विश्व प्रपंच
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: श्री लक्ष्मीनारायण प्रेस, पृष्ठ १७ से – २८ तक

 

दूसरा प्रकरण।

हमारा शरीर।

जीवो के समस्त व्यापारो और धर्मों के अन्वेषण के लिए हमे पहले शरीर को लेना चाहिए जिसमे जीवनसंबंधिनी भिन्न भिन्न क्रियाएँ देखी जाती हैं। शरीर के केवल बाहरी भागो की परीक्षा से हमारा काम नही चल सकता। हमे अपनी दृष्टि भीतर धँसा कर शरीर-रचना के साधारण विधानो तथा सूक्ष्म व्योरो की जाँच करनी चाहिए। जो विद्या इस प्रकार का मूल अन्वेषण करती हैं उसे अगविच्छेदशास्त्र * कहते है।

मनुष्य के शरीर की जाँच का काम पहले पहल चिकित्सा मे पडा, अत तीन चार हज़ार वर्ष पहले के प्राचीन चिकित्सको को मनुष्य के शरीर के विषय मे कुछ न कुछ जानकारी हो गई थी। पर ये प्राचीन शरीरविज्ञानी अपना ज्ञान मनुष्य के शरीर की चीरफाड द्वारा नहीं प्राप्त करते थे, क्योकि तत्कालीन व्यवस्था के अनुसार मनुष्य का शरीर चीरना फाड़ना बडा भारी अपराध गिना जाता था। बंदर आदि मनुष्य से मिलते जुलते जीवो के शरीर की चीरफाड़ द्वारा ही वे शरीर-सबधिनी बात का पता लगाते थे। सन् १५४३ मे विसेलियस


  • वह विद्या जिससे गरीर के भिन्न भिन्न भीतरी अवयवो के स्थान और उनकी बनावट का बोध होती है। इसमें चीरफाड कर अगों की परीक्षा की जाती है इससे इसे अगविच्छेदशास्त्र कहते हैं।
    ने मनुष्य-शरीररचना पर एक बड़ी पुस्तक लिखी और शरीर विज्ञान की नींव डाली। स्पेन मे उसपर जादूगर होने का अपराध लगाया गया और उसे प्राणदंण की आज्ञा मिली। अपना प्राण बचाने के लिए वह ईसा की जन्मभूमि यरूशलम तीर्थ करने चला गया, वहाँ से वह फिर न लौटा।

उन्नीसवीं शताब्दी मे यह विशेषता हुई कि शरीर की बनावट की छानबीन के लिए दो प्रकार की परीक्षाएँ स्थापित हुई। तारतम्यिक अराविच्छेद-विज्ञान और शरीराणु विज्ञान। तारतम्यिक अंगविच्छेद-विज्ञान की स्थापना सन् १८०३ मे हुई जब कि फरासीसी जंतुविद् क्यूवियर ने अपना वृहद् ग्रंथ प्रकाशित करके पहले पहल मनुष्य और पशु-शरीर-संबधी कुछ सामान्य नियम स्थिर किए। उसने समस्त जीवो को चार प्रधान भागो में विभक्त किया---मेरुदंड या रीढ़वाले जीव, कीटवर्ग ( मकड़ी, केकडे, विच्छू, गुबरैले आदि ), शुक्तिवर्ग ( घोघे अदि ) और उद्भिदाकार कृमि। यह बड़ा भारी काम हुआ क्योकि इससे मनुष्य रीढ़वाले जीव की कोटि मे रक्खा गया। इसके उपरांत अनेक शरीरावज्ञानियो ने इस विद्या मे बहुत उन्नति की और अनेक नई नई बात का पता


  • भिन्न भिन्न जंतुओ के अगों को चीरफाड कर उनकी परीक्षा और उनका परस्पर मिलान।
  • -बहुत से ऐसे जीव होते हैं जो देखने मे पौधों की डाल पत्तियो के रूप के होते हैं। मूँगा इसी प्रकार का कृमि है जो समुद्र मे पाया जाता है।
    लगाया। जर्मनी के कार्ड जिजिनवावर ने तारतम्यिक शरीर विज्ञान पर डारविन के विकासवाद के नियमो को घटा कर इस शास्त्र की मर्यादा बहुत बढ़ा दी। उसके पिछले ग्रंथ "मेरुदंड जीवो की तारतम्यिक अंगविच्छेद परीक्षा" के आधार पर ही मनुष्य मे मेरुदड जीवों के सब लक्षण निर्धारित किए गए।

शरीराणु-विज्ञान का प्रादुर्भाव एक दूसरी ही-रीति से हुआ। सन् १८०२ मे एक फरासीसी बैज्ञानिक ने मनुष्य के अवयवो के सूक्ष्म विधान का खुर्दबीन द्वारा विश्लेषण करने का प्रयत्न किया। उसने शरीर के सूक्ष्म तंतुओं के संबंध को देखना चाहा पर उसे कुछ सफलता न हुई क्योकि वह ससस्त जतुओ के उस एक समवाय कारण से अनभिज्ञ था जिसका पता पीछे से चला। सन् १८३८ मे श्लेडेन (Schleiden ) ने उद्गिद् सृष्टि मे समवाय रूप घटक का पता पाया जो पीछे से जतुओ मे भी देखा गया। इस प्रकार घटकवाद की स्थापना हुई। सन् १८६० मे कालिकर (Kollikar) और विरशो (Vichow) ने घटक तथा तंतु जाल संबंधी सिद्धांतो को मनुष्य के एक एक अवयव पर घटाया। इससे यह भली भॉति सिद्ध हो गया कि मनुष्य तथा और सब जीवों का शरीरतंतुजाल अत्यंत सूक्ष्म (खुर्दबीन से भी जल्दी न दिखाई देनेवाले ) घदको से बना है। ये ही घटक वे स्वतः क्रियमाण जीव है जो करोड़ो की संख्या मे व्यवस्थापूर्वक बस कर शरीररूपी विशाल राज्य की योजना करते हैं। इन्हींकी बस्ती या समवाय को शरीर कहते हैं। ये सब के सब
घटक एक साधारण घटक से जिसे गर्भाडे कहते हैं उत्तरोत्तर विभागक्रम द्वारा उत्पन्न होते हैं। मनुष्य तथा और दूसरे रीढ़वाले जीवो की शरीररचना और योजना एक ही प्रकार की होती है। इन्हीं में स्तन्य था दूध पिलानेवाले जीव है जिनकी उत्पत्ति पीछे हुई है और जो अपनी उन विशेषताओ के कारण जो पीछे से उत्पन्न हुई सब से उन्नते और बढ़े चढ़े है।

कालिकर के सूक्ष्मदर्शक यंत्रो के अन्वेपण द्वारा हमारा मनुष्य और पशुशरीरसंबंधी ज्ञान बहुत बढ़ गया और हमे घटको और तंतुओ के विकाशक्रम का बहुत कुछ पता चल गया। इस प्रकार सिवोल्ड (१८४५) के उस सिद्धांत की पुष्टि हो गई कि सब से निम्न श्रेणी के कीटाणु एकघटक (जिसका शरीर एक घटक मात्र है ) जवि है।

हमारा शरीर, उसके ढाँचे का सारा व्योरा, यदि देखा जाय तो उसमे रीढ़वाले जीवो के सब लक्षण पाए जायँगे। जीवों के इस उन्नत वर्ग का निर्धारण पहले पहल लामार्क ने १८०१ मे किया। इसके अंतर्गत उसने रीढ़वाले जीवो को चार बड़े कुलो मे वॉटा-दूध पिलानेवाले, पक्षी, जलस्थलचारी, और मत्स्य। बिना रीढ़वाले कीड़े मकोडो के उसने दो विभाग किए। इसमें कोई संदेह नहीं कि सारे रीढ़वाले जीव हर एक बात मे परस्पर मिलते जुलते है। सब के शरीर के भीतर एक कडा ढॉचा


  • इन जीवो को पानी मे सॉस लेने के लिए गलफड़े ( जैसे मछलियों के ) और बाहर सॉस लेने के लिए फेफड़े दोनों होते है। इससे वे जल में भी और स्थल पर भी रह सकते है। 
    अर्थात् तरुणास्थियो और हड्डियों का पंजर होता है। इस पंजर मे मेरुदंड और कपाल प्रधान हैं। यद्यपि कपाल की उन्नत रचना मे छोटे से बड़े जीवों मे उत्तरोत्तर कुछ भेद दिखाई पड़ता है पर ढॉचा एक ही सा रहता है। समस्त रीढ़वाले प्राणियो मे 'अंत करण' अर्थात् संवेदलवाहक सूत्रजाल का केद्रस्वरूप मस्तिष्क इस मेरुदंड के छोर पर होता है। यद्यपि उन्नति की श्रेणी के अनुसार भिन्न भिन्न जीवो के मस्तिष्क मे बहुत कुछ विभिन्नताएँ दिखाई पड़ती है पर सामान्य लक्षण सब मे वही रहता है।

इसी प्रकार यदि हम अपने शरीर के और अवयवो का दूसरे रीढवाले जीवो क उन्हीं अवयवो से मिलान करे तो भी यही बात देखी जायगी। पितृपरंपरा के कारण सब के शरीर का मूल ढाँचा और उसके अवयवो के विभाग समान पाए जाते है, यद्यपि स्थितिभेद के अनुसार भिन्नभिन्नजन्तुओ के विशेष विशेष अगो की बड़ाई छोटाई तथा बनावट मे फर्क देखा जाता है। सब मे रक्त दो प्रधान नलो से होकर बहता है जिनमे से एक अँतड़ियो के ऊपर ऊपर जाता है और दूसरा नाचे नीचे। यही दूसरा नल जिस स्थान पर चौड़ा हो जाता है वही हृदय है। हृदय रीढ़वाले जीवो मे पेट की ओर होता है और कीटपतंग आदि मे पीठ की ओर। इसी प्रकार और और अगो की बनावट भी सब रीढ़वाले जीवो की एक सी होती है। अस्तु, मनुष्य एक रीढ़वाला जीव है।

प्राचीन लोग मनुष्य और पक्षियो के अतिरिक्त तिर्यक पशुओं ( गाय, कुत्ते आदि) को चतुष्पद कहते थे। क्यूवियर ने पहले पहल यह स्थिर किया कि द्विपाद मनुष्य और पक्षी
भी वास्तव में चतुष्पद ही है। उसने अच्छी तरह दिखलाया कि मेढक से लेकर मनुष्य तक समस्त स्थलचारी उन्नत रीढ़वाले जीवो के चार पैरो की रचना एक ही नमूने पर कुछ विशेष अवयवा से हुई है। मनुष्य के हाथो और चमगादर के डैनो की ठटरी का ढॉचा वैसा ही होता है जैसा कि चौपायों के अगले पैर का। यदि हम किसी मेढक की ठटरी लेकर मनुष्य या बंदर की ठटरी से मिलावे तो इस बात का ठीक ठीक निश्चय हो सकता है। सन् १८६४ मे जिजिनबाबर ने यह दिखलाया कि किस प्रकार स्थलचारी मनुष्यो का पाँच उंगलियोवाला पैर आदि मे प्राचीन मछलियो के इधर उधर निकले हुए परों ही से क्रमशः उत्पन्न हुआ है। अस्तु, मनुष्य एक चतुष्पद् जीव है।

रीढ़वाले जानवरो में दूध पिलानेवाले सब से उन्नत और पीछे के है। पक्षियो और सरीसृपो के समान निकले तो ये भी प्राचीन जलस्थलचारी जंतुओ ही से है पर इनके अवयवो मे बहुत सी विशेषताएं है। बाहर इनके शरीर पर रोएँदार चमड़ा होता है। इनमे दो प्रकार की चर्मग्रंथिया होती है—--एक स्वेदग्रंथि दूसरी मेदग्रंथि। उदराशय के चर्म में एक विशेष स्थान पर इन ग्रंथियो की वृद्धि से उस अवयव की उत्पत्ति होती है जिसे स्तन कहते है और जिसके कारण इस वर्ग के प्राणी स्तन्य कहलाते है। दूध पिलाने का यह अवयव दुग्धग्रंथियो और स्तनकोश से बना होता है। वृद्धि प्राप्त होने पर चूचुक ( ढिपनी ) निकलते हैं जिनसे बच्चा दूध खीचता है। भीतरी रचना मे एक अंतरपट ( मांस की
झिल्ली और नसों का बना हुआ परदा ) की विशेषता होती है जो उदराशय को वक्षआशय से जुदा करता है। दूसरे रीढ़वाले जानवरों में यह परदा नही होता, वह केवल दूध पिलानेवालों में होता है। इसी प्रकार मस्तिष्क, घ्राणेंद्रिय, फुप्फुस, बाह्य और आभ्यंतर जननेद्रिय आदि की बनावट में भी बहुत सी विशेषताएँ दूध पिलानेवाले जीवो में होती हैं। इन सब पर ध्यान देने से यह पता चलता है कि दूध पिलानेवाले जीव सरीसृपों और जलस्थलचारी जीवों से उत्पन्न हुए। यह बात कम से कम १२०००००० वर्ष पहले हुई होगी। अस्तु मनुष्य एक दूध पिलानेवाला स्तन्य जीव है।

आधुनिक जंतु विज्ञान मे स्तन्य जीवो के भी तीन भेद किए गए हैं---अडंजस्तन्य, अजरायुज पिंडज (थैलीवाले)


  • इन वर्ग के जीवो में एक ही कोठा होता है जिसमे मलवाहक सूत्रवाहक और वीर्यवाहक नले गिरते है। मादा चिडियो की तरह अडे भी देती हैं और स्तन्य जीवो तरह दूध भी पिलाती है। इस प्रकार के दो एक जानवर आस्ट्रेलिया में पाए जाते हैं। एक बत्तख घूस होंती है जिसका सब आकार घूँस की तरह होता है पर मुँह बत्तख की चोच की तरह का और पने बतख के पंजों की तरह के होते है। इसी प्रकार के साही भी होती है। ये पक्षियों और स्तन्य जीवों के बीच के जंतु है।

इस वर्ग के जीव भी आस्ट्रेलिया तथा उसके आसपास के द्वीप में पाए जाते हैं। इनके गर्भ मे जरायु नहीं होता जिससे गर्भ के भीतर बच्चों का पोषण होता है, अतः बच्चे अच्छी तरह बनने
और जरायुज। ये तीनों सृष्टि के भिन्न भिन्न युगो मे क्रमश उत्पन्न हुए है। मनुष्य जरायुज जीवो के अंतर्गत है क्योकि उसमे वे सब विशेषताएं है जो जरायुजो मे होती है। पहली वस्तु तो वह है जिसे जरायु कहते है और जिसके कारण जरायुज नाम पड़ा है। इसके द्वारा गर्भ के भीतर शिशु का बहुत दिनो तक पोषण होता है। यह गर्भ को आवृत करनेवाली झिल्ली से नल के रूप मे निकल कर माता के गर्भाशय की दीवार से संयुक्त रहता है। इसकी बनावट इस प्रकार की होती है कि माता के रक्त का पोषक द्रव्य शिशु के रक्त मे जाकर मिलता रहता है। गर्भपोषण


के पहले ही उत्पन्न हो जाते है और मादा उन्हे बहुत दिनो तक पेट के पास बनी थैली मे लिए फिरती है। कगारू नाम का जतु इसी वर्ग की है।

  • जरायु के द्वारा ही भ्रूण माता के गर्भाशय से सयुक्त रहता है। यह गोल चक्र या तश्तरी के आकार का और स्पज की तरह छिद्रमय होता है। मुख की ओर तो यह माता के गर्भाशय की दीवार से जुड़ा रहता है, पृष्ठ की ओर इसमे से एक लबा नाल निकल कर भ्रूण की नाभि तक गया रहता है। जरायुचक्र में बहुत से सूक्ष्म घट या उभरे हुए छिद्र रहते है जो र्गभाशय की दीवार के छिद्रों मे घुसे होते है। इसी के द्वारा भ्रूण के शरीर मे रक्त सचार, पोषक द्रव्यो का समावेश और श्वासविधान होता है। जरायु या उत्वनाल केवल पिडजो अर्थात् सजीव डिंभ प्रसव करनेवाले जीवों में ही होता है, अडजो आदि मे नहीं।
    की इस विलक्षण युक्ति के बल से शिशु को गर्भ के भीतर बहुत दिनो तक रह कर वृद्धि प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यह बात बिना जरायु के गर्भ मे नही पाई जाती। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क की उन्नत रचना आदि के कारण भी जरायुज जीव अपने पूर्वज अजरायुज जीवों की अपेक्षा बढे चढ़े होते हैं। अस्तु मनुष्य एक जरायुज जीव है।

जरायुज जीव भी अनेक शाखाओ मे विभक्त किए गए है जिनसे से चार प्रधान हैं---छेद्ददत ( कुतरनवाले ), खुरपाद, सांसभक्षि और किंपुरुष। इसी किंपुरुष शाखा के अंतर्गत बंदर वनमानुस और सनुरुय है। इन तीन मे दूसरे जरायुज जीवों से बहुत सी विशेताएँ समानरूप से पाई जाती हैं। तीनो के शरीर मे लंबी लंबी हड्डिया होती हैं जो इनके शाखाचारी जीवन के अनुकूल हैं। इनके हाथों और पैरो मे पॉच पॉच उँगलिया होती हैं। लबी लंबी उँगलियाँ पेड़ो की शाखाओ को पकड़ने के उपयुक्त होती हैं। नख चौड़े होते हैं टेढ़े नुकीले नही। तीनो की दंतावली पूर्ण होती है अर्थात इन्हें चारो प्रकार के दाँत होते है---छेदनदंत, कुकुरदंत, अग्रदंत और चर्वणदंत (चौभर)। किंपुरुष शाखा के प्राणियो के कपाल और मस्तिष्क की रचना में भी विशेषता होती है। इन प्राणियो मे जो काले पाकर अधिक उन्नत हो गए है और जिनका प्रादुर्भाव इस पृथ्वी पर पीछे हुआ है विशेषता अधिक


  • जैसे चूहे, गिलहरी, खरगोश, गाय, बकरी, हिरन आदि भेड़िया, बाय इत्यादि।
    होती गई है। सारांश यह कि मनुष्यशरीर मे भी किंपुरुष शाखा के सब लक्षण विद्यमान है। अस्तु, मनुष्य किंपुरुष शाखा का एक जीव है।

ध्यानपूर्वक देखने से इस किपुरूषशाखा के भी दो भेद हो जाते है---एक बंदर दूसरे पूरे वनमानुस। बंदर निम्नश्रेणी के और पहले के है, वनमानुस अधिक उन्नत और पीछे के हैं। बदर की माता का गर्भाशय और दूसरे स्तन्य जीवो की तरह दोहरा होता है। इसके विरुद्ध पूरे वनमानुस के दहिने और बाएँ दोनो गर्भाशय मिले होते है और इस मिले हुए गर्भाशय का आकार वैसा ही होता है जैसा मनुष्य के गर्भाशय का। नर-कपाल के समान वनमानुस के कपाल मे भी नेत्रो के गोलक कनपटी के गड्डो से हड्डी के एक परदे के द्वारा विच्छिन्न होते है। पर साधारण बंदरो मे या तो यह परदा बिलकुल नही होता अथवा अपर्ण रूप मे होता है। इसके अतिरिक्त बंदर का मस्तिष्क या तो बिलकुल समतल होता है अथवा बहुत थोडा खुरदुरा या ऊँचा नीचा होता है और कुछ छोटा भी होता है। बनमानुस का मस्तिष्क बडा, उसके तले की रचना अधिक जटिल होती है। जितना ही जा वनमानुस मनुष्य के अधिक निकट तक पहुँचा हुआ होता है उसके मस्तिष्क के तल मे उतने ही अधिक उभार (अखरोट की गिरी के समान) होते है। अस्तु, मनुष्य मे वनमानुस के सब लक्षण पाए जाते है।

वनमानुसो के दो विलक्षण विभाग देश के अनुसार किए गए हैं। पश्चिमी गोलार्ध या अमेरिका के बनमानुस
चिपटी नाकवाले कहलाते है और पूर्वीयगोलार्ध या पुरानी दुनिया के पतली नाकवाले। चिपटी नाकवाले वनमानुसो का वंश इधर के पतली नाकवाले वनमानुसो से बिलकुल अलग चला है। वे पुरानी दुनिया ( एशिया, अफ्रिका ) के वनमानुसो की अपेक्षा अनुन्नत हैं। अत मनुष्य एशिया और अफ्रिका के पतली नाकवाले वनमानुसो ही की किसी अप्राप्य श्रेणी से उद्भूत हुए हैं।

एशिया और अफ्रिका में अब तक पाए जानेवाले पतली नाकवाले वनमानुसो के भी दो भेद है, पूंछवाले वनमानुस और बिना पूँछवाले नराकार वनमानुस। बिना पूछवाले मनुष्य जाति से अधिक समानता रखते है। नराकार वनमानुसो के पुट्टे की रीढ़ पॉच कशेरुकाओ के मेल से बनी होती है और पूँछवाले वनमानुसो की तीन कशेरुकाओ के मेल से। दोनो के दाँतो की बनावट मे भी अंतर होता है। सब से बढ़ कर बात तो यह है कि यदि हम गर्भाशय की झिल्ली तथा जरायुज आदि की वनावट की ओर ध्यान देते है तो नरकार वनमानुस मे भी वेही विशेपताएँ पाई जाती है जो मनुष्य मे। एशियाखंड के ओरंगओटंग और गिबन तथा अफ्रिका के गोरिल्ला और चिपाजी नामक वनमानुस मनुष्य से सब से अधिक समानता रखते हैं। अस्तु, मनुष्य और वनमानुस का निकट संबध अब अच्छी तरह सिद्ध हो गया है।

इस बात के प्रमाण में अब कोई संदेह नही रह गया है कि मनुष्य और वनमानुस के शरीर का ढाँचा एक ही है।
दोनो की ठटरियो में वे ही २०० हड्डियाँ समान क्रम से बैठाई हैं, दोनो मे उन्ही ३०० पेशियो की क्रिया से गति उत्पन्न होती है, दोनो की त्वचा पर रोएँ होते हैं, दोनो के मस्तिष्क उन्ही संवेदनात्मक तंतुग्रंथियो के योग से बने हुए होते हैं, वही चार कोठो का हृदय दानो मे रक्तसंचार का स्पंदन उत्पन्न करता है, दोनों के मुँह मे ३२ दाँत उसी क्रम से होते है, दोनो मे पाचन प्ठीवन ग्रथि, * यकृद्ग्रथि और क्लोमग्रंथि की क्रिया से होता है, उन्ही जननेन्द्रियों से दोनो के वंश की वृद्धि होती है। यह ठीक है कि डीलडौल तथा अवयवो की छोटाई बड़ाई मे दोनो मे कुछ भेद देखा जाता है पर इस प्रकार का भेद ता मनुष्यो की ही समुन्नत और बर्बर जातियो के बीच परस्पर देखा जाता है, यहाँ तक कि एक ही जाति के मनुष्यो मे भी कुछ न कुछ भेद हेाता है। कोई दो मनुष्य ऐसे नही मिल सकते जिनके ओठ, आँख, नाक कान आदि बराबर और एक से हो। और जाने दीजिए दो भाइयो की आकृति मे इतना भेद होता है कि जल्दी विश्वास नही होता कि वे एक ही मातापिता से उत्पन्न है। पर इन व्यक्तिगत भदो से रचना के मूल सादृश्य के विषय मे कोई व्याघात नही होता।


  • अत्यंत सूक्ष्म छोटे छोटे दाने जिनसे थूँक निकलता है।
  • आमाशय की त्वचा पर के सूक्ष्म दाने जिनसे पित्त के समान एक प्रकार का अम्ल रस निकलता है जो भोजन के साथ मिलकर उसे पचाता है।

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