विश्व प्रपंच/भूमिका/८
प्राणिविज्ञान मे घटकरूप में शरीराणुवाद की प्रतिष्ठा थी ही, अब वंशपरंपरा के नियमों का अध्ययन कर मेंडल आदि ने बताया है कि वृद्धिकारक घटको ( शुक्रकीटाणु, गर्भाड ) मे भी संख्या और खंडत्व प्रत्यक्ष है और संततिभेद भी गिने और पहले से बताए जा सकते है। जहाँ डारविन के अनुसार अखंड परंपरागत भेद द्वारा ही ढाँचे में फेरफार माना जाता था वहाँ उसके स्थान पर या कम से कम उसके साथ साथ अब आकस्मिक या आगंतुक रूपांतर द्वारा विशिष्ट, असबद्ध और परंपराखंडित परिवर्तन माना जाने लगा है। इतने पर भी यह निश्चय है कि अखंडत्व ही विकाश सिद्धान्त का मूल है। गतिशक्ति तक अण्वात्मक बताई जाने लगी है। प्रो० प्लांक का शक्तयणु (Quantum) वाद अन्यत चित्ताकर्षक ---कुछ लोगो की समझ मे अत्यंत प्रबल भी--है। ज्योति.प्रवाह के भी सखंड और अणुमय सिद्ध होने के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। ज्योति.प्रवाह के अणुमय होने की चर्चा अब उतनी धीमी नहीं है जितनी की कुछ पहले पड़ गई थी। इस बात मे यथार्थता चाहे जितनी हो पर ज्योति:प्रवाह संबंधी जो विवाद है वह है बड़े महत्व को, क्योकि वह ईथर और द्रव्य के बीच की सब से अधिक ज्ञात और परीक्षित श्रृंखला है। ज्योतिःप्रवाह यद्यपि वेगप्रेरित विद्युदणु से ही उत्तेजित होता है पर आगे चल कर वह आकाशतत्व ईथर मे ही विचरण करता है और एक विशिष्ट वस्तु की तरह सम तथा नियमित गति से गमन करता है। इससे ज्योतिःप्रवाह के द्वारा हम बहुतसी बाते जान सकते हैं।
"पर लक्ष्यो को हटाने में धैर्य से काम लेना चाहिए। इन लक्ष्यो मे सब से प्रधान अखंडत्व है। मै शून्य आकाश मे किसी सूक्म से सूक्ष्म भौतिक शक्ति की क्रिया का अनुमान नहीं कर सकता। उसके लिये एक अखंड मध्यस्थ अवश्य चाहिए। ईथर की किसी प्रकार की परीक्षा अत्यंत दुःसाध्य है। उसके विषय मे हम केवल इतना ही जानते हैं कि किस वेग से उसके द्वारा शक्तिप्रवाह गमन करते है। वह हमारी पकड़ मे नहीं आता। यदि हम उसके बीच से कोई द्रव्य तेजी से ले जायँ तो भी कोई पदार्थघटित सबंध नही मिलता। प्रकाश को लेकर परीक्षा करते हैं तो भी सफलता नही होती। जब तक कि प्रकाश की गति हमारे सापेक्ष है तभी तक हम उसका अनुभव कर सकते हैं। पर जहाँ एक द्रव्य की गति दुसरे के सापेक्ष नही है वहाँ उसकी गति को कुछ भी पता नही चलता। जैसे यदि दो मनुष्य साथ साथ समान गति से गमन करते है तो एक को दूसरे की गति नहीं मालूम हो सकती
इसीसे कुछ लोगो को यह विचार हो रहा है कि किसी गति को ईथर के सापेक्ष बताना बात ही बात है। इस का पता कभी लग हीं नही सकता।
"हम लोगो का यह युग अत्यंत सूक्ष्म कल्पनाओ का है। बीसवी शताब्दी का बड़ा भारी आविष्कार द्रव्य का विद्युत् सिद्धांत ( अर्थात् द्रव्य विद्युत् का ही एक रूप है ) है। परिमाण और आकार जो वेग की क्रियाएँ निश्चित हुए हैं वह इसी सिद्धांत के बल से। इसकी सहायता से हम उन परीक्षाओं को करते हैं जिससे ईथर और द्रव्य के संबंध का कुछ
कुछ आभास मिलता है। इससे किसी दिन यह भी संभव है कि हम विद्युदणुओं की आकृति आदि के परिवर्तनो का भी पता लगा लें क्योंकि यद्यपि वे अत्यंत सूक्ष्म हैं पर उनकी गति प्रकाश की गति के लगभग है। फिर कौन जाने इसी प्रकार ईथर के गुणो तक हमारी पहुँच हो जाय और अखंडत्व को हम अच्छी तरह समझ सकें।"
कहने की आवश्यकता नहीं कि अखंडत्व का निर्धारण नाना विशेषो के भीतर एक निर्विशेष का निर्धारण है जिसके द्वारा सत्ता का आभास मिल सकता है। आधुनिक वैज्ञानिक स्थिति की संक्षिप्त समीक्षा कर लॉज ने अंत मे प्राणशक्ति, आत्मा, अमरत्व, परलोक आदि के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं--
"जो बात निश्चित जान पड़ती है वह यह है कि भूत के बिना प्राणशक्ति की कोई भौतिक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। इसीसे कुछ लोगो का यह कहना या इस कहने को पसंद करना स्वाभाविक ही है कि 'हम भूत मे प्रत्येक प्रकार की प्राणशक्ति की संभावना और सामर्थ्य देखते है'। ठीक है, पर प्रत्येक प्रकार की प्राणशक्ति की नहीं, प्रत्येक प्रकार की प्राणशक्ति की भौतिक अभिव्यक्ति की। क्योकि प्राणशक्ति हमे भूत द्वारा व्यक्त होने के अतिरिक्त और किस प्रकार व्यक्त हो सकती है? यह भी कहा जाता है कि 'प्राणी मे हम रसायन और भूतविज्ञान के नियमों के अतिरिक्त और कुछ पाते ही नही'। बहुत ठीक, यह भी स्वाभाविक ही है क्योकि लोग प्राणशक्ति के भौतिक या रासायनिक रूप या व्यक्तता को तो
अध्ययन ही कर रहे हैं, स्वयं प्राणशक्ति का अर्थात् मन और चेतना का अध्ययन तो वे करते नहीं हैं, उनको तो वे अपनी छानबीन के बाहर रखते हैं। भूस ही हमारी इंद्रियो को ग्राह्य है। भूतवाद भौतिक जगत के उपयुक्त है, पर दार्शनिक सिद्धांत के रूप मे नही, बल्कि चलते हुए व्यापार की व्यवस्था के रूप में, बीच की कारणपरंपरा के अनुसंधान के रूप मे। इसके परे जो बाते है वे दूसरे क्षेत्र की है और दूसरे उपायो से मानी जाती है। आध्यात्मिक बातो को रसायन और भूतविज्ञान के शब्दो मे बताना असंभव है, इसीसे उनका अस्तित्व ही अस्वीकार किया जाता है, वे केवल भ्रान्तिलक्षण मानी जाती है। पर ऐसी अनधिकार मीमांसा अनुचित है।
प्राणशक्ति का पता प्रयोगशालाओ मे नहीं लगता है। केवल उसकी रासायनिक और भौतिक अभिव्यक्ति ही देखी जाती है, पर यह मानना पड़ेगा कि वह एक विशेषरूप से भूतो का परिचालन करती है। उसे हम तटस्थ (Catalytic जो स्वय विकारप्राप्त न हो कर भी दो रासायनिक द्रव्यो मे विकार उत्पन्न करता है ) परिचालक कह सकते है। प्राणशक्ति के व्यापारो को समझने के लिए हमे सूक्ष्म जीवो की ओर न जाना चाहिए, स्वयं अपने मे उसका अधिक व्यक्त आभास समझ अपने ही अनुभवो की ओर ध्यान देना चाहिए।"
जगत् मे चारों ओर क्रमव्यवस्था देखते हुए भी लोग जो नित्य चैतन्य का अधिष्ठान रूप से अस्तित्व अस्वीकार करते हैं, लाज के अनुसार यह उनकी दृष्टि की संकीर्णता है। उन्होंने कहा है-"प्राकृतिक पदार्थों के भीतर एक गूढ़ रहस्य भरा हुआ है। कट्टर वैज्ञानिक इस विषय मे जो बाते बतलाते हैं वे उनकी विद्या की पहुँच के अनुसार ठीक हैं, पर अंशतः । जब हम मोर की पूँछ की चंद्रिकाओ मे रंगो का चित्रविचित्र मेल देखते हैं कि किस प्रकार वे अपनी अपनी जगह पर एक निश्चित नमूने और नकशे को भरते हुए बैठे हैं तब यह कहना अत्यंत कठिन हो जाता है कि ऐसी क्रमव्यवस्था के साथ मेल केवल रासायनिक नियमो द्वारा होता है। फूल गर्भाधान के लिए कीड़ो को आकर्षित करते है और फल बीज को फैलाने के लिए जानवरो को। पर इस संबंध में इतनी ही व्याख्या काफी नही है। फूलो मे इतनी सुन्दरता केवल कीड़ो को आकर्षित करने के लिए ही नही है। हमे जीवन के लिए जो इतनी हाय हाय रहती है उसे समझना चाहिए। इस प्रयत्न का कोई रहस्य होगा और विकाश का कोई उद्देश्य होगा। 'प्राकृतिक ग्रहण सिद्धांत'जहाँ तक पहुँचता है हेतुनिरूपण करता है। पर यदि इतने सौन्दर्य की आवश्यकता कीड़ो के लिए है तो हम बन, पर्वत, मेघमाला आदि के सौन्दर्य के लिए क्या कहेगे? उनके सौन्दर्य से कौन सा काम निकलता है, कौन सा लौकिक अर्थसाधन होता है? विज्ञान सौन्दर्य्य का विवेचन नही करता। न करे, पर उसका अस्तित्व अवश्य है। मै केवल इस बात की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि हमारे अनुसंधान मे ब्रह्मांड की सारी बाते नहीं आ जातीं। इससे यदि हम निषेध करने चलते है और कहते हैं कि भूतविज्ञान और रसायन के ही अंतर्गत हम सारी बातो को ला सकते हैं तो हम केवल
संकीर्ण पांडित्य का दंभ दिखाते हैं और अपने मनुष्यजन्म के अधिकार की पूर्णता और समृद्धि खोते है।
"विकाश परम सत्य है, बड़े महत्त्व का सिद्धांत है। सामाजिक उन्नति के लिए हमारे प्रयत्न इस लिए उचित हैं कि हम समष्टि के एक अंग हैं, अंग भी ऐसे जो चेतन हो गया है। अतः समष्टि मे उदेश्य-विधान का अभाव नहीं हो सकता क्योकि हम उसके एक अंग हो कर अपने आप में उसको अनुभव करते है।•••• शरीरवियोग के उपरांत भी आत्मा बनी रहती है। यदि न्याय से पूछा जाय तो मैं केवल इतना ही नहीं कहता कि जो बाते अभी परोक्षवाद् के अंतर्गत समझी जाती हैं वे वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा जाँची और निरूपित की जा सकती हैं बल्कि यहाँ तक कहता हूँ कि जहाँ तक परीक्षा हुई है उससे हमे यही निश्चय हुआ है कि स्मृति और अतःकरणवृत्तियां भूतसंबंध ही तक परिमित नहीं हैं, संस्कार रूप मे वे बराबर बनी रहती हैं। परीक्षा द्वारा मुझे यह प्रतीत होता है कि यद्यपि शुद्ध भूतनिर्लिप्त चैतन्य का साक्षात् ज्ञान हसे नही हो सकता पर उसका आभास भौतिक जगत् मे दिखाई देता है। अत वह कुछ घुमाव फिराव के साथ हमारी वैज्ञानिक परीक्षा के अंतर्गत आ सकता है। कुछ सच्चे और विश्वस्त अन्वेषक आशापूर्वक ज्ञान के एक नए क्षेत्र का आभास दे रहे है।
यह हम कभी नहीं कह सकते कि इस लोक मे सत्य का प्रादुर्भाव केवल दो एक शताब्दियो से ही होने लगी। वैज्ञानिक काल के पूर्व की प्रतिभा की पहुँच भी बड़े महत्व की
थी। प्राचीन, महात्माओ और कवियो का विश्व की आत्मा के विषय मे बहुत कुछ प्रवेश था। हमारी अनुसंधानप्रणाली ऐसी है जिससे किसी अखंड निर्विशेषता का पता नहीं लग सकता। यहाँ पर सापेक्षिकता का सिद्धान्त चलता है। इससे जब तक हमे व्याघात या विभेद नही मिलता तब तक हमें कोई परिज्ञान नही होता। हम लोग अपने चारो ओर की अन्तर्याप्त विभूति को देख सुन नही सकते; इतना ही कर सकते हैं कि कालरूपी करघे से निकल कर पूर्णता की ओर अनंत-गति से गमन करते हुए वस्त्र को भूतो से परे उस परमात्मा का परिधान समझे।"
जैसा पहले कहा जा चुका है लाज उन थोड़े से वैज्ञानिको मे से हैं जो संशयवाद से निकल कर ईश्वर परलोक आदि के मंडन में तत्पर रहते हैं। योरप और अमेरिका मे कुछ दिनो से परोक्षशक्ति के साधक भी खड़े हुए हैं जो अनेक प्रकार की सिद्धियाँ दिखा कर आत्मसत्ता का अस्तित्व प्रतिपादित करने का उद्योग करते हैं। ये मृत पुरुषो की आत्माओं से बात चीत करने, उनके द्वारा अलौकिक, घटनाओ के होने का हाल सुनाया करते है। इनकी ओर से कई पत्र-पत्रिकाएँ भी निकलती हैं। पर इनमे से अधिकतर छल और प्रवंचना का आश्रय लेते हैं इससे शिक्षितों और वैज्ञानिको की इनपर आस्था नही है। बहुतेरे अंतःकरण की असामान्य वृत्तियों या अवस्थाओं (जैसे, दोहरी चेतना आदि ) को अपने प्रयोग मे लाते हैं। पर इन युक्तियों से शिक्षितों का समाधान नहीं होता।
जैसा कि लाज ने कहा है परलोक, आत्मा आदि के
प्रत्याख्यान की ओर वैज्ञानिको की प्रवृत्ति इधर कम हो गई है। 'अपने काम से काम'वाली नीति पर वे चल रहे हैं। पर हैकल के संप्रदाय के अनुयायियो और आत्मवादियो के बीच छेड़छाड़ होती रहती है। हैकल की पुस्तक के जिसे अंगरेजी भाषान्तर का यह हिन्दी अनुवाद है वह जोजफ मेककैब (Joseph Mc Cabe) का किया हुआ है। इन्होने हैकल का एक जीवनचरित और हैकल पर किए हुए आक्षेपों के उत्तर मे एक पुस्तक (Haeckel's Critics Answered) भी लिखी है। अभी हाल मे एक सभा के बीच इनसे और इंगलैड़ के प्रसिद्ध कहानी लेखक ए० कनन डायल (A Conan Doyle) से परलोक आदि विषय पर शास्त्रार्थ हुआ है जो पुस्तकाकार छपा है। ए. केनन डायल पूरे अध्यात्मवादी है।
अब तक जो कुछ लिखा गया उससे शिक्षित जगत् के ज्ञान की वर्तमान स्थिति का कुछ आभास मिला होगा और यह स्पष्ट हो गया होगा कि नाना मतो और मजहवों की विशेष विशेष स्थूल बातो को लेकर झगड़ा टंटा करने का समय अब नहीं है। सब मतो और संप्रदायों मे धर्म और ईश्वर की जो सामान्य भावना है उसी का पक्ष अब शिक्षित पक्ष के अंतर्गत आ सकता है। ईश्वर साकार है कि निराकार, लंबी-दाढ़ी वाला है कि चारहाथवाला, अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्ति पूजनेवालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठानेवालों से, इन बातों पर विवाद करनेवाले अब केवल उपहास के पात्र होगे। इसी प्रकार सृष्टि के जिन रहस्यों को विज्ञान खोल चुका है उनके संबंध में जो प्राचीन पौराणिक
कथाएँ और कल्पनाएँ ( ६ दिन मे सृष्टि की उत्पत्ति, आदम हौवा को जोड़ा, चौरासी लाख योनि इत्यादि ) हैं वे अब ढाल तलवार का काम नहीं दे सकतीं। अब जिन्हें मैदान मे जाना हो वे नाना विज्ञानों से तथ्य संग्रह करके सीधे उस सीमा पर जायँ जहाँ दो पक्ष अड़े हुए है--एक ओर आत्मवादी, दूसरी और अनात्मवादी; एक ओर जड़वादी, दूसरी ओर नित्य चैतन्यवादी। यदि चैतन्य की नित्य सत्ता सर्वमान्य हो गई तो फिर सब मतो की भावना का समर्थन हुआ समझिए क्योकि चैतन्य सर्वस्वरूप है। नाना भेदो मे अभेददृष्टि ही सच्ची तत्त्वदृष्टि है। इसी के द्वारा सत्य का अनुभव और मतमतांतर के रागद्वेष का परिहार हो सकता है।
इतिहास से प्रकट है कि आदि मे सब देशो के बीच प्रकृति की भिन्न भिन्न शक्तियो और विभूतियो या उनके भिन्न भिन्न अधीश्वरो की भावना हुई और बहुदेवोपासना प्रचलित हुई। कुछ देशों मे 'भेद मे अभेद' की तत्वदृष्टि का क्रमशः विकाश हुआ और सब देवो की समष्टि के रूप मे एक ईश्वर की प्रतिष्ठा हुई। जिन दो देशो मे सब से पूर्व इस प्रकार स्वाभाविक क्रम से एक ब्रह्म की भावना का विकाश हुआ वे भारत और बाबुल थे। भारतीय आर्यों के बीच एक ईश्वर या ब्रह्म की भावना का विकाश शुद्ध तत्वदृष्टि से हुआ। पहले प्रकृति की भिन्न भिन्न शक्तियो या विभूतियो की उपासना चली, फिर तत्त्वदृष्टि से उन सब का एक मे समाहार कर के ब्रह्मवाद की स्थापना हुई। संहिताकाल मे ही अग्नि, वायु, वरुण, इन्द्र आदि एक ही ब्रह्म के नाना रूप माने जा चुके थे-~ इन्द्र, मित्रं, वरुणामग्निमाहुरथो दिव्यस्से सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।
( ऋग्वेद म १।२ ।१६४।६४ )
उपनिषत्काल मे तो एक ब्रह्म की भावना पूर्णता को पहुँच गई थी और 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' 'नेह नानाऽस्ति किञ्चन' 'तत्वमसि' इत्यादि वेदांत के महावाक्यों का पूर्ण रूप से प्रचार हो गया था। ठीक इसी रीति से पृथ्वी पर की अत्यत प्राचीन खाल्दी जाति के बीच एक ईश्वर की भावना का विकाश हुआ था। ईसा से २००० वर्ष पूर्व के बाबुल के एक लेख मे वहाँ के भिन्न भिन्न देवता एक ही प्रधान देवता मरदक के भिन्न भिन्न रूप कहे गए है। एक नमूना देखिए---
नरगल युद्ध का मरदक है। बेलराजसत्ता का मरदूक है।
शम्श धर्म का मरदक है। अदु वषो का मरदक है।
नबो व्यापार का मरदक है।
जहाँ एकेश्वरवाद का पहले पहल तत्वदृष्टि द्वारा स्वाभाविक क्रम से विकाश हुआ वहाँ तो बहुदेववाद के साथ उसका पूरा समन्वय रहा और किसी प्रकार के द्वेष, कलह और उपद्रव का सूत्रपात नही हुआ, पर जहाँ उसकी कलम लगाया गया वहॉ आफत खड़ी हो गई। उपदेश देने में अधिकारियो का भेद इसी लिए किया जाता है। जब तक अंतःकरणविकाश द्वारा जिस ज्ञान का जो अधिकारी नहीं हो लेता तब तक न वह उसे पूरा पूरा ग्रहण ही कर सकता है, और न अधूरा ग्रहण करके पचा ही सकता है। बाबुल के इस एकेश्वरवाद
की कुछ स्वर यहूदियों को लगी। फिर क्या था, दर्शनविज्ञानविहीन पुराने यहूदियो की एक शाखा को अपने कुलदेवता 'यहोवा' को दूसरी जातियो के देवताओ से बड़ा प्रकट करने की धुन समाई। जैसे लड़के एक दूसरे से अभिमान के साथ कहते हैं कि हमारा खिलौना तुम्हारे खिलौने से अच्छा है वैसे ही अपने देवता को लेकर वे कहने लगे। पहले यह 'यहोवा' साधारण कुलदेवता था जिसे इसराईल के वंशवाले बलि चढ़ाया करते थे। इसकी शक्ति और इसका ज्ञान बहुत परिमित था। जब मिस्रदेश के राजा ने इसराईलवंशवालो को वहुत सताया तब उन्होंने अपने कुलदेवता की दुहाई दी। यहोवा ने कहा 'अच्छा, आज रात को मै मिस्त्रियों का नाश करूँगा। पर एक काम करना, बलिदान करके पहचान के लिए रक्त का छापा अपने अपने दरवाज़ों पर लगा देना, जिसमें उन घरों को मैं बचा जाऊँ"। पीछे मूसा की कृपा से यही 'यहोवा' जमीन ओर आसमान का बनानेवाला खुदा हो गया। मूसाई मते से ही ईसाई मत निकला। यहूदियो और ईसाइयो को इस प्रकार द्वेषवश दूसरी जातियो की निदा करने तथा उन्हे पापी और धर्मविमुख कहने का अवसर मिला। ज्ञान की असस्कृत दशा में मनुष्य ऐसे अवसरो को हाथ से नही जाने देना चाहता। दूसरी जातियो के जो आचार व्यवहार और उपासना-विधान । जैसे, मूर्तिपूजन ) थे आसमानी किताब मे वे पापो की सूची में डाल दिए गए। इस प्रकार अंतःकरण की इन वृत्तियो से प्रेरित होकर एशिया के पच्छिमी कोने पर जिस एकेश्वरवाद की स्थापना हुई उसके कारण बड़े
बड़े अनर्थ संसार में हुए। अरब मे पहुँच कर उसने जो रूप धारण किया उसका साक्षी इतिहास है।
उपर्युक्त तीनो अनार्य ( शामी ) पैगंबरी मतों मे एक ईश्वर की जो प्रतिष्ठा हुई वह तत्त्वचितन के उपरांत नही, अतः उसमे उस व्यापकत्व का अभाव रहा जो उदार दृष्टि के लिए आवश्यक है। बहुदेवोपासना मे जो उदार भाव था वह इस एकेश्वरोपासन मे जाता रहा। बहुदेवोपासक जगत् मे अनेक देवता मानते थे इससे दूसरी जातियो को अपने से भिन्न देवताओ की उपासना करते देख वे द्वेष नहीं मानते थे। दूसरी जाति के देवताओ को ग्रहण करने या अपने देवताओ का नामांतर समझने तक के लिए वे तैयार रहते थे * । पर जिन जातियो के बीच इस पैगबरी एकेश्वरवाद का प्रचार हुआ वे एक ईश्वर को अपना अलग देवता मानने लगीं जिसका पारिचय यदि किसी को हो सकता था तो उन्ही के पैगंबरो
- यूनानी लोग जब पहलेपहल भारतवर्ष में आए तब उन्होने शिव, विष्णु आदि देवताओ को अपन ज्युपिटर, हक्र्युलीज आदि देवताओं के ही रूपातर समझा। सभ्य और तत्वज्ञानसंपन्न होने के कारण उनके भाव उदार थे। ईसा से १४० वर्ष पूर्व के तक्षशिला के यूनानी राजा अंटियाल्किडस के राजदूत हेलिआडोरस ने, जो विदिशा के हिदू राजा के यहा रहती थी, वासुदेव प्रीत्यर्थं एक विशाल गरुड़स्तंभ बनवाया था जो अभी थोड़े दिन हुए बेसनगर (प्राचीन विदिशा ) में मिला था। उसकी इस विष्णुभक्ति की निंदा किसा यूनानी लेखक ने नहीं की है।
द्वारा। प्रत्येक पैगंबरी मत के ईश्वर के साथ साथ एक एक पैगंबर लगा हुआ है जिसे मानना उस एक ईश्वर के मानने से कम आवश्यक नहीं है।
इस पैगंबरी एकेश्वरवाद के पहले संसार मे मतसंबंधी युद्ध नहीं होते थे। भारतीय आर्य, पारसी, खाल्दी, मिस्री, यूनानी और रोमन इत्यादि जो ज्ञानसमृद्ध और सभ्य बहुदेवपासक जातियाँ थी उनके बीच कभी इस बात को लेकर युद्ध नहीं हुआ कि हमारा देवता तुम्हारे देवता से बड़ा है, तुम हमारे देवता को मानो। योरप मे साहित्य, दर्शन, विज्ञान और शासनकला की जो इतनी उन्नति हुई वह बहुदेवोपासक प्राचीन यूनानियो और रोमनो के प्रसाद से, अनार्य ईसाई मत के प्रसाद से नही। ईसाई मत के द्वारा, सच पूछिए, तो ज्ञान की गति मे बाधा ही पड़ती रही। संकीर्ण नीव पर पैगंबरी मतो की स्थापना होने के कारण उनके अनुयायियो मे व्यापक उदारता का अभाव रहा। उनकी समझ मे उन्हे छोड़ और सारे संसार के लोग उनके खुदा के दुश्मन थे। अंगरेज़ कवि अंधे मिल्टन तक ने प्राचीन सभ्य जातियों के देवताओ को शैतान की फौज मे भरती कर के अपने कट्टरपन का---अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति का---परिचय दिया है। उसने यह न सोचा कि ईसाई मत के प्रचार के बहुत पूर्व सभ्य मनुष्यजातियो में धर्म, शील और अचार के अत्यंत उच्च आदर्श प्रतिष्ठित थे।
भारतीय आर्यों के बीच उपनिषत्काल मे ब्रह्म की भावना पूर्णता को पहुँच गई थी इससे उसके स्थूल निरूपण से भी
किसी प्रकार का विप्लव नही हुआ। केनोपनिषद् में ब्रह्म के बोध के संबंध में एक गाथा है जो शायद ईसाई उपदेशको को बहुत पसंद आवे। एक बार एक बड़ा भारी यक्ष प्रकट हुआ। इंद्र ने अग्नि को उसका परिचय जानने के लिए भेजा है। अग्नि से उस यक्ष ने पूछा "तुम कौन हो और तुम्हारी शक्ति क्या है?" अग्नि ने कहा "मैं अग्नि हूं, यदि चाहूं तो क्षण भर मे सब लोका को भस्म कर सकता हूं।" यक्ष ने एक तिनका दिखा दिया और कहाँ---"इसे तो भस्म करो" । अग्नि ने बहुत यत्न किया पर वह तिनका न जला, ज्यो का त्यो रहा। फिर वायुदेवता उस यक्ष के पास गए । यक्ष ने पूछा"तुम कौन हो और तुम्हारी शक्ति क्या है?" वायु ने कहा---"मैं वायु हूँ, यदि चाहूं तो क्षण भर मे सब कुछ उड़ा सकता हूँ यक्ष ने वायु को भी वही तिनका दिखा कर कहा "इसे तो उड़ाओ"। वायु ने बहुत वेग दिखाया पर वह तिनका जगह से न हटा। अंत मे इंद्र आप वहाँ गए, पर उनके जाते ही यक्ष अंतद्धान होगया। इतने में वहाँ "उमा हैमवती" प्रकट हुई। उन्होने बताया कि वह यक्ष ब्रह्म था।
ब्रह्म या ईश्वर की इस स्थूल भावना से भी यहाँ किसी प्रकार का मतोन्माद नही उत्पन्न हुआ। बात यह थी कि जब आर्यजाति सम्यक् तत्वदृष्टि प्राप्त कर चुकी तब आगे चल कर 'एक' और 'अनेक' को लेकर झगड़ा करने की सभावना सब दिन के लिए जाती रही। अधिकारभेद से एक और अनेक की उपासना साथ साथ बराबर चलती रही। एक ब्रह्म का ज्ञान हो जाने पर भी अनेक देवताओ के निमित्त
यज्ञादि होते रहे, बंद नहीं हो गए। अनेकत्व और एकत्व के चीच इस अविरोधबुद्धि ने हिदूधर्म के क्षेत्र को आरंभ ही से ऐसा अपरिमित रखा कि वह व्यक्तिबद्ध न होने पाया, उसमे वह संकीर्णता न आने पाई जो व्यक्ति विशेष के आश्रित पैरावरी मतों मे देखी जाती है। कर्म, ज्ञान और उपासना तीनो काडों के परस्पर संबद्ध होने से जिस प्रकार एक में ऊँची नीची श्रेणियाँ मानी गई उसी प्रकार दूसरे में भी। एक सत्य से दूसरे, दूसरे से तीसरे, इस प्रकार छोटे से बड़े, फिर उससे बड़े सत्य की अखंड परंपरा स्वीकृत की गई। इंगलैंड के प्रसिद्ध दार्शनिक हर्बर्ट स्पेसर ने भी यही कहा है कि कोई मत कैसा ही हो उसमे कुछ न कुछ सत्य का अंश रहता है। भूतप्रेतवाद से लेकर बड़े बड़े दार्शनिक वादो तक सब मे एक बात समान रूपसे देखी जाती है कि सब के सब संसार का मूल कोई अज्ञेय और अप्रमेय रहस्य समझते है जिसका वर्णन प्रत्येक मत करना चाहता है, पर कर नहीं सकता। इसी बात पर दृष्टि रखने से हिंदुओ को दूसरी जातियो से अनाचार और अस्वच्छता ( अशौच ) आदि के कारण चाहे कुछ घृणा रही हो, पर अन्य देवता की उपासना के कारण द्वेष रखने की प्रवृत्ति नही हुई। श्रीकृष्ण भगवान् की स्पष्ट कहना है कि येऽप्यन्य देवताभक्ता येजते श्रद्धयान्विताः । तेऽपिमामेव, कौन्तेय, यजंत्यविधिपूर्वकम् । केवल 'अविधि पूर्वकम्' के लिए मारकाट की कोई जरूरत नही समझी गई।
प्राचीन आर्य ( भारतीय ) धर्म में धर्माधर्म ईश्वर की किसी विशेष रूप मे भावना या किसी देवता विशेष की आरा
घना पर नहीं ठहराया गया। वेदव्यास जी ने अत्यंत उदार भाव से कहा है कि धर्मात्मा पुरुष वर्णाश्रमधर्म ( आर्य या हिंदूधर्म ) के बाहर भी हैं। उन्होंने आर्यधर्म को न जानने या न माननेवाली विदेशीय जातियो को धर्मशून्य नहीं बताया। श्रीकृष्ण ने कहा है---'ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्' । यही कारण है कि प्राचीन आर्यों को अपना आचार और अपना विचार दूसरो के गले मढ़ने की उत्कंठा नही हुई। देशकाल के अनुसार जहां जो धर्मव्यवस्था स्थापित थी वहाँ के लिए वे उसी को उपयुक्त समझते थे। उपनिषत्काल मे एक ईश्वर या ब्रह्म की भावना परिपक्व होकर पूर्णरूप स जब प्रतिष्ठित हुई तब तक भूमंडल पर शायद बाबुल को छोड़ और कहीं नहीं हुई थी। पर उस एक ईश्वर या ब्रह्म को लेकर प्राचीन आर्य दूसरी सभ्य या असभ्य जातियों का गला काटने के लिए नहीं दौड़े थे। उन्हें यह पूर्ण ज्ञान था कि यह 'एक' 'अनेक' की समष्टि है अथवा 'अनेक' इस 'एक' के ही आभास हैं।
जैसा पहले कहा जा चुका है 'भेदो में अभेद' दृष्टि ही सच्ची तत्वदृष्टि है। इसी के द्वारा सत्ता का आभास मिल सकता है। यही अभेद ज्ञान और धर्म दोनो का लक्ष्य है। विज्ञान इसी अभेद की खोज मे है, धर्म इसी की ओर दिखा रहा है।
रामचन्द्र शुक्ल।
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