वैशाली की नगरवधू/1. धिक्कृत कानून

वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ ८ से – १३ तक

 
1. धिक्कृत कानून

उस दिन वैशाली में बड़ी उत्तेजना फैली थी। सूर्योदय के साथ ही ठठ के ठठ नागरिक संथागार की ओर जा रहे थे। संथागार की ओर जानेवाला राजमार्ग मनुष्यों से भरा हुआ था। पैदल, अश्वारोही, रथों और पालकियों पर सवार सभी प्रकार के पुरुष थे। उनमें नगरसेट्ठि, श्रेणिक और सामन्तपुत्र भी थे। संथागार का प्रांगण विविध वाहनों, मनुष्यों और उनके कोलाहल से परिपूर्ण था। बहुत-से नागरिक और सेट्ठिपुत्र संथागार की स्वच्छ संगमरमर की सीढ़ियों पर बैठे थे। बहुत-से खुले मैदान में अपने-अपने वाहनों को थामे उत्सुकता से भवन की ओर देख रहे थे। अनेक सामन्तपुत्र अपने-अपने शस्त्र चमकाकर और भाले ऊंचे करके चिल्ला-चिल्लाकर उत्तेजना प्रकट कर रहे थे। वहां उस समय सर्वत्र अव्यवस्था फैली हुई थी और लोग आपस में मनमानी बातें कर रहे थे। उनके बीच से होते हुए गणसदस्य अपने-अपने वाहनों से उतरकर चुपचाप गम्भीर मूर्ति धारण किए सभा भवन में जा रहे थे। दण्डधर आगे-आगे उनके लिए रास्ता करते और द्वारपाल पुकारकर उनका नाम लेकर उनका आगमन सूचित कर रहे थे।

संथागार का सभा-मण्डप मत्स्य देश के उज्ज्वल श्वेतमर्मर का बना था और उसका फर्श चिकने और प्रतिबिम्बित काले पत्थर का बना था। उसकी छत एक सौ आठ खम्भों पर आधारित थी। ये खम्भे भी काले पत्थर के बने थे। सभाभवन के चारों ओर भीतर की तरफ नौ सौ निन्यानवे हाथीदांत की चौकियां रखी थीं, जिन पर अपनी-अपनी नियुक्ति के अनुसार आठों कुल के सभ्यगण आ-आकर चुपचाप बैठ रहे थे। भवन के बीचोंबीच सुन्दर चित्रित हरे रंग के पत्थर की एक वेदी थी जिस पर दो बहुमूल्य स्वर्ण-खचित चांदी की चौकियां रखी थीं। एक पर गणपति सुनन्द बैठते थे और दूसरी पर महाबलाधिकृत सुमन। ये दोनों ही आसन अभी खाली थे। गणपति और महाबलाधिकृत अभी संथागार में नहीं आए थे। वेदी के ऊपर सोने के दण्डों पर चंदोवा तना था, जिस पर अद्भुत चित्रकारी हो रही थी और बीच में रंगीन पताकाएं फहरा रही थीं। वेदी के तीन ओर सीढ़ियां थीं और सीढ़ियों के निकट वृद्ध कर्णिक गण-सन्निपात की तमाम कार्रवाई लिखने को तैयार बैठे थे। उन्हीं के लिए छन्दशलाका ग्राहक हाथ में लाल-काली छन्दशालाओं से भरी टोकरियां लिए चुपचाप खड़े थे। अधेड़ अवस्था के कर्मचारी परिषद् की सब व्यवस्था देखभाल रहे थे तथा विनयधरों को आवश्यक आदेश दे रहे थे। उनके आदेश पर विनयधर इधर-उधर दौड़कर आदेश-पालन कर रहे थे।

गणपति और महाबलाधिकृत भी आकर अपने आसन पर बैठ गए। प्रतिहार ने सन्निपात के कार्यारम्भ की सूचना तूर्य बजाकर दी।

संथागार के बाहर खड़ी भीड़ में और भी क्षोभ फैल गया। सबके मुंह उत्तेजना से लाल हो गए। प्रत्येक व्यक्ति की आंखें चमकने लगीं। संथागार के अलिन्द में सामन्तपुत्रों और

सेट्ठिपुत्रों के झुण्ड जमा हो गए। सामन्तपुत्र अपने-अपने भाले और खड्ग चमका-चमकाकर मनमाना बकने और शोर करने लगे। सेट्ठिपुत्रों का सदा का हास्यपूर्ण और निश्चिन्त मुख भी आज रौद्र मूर्ति धारण कर रहा था। वैशाली का जनपद, अन्तरायण हट्ट और श्रेष्ठिचत्वर सब बन्द थे। भीतर गणपति और गण चिन्तित भाव से बैठे किसी अयाचित घटना की प्रतीक्षा कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त अशांत, उत्तेजित और उद्वेगपूर्ण था।

एकाएक रथ का गम्भीर घोष सुनकर कोलाहल थम गया। जो जहां था, चित्रखचित-सा खड़ा रह गया। सब उन्मुख हो परिषद्-प्रांगण की ओर बढ़ते हुए रथ की ओर देखने लगे। रथ पर श्वेत कौशेय मढ़ा था और श्वेत पताका स्वर्ण-कलश पर फहरा रही थी। रथ धीर-मन्थर गति से अपनी सहस्र स्वर्ण घण्टिकाओं का घोष करता हुआ संथागार के प्रांगण में आ खड़ा हुआ। लोगों ने कौतूहल से देखा—एक भव्य प्रशांत भद्र वृद्ध पुरुष रथ से उतर रहे हैं। उनका स्वच्छ-श्वेत परिधान और लम्बी श्वेत दाढ़ी हवा में फहरा रही थी। कमर में एक लम्बा खड्ग लटक रहा था जिसकी मूठ और कोष पर रत्न जड़े थे। वृद्ध के मस्तक पर श्वेत उष्णीय था, जिस पर एक बड़ा हीरा धक्-धक् चमक रहा था। वे एक तरुण के कन्धे पर सहारा लिए धीर भाव से संथागार की सीढ़ियां चढ़ने लगे। लोगों ने आप ही उन्हें मार्ग दे दिया। सर्वत्र सन्नाटा छा गया।

परन्तु शांत वातावरण क्षण-भर बाद ही क्षुब्ध हो उठा। पहले धीरे-धीरे, फिर बड़े वेग से जनरव उठा। एक उद्धत युवक साहस करके अपना भाला सीढ़ियों में टेककर भद्र वृद्ध के सम्मुख अड़कर खड़ा हो गया। उनके नथुने क्रोध से फूल रहे थे और मुख पर समस्त शरीर का रक्त एकत्रित हो रहा था। उसने दांत पीसकर कहा—"तो भन्ते महानामन्, आप एकाकी ही आए हैं? देवी अम्बपाली नहीं आई?"

तुरन्त दस-बीस फिर शत-सहस्र सामन्तपुत्र और सेट्ठिपुत्र, श्रेणिक और नागरिक चीत्कार कर उठे—"यह हमारा, हम सबका, वैशाली के गण-विधान का घोर अपमान है, हम इसे सहन नहीं करेंगे!"

शत-सहस्र सामन्तपुत्र अपने भाले ऊंचे उठा-उठाकर और खड्ग चमका-चमकाकर चिल्ला उठे—"हम रक्त की नदी बहा देंगे, परन्तु कानून की अवज्ञा नहीं होने देंगे!" भद्र नागरिकों ने विद्रोही मुद्रा से कहा—"यह सरासर कानून की अवहेलना है। यह गुरुतर अपराध है। कानून की मर्यादा का पालन होना ही चाहिए प्रत्येक मूल्य पर!"

शत-सहस्र कण्ठों ने चिल्लाकर कहा—"किसी भी मूल्य पर!"

वृद्ध महानामन् का मुख क्षण-भर के लिए पत्थर के समान भावहीन और सफेद हो गया। उनका सीधा लम्बा शरीर जैसे तनकर और भी लम्बा हो गया। उन्मुक्त वायु में उनके श्वेत वस्त्र और श्वेत दाढ़ी-लहरा रही थी और उष्णीष पर बंधा हीरा धक्-धक् चमक रहा था। उनकी गति रुकी, वे तनिक विचलित हुए और उनकी कमर में बंधा खड्ग खड़खड़ा उठा। उनका हाथ खड्ग की मूठ पर गया।

किसी अतर्कित शक्ति से युवक सहमकर पीछे हट गया और वृद्ध महानामन् उसी धीर-मन्थर गति से सीढ़ियां चढ़ संथागार के भीतर जाकर वेदी के सम्मुख खड़े हो गए।

एक बार संथागार में सर्वत्र सन्नाटा छा गया। एक सुई के गिरने का भी शब्द होता। गणपति सुनन्द ने कहा—"भन्तेगण सुनें, आज जिस गुरुतर कार्य के लिए अष्टकुल

का गण-सन्निपात हुआ है, वह आप सब जानते हैं। मैं आप सबसे प्रार्थना करूंगा कि आप सब शान्ति और व्यवस्था भंग न करें और उत्तेजित न हों। ऐसा होगा तो हमें सन्निपात भंग करने को विवश होना पड़ेगा। अब सबसे पहले मैं आयुष्मान् गणपूरक से यह जानना चाहता हूं कि आज सन्निपात में कितने सदस्य उपस्थित हैं?"

गणपूरक ने उत्तर दिया—"कुल नौ सौ दो हैं।"

"भन्तेगण, वज्जी के प्रत्येक गण को आज के सन्निपात की सूचना दे दी गई थी और अब जितने सदस्य उपस्थित हो सकते थे, उपस्थित हैं। सदस्यों में से कोई पागल तो नहीं हैं? हों तो पासवाले आयुष्मान् सूचित करें।"

परिषद् में सन्नाटा रहा। गणपति ने कहा—"कोई रोगी, उन्मत्त या मद्य पिए हों तो भी सूचना करें।"

सर्वत्र सन्नाटा रहा। गणपति ने कहा—"अब भन्तेगण सुनें, भन्ते महानामन्, आज आपकी पुत्री अम्बपाली अठारह वर्ष की आयु पूरी कर चुकी। वैशाली जनपद ने उसे सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी निर्णीत किया है। इसलिए वज्जी गणतन्त्र के कानून अनुसार उसे यह परिषद् 'वैशाली की नगरवधू' घोषित किया चाहती है और आज उसे 'वैशाली की जनपद कल्याणी' का पद देना चाहती है। गण-सन्निपात की आज्ञा है कि वह आज से सार्वजनिक स्त्री की भांति जीवन व्यतीत करे, इसी से आज उसे संथागार में उपस्थित होकर अष्टकूल के गण-सन्निपात के सम्मुख शपथ ग्रहण करने की आज्ञा दी गई थी। उसके अभिभावक की हैसियत से आप पर उसे गण-सन्निपात के सम्मुख उपस्थित करने का दायित्व है। अब आप क्या देवी अम्बपाली को गण-सन्निपात के सम्मुख उपस्थित करते हैं, और उसे वैधानिक रीति पर घोषित 'वैशाली की नगरवधू' स्वीकार करते हैं?"

महानामन् ने एक बार सम्पूर्ण सन्निपात को देखकर आंखें नीची कर लीं। वे कुछ झुके और उनके होंठ कांपे। परन्तु फिर तुरन्त ही वे तनकर खड़े हो गए और बोले—

"भन्ते, मैं स्वयं लिच्छवी हूं, और मैंने बयालीस वर्ष वज्जी संघ की निष्ठापूर्वक सेवा इस शरीर से इसी खड्ग के द्वारा की है। अनेक बार मैंने इन भुजदण्डों के बल पर वैशाली गणतन्त्र के दुर्धर्ष शत्रुओं को दलित करके कठिन समय में वैशाली की लाज रखी है। मैंने सदैव ही वज्जी संघ के विधान, कानून और मर्यादा की रक्षा की है और अब भी करूंगा। यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह कानून की मर्यादा का पालन करे।" महानामन् इतना कहकर चुप हो गए। उनके होठ जैसे आगे कुछ कहने में असमर्थ होकर जड़ हो गए। उन्होंने आंखें फैलाकर परिषद्-भवन में उमड़ती उत्तेजित भीड़ को देखा, जिनकी जलती हुई आंखें उन्हीं पर लगी थीं। फिर सहज-शांत स्वर में स्थिर वाणी से कहा—"मेरी पुत्री अम्बपाली के सम्बन्ध में वज्जी गणतन्त्र के कानून के अनुसार गण-सन्निपात ने जो निर्णय किया था, उसे जानकर मैंने अठारह वर्ष की अवस्था तक उसका विवाह करना स्थगित कर दिया था। अब..."

बीच ही में सामन्तपुत्र चिल्ला उठे—"स्थगित कर दिया था! इसका क्या अर्थ है? यह संदिग्ध बात है।"

सहस्रों कण्ठ चिल्ला उठे—"यह संदिग्ध बात है, हम स्पष्ट सुनना चाहते हैं। देवी अम्बपाली किसी एक पुरुष की पत्नी नहीं हो सकती! वह हमारी, हम सबकी है। हमारा उस

पर समान अधिकार है और उसे हम शस्त्र के बल से भी प्राप्त करेंगे!"

गणपति सुनन्द ने हाथ उठाकर कहा—"आयुष्मान् शांत होकर सुनें, सन्निपात के कार्य में बाधा न दें। अभी भन्ते महानामन् का वक्तव्य पूरा नहीं हुआ है। उन्हें पूरी बात कह लेने दीजिए।"

परिषद् में फिर सन्नाटा छा गया। सबकी दृष्टि महानामन् के ऊपर जाकर जम गई। महानामन् ने परिषद् के बाहर-भीतर दृष्टि फेंककर आंख नीची कर ली और फिर कहा—"भन्ते गण, आज अम्बपाली अठारह वर्ष की आयु पूरी कर चुकी। वज्जी संघ के कानून के अनुसार अब वह स्वाधीन है और अपने प्रत्येक स्वार्थ के लिए उत्तरदात्री है। अतः आज से मैं उसका अभिभावक नहीं हूं। वह स्वयं ही परिषद् को अपना मन्तव्य देगी।"

संथागार का वातावरण फिर बड़े वेग से क्षुब्ध हो उठा। तरुण सामन्तपुत्रों ने अपने खड्ग कोष से खींच लिए। बहुतों ने अपने-अपने भालों को हवा में ऊंचा करके चीत्कार करना आरम्भ कर दिया। सब लोग चिल्लाने लगे—"विश्वासघात! विश्वासघात! भन्ते महानामन् ने वज्जीसंघ से विश्वासघात किया है! उन्हें इसका दण्ड मिलना चाहिए!" बहुतों ने अपने पैर धरती पर पटक-पटककर और भाले हवा में हिला-हिलाकर कहा—"हमारे जीवित रहते अम्बपाली हमारी, हम सबकी है, वह वैशाली की नगरवधू है। संघ यदि अपने कर्तव्य-पालन में ढील करेगा तो हम अपने भालों और खड्ग की तीखी धार के बल पर उसे कर्तव्य-पालन करने पर विवश करेंगे।"

सहसा कोलाहल स्तब्ध हो गया। जैसे किसी ने जादू कर दिया हो। सब कोई चकित-स्तम्भित होकर परिषद् के द्वार की ओर देखने लगे। एक अवगुण्ठनवती नारी वातावरण को सुरभित करती हुई और मार्ग में सुषमा फैलाती हुई आ रही थी। तरुणों का उद्धत भाव एकबारगी ही विलीन हो गया। सबने माया-प्रेरित-से होकर उसे मार्ग दिया। गण के सदस्य और अन्य जनपद उस अलौकिक मूर्ति को उत्फुल्ल होकर देखते रह गए। उसने वेदी के सम्मुख आकर ऊपर का अवगुण्ठन उतार डाला। अब वैशाली के जनपद ने पहली बार रूप की उस विभूति के दर्शन किए जो गत तीन वर्ष से सम्पूर्ण वैशाली जनपद की चर्चा का एक महत्त्वपूर्ण विषय बन गया था और जिसके लिए आज सम्पूर्ण जनपद में ऐसा भारी क्षोभ फैल रहा था। सहस्र-सहस्र नेत्र उस रूप को देख अपलक रह गए, वाणी जड़ हो गई, अंग अचल हो गए। तरुणों के हृदय जोर-जोर से धड़कने लगे। बहुतों की सांस की गति रुक गई। अम्बपाली की वह अलौकिक रूप-माधुरी शरत्चन्द्र की पूर्ण विकसित कौमुदी की भांति संथागार के कोने-कोने में फैल गई। उसके स्न्निग्ध प्रभाव से जैसे वहां की सारी उत्तेजना और उद्वेग शांत हो गया।

अम्बपाली ने शुभ्र कौशेय धारण किया था। उसके जूड़ा-ग्रथित केशकुन्तल ताज़े फूलों से गूंथे गए थे। ऊपरी वक्ष खुला हुआ था। देहयष्टि जैसे किसी दिव्य कारीगर ने हीरे के समूचे अखण्ड टुकड़े से यत्नपूर्वक खोदकर गढ़ी थी। उससे तेज, आभा, प्रकाश, माधुर्य, कोमलता और सौरभ का अटूट झरना झर रहा था। इतना रूप, इतना सौष्ठव, इतनी अपूर्वता कभी किसी ने एक स्थान पर देखी नहीं थी। उसने कण्ठ में सिंहल के बड़े-बड़े मोतियों की माला धारण की थी। कटिप्रदेश की हीरे-जड़ी करधनी उसकी क्षीण कटि को पुष्ट नितम्बों से विभाजित-सी कर रही थी। उसके सुडौल गुल्फ मणिखचित उपानत थे,

जिनके ऊपर पैजनियां चमक रही थीं, अपूर्व शोभा का विस्तार कर रहे थे। मानो वह संथागार में रूप, यौवन, मद, सौरभ को बिखेरती चली आई थी। जनपद लुटा-सा, मूर्च्छित-सा, स्तब्ध-सा खड़ा था।

यही वह अम्बपाली थी जिसे पाने के लिए वैशाली का जनपद उन्मत्त होकर लोहू की नदी बहाने के लिए तैयार हो गया था। जिसे एक बार देख पाने के लिए वर्षों से धनकुबेर सेट्ठिपुत्रों तथा सामन्तपुत्रों ने न जाने कितने यत्न किए थे, षड्यन्त्र रचे थे। कितनों ने उसकी न जाने कितनी कल्पना-मूर्तियां बनाई थीं, जो वैशाली में ही गत तीन वर्षों से यत्नपूर्वक गुप्त करके रखी गई थीं और जिसे सर्वगुण-विभूषिता करने के लिए वैशाली राज परिषद् ने मनों स्वर्ण-रत्न खर्च कर दिए थे। आज वैशाली का जनपद देख रहा था कि विश्व की यौवन-श्री अम्बपाली की देहयष्टि में एकीभूत हो रही थी। जिसे देख जनपद स्तम्भित, चकित और जड़ हो गया था। वह अपने को, जीवन को और जगत् को भी भूल गया था।

अम्बपाली जैसे सुषमा की सम्पदा को आंचल में भरे, नीची दृष्टि किए वृद्ध महानामन् के पाश्र्व में आ खड़ी हुई। गणपति सुनन्द ने कहा—"भन्ते, देवी अम्बपाली अपना मत परिषद् के सामने प्रकट करने आई हुई हैं। सब कोई उनका वक्तव्य सुनें!"

एक बार गगनभेदी जयनाद से परिषद्-भवन हिल उठा—"देवी अम्बपाली की जय! वैशाली की नगरवधू की जय, वैशाली जनपद-कल्याणी की जय!"

अम्बपाली के होंठ हिले। जैसे गुलाब की पंखड़ियों को प्रातः समीर ने आंदोलित किया हो। वीणा की झंकार के समान उसकी वाणी ने संथागार में सुधावर्षण किया—"भन्ते, आपके आदेश पर मैंने विचार कर लिया है। मैं वज्जीसंघ के धिक्कृत कानून को स्वीकार करती हूं, यदि गण-सन्निपात को मेरी शर्तें स्वीकार हों। वे शर्तें भन्ते, गणपति आपको बता देंगे।"

परिषद्-भवन में मन्द जनरव सुनाई दिया। एक अधेड़ सदस्य ने अपनी मूंछों को दांतों से दबाकर कहा—"क्या कहा? धिक्कृत कानून? देवी अम्बपाली, तुम यह वाक्य वापस लो, यह परिषद् का घोर अपमान है!"

चारों ओर से आवाजें आने लगीं—"यह शब्द वापस लो, धिक्कृत कानून शब्द अनुचित है!"

अम्बपाली ने सहज-शांत स्वर में कहा—"मैं सहस्र बार इस शब्द को दुहराती हूं! वज्जीसंघ का यह धिक्कृत कानून वैशाली जनपद के यशस्वी गणतन्त्र का कलंक है। भन्ते, मेरा अपराध केवल यही है कि विधाता ने मुझे यह अथाह रूप दिया। इसी अपराध के लिए आज मैं अपने जीवन के गौरव को लांछना और अपमान के पंक में डुबो देने को विवश की जा रही हूं। इसी से मुझे स्त्रीत्व के उन सब अधिकारों से वंचित किया जा रहा है जिन पर प्रत्येक कुलवधू का अधिकार है। अब मैं अपनी रुचि और पसन्द से किसी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर सकती, उसे अपनी देह और अपना हृदय अर्पण नहीं कर सकती। अपना स्नेह से भरा हृदय और रूप से लथपथ यह अधम देह लेकर अब मैं वैशाली की हाट में ऊंचे-नीचे दाम में इसे बेचने बैठूंगी। आप जिस कानून के बल पर मुझे ऐसा करने को विवश कर रहे हैं, वह एक बार नहीं लाख बार धिक्कृत होने योग्य है, जिसे आज ये स्त्रैण तरुण सामन्तपुत्र अपने खड्ग की तीखी धार और भालों की नोक के बल पर अक्षुण्ण और सुरक्षित रखा चाहते हैं

और ये सेट्ठिपुत्र अपनी रत्नराशि जिस पर लुटाने को दृढ़-प्रतिज्ञ हैं।" अम्बपाली यह कहकर रुकी। उसका अंग कांप रहा था और वाणी तीखी हो रही थी। परिषद्-भवन में सन्नाटा था।

उसने फिर कहा—"भन्ते, मैं अपना अभिप्राय निवेदन कर चुकी। यदि सन्निपात को मेरी शर्ते स्वीकार हों...तो मैं अपना सतीत्व, स्त्रीत्व, मर्यादा, यौवन, रूप और देह आपके इस धिक्कृत कानून के अर्पण करती हूं। यदि आपको मेरी शर्तें स्वीकार न हों तो मैं नीलपद्म प्रासाद में आपके वधिकों की प्रतीक्षा करूंगी।"

इतना कहकर उसने अवगुण्ठन से शरीर को आच्छादित किया और वृद्ध महानामन् का हाथ पकड़कर कहा—"चलिए!" महानामन् अम्बपाली के कन्धे का सहारा लिए संथागार से बाहर हो गए। वैशाली का जनपद मूढ़-अवाक् होकर देखता रह गया।