित्र, और कुछ चाहिए?"

"कुछ नहीं, धन्यवाद!"

वटुक चला गया और युवक ने अन्यमनस्क होकर वस्त्र उतारे, शस्त्रों को खूंटी पर टांग दिया। मधुगोलक खाकर दूध पिया और मृगचर्म पर बैठकर चुपचाप अन्धकार को देखने लगा। उसे अपने बाल्यकाल की विस्तृत स्मृतियां याद आने लगीं। आठ वर्ष की अवस्था में उसने यहीं से तक्षशिला को एक सार्थवाह के साथ प्रस्थान किया था। तब से अब तक अठारह वर्ष निरन्तर उसने तक्षशिला के विश्व-विश्रुत विद्यालय में विविध शास्त्रों का अध्ययन किया था। वह अतीत काल की बहुत-सी बातों को सोचने लगा। इन अठारह वर्षों में उसने केवल शस्त्राभ्यास और अध्ययन ही नहीं किया, पार्शपुर यवन देश तथा उत्तर कुरु तक यात्रा भी की। देवासुर-संग्राम में सक्रिय भाग लिया। पार्शपुर के शासनुशास से

सिन्धुनद पर लोहा लिया। इसके बाद लगभग सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की यात्रा कर डाली। अब यह राजगृह का वह पुरातन मठ न मालूम उसे कैसा कुछ अशुभ, तुच्छ और अप्रिय-सा लग रहा था। इस दीर्घकाल में आचार्य की तो आकृति ही बदल गई थी।

अकस्मात्, एक अस्पष्ट चीत्कार से वह चौंक उठा। जैसे गहरी वेदना से कोई दबे कण्ठ से चिल्ला उठा हो। भय और आशंका से वह चंचल हो उठा। उसने खूंटी से खड्ग लिया और चुपचाप दीवार से कान लगाकर सुनने लगा। उस ओर कुछ होरहा था। ऐसा उसे प्रतीत हुआ कि कहीं कुछ अनैतिक कार्य किया जा रहा है। उसने दीवार टटोलकर देखा—शीघ्र ही एक छोटा-सा द्वार उसे दीख गया। यत्न करने से वह खुल गया। परन्तु द्वार खुलने पर भी अन्धकार के सिवा और कुछ उसे नहीं प्रतीत हुआ। फिर किसी के बोलने का अस्फुट स्वर उसे कुछ और साफ सुनाई पड़ने लगा। उसने साहस करके हाथ में खड्ग लेकर उस द्वार के भीतर अन्धकार में कदम बढ़ाया। टटोलकर उसने देखा तो वह एक पतली गलियारी-सी मालूम हुई। आगे चलकर वह गलियारी कुछ घूम गई। घूमने पर प्रकाश की एक क्षीण रेखा उसे दीख पड़ी। तरुण और भी साहस करके आगे बढ़ा। सामने नीचे उतरने की सीढ़ियां थीं। तरुण ने देखा वह, वह गर्भगृह का द्वार है, शब्द और प्रकाश दोनों वहीं से आ रहे हैं। वह चुपके से सीढ़ी उतरकर गर्भगृह की ओर अग्रसर हुआ। सामने पुरानी किवाड़ों की दरार से प्रकाश आ रहा था। उसी में से झांककर जो कुछ उसने देखा, देखकर उसकी हड्डियां कांप उठीं। गर्भगृह अधिक बड़ा न था। उसमें दीपक का धीमा प्रकाश हो रहा था। आचार्य एक व्याघ्रचर्म पर स्थिर बैठे थे। उनके सम्मुख कोई राजपुरुष वीरासन के दूसरे व्याघ्रचर्म पर बैठे थे। इनकी आयु भी साठ के लगभग होगी। इनका शरीर मांसल, कद ठिगना, सिर और दाढ़ी-मूंछे मुंडी हुईं, बड़ी-बड़ी तेजपूर्ण आंखें, दृढ़ सम्पुटित होंठ। उनके पास लम्बा नग्न खड्ग रखा था। वे एक बहुत बहुमूल्य कौशेय उत्तरीय पहने थे। उनके पास ही बगल में एक अतिसुन्दरी बाला अधोमुखी बैठी थी। उसका शरीर लगभग नग्न था। उसकी सुडौल गौर भुजलता अनावृत थीं। काली लटें चांदी के समान श्वेत मस्तक पर लहरा रही थीं। पीठ पर पदतलचुम्बी चोटी लटक रही थी। उसका गौर वक्ष अनावृत था, सिर्फ बिल्वस्तान कौशेय पट्ट से बंधे थे। कमर में मणिजटित करधनी थी जिससे अधोवस्त्र कसा हुआ था। इस सुन्दरी के नेत्रों में अद्भुत मद था। कुछ देर उसकी ओर देखने से ही जैसे नशा आ जाता था। विम्बाफल जैसे ओष्ठ इतने सरस और आग्रही प्रतीत हो रहे थे कि उन्हें देखकर मनुष्य का काम अनायास ही जाग्रत् हो जाता था। इस तरुणी की आयु कोई बीस वर्ष की होगी। इस समय वह अति उदास एवं भीत हो रही थी। तरुण ने झांककर देखा, तरुणी कह रही थी—"नहीं पिता, अब नहीं, मैं सहन न कर सकूंगी।" आचार्य ने कठोर मुद्रा से उसकी ओर ज्वाला-नेत्रों से देखा—"सावधान कुण्डनी, मुझे क्रुद्ध न कर।" उन्होंने हाथ के चमड़े का एक चाबुक हिलाकर रूक्ष-हिंस्र भाव से कहा—"दंश ले!"

बाला ने एक बार असहाय दृष्टि से आचार्य की ओर, फिर उस राजपुरुष की ओर देखकर पास रखे हुए पिटक का ढकना उठाया। एक भीमकाय काला नाग फुफकार मार और फन उठाकर हाथ भर ऊंचा हो गया। राजपुरुष भय से तनिक पीछे हट गए। बाला ने अनायास ही नाग का मुंह पकड़कर कण्ठ में लपेट लिया। एक बार फिर उसने करुण दृष्टि से आचार्य की ओर देखा और फिर अपने सुन्दर लाल अधरों के निकट सर्फ का फन ले जाकर

अपनी जीभ बाहर निकाली और चुटकी ढीली कर दी। नाग ने फूं कर के बाला की जीभ पर दंश किया और उलट गया।

आचार्य ने सन्तोष की दृष्टि से राजपुरुष की ओर देखा। बाला ने सर्प को अपने गले से खींचकर दूर फेंक दिया। वह क्रुद्ध दृष्टि से आचार्य को देखती रही। सर्प निस्तेज होकर एक कोने में पड़ा रहा। बाला के मस्तक पर स्वेदबिन्दु झलकने लगे। यह देखकर तरुण का सारा शरीर भय से शीतल हो गया।

आचार्य ने एक लम्बी लौह-शलाका से सर्प को अर्धमूर्च्छित अवस्था में उठाकर पिटक में बन्द कर दिया और मद्यपात्र आगे सरकाकर स्नेह के स्वर में कहा—"मद्य पी ले कुण्डनी।" बाला ने मद्यपात्र मुंह से लगाकर गटागट सारा मद्य पी लिया।

राजपुरुष ने अब मुंह खोला। उन्होंने कहा—"ठीक है आचार्य, मैं कल प्रातःकाल ही कुण्डनी को चम्पा भेजने की व्यवस्था करूंगा, परन्तु यदि आप जाते तो..."

"नहीं, नहीं, राजकार्य राजपुरुषों का है—मेरा नहीं।" आचार्य ने रूखे स्वर से कहा। फिर युवती की ओर लक्ष्य करके कहा—

"कुण्डनी, तुझे अंगराज दधिवाहन पर अपने प्रयोग करने होंगे, पुत्री!"

कुण्डनी विष की ज्वाला से लहरा रही थी। उसने सर्पिणी की भांति होंठों पर जीभ का पुचारा फेरते हुए, भ्रांत नेत्रों से आचार्य की ओर देखकर कहा—"मैं नहीं जाऊंगी पिता, मुझ पर दया करो।"

आचार्य ने कठोर स्वर में कहा—"मूर्ख लड़की, क्या तू राजकाज का विरोध करेगी?"

"तो आप मार डालिए पिता, मैं नहीं जाऊंगी।"

आचार्य ने फिर चाबुक उठाया। तरुण अब अपने को आपे में नहीं रख सका। खड्ग ऊंचा करके धड़धड़ाता गर्भगृह में घुस गया। उसने कहा—"आचार्यपाद, यह घोर अन्याय है, यह मैं नहीं देख सकता।"

आचार्य और राजपुरुष दोनों ही अवाक् रह गए। वे हड़बड़ाकर खड़े हो गए। राजपुरुष ने कहा—

"तू कौन है रे, छिद्रान्वेषी? तूने यदि हमारी बात सुन ली है तो तुझे अभी मरना होगा।"

उन्होंने ताली बजाई और चार सशस्त्र योद्धा गर्भगृह में आ उपस्थित हुए। राजपुरुष ने कहा—"इसे बन्दी करो।"

युवक ने खड्ग ऊंचा करके कहा—"कदापि नहीं!"

आचार्य ने कड़ी दृष्टि से युवक को ताककर उच्च स्वर से कहा—

"खड्ग रख दो, आज्ञा देता हूं।"

एक अतर्कित अनुशासन के वशीभूत होकर युवक ने खड्ग रख दिया। सैनिकों ने उसे बांध दिया।

राजपुरुष ने कहा—"इसे बाहर ले जाकर तुरन्त वध कर दो।"

आचार्य ने कहा—"नहीं, अभी बन्द करो।"

राजपुरुष ने आचार्य की बात रख ली। सैनिक तरुण को ले गए। आचार्य ने
राजपुरुष के कान में कुछ कहा, जिसे सुनकर वे चौंक पड़े। उनका चेहरा पत्थर की भांति कठोर हो गया।

आचार्य ने मुस्कराकर कहा—"चिन्ता की कोई बात नहीं। मैं उसे ठीक कर लूंगा। मेरे विचार में कुण्डनी के साथ इसी का चम्पा जाना ठीक होगा।"

राजपुरुष विचार में पड़ गए। आचार्य ने कहा—"द्विविधा की कोई बात नहीं है।"

"जैसा आपका मत हो, परन्तु अभी उसे उसका तथा कुण्डनी का परिचय नहीं दिया जाना चाहिए।"

"किन्तु आर्या मातंगी से उसे भेंट करनी होगी।"

"क्यों?"

"आवश्यकता है, मैंने आर्या को वचन दिया है।"

"नहीं, नहीं, आचार्य ऐसा नहीं हो सकता।"

आचार्य ने रूखे नेत्रों से राजपुरुष को देखकर कहा—"चाहे जो भी हो, मैं निर्मम नीरस वैज्ञानिक हूं, फिर भी आर्या का कष्ट अब नहीं देख सकता। आप राजपुरुष मुझ वैज्ञानिक से भी अधिक कठोर और निर्दय हैं!"

"किन्तु आर्या जब तक रहस्य का उद्घाटन नहीं करतीं...।"

"उन पर बल-प्रयोग का आपका अधिकार नहीं है।"

"किन्तु सम्राट की आज्ञा ...।"

"अब मैं उनकी प्रतीक्षा नहीं कर सकता, मैं सम्राट् से समझ लूंगा, आप जाइए। कुण्डनी आपके पास पहुंच जाएगी।"

"अरे वह...खैर, वह तरुण भी?"

आचार्य हंस दिए। उन्होंने कहा—"उसका नाम सोमप्रभ है। वह भी सेवा में पहुंच जाएगा।"

राजपुरुष का सिर नीचा हो गया। वे किसी गहन चिन्ता के मन में उदय होने के कारण व्यथित दृष्टि से आचार्य की ओर देखने लगे। आचार्य ने करुण स्वर में कहा— "जाइए आप, विश्राम कीजिए, दुःस्वप्नों की स्मृति से कोई लाभ नहीं है।"

राजपुरुष ने एक दीर्घ श्वास ली और अन्धकार में विलीन हो गए। शस्त्रधारी शरीररक्षक उसी अन्धकार में उन्हें घेरकर चलने लगे।