वेनिस का बाँका/अष्टादश परिच्छेद
अष्टादश परिच्छेद।
इस उपन्यास के पाठकों को बिगत परिच्छेद के आशय से ज्ञात हुआ होगा कि फ्लोडोआर्डो वास्तव में कैसा सद्भाग्य व्यक्ति था। प्रगट है कि जिस बस्तुकी उसे बहुत कालसे कामना थी, जिसके लिये उसने बीसियों आपत्तियों को क्रय किया था, शतशः संतापों को सहन किया था और सहस्रों दुःखों और क्लेशों को झेला था, वह अब प्राप्त हुई अर्थात् रोजाविला सी अप्सरा ने अपनी जिह्वा से उसकी प्रीति का प्रकाश किया। बिचार कीजिये कि संसार में प्रेमी के लिये इससे अधिकतर प्रिय और कौनसा पदार्थ है कि उसकी प्रेयसी स्वयं प्रेमी बन जाय और उसे अपने संयोग की आशा दिलाये। ऐसे अवसर पर शरीर धारियों अथवा मानवों को जितना हर्ष होता है उसको प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदयानुसार भलीभाँति अनुभव कर सकता है। हां! हम इतना निस्संदेह कह सकते हैं कि जहाँ तक परीक्षा की गयी है यही दृष्टिगोचर हुआ है कि जब किसी को यह घड़ी प्राप्त होती है तो उसके हाथ पाँव फूल जाते हैं वरन किसी किसी की तो जीवन यात्रा की गति तक रुक जाती है। संक्षेप यह कि उसे समय मनुष्य को अपरिमित आनन्द होता है। यही गति फ्लोडोआर्डो की भी थी पर रोजाबिला के अचेत हो जाने के कारण उसने अपने चित्तको सभाल कर उसे पृथ्वी पर से उठाया और एक प्रशस्त पर्यंक पर एक उपधान के सहारे बैठाया। थोड़ी देर बाद रोजाबिला ने नेत्रोन्मीलन किया और फ्लोडोआर्डो को अपने समीप बैठा देख कर स्नेह से अपनी ग्रीवा उस्के उत्संग में डाल दी। अब क्या था दोनों प्रेम की मादकता में चूर, उत्फुल्लता समीप, शोक कोसों दूर, एक द्वितीय पर प्रीति पूर्वक दृष्टिपात करने और आगामी सुख को सोचने लगे, यह अनु मानही न था कि हर्ष के दिन शीघ्र बीत जाते हैं और आपद के पुनः पलट आते हैं।
मनुष्य की जीवन―यात्रा में ऐसा अवसर कदाचित् एकही बार आता है, अतएव बड़ा सद्भाग्य वह है जिसे वह प्राप्त है, और जो उसके रसका अनुभव भली भाँति कर सकता है। बिद्वानों का कथन है कि ऐसे समय के उल्लास निपट अनुमान मूलक (ख्याली) होते हैं, और उतने ही अदृढ़ और निर्मूल होते हैं, जितना कि स्वप्न जो सत्यता और मनीषा की प्रखर गभस्तियों के अभिमुख लुप्त हो जाता है। परन्तु हम यह प्रश्न करते हैं कि संसार में कोई भी आनन्द ऐसा है जिसका स्वाद विचार (ख्याल) की सहायता के अभाव में प्राप्त होता हो? अस्तु अब मुख्य विषय की ओर प्रवृत्त होना चाहिये। कुछ कालबाद रोज़ाबिलाने कहा "फ्लोडोआर्डो मैं तुम्हें प्राण से अधिकतर समझती हूँ" प्रत्युत्तर में उसने रोजाबिला को अपने हृदय से लगा कर पहले पहल उसके शोणाधर को चुम्बन किया" अचाञ्चक उसी समय द्वार कपाट खटसे खुल गया और नृपति अंड्रियास तत्काल गृह में प्रविष्ट हुए। उनके शीघ्र पलट आने का यह कारण था कि जिस मनुष्य के समागम के लिये वे गये थे वह दैवात् बीमार हो गया इस लिये उन्हें अधिककाल पर्य्यन्त बाहर न ठहरना पड़ा। महाराज के परि- च्छेद की खड़खड़ाहट की ध्वनि से दोनों प्रेमी और प्रेयसी आमोद की निद्रा से चौंक पड़े। रोजाबिला भय से चिल्लाकर पृथक् हो गई, और फ्लोडोआर्डो निज स्थान से उठ खड़ा हुआ परन्तु उसने किसी प्रकार की ब्यग्रता नहीं प्रगट की।
अंड्रियास कुछ काल पर्य्यन्त दोनों को इस प्रकार घूरा किये जिससे सम्पूर्णतः कोप, खेद और निराशा टपकती थी। अन्त में उन्होंने एक शीतलोछास भर कर आकाश की ओर अवलोकन किया और फिर चुपचाप लौट कर जाने लगे। इस समय फ्लोडोआर्डो ने जी कड़ा करके कहा "महाराज एकक्षण के लिये ठहर जाइये, शब्द सुनकर महाराज लौट पड़े। फ्लोडो- आर्डो ने अपने को उनके युगल ललित पदों पर डोल दिया! अंड्रियास उसे कुछ काल तक अत्यन्त गम्भीरता के साथ देखते रहे और इसके उपरान्त कहने लगे फ्लोडोआर्डो यदि तुम अपने अपराध की क्षमा चाहते हो तो व्यर्थ है"।
फ्लोडोआर्डो अत्यन्त धृष्टता के साथ उत्तर दिया क्षमा चाहना, नहीं महाशय मैं रोजाबिला पर मोहित होने के लिये क्षमा नहीं माँगता, बरन क्षमा माँगना तो उसे चाहिये था जिसने रोजाबिला को देखा होता और उस पर मोहित न हुआ होता परन्तु यदि रोजाबिला पर मोहित होना अपराध है तो यह ऐसा अपराध है जिसे परमेश्वर भी क्षमा कर देगा क्योंकि परमेश्वरने रोजाबिला को इसी योग्य बनाया है कि मनुष्य उसकी पूजा करे"।
अंड्रियास―(तुच्छता के साथ) "तुम इस कल्पित रीति से निर्दोष बनने को वृथा चेष्टा करते हो, स्मरण रक्खो कि मुझसे यह कथन कर क्षमा ले लेना असम्भव है"।
फ्लोडोआर्डो―(पृथ्वी से उठ कर) महोदय! मैं आपसे फिर निवेदन करता हूँ कि मैं रोजाबिला पर मोहित होने के लिये क्षमा नहीं चाहता, बरन यह कहता हूँ कि आप उस प्रीति का सम्मान करें। सुनिये महाशय मैं आपकी भ्रातृजा पर मोहित हूँ, अतएव मेरी यह प्रार्थना है कि आप मुझे निज जमाई बनाने के लिये स्वीकार कीजिये।
फ्लोडोआर्डो की इस बातचीत से महाराज को बड़ा आश्च- र्य्य हुआ। उसने फिर कहना प्रारंभ किया "माना कि मैं एक अकिञ्चन और अपरिचित व्यक्ति हूँ, और आप को आश्चर्य्य होगा कि ऐसा पुरुष वेनिस के नृपति की उत्तराधिकारिणा के साथ विवाह करने के लिये प्रार्थना करे। परन्तु ईश्वर की शपथ है कि मुझको इस बात का पूर्ण विश्वास है कि आप अपनी भ्रातृजा ऐसे पुरुष को न देंगे जिसके पास विभव और पृथ्वी अधिक हो और पदवी भी बहुत सी रखता हो, अथवा जिसका सम्मान उसके पूर्व पुरुषों के कारण हो, परन्तु उसमें योग्यता तनिक भी न हो। मैं स्वीकार करता हूँ कि आज तक मुझ से कोई कार्य ऐसा नहीं संपन्न हुना, कि जिसके बदले में मुझे रोजाबिला सी अप्सरा मिल सके, परन्तु वह समय निकट है जब कि मैं ऐसे कार्य कर दिखाऊँगा और नहीं तो इली उद्योग में अपने जीवन से हाथ धोऊँगा।
इस समालाप और संभाषण को श्रवण कर महाराज ने क्रोध से मुख फेर लिया। उस समय रोजाबिला दौड़ कर अपने पितृव्य से लिपट गई और सप्रेम अपना हाथ उनकी ग्रीवा में डाल कर रुदन करने लगी।
फ्लोडोआर्डो। (फिर अंड्रियास की ओर निरीक्षण कर) "आप अपने शर्तो को बतलाइये कि आप मुझसे क्या कहते हैं, निज मुखारबिन्दसे कथन कीजिये मैं कौन सा कार्य सम्पादन करूँ, जिससे आप रोजाबिला का विवाह मेरे साथ कर दें। जो कुछ आपके जी में आवे कह डालिये, कैसाही कठिन कार्य क्यों न हो, पर मैं उसे एक खेल समान समझूँगा। मेरी तो यह इच्छा है कि परमेश्वर करता कि इस समय बेनिस के लिये कोई बड़ा संकट होता, और दश सहस्त्र मनुष्य आपका जीवन समाप्त करने की चिन्ता में होते, फिर आप देखते कि मैं रोजाबिला के मिलने की आशा पर वेनिस के संर- क्षण और उन दश सहस्र मनुष्यों को बिनाश करने में कितना परिश्रम करता, प्राण भय उपस्थित होने पर भी न टलता।
अंड्रियास। (सखेद मुसकान पूर्वक) "सुन ऐ फ्लोडो आर्डो मैं एक युग से इस देश की हितैषिता कर रहा हूँ, प्रायः इसकी रक्षा के लिये निश्शंक प्राण गँवाने पर तत्पर हो गया हूँ, और कई वार इसी उद्योग में मेरे जीवन के पर्यवसान की आशंका तक उपस्थित हुई है, परन्तु इस बहुत बड़े उद्योग के बदले में मैंने इसके अतिरिक्त कि अपनी वृद्धावस्था सुख पूर्वक समाप्त करूँ और किसी विषय की कामना न की, परन्तु वह अभिलाषा सफल न होने पाई। मेरे बाल्य मित्र, मेरे प्राणोपम मित्र, और मेरे वृद्धावस्था के परामर्श दाताओं को, डाकुओं ने मुझसे पृथक् किया, और आज फ्लोडोआर्डो तुमने, जिसके साथ मैं प्रत्येक प्रकार का उपकार करने को तत्पर था, मेरे समाधान के शेष आश्रय को भी अपहरण कर लिया। अच्छा, रोजाबिला बताओ कि तुम वास्तव में इनसे प्रीति करती हो?।
रोजाबिला ने अपना एक कर तो नृपत्ति महाशय की ग्रीवा में पड़ा रहने दिया, और द्वितीय कर से फ्लोडोआर्डो का कर ग्रहण कर अत्यन्त प्यार से अपने हृदय पर रक्खा, परन्तु इस पर भी फ्लोडोआर्डो को धैर्य्य न था, क्योंकि ज्यों हीं उसने नृपति महाशय का प्रश्न श्रवण किया, उसका मुख निस्तेज और पीत हो गया। यद्यपि कि उसने अपना हाथ रोजाबिला के करकमलों में दे दिया, पर एक बार अपना शिर इस रीति से हिलाया जैसे किसी को संशय हो, और रोजाबिला की ओर परमानुराग से अवलोकन करने लगा। अंड्रियास धीरे से रोजाविला से पृथक् हो गये, और कुछ काल तक आयतन में शोकितों का सा स्वरूप बनाये टहला किये। रोजाबिला वहीं एक पर्य्यङ्क पर बैठ कर रुदन करने लगो, और फ्लोडोआर्डो अत्यन्त असन्तोष पूर्वक महाराज के वाक्य की प्रतीक्षा करने लगा।