विश्व प्रपंच/भूमिका/३
इनमे संवेदनसूत्र और इंद्रियाँ आदि नहीं होती, संवेदन शरीरभर में होता है। पर कुछ शाखाओ के सिरो पर कुड्मलो का गुच्छा सा होता है। जब कुड्मल अपनी पूरी बाढ़ को पहुँच जाता है तब एक स्वतंत्र जीव हो कर कांड से अलग हो जाता है और चर जंतु के रूप में इधर उधर तैरने लगता है। इसी को छत्रक कृमि कहते है। यह खुमी ( छत्राक ) के छाते के आकार का होता है और इसके चारो ओर चाबुक के आकार की लंबी लंबी भुजाएँ निकली होती है। इसके पेटे ( नतोदर भाग ) के बीचोबीच एक चोगा सा निकला होता है जिसके सिरे पर मुंँह होता है। इस चोगे की जड़ से कई नलियाँ छाते की तीलियों की तरह निकल कर उस नली से मिली होती हैं जो मँडरे पर मंडलाकार होता है। मुहँ के भीतर जो भोजन जाता है वह चोगे के भीतर पच कर नलियो के द्वारा सारे शरीर मे फैल कर पोषण करता है। मँडरे पर से जो भुजाएँ निकली होती हैं उनमें से आठ ऐसी होती है जिनके मूल मे एक एक सूक्ष्म गुठली सी होती है जिसे हम संवेदनग्रंथि कह सकते है। इन इंद्रियो या अवयवो से दिशा का ज्ञान होता है। सारांश यह कि छत्रक कृमि अपने जनक खडबीज कृमि से बहुत अधिक उन्नत होता है। इसमें नेत्रविदु के भी आभास होते हैं, संवेदन-ग्रंथियो का भी विधान होता है। खडवीज कृमि मे स्त्री पुं० विधान नहीं होता, कुड्मल विधान होता है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। पर उसी से उत्पन्न छत्रक कृमि मे स्त्री पुं० अलग अलग होते है। नर के शुक्रकीटाणु जल में छूट पड़ते हैं और जल के प्रवाह द्वारा
मादा के गर्भाशय में जा कर गर्भकीटाणु को गर्भित करते हैं। गर्भाधान के उपरांत गर्भकीटाणु शीघ्र डिभकीट के रूप मे प्रवद्धित हो कर अलग हो जाते हैं और कुछ दिनों तक जल में तैरते फिरते है। पीछे किसी चट्टान, लकड़ी के तख्ते आदि पर जम जाते है और धीरे धीरे बढ़ कर पूरे खंडबीज कृमि हो जाते
है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है इन्हीं खंडबीज कृमियो से फिर छत्रक कृमि की उत्पत्ति होती है। सारांश यह कि खडबीज कृमि से छत्रक की उत्पत्ति और छत्रक से खंडबीज कृमि की उत्पत्ति होती है। प्रजनन के इस विधान को इतरेतर जन्म या 'योन्यंतर विधान' कहते है।
छत्रक कृमि से बारीक ढाँचा उन चिपटे केचुओ का होता है जो कुछ रीढ़वाले जंतुओं के यकृत और अँतड़ियो में होते है। भेड़ के यकृत में पत्ती के आकार को जो चौडा चिपटा कीड़ा होता है उसके शरीर की ओर ध्यान देने पर दहने और बाये दो सम-विभक्त पार्श्व स्पष्ट दिखाई देगे। कल्पित विभाग-रेखा के दोनों ओर बिंब प्रतिबिब रूप से प्रायः एक ही प्रकार के ढाँचे पाए जायँगे। इस प्रकार की रचना को अर्द्धाग-योजना कहते हैं। कीड़े का अगला भाग चौड़ा होता है जिसके बीचोबीच निकली हुई नोक पर मुंँह होता है। मुख की औंठ पर एक मांसल छल्ला सा होता है
जिसके द्वारा यह जंतुओं के यकृत की दीवार से चिमटा रहता
है। मुख की औंठ से थोड़ा और पीछे हट कर पेटे की ओर एक दरार सा होता है जो जननेद्रिय का मुख है। इसी के बीचोबीच एक तुंड या ठोठी सी होती है जो पुं० जननेद्रिय
है। शरीर के पिछले छोर पर एक मलवाहक छिद्र होता है।
मुख के भीतर थोड़ी दूर तक कंठनाल होती है जो आंतो से जा कर मिली होती है। आंते इसकी अनेक शाखाओं में विभक्त होती है जिनमे काले रंग का रस या पित्त भरा होता है। यह पित्तरस उसी जंतु के यकृत का होता है जिसके भीतर यह कीड़ा पलता है। उसी के पित्त और उसमे मिले हुए द्रव्य से इस कीड़े का पोषण होता है। अंत्रविधान दुहनी और बाई दोनो ओर का अलग अलग होता है। आंतो से मिला हुआ कोई गुदद्वार नहीं होता, मुख ही एक द्वार होता है। आंतो के अतिरिक्त जलवाहक नलियो का पूरा जाल होता है। सब से बढ़ कर बात तो यह कि संवेदनसूत्रो का विधान होता है। कंठनाल के पास भेजे का छल्ला सा होता है जिसे हम मस्तिष्क का सादा रूप कह सकते हैं। इसी छल्ले से संवेदनसुन्न पीछे की और गए रहते हैं जिनमें दो सूत्र प्रधान है जो दहने और बाएं दोनो ओर होते है। देखने सुनने आदि के लिये
अलग अलग इद्रियां नहीं होती।
अब इसकी प्रजनन-प्रणाली पर भी थोड़ा ध्यान दीजिए। स्त्री पुं० जननेद्रियाँ एक ही कीड़े में होती है। पुं० जननेद्रिय मे अडकोश-नलिकाएँ, शुक्रवाहिनी नलियाँ और शिश्न और स्त्री जननेद्रिय मे डिभकोश, गर्भनाली, योनिमुख, अंडपोषक रस की ग्रंथियाँ और नलियाँ होती हैं। शुक्रकीटाणु द्वारा गर्भित होने पर गर्भाड पोषक रस से घिर जाता है और फिर एक छिलके के भीतर बंद हो जाता है। बढ़ चुकने पर यह अंडा अँतड़ियों में होता हुआ बाहर निकल जाता है और कुछ दिनों मे
रोईदार लंबे डिभकीट के रूप में हो जाता है जिसमे सिर की ठोठ और दो नेत्रविदुओं के अतिरिक्त कोई और भीतरी अवयव नहीं होता। यदि यह जल में पहुँचा तो कुछ काल तक तैरता फिरता है और यदि तर घास के बीच पहुँचा तो रेगता फिरता है।यदि इसे घोघा मिल गया तो यह उसके भीतर अपने सिर के बल घुस जाता है और भीतर ही भीतर बढ़कर लंबी थैली के आकार का हो जाता है। कुछ काल में इस थैली के भीतर घटकगुच्छ उत्पन्न होजाते हैं। इस घटकगुच्छ के घटक विभागक्रम द्वारा बढ़कर पुछल्लेदार कीटों के रूप में होजाते हैं और घोघे के शरीर से बाहर निकल कर घास की पत्तियो पर चिमट जाते है। पत्तियो को जब भेड़े खाती है तब ये उनके यकृत में पहुँच जाते है और चौड़े चिपटे यकृतकीट के रूप मे हो जाते हैं। इन कीटो से कुछ उन्नत
रचना मनुष्य के पेट में रहनेवाले लंबे केचुओ की होती है। एक प्रकार के और केचुए होते हैं जो जंतुओं के शरीर के भीतर नहीं होते, अधिकतर समुद्र में पाए जाते हैं। इन्हे मुँह और आंतो के अतिरिक्त रक्तवाहिनी नाड़ियाँ भी होती हैं। संवेदग्राही अवयवो का विधान भी और केंचुओ से उन्नत होता है। भेजे के छल्ले के स्थान पर दो बड़ी संवेदन-ग्रंथियाँ होती है जिन्हे हम मस्तिष्क कह सकते हैं। इसी मस्तिष्क से दो मोटे संवेदन-सूत्र पीछे की ओर शरीर की
लंबाई तक गए रहते हैं। आँखे भी होती हैं।
प्राणियो मे इद्रियो का विधान किस प्रकार हुआ? पहले कहा जा चुका है कि अत्यंत आदिम कोटि के क्षुद्र जीवो मे
प्रकाश, शब्द, तथा स्थूल पदार्थों का ग्रहण ऊपरी त्वक् पर सर्वत्र समान रूप से होता है। ऊपरी त्वक् सर्वत्र समान रूप से संवेदनग्राही होता है। क्रमशः ऊपरी त्वक् पर विभिन्नताएँ उत्पन्न होने लगी। कुछ स्थानो में दूसरे स्थानो से कुछ विशेषता प्रकट होने लगी अर्थात् कुछ स्थान वाह्य विषय-संपर्क को विशेष रूप से ग्रहण करने लगे। क्रमशः अभ्यास द्वारा ये स्थान संपर्कग्रहण मे अधिक तीव्र होते गए जिससे वाह्य विषयों का प्रभाव उन पर अधिक पड़ता गया। वाह्य विषयो के अधिक संयोग से उन स्थानो की बनावद में भी कुछ विशेषता आने लगी। फल यह हुआ कि संवेदनग्राही घटक अलग होगए। उनसे सवेदनसूत्रो की योजना हुई। बाहरी त्वक् पर जहाँ कही प्रकाश, शब्द, स्थूल पदार्थ आदि का सपर्क हुआ कि इन्ही सूत्रो के सहारे उसकी संवेदन सारे संवेदनसूत्रजाल में दौड़ गया। क्रमशः इन संवेदनसूत्रो का एक केद्रस्थल ग्रंथि के रूप में उत्पन्न हुआ जिसे ब्रह्मग्रंथि कहते है। यही केद्रस्थान बड़े जीवो का मस्तिष्क है। वाह्य विषय भिन्न भिन्न प्रकार के होते है और उनका ग्रहण भी भिन्न भिन्न प्रकार से होता है। अतः वाह्य त्वक् के संवेदनग्राही स्थानों में भी क्रमश भेदविधान होने लगा। एक स्थान एक प्रकार का विषय ग्रहण करने मे अधिक तीव्र होता गया, दूसरा दूसरे प्रकार का। होते होते यहाँ तक हुआ कि एक प्रकार के विषय का ग्रहण एक ही निर्दिष्ट स्थान पर होने लगा जिस से भिन्न भिन्न इंद्रियगोलको का विकाश हुआ जो पहले त्वक् की परतो से बने
हुए सादे कोशो के रूप मे ही प्रकट हुए। जिस स्थान पर अणुप्रवाह के योग से उस रासायनिक क्रिया का विधान होने लगा जिससे गंध का अनुभव होता है वहाँ व्राणोद्रिय ( नाक ) की उत्पत्ति हुई। जहाँ वह रासायनिक क्रिया होने लगी जिससे म्वाद का अनुभव होता है वहाँ रसनेद्रिय का विधान हुआ। इसी प्रकार जहाँ आलोकग्रहण की ही भौतिक क्रिया बराबर होने लगी वहाँ उस जटिल यंत्र का विधान हुआ जिसे ऑख कहते है और जिसके द्वारा पदार्थों के आकृतिबिब का ग्रहण होता है। विशेष प्रकार की वायुतरंगों का ग्रहण जहाँ होने लगा वहाँ कानो की रचना हुई। इन इंद्रियों मे सूक्ष्म से सूक्ष्म सपर्क के ग्रहण की शक्ति का विकाश देखा जाता है। व्राणेद्रिय द्रव पदार्थ के अणु के ३०००,०००, ००० वे भाग तक का अनुभव कर सकती है। चक्षुरिंद्रिय एक मिनट में सवा करोड़ मील के लगभग चलनेवाली आलोकतरंग का ग्रहण करती है।
अब तक जिन क्षुद्र जंतुओ का वर्णन हुआ है उनका शरीर यहाँ से वहाँ तक एक होता है, खंडो में विभक्त नही होता। उनसे उन्नत कोटि के बहुखंड कीट होते है जिनका शरीर बहुत से जोड़ो से मिल कर बना जान पड़ता है, जैसे, मिट्टी के केचुए, जोक, कनखजूरे, केकड़े, भिड़, गुवरैले, फतिगे, चीटियाँ इत्यादि। जंतुओ की बनावट मे ध्यान देने की बात यह है कि मुख ही एक ऐसा द्वार है जिससे पहले पहल वाह्य जगत् का संपर्क होता है अतः उसी के पास मुख्य इंद्रियों का विधान होता है। जो भाग क्रिया में अधिक तत्पर
होता है उसी में उस क्रिया-संपादन के अनुकूल विधान होते
हैं। अतः इन बहुखंड जंतुओं मे जो बहुत सादे ढाँचे के होगे उनमे भी सिर अलग दिखाई देगा जिसमे आँख, कान आदि इंद्रियद्वार होगे और भीतर संवेदन का केद्रस्वरूप मस्तिष्क वा ग्रंथि होगी जिससे संवेदनसूत्र पीछे की ओर को गए होगे। इन कीड़ों के हृदय भी होता है जो लंबी नली के आकार का और पीठ की ओर होता है ( छाती की ओर नही जैसा कि रीढ़वाले बड़े जीवो का होता है)। बहुखड कीटो के साधारणतः दो विभाग किए गए हैं--अपाद और सपाद। मिट्टी के केचुए, जोक आदि अपाद कीटो मे है और झिगा, केकडा, कनखजूरा, गुबरैला, चीटी इत्यादि सपाद कीटो मे है। सपाद कीट मे षट्पद या पतंग कुल के कीट सबै से अधिक उन्नत होते है। चीटी, तितली, गुबरैला, टिड्डी, फतिगा, किलनी, भौरा, मक्खी इत्यादि इनके अंतर्गत है। इनमें कुछ को पूरे पर निकलते है ( जैसे तितली, गुबरैला, टिड्डी ) कुछ को अधूरे और कुछ को निकलते ही नहीं ( जैसे, किलनी )। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनमे नर और मादा मे से किसी एक को पर होते है, दूसरे को नही।
ध्यान पूर्वक देखने से पतंगकुल के कीटो का शरीर तीन खंडों में विभक्त दिखाई पड़ता हैं—--सिर, वक्ष और उदर। किसी किसी कीट ( जैसे, भिड़ ) मे तो ये खंड केवल एक पतले तागे से जुड़े मालूम होते है। ये तीनो खड भी कई जोड़ो से मिल कर बने होते हैं। सिरवाले खंड मे मुँह पर पकड़ने, काटने या रस चूसने के लिये टूँड़ और आर होते
हैं। वक्ष मे जो तीन टुकड़े होते हैं उनमें से प्रत्येक मे टॉगो
का एक एक जोड़ा होता है। टाँगों के अतिरिक्त दोनो ओर पर भी होते हैं। उदरखंड में टाँगे आदि नही होती, छोर पर डंक तथा अंडवाहक अवयवो का विधान होता है। मुख के भीतर जो स्रोत होता है उसमे कई नलियाँ और थैलियाँ होती हैं। पाचन के लिये कई कोठो की अलग थैली होती है जिसमे पाचनरस की ग्रथियाँ होती है। यह थैली आँतो से मिली होती है। किसी किसी कीट मे इसी थैली से लगा हुआ एक और कोठा होता है जिसमे आरे की तरह के दाँत या दंदाने होते है। सिर के नीचे मस्तिष्क का अच्छा विधान होता है। बड़े कीटो के मस्तिष्क मे कई लोथड़े होते हैं जिनमे से एक पर आँखो का दिल ढाँचा स्थित रहता है। इन कीटो की आँख की बनावट बड़ी विलक्षण होती है। एक डेले के अंतर्गत हजारों आँखे होती है। बड़ी मक्खी को बारह हजरि आँखे होती है। बहुत से कीटो को इन यौगिक नेत्रो के अतिरिक्त सादी आँखे भी होती है और कुछ ऐसे होते है जिन्हे आँखे बिल्कुल नहीं होती। पतंगकुल के कीटो के संवेदन-सूत्र भी उन्नत कोटि के होते है, उनमें स्थान स्थान पर ग्रंथियाँ होती है।
पतंगकुल के कीटो मे कुछ ही ऐसे होते है जिनके बच्चों का आकार अंडे से निकलने पर पूरी बाढ़ के जीवो का सा होता है। अधिकांश कीटो मे कायाकल्प होता है अर्थात् अडे से निकलने पर बच्चो में पूरे कीटो का कुछ भी आकार नही होता। डिंभपिड परिवर्तन की कई अवस्थाओ में हो कर तव पूरे अंग और अवयव प्राप्त करता है। भिड़, गुबरैले, तितली,
रेशम के कीड़े इत्यादि इसी प्रकार के जीव है। तितली को ही लीजिए। अंडे से निकलने पर उसका बच्चा एक लंबे ढोले या सँड़े के आकार का होता है जिसके आगे की ओर छः जोड़दार पैर होते है और पीछे की ओर कई बेजोड़ के और भद्दे पैर होते है। चबाने के लिये जबड़े भी होते है। यह डिभकीट कुछ काल तक इसी अवस्था में पेड़ पौधो पर रेगता फिरता है। इसके उपरांत यह सूत की तरह कात कर एक कोश बनाता है जिसके भीतर निश्चेष्ट और नि.संज्ञ हो कर यह बद हो जाता है और कुछ काल तक उसी अवस्था मे रहता है। कोश के भीतर ही इसका पूरा कायाकल्प होता है। कायाकल्प का काल जब पूरा हो जाता है तब यह सब अंग अवयवो से युक्त उड़नेवाली तितली हो कर निकल आता है।
पतंगकुल के कीट इस बात के प्रमाण है कि जटिल और उन्नत अवयवो का विधान छोटे से छोटे जीवो मे भी हो सकता है। हाथी का डीलडौल मनुष्य के डीलडौल से बहुत बड़ा होता है पर उसके बाह्य और अंत.करण उतनी पूर्णता को प्राप्त नहीं रहते जितने मनुष्य के रहते है। बिना रीढ़वाले जतुओ में पतंग सब से अधिक उन्नत इंद्रियवाले और बुद्धिमान् होते हैं। भिड़, मधुमक्खी, चीटी इत्यादि मे कैसी संचयबुद्धि होती है, किस कौशल और व्यवस्था के साथ वे समाज बाँध कर रहती है। डारविन ने कहा है कि चीटी का मस्तिष्क, जो और कीड़ो के मस्तिष्क से बड़ा होने पर भी आलपीन की नोक का चौथाई भी नहीं होता, संसार में सब से चमत्कार पूर्ण द्रव्यकण है। अधिकतर विद्वानो का मत है कि जिन जीवो का लालन पालन मातापिता द्वारा बहुत दिनो तक होता है अर्थात् जो बहुत दिनो तक मातापिता के स्नेह के आश्रित रहते हैं उनमे सहानुभूति और समाजवुद्धि का विकाश अधिक होता है, जैसे, बंदर, वनमानुस, मनुष्य आदि मे। चीटी तथा समाज बॉध कर रहनेवाले और कीट भी ( जैस, भिड़, मधुमक्खी आदि ) गुबरैले की दशा में बहुत दिनो तक पलते है इसीसे उनमे इतनी संघ-बुद्धि पाई जाती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस संघवुद्धि का विकाश कमश: लाखो वर्ष की परंपरा के उपरांत हुआ है।
बिना रीढ़वाले जंतुओ मे शुक्तिवर्ग के सीप, घोघे, शंख आदि कोमलकाय जीव भी है जो सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़े से बड़े होते है। इस वर्ग के सव से क्षुद्र कोटि के जीव चट्टानो आदि पर काई के समान जमे रहते हैं। अष्टपद ऐसे बड़े जीव भी इसी वर्ग मे है जो अपने चारो ओर फैली हुई बड़ी बड़ी भुजाओ ( या पैरों ) से बड़े बड़े जंतुओ को पकड़ लेते है। शुक्ति वर्ग के कुछ जीवों के कपाल, हृदय आदि अलग अलग अग नहीं होते। सीप को अलग सिर नहीं होता । इसी सीप के शरीर पर मोती होता है। एक प्रकार केचुओ के डिभ सीप के शरीर पर लग कर बंद हो जाते है। जहाँ जहाँ वे वद हो जाते हैं वहाँ वहाँ गोल चमकीले उभार ( या फोड़े ) पड़ जाते हैं जो काल पा कर मोती के रूप में हो जाते है। कहने की आवश्यकता नही कि शुक्तिवर्ग के सब जीव जलचारी है और उनके शरीर का ढाँचा उन्नत कोटि का नहीं होता,
बहुत सादा होता है। अष्टपद को छोड और किसीके शरीर के भीतर किसी प्रकार का ढाँचा ( जैसा कि रीढ़वाले जंतुओं का अस्थिपंजर होता है ) नहीं होता । पर उनमे शरीर के ऊपर एक कड़े आवरण की विशेषता होती है जो जल में मिले हुए चूने आदि द्रव्यों के संग्रह से बनता है।
बिना रीढ़वाले जंतुओ से रीढवाले जंतुओं में किन किन बातो की विशेषता होती है यह देख लेना चाहिए। पहली बखत तो यह है कि बिना रीढ़वाले जतुओं में पाचनक्रिया, रक्तसंचार और सवेदनकेद्र तीनो के लिये एक ही घट होता है तथा शरीर को धारण करनेवाला ढाँचा जो कुछ होता है ऊपर ही होता है। यह ढाँचा प्रायः आवरण के रूप मे होता है और कड़े पड़े हुए चमड़े के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। पर रीढ़वाले जंतुओं मे दो अलग अलग घट होते हैं। छोटे वा कपालघट में विज्ञानमय कोश का केद्र ( अर्थात् मस्तिष्क और मेरुरज्जु ) रहता है और मध्यघट मे पाचन और रक्तसंचार के करण ( यकृत, ऑत और हृदय ) होते हैं तथा शरीर को धारण करनेवाला ढाँचा कड़े अस्थिपजर के रूप मे भीतर होता है। इस ढाँचे का सब से विलक्षण भाग है रीढ़ या मेरुदंड। रीढ़ हड़ी की गुरियो की बनी होती हैं जो लचीले सूत्रदंड ( मेरुदंड के पूर्वरूप ) के अवशिष्ट से परस्पर जुड़ी रहती है। बनावट की इस विशेषता के कारण सारी रीढ़ आवश्यकतानुसार लच और मुड़ सकती है जिससे रीढ़वाले जंतुओ को चलने, फिरने, उछलने, कूदने में बड़ी आसानी होती है। मछलियो का झपटना, मेढको का कूदना,
साँपो का रेगना, हिरन का चौकड़ी भरना, शेर का उछलना देखने से यह बात ध्यान में आ सकती है। रीढ़वाले जंतुओ को सजीव हड्डियाँ होती है जिनके भीतर रक्त का संचार होता है। वे शरीर के कोमल भागो की रक्षा करती है। ढाँचे की इसी विशेषता के कारण ये विना रीढ़ के जतुओ से इतने बड़े चढ़े होते है। बहुखंड कीटो के समान इनका शरीर भी दो समान पाश्वर्वो( दहने और बाएँ) मे बँटा होता है और कई खंड के जोड़ से बना होता है। इनके शरीर के भी तीन विभाग होते है---सिर, वक्ष और उदर। पर चारी अंग ( हाथ पैर ) चार से अधिक नही होते अर्थात् उनका एक एक जोडा दोनों ओर होता है--चाहे वह मछली के मुख्य परो के रूप मे हो ( इन जोड़ेदार परो के अतिरिक्त मछली के और छोटे छोटे पर होते है जिनका कोई हिसाब नही होता ), चाहे चिड़ियों की टाँगो और डैनो के रूप मे, चाहे चौपायो के अगले और पिछले पैरो के रूप मे और चाहे मनुष्यो के हाथ पैर के रूप मे। इन सब जीवो के ढॉचे एक ही आदिम ढाँचे से क्रमश: उत्पन्न हुए हैं।
विकाश-परंपरा के अनुसार बिना रीढ़वाले जंतुओ से ही क्रमश रीढ़वाले जंतुओ की उत्पत्ति हुई है। पहले बिना रीढ़वाले और रीढ़वाले जंतुओं के बीच के जीव हुए होगे जिनके शरीर के भीतर कुछ कुछ पंजराभास प्रकट हुआ होगा। इस प्रकार के कुछ अवशिष्ट जीव अब तक पाए जाते हैं। समुद्र मे थैली के आकार का एक जंतु होता है जो चट्टानो पर चिमटा रहता है। इसके एक मुँह और एक उत्सर्ग छिद्र होता
है। मुँह के नीचे साँस लेने की थैली होती है जिसमें बहुत से छेद होते हैं। यह थैली नीचे उदराशय से मिली होती है।
( जिसमे अँतड़िया होती हैं) और झुक कर उत्सर्गद्वार तक गई होती है। भीतर खींचा हुआ पानी अम्लजन या प्राणदवायु शरीर मे पहुँचा कर इसी द्वार से निकल जाता है। हृदय एक लंबी नली के आकार का होता है और शरीरघट के पिछले भाग में स्थित होता है। इसका विज्ञानमय कोश एक संवेदनग्रंथि मात्र होता है जो मुहँ और उत्सर्गद्वार के बीच में रहती है। इस संवेदनग्रंथि की स्थिति से रीढ़वाले जंतुओं के साथ इसके संबध का पता लगता है। पर सब से बढ़ कर प्रमाण अडे से निकलने पर इसकी वृद्धि के क्रम की ओर ध्यान देने से मिलता है। अंडे से जो डिभकीट निकलता है वह मेढक के डिभकीट ( छुछमछली ) से बिल्कुल मिलता है। दोनों में उन चार विशेष अंगो का विधान होता है जो समस्त रीढ़वाले जंतुओं मे गर्भावस्था से लेकर किसी न किसी अवस्था मे पाए जाते है। चारो अंग ये है---(१) गला और गलफड़ो के छिद्र ( २ ) मेरुदंडाभास, जो एक चिकने सूत्रदंड की तरह का होता है और रीढ़ का पूर्व रूप है। ( ३ ) मस्तिष्क और मेरुरज्जु तथा ( ४ ) दर्शनेद्रिय जो मस्तिष्क के भीतर होती है। आँखवाले बिना रीढ़ के जंतुओ की दर्शनेद्रिय का सवेदनपटल ( प्रकाश ग्रहण करनेवाला भाग ) ऊपरी त्वक् से ही उत्पन्न होता है। डिभकीट अवस्था से आगे चल कर इस समुद्रजंतु और मेढक के डिभकीट एक दूसरे से भिन्न अवस्था को प्राप्त होते हैं। मेढ़क का डिंभकीट तो छुछमछली की
अवस्था से जलस्थलचारी जंतु हो जाता है, गलफड़ों के स्थान पर सांस लेने के लिये उसे फेफड़ा उत्पन्न हो जाता है, दुम उसकी गायब हो जाता है और चार पैर निकल आते हैं। अर्थात् जलचर मछली के रूप से जलस्थलचारी मेंढक के रूप में आने मे मेढक के प्राचीन पूर्वजो ने जिन अवस्थाओ को पार किया है मेढक के डिंभवृद्धिक्रम मे उनकी संक्षिप्त उद्धरिणी देखी जाती है। पर उक्त समुद्रजंतु का डिभकीट आगे चल कर भिन्न अवस्था को प्राप्त होता है। उसकी दुम, मेरुरज्जु संवेदनरञ्जु और आंख गायब हो जाती है, मस्तिष्क छोटा सा रह जाता है, गलफड़ों के छिद्र अधिक होजाते है, त्वक कड़ा हो जाता है और अंत में वह बिना हाथ पैर और आँख का थैली के आकार को जंतु होकर अचल पौधे की तरह किसी चट्टान आदि पर जम जाता है और वही पौधे की तरह पर उसका पोपण होता है।
थैली के आकार के समुद्री जन्तु से कुछ उन्नत कोटि का एक और जन्तु होता है जिसे अकरोटी मत्स्य ( बिना सिर की मछली ) कहते है। यह देखने में जोक की तरह का एक झलझलाता हुआ कीड़ा होता है जिसे सिर नहीं होता और आँख भी एकही होती है। इसके मुहँ पर खड़े खड़े सूत से होते है जिसके द्वारा यह खाद्यपूर्ण जल भीतर लेता है। यह जल मुहँ के नीचे चौड़ी गलनाल में जाकर प्राणदवायु प्रदान करता हुआ उत्सर्गद्वार से होकर निकल जाता है। कोई हृत्पिड न होने के कारण रक्त का संचालन नलियो के आकुंचन द्वारा होता है। इस जन्तु की गिनती रीढ़वाले प्राणियो मे की गई है क्योकि
इसे रीढ़ के स्थान पर एक सूत्रदंड होता है ज़िसके ऊपर यहाँ से वहाँ तक एक संवेदनसूत्र होता है जो मुहँ के पास जा कर कुछ निकला सा होता है। ऊपर थैली के आकार के जिस समुद्रजन्तु का उल्लेख हो चुका है उसकी सवेदनग्रन्थि यदि लंबी कर दी जाय तो इसके और उसके संवेदनविधान बिलकुल एक से हो जायँ। इससे सिद्ध होता है कि दोनो एक ही पूर्वज जन्तु से निकले है।
अब हम मछलियो को लेते है जो रीढ़वाले जन्तुओ के सब मे सादे ढॉचे की समझी जाती है। इनमे जो आदिम कोटि की होती है जैसे शार्क आदि उनके भीतर कड़ी हड्डियॉ नहीं होती। नरम हड्डी की रीढ़ होती है और पीठपर ढालदार खोलड़ी होती है जिस पर चौखूँटे उभरे हुए खाने कटे होते है। और मछलियो के भीतर कड़ी हडियो का ढाँचा होता है। मछलियो के साँस लेने के लिए फुप्फुस या फेफड़ा नहीं होता, वे गलफड़ो से साँस लेती है। मछलियों से ही विकाशपरंपरानुसार क्रमशः मेढक आदि जलस्थलचारी जन्तु उत्पन्न हुए है। जिस प्रकार बिना रीढ़वाले जन्तुओ और रीढ़वाले जन्तुओ के बीच के जन्तुओ के कुछ नमूने अब तक पाए जाते है उसी प्रकार जलचर मत्स्यो और जलस्थलचारी जन्तुओ के मध्यवर्ती जन्तु भी अब तक मिलते है। मछलियो का एक भेद होता है जो उभयश्वासी कहलाता है। उभयश्वासी मछलियों को साँस लेने के लिए गलफड़े भी होते है और एक हवा की थैली भी जो फेफड़े का काम देती है। इससे ये मछलियाँ पानी में भी साँस ले सकती हैं ( अर्थात् जल मे मिली हुई अम्लजन वा
प्राणदवायु ग्रहण कर सकती हैं) और पानी के बाहर जमीन पर भी। ऐसी दो मछलियाँ पाई गई हैं---एक दक्षिण अमेरिका मे और एक आस्ट्रेलिया मे। इन दोनों के पर नहीं होते, पर के स्थान पर चार लंबे लंबे अंकुर से होते हैं जिन्हें पैरो का पूर्वरूप समझना चाहिए। ये जमीन पर बहुत देर तक रह कर सॉस ले सकती हैं। हिदुस्तान की बाँग मछली भी बहुत देर तक पानी के बाहर रह सकती है।
इस प्रकार जलचारी और स्थलचारी जंतुओ के मध्यवर्ती उभयचारी जतुओ तक हम पहुँचते है जिनमे सब से अधिक ध्यान देने योग्य है मेढक। अंडे से फूटने पर मेढक का डिंभकीट मछली के रूप में आता है, जल ही मे रहता है, गलफड़े से-साँस लेता है और घासपात खाता है। उसे लंबी पूँछ होती है, पैर नहीं होते। फिर धीरे धीरे कायाकल्प करता हुआ वह उभयचारी जतु का रूप प्राप्त करता है और जालीदार पंजो से युक्त पैरवाला, फेफड़े से सॉस लेनेवाला, कीड़ेफतिगे खानेवाला मेढक हो जाता है। उन्नत कोटि के समस्त रीढ़वाले प्राणी फेफड़े से साँस लेते हैं जो, जैसा ऊपर दिखाया गया है, गलफड़ो का ही क्रमशः समुन्नत रूप है।
उभयचारी जंतुओं से ही विकाशपरंपरा द्वारा सरीसृपों की उत्पत्ति हुई है। इस सरीसृपवर्ग के अंतर्गत सॉप, छिपकली, गिरगिट, मगर, घड़ियाल इत्यादि बहुत से जंतु है। पृथ्वी के एक पूर्वकल्प मे इस वर्ग के बड़े बड़े भीमकाय जंतु होते थे। तीस तीस हाथ लंबी आरेदार छिपकलियाँ होती थीं जो हवा में उड़ती थी। धीरे धीरे पृथ्वी पर ऐसे परिवर्तन
होते गए जो उनकी स्थिति के प्रतिकूल थे। इस प्रकार क्रमशः उनका लोप हो गया। अब भूगर्भ के भीतर उनकी ठठरियाँ कभी कभी मिल जाती हैं।
पंजेवाले सरीसृपो से पक्षियों की उत्पत्ति हुई। दोनो मे ढाँचे की बहुत कुछ समानता अब तक है---जैसे दोनो मे रीढ़ के साथ खोपड़ी एक ही जोड़ से जुड़ी होती है (दो जोड़ों के द्वारा नही जैसा कि अधिकांश उभयचरो तथा सब रीढ़वाले जंतुओं मे होता है) और खोपड़ी के साथ जबड़े कुछ हड्डियो से इस प्रकार जुड़े रहते हैं कि वे बहुत अधिक खुल सकते है। पर इन समानताओ के होते हुए भी पक्षियो के ऊपरी और भीतरी ढाँचे में बहुत कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ते है जिनका विधान कई लाख वर्षों के बीच स्थिति के अनुसार क्रमशः होता गया है। सरीसृपो का तीन कोठो का हृदय पक्षियो से आ कर चार कोठो का हो गया जिससेशुद्ध ताजा रक्त शरीर में घूम कर लौटे हुए अशुद्ध रक्त से अलग रहने लगा और शरीर मे गरमी रहने लगी। सरिसृपो की केचुल या खोलड़ी और पक्षियो के पर दोनों ऊपरी त्वक् के विकार है। इसी प्रकार दूसरे जंतुओ के बाल, मुख और खुर भी त्वक् से ही उत्पन्न है, त्वक् के ही विकार है। इन्द्रियाँ भी ऊपरी त्वक् के ही विकार हैं। एक प्रकार के प्राणियो मे ही कुछ के ढाँचो मे किसके प्रभाव से ऐसी विशेषताएँ उत्पन्न होती गई कि उनसे नए नए ढाँचे के जीव उत्पन्न हुए? इसका सीधा उत्तर यही है कि बाह्य संपर्क के प्रभाव से। यह सोच कर आश्चर्य अवश्य होता है कि आदिम क्षुद्र अणुजीवों की सूक्ष्म झिल्ली से विज्ञानमय
कोशयुक्त उन्नत प्राणियो की कई परत की विचित्र त्वचा का प्रादुर्भाव हुआ। पर यह भी समझना चाहिये कि यह बात दो चार दिनो में तो हुई नहीं, कई लाख वर्षों के बीच लगातार प्रभाव पड़ते रहने से शनैः शनैः हुई है।
विकाशक्रम में सरीसृपो से आगे होने के कारण पक्षियो का मस्तिष्क बड़ा होता है। उनमे बुद्धि का विकाश सरीसृपो से कही अधिक देखा जाता है। उनमे दृष्टि का विस्तार मनुष्यों से कहीं अधिक होता है। स्मरणशक्ति भी उनकी मनुष्य से बहुत बढ़ चढ़ कर होती है। हजारो कोस समुद्र पार के देशो से होकर एक छोटी सी चिड़िया फिर उसी पेड़ वा झाड़ी पर आ जाती है जिस पर पिछले वर्ष उसने घोंसला बनाया था।
पक्षियो से अब हम स्तन्य वा दूध पिलानेवाले जीवो की ओर आते है। आदिम रूप के स्तन्य जन्तु पक्षियो से कई बातों मे मिलते जुलते हैं। एक तो उन्हे दाँत नही होते, दूसरे हृदय और आँतों आदि सब के लिए एक ही कोठा होता है। इस प्रकार के जन्तु अब तक दो ही पाए गए हैं और दोनो आस्ट्रेलिया मे, एक तो बत्तख़-घूँस जिसे बत्तख़ की तरह कड़ी, चौड़ी चोंच होती है और जिसके पंजो की उँगलियो के बीच झिल्लियाँ होती हैं; दूसरा चींटीखोर जो खरहे के इतना बड़ा होता है। ये दोनो जानवर अंडे देते है। अंडे से निकलने पर बच्चे माता का दूध पीकर पलते हैं। सरीसृपो, पक्षियों और स्तन्य जीवो के मध्यवर्ती इन जंतुओ के वर्ग को अंडज स्तन्य वर्ग कहते हैं। इस वर्ग से कुछ उन्नत वर्ग मे अजरायुज स्तन्य हुए जिनके दो नमूने अब तक मिलते हैं—आस्ट्रेलिया का
कँगारू और ओपोसम। ये यद्यपि पिंडज जंतु हैं पर इनके बच्चे पूरे बने हुए नहीं पैदा होते और बहुत दिनों तक माता उन्हे
अपने पेट मे बनी हुई एक थैली मे रखती है। बाहर निकल कर डोलते हुए बच्चे किसी प्रकार की आहट पाने पर झट थैली मे घुस जाते हैं।
तीसरा वर्ग जरायुजो का है जो सब से अधिक उन्नत है और जिसके अंतर्गत कुत्ते, बिल्ली, हाथी, घोड़े, बंदर, मनुष्य आदि हैं। इस वर्ग के जंतुओ मे जरायुज की विशेषता होती है जिसके द्वारा भ्रूण गर्भ मे ही बढ़ता और अपने आकार को पूर्ण करता है। इनके बच्चे सब अंगो से युक्त हिलते डोलते पैदा होते हैं। इन्ही जरायुजो की एक शाखा किम्पुरुष है जिसके अंतर्गत बन्दर, वनमानुस और मनुष्य है। बिना पूँछ के वनमानुसो से मिलते जुलते पूर्वजो से ही क्रमशः विकाश-परम्परा द्वारा मनुष्य का प्रादुर्भाव हुआ जो भूमंडल के प्राणियो मे सब से श्रेष्ठ है
संक्षेप में विकाश-सिद्धांत का यही सारांश है जिसे डारविन ने जीवन भर लगातार श्रम करके अनेक प्रमाणो के संग्रह के उपरांत प्रतिष्ठित किया। डारविन के पीछे अनेक वैज्ञानिको ने अपने नए नए अनुसंधानो द्वारा इस मत को पुष्ट किया। भूगर्भ के भीतर अतीत युगो के जीवो के पंजरो की जो खोज हुई उससे इस संबंध मे बहुत सहायता मिली। एक वर्ग और योनि के जीवो से दूसरे वर्ग और योनि के जीवो का विधान एकबारगी तो हुआ नहीं, क्रमशः लाखो पीढ़ियों मे जाकर हुआ है। किसी योनि के कुछ प्राणियो मे स्थिति के अनुरूप औरो से कुछ विशेषताएँ उत्पन्न हुई जो
पीढ़ी दर पीढ़ी चढ़ती गई यहाँ तक कि लाखों वर्षों की अखंड परपरा के उपरांत उनका कुल ही अलग हो गया। इससे यह प्रकट है कि किसी एक ढाँचे के जीव से जब कि दूसरे ढाँचे के जीव की उत्पत्ति हुई है तब ऐसे जीव भी अवश्य होने चाहिए जो दोनों के बीच के हों। ऐसे जीव कुछ तो अब तक वर्तमान हैं
और कुछ के पंजर भूर्गभ के भीतर पाए गए हैं। विकाशसिद्धांत के पहले लोगो का विश्वास था कि इस समय पृथ्वी पर जितने प्रकार के जीव हैं सब के सब सृष्टि के आदि मे एक साथ ही उत्पन्न किए गए। डारविन ने यह दिखा कर कि एकही प्रकार के आदिम क्षुद्र जीवों से क्रमशः नाना प्रकार के जीवों का विधान होता आया है स्थिर-योनि सिद्धात का पूर्णरूप से खंडन कर दिया।
सूक्ष्मातिसूक्ष्म आदिम अणुजीवों से उत्तरोत्तर उन्नत कोटि के जीवों की उत्पत्ति की जो परम्परा स्थूल रूप से ऊपर दिखाई गई है इसकी संक्षिप्त उद्धरणी प्रत्येक प्राणी के भ्रूण के वृद्धि-क्रम में देखी जाती है। जिस प्रकार सृष्टि के करोड़ों वर्षों के इतिहास में एक रूप के जीव से क्रमशः दूसरे रूप के जीव की उत्पत्ति होती आई है उसी प्रकार प्रत्येक जीव का भ्रूण गर्भ के भीतर या बाहर एक रूप से दूसरे रूप में तब तक आता रहता है जब तक उसका सारा ढाँचो अपने माता-पिता के अनुरुप नहीं हो जाता। कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी जंतु का भ्रूण समूचा शरीर बनने के पहले जिस क्रम से एक के उपरांत दूसरा रूप उत्तरोत्तर प्राप्त करता है वह प्रायः वही क्रम है जिस क्रम से पृथ्वी पर एक ढाँचे के जीव से
दूसरे ढाँचे के जीव उत्पन्न हुए हैं। मेढक को लीजिए जो उभयचारी ( जलस्थलचारी ) जीव है। पहले दिखाया जा चुका है कि जलचर मत्स्यो से क्रमशः उभयचर जन्तुओ की उत्पत्ति हुई है। अंडे से निकलने पर कुछ दिनो तक मेढक के बच्चे मछली के रूप मे रहते है, फिर मेढक के रूप मे आते है। पिंडवृद्धि का यह विधान मेढक मे गर्भ के बाहर होता है। इससे हम लोग देख सकते है। पर बड़े जीवो मे पिडवृद्धि का सारा विधान गर्भ के भीतर होता है---जिस क्रम से सृष्टि के बीच आदिम एकघटक अणुजीवो से आरंभ हो कर एक ढाँचे के जीव से दूसरे ढाँचे के जीव की उत्पत्ति हुई है उसी क्रम से गर्भस्थ पिंड एक रूप से दूसरा रूप तब तक उत्तरोत्तर प्राप्त करता जाता है जब तक वह उस जंतु का पूरा आकार प्राप्त नही कर लेता जिसका वह भ्रूण होता है। गर्भ-परीक्षा द्वारा यह बात देखी जा सकती है।
ऊपर कहा जा चुका है कि एकघटक अणुजीवो से बहुघटक जीवो की उत्पत्ति हुई। पहले अत्यंत क्षुद्र कोटि के जीवो मे सब घटक सब प्रकार के कर्म और संवेदन-व्यापार करते थे। पर क्रमशः कार्यविभाग द्वारा घटको मे विभिन्नता आती गई। कुछ घटक एक प्रकार के व्यापार करने लगे और कुछ दूसरे प्रकार के। इस प्रकार उनके ढाँचे भी एक दूसरे से भिन्न हुए। आंख के घटक, कान के घटक, नाक के घटक, नाड़ियों के घटक, आँतो के घटक, संवेदनसूत्रो के घटक, मस्तिष्क के घटक भिन्न भिन्न प्रकार के होते है। स्पंज आदि उत्यन्त क्षुद्र कोटि के जीवो मे स्त्री घटक और पुं० घटक एक ही प्राणी के
शरीर मे होते हैं। आगे चल कर जो उनसे उन्नत कोटि के जीव हुए उनमे नर और मादा अलग अलग हुए। नर मे पुं० घटक और मादा में स्त्री घटक रहते हैं। पुरुष के शुक्रकीटाणु और स्त्री के रजःकीटाणु इसी प्रकार के घटक है। शुक्रकीटाणु अत्यंत सूक्ष्म होते है। एक बूँद वीर्य मे लाखों होते है। ये पुछल्लेदार होते है। रजःकीटाणु इनसे बड़े होते है अर्थात् एक इंच के १२५ वे भाग के बराबर होते हैं। समुद्र में पाए जाने वाले पुछल्लेदार अणुजीवों का पहले वर्णन हो चुका है जो तरुणावस्था प्राप्त होने पर दो भिन्न प्रकार के पिडो में विभक्त हो जाते है एक पुं० कीटाणुचक्र और दूसरा गर्भाड। पुं० कीटाणु चक्र का प्रत्येक पुछल्लेदार कीटमनुष्य, कुत्ते, बिल्ली आदि के शुक्रकीटाणु से मिलता जुलता होता है। गर्भाड जल में छूट कर उसी प्रकार अचल रहता है जिस प्रकार प्राणियो के गर्भ के भीतर का रजःकीट या गर्भाड। जल के भीतर किस प्रकार कीटाणुचक्र के कीट और गर्भांड का संयोग होता है यह पहले दिखाया जा चुका है। बहुत से कीट जल में अपने पुछल्लो को लहराते हुए गर्भाड को जा घेरते है जिनमे से कोई एक गर्भांड के भीतर प्रवेश कर जाता है। यही गर्भांड का गर्भित होना कहा जाता है। जैसा संयोग उक्त अणुजीवो से बाहर होता है ठीक वैसा ही मनुष्य आदि प्राणियो में गर्भाशय के भीतर होता है। मनुष्य के ही गर्भ को लीजिए।
गर्भाशय के भीतर जब शुक्रकीटाणुगर्भाड मे प्रवेश कर जाता है तब दोनों मिलकर एक घटक हो जाते है जिसे अंकुरघटक कहते हैं। यह कललरसपूर्ण एक सूक्ष्म कणिका मात्र (एक
इंच के १२५ वे भाग के बराबर ) होता है। एकघटक अणुजीवों के समान इसकी वृद्धि भी विभाग द्वारा उत्तरोत्तर होती है। कुछ काल तक तो सब घटक एक गुच्छे के रूप में होते है, फिर सब बाहरी सतह पर आकर एक झिल्ली के रूप में मिल जाते हैं और भीतर खाली जगह पड़ जाती हैं। इस प्रकार एक झिल्ली का खोखला गोला सा बन जाता है। थोड़े ही दिनों में इस गोले की झिल्ली एक ओर से पचक कर धँसने लगती है जिससे दोहरी झिल्ली का एक कटोरा सा बन जाता है। इसको "द्विकल घट" कहते है जिससे क्रमश: सब अंगो और अवयवो का विधान होता है। बाहरी कला या झिल्ली से ऊपरी त्वक की और संवेदनसूत्रों से संघटित मनोविज्ञानमय कोश की रचना होती है और भीतरी झिल्ली से अत्रावाले आदि का प्रादुर्भाव होता है। द्विकलघट के भीतर के खाली स्थान को पेट का आदिम रूप समझना चाहिए और उसके सादे छिद्र को मुँह का। हैकल ने सूचित किया कि यही द्विकलघट सब बहुघटक प्राणियो को आदिम रूप है। इसी से विकाश परम्परानुसार सब बहुघटक प्राणियो की उत्पात्त हुई है। उन्होंने स्पंज आदि अब तक पाए जानेवाले द्विकलात्मक सादे जीवो की ओर ध्यान दिला कर अपने कथन की पुष्टि की।
इस पृथ्वी पर सादे द्विकलघट जीवो से क्रमशः एक दूसरे के उपरांत जिन जिन ढाँचो के जीव मनुष्य तक आनेवाली उत्पत्ति परंपरा मे उत्पन्न हुए है उन ढॉचो को गर्भ के भीतर गर्भपिड उत्तरोत्तर प्राप्त करता हुआ मनुष्य के रूप मे
आता है। मनुष्य रीढ़वाला जंतु है और रीढ़वाले जंतुओं में सब से आदिम और क्षुद्रकोटि की मछलियाँ हैं। अस्तु और रीढ़वाले जंतुओ के समान मनुष्य को विकाश भी जलचर पूर्वजों से क्रमशः हुआ है। इसी से आरंभ में मनुष्य के मूलपिंड मे भी जलचरो के समान गलफड़े होते हैं जो आगे चलकर ग़ायब हो जाते हैं। हृदय भी पहले पहल सुकड़ने फैलनेवाला एक सादा कोठा मात्र होता है जैसा कि क्षुद्र कीटो का होता है। पीठ की रीढ पूँछ के रूप मे दूर तक बढ़ी होती है। आगे चलकर जब हाथ पैर का ढाँचा तैयार होता है तब पहले पैर का अंगूठा लबा होता है और हाथ के अंँगूठे के समान इधर उधर सब उँगलियो पर उसी प्रकार जा सकता है जिस प्रकार बंदरों और वनमानुसो का। प्रसव के दो तीन महीने पहले हथेलियो और तलवो को छोड़ सारे शरीर मे रोएँ रहते हैं। गर्भ से बाहर आने पर भी बच्चे का सिर और अंगों के हिसाब से कुछ बड़ा होता है और हाथ भी कुछ लंवे होते हैं। नाक मे वॉसा ( बीचोबीचवाली ऊपर की हुड्डी ) न होने के कारण वह चिपटी होती हैं। ये सब लक्षण वनमानुसों के हैं। एक ढॉचे के जीव से दूसरे ढाँचे के जीव उत्पन्न होने की करोड़ो वर्ष की परम्परा की उद्धरणी नौ महीनों के भीतर इस प्रकार संक्षेप मे हो जाता है। गर्भविधान में किसी एक अवस्था मे पहुँचे हुए पिंड सब जीवो के समान होते हैं। यदि हम मनुष्य, कुत्ते और कछुवे के दो महीने के पिंड को लेकर देखें तो उनमे कुछ भी अंतर न पावेगे, उनका ढाँचा एक ही होगा।