विश्व प्रपंच/छठा प्रकरण
छठाँ प्रकरण।
आत्मा का स्वरूप।
'आत्मा की क्रिया' या मानसिक व्यापार * से जिन व्यापारो को ग्रहण होता है वे जिस प्रकार अत्यंत कौतूहलप्रद और महत्व के है उसी प्रकार अत्यंत जटिल और दुर्बोध है। प्रकृति का परिज्ञान आत्मा के व्यापार का ही अंग है और इस व्यापार की यथार्थता पर ही जंतुविज्ञान, सष्टिविज्ञान आदि अवलंबित हैं इस लिए यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान ( आत्मा के व्यापारी को बोध करानेवाला शास्त्र ) और सब विज्ञानों का आधारस्वरूप है या यो कहिए कि वह दर्शन, शरीरविज्ञान, जंतुविज्ञान, अदि का अंग ही है।
मनोविज्ञान के सिद्धांतो के वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादन मे बड़ी भारी अड़चन यह पड़ती है वह बिना शरीर के भीतरी अवयवो, विशेष कर मस्तिष्क, का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त किए ठीक ठीक हो नही सकता। पर अधिकांश मनोविज्ञानी आत्मा के व्यापारो के विधायक अवयवो का बहुत कम परिज्ञान रखते
- यद्यपि न्याय और वैशेषिक ने आत्मा के जो लक्षण कहे हैं वे मानसिक व्यापारों से भिन्न नहीं जान पड़ते पर शेष दर्शनो के समान उन्होंने भी अतःकरण या मन से आत्मा को भिन्न माना है। हैकल ने आधिभौतिक दृष्टि से अतःकरण को ही आत्मा माना है।
हैं। इसीसे दर्शन और मनोविज्ञान में जितना मतभेद देखा ज्ञाता है उतना और किसी विज्ञान में नहीं।
जिसे आत्मा कहते हैं वह, भेरी समझ में, एक प्राकृतिक व्यापार मात्र है। अतः मनोविज्ञान को मैं आधिभौतिक शास्त्रों की ही एक शाखा और शरीरविज्ञान का ही एक अंग समझता हूँ। मैं इस बात को जोर दे कर कहता हूँ कि इस विज्ञान के तत्वों का अन्वेषण भी उन्हीं प्रणालियों से हो सकता है जिन प्रणालियों और विज्ञान के तत्त्वों का हो सकता है। पहले तो हमें प्रत्यक्षानुभव से परीक्षा करनी चाहिए. फिर विकाशसिद्धांत का आरोप करना चाहिए। इसके उपरांत शुद्ध तर्क के आधार पर चिंतन करना चाहिए। मनोविज्ञान के संबंध में पहले द्वैत और तृत्त्वाद्वैत सिद्धांतों का थोड़ा वर्णन कर देना आवश्यक है।
मानसिक व्यापार के संबंध में साधारण विश्वास जिसका हमें खंडन करना है, यह है कि शरीर और आत्मा पृथक् पृथक् सत्ताएँ हैं। ये दोनों सत्ताएँ एक दूसरे से सर्वथा पृथक् पृथक् रह सकती हैं, यह आवश्यक नहीं कि दोनों संयुक्त ही रहें। यह सावयव शरीर नश्वर और भौतिक है अर्थात् कललरस तथा इसके विकारों के रासायनिक यौग से संघटित है। पर आत्मा अमर तथा भूतों से परे एक ऐसी स्वतंत्र सत्ता है जिसके गूढ़ व्यापार बोधगम्य नहीं हैं। यह मत आध्यात्मिक पक्ष का है, इसके विरद्ध जो मत है वह आधिभौतिक पक्ष का कहा जा सका है। यह आध्यात्मिक मत सर्वातीतवादी है क्योंकि यह ऐसी शक्तियों का अस्तित्व मानता है जो बिना भौतिक
आश्रय के काम करती हैं। इसके अनुसार प्रकृति से परे और बाह्य एक अभौतिक आध्यात्मिक जगत् है जिसका हमे कुछ भी अनुभव नहीं और जिसका कुछ भी ज्ञान हम भौतिक परीक्षाओ द्वारा नही प्राप्त कर सकते।
यह 'आध्यात्मिक जगत्,' जो भूतात्मक जगत् से सर्वथा स्वतंत्र माना गया है और जिसके अधार पर द्वैतवाद खड़ा किया गया है, कवि-कल्पना मात्र है। यही बात 'आत्मा के अमरत्व' सबंधी विश्वास के विषय मे भी कही जा सकती है जिसकी असारता आगे चल कर दिखाई जायगी। यदि अध्यात्मवादियो के विश्वास का कोई दृढ़ आधार होता तो मानसिक व्यापार प्रकृति या परमतत्व के नियमाधीन न होते। दूसरी बात यह कि प्रकृति के नियम-बंधनो से मुक्त सत्ता यदि मानी जाय तो यह आवश्यक है कि वह सृष्टि के पिछले कल्प मे ही प्रकट हुई होगी जब कि मनुष्य आदि उन्नत जीवो का प्रादुर्भाव हो चुका होगा, क्योकि भूतो से परे आत्मा की धारणा मनुष्य आदि के मानसिक व्यापारो को देख कर ही हुई है। * आत्मा की इच्छा किसी प्रकार के नियमो से बद्ध नहीं है, सर्वथा स्वतंत्र है, यह मत भी भ्रांत है।
हमारे प्राकृतिक निरूपण के अनुसार आत्मा की क्रिया द्रव्यशक्ति-संभूत ऐसे व्यापारो का संघात है जो और
- भारतीय तत्ववेत्ताओ ने मनुष्य से लेकर कीटपतग तक मे आत्मा को माना है। डेकार्ट आदि कुछ पाश्चात्य दार्शनिको ने मनुष्य में ही 'आत्मा' मानी है,पश्वादिको मे नहीं।
प्राकृतिक व्यापारी के समान एक विशिष्ट भौतिक आधार पर अवलंबित है। ससस्त मनोव्यापारो के इस आधारभूत द्रव्य को हम मनोरस कहेगे। कारण यह है कि रासायनिक विश्लेषण के द्वारा परीक्षा करने पर यह उसी कोटि का द्रव्य ठहरता है जिस कोटि के द्रव्य कललरस * विशिष्ट कहलाते है। ये द्रव्य अंडसाररस और अंगारक के रासायनिक संयोग से बनते है और समस्त चेतन व्यापारो के मूल है। उन्नत जीवो मे जिन्हे संवेदनसूत्रजाल और अनुभवात्सक इंद्रियाँ होती हैं उपर्युक्त मनोरस से ही संवेदनसूत्ररस अर्थात् संवेदनसूत्र निर्मित करनेवाली धातु का विधान होता है। इस विषय मे हमारा यह निरूपण भौतिक है। इसे प्राकृतिक और परीक्षात्मक भी कह सकते है क्योकि विज्ञान ने अभी तक किसी
- कललरस ( Protoplasm ) एक चिपचिपा कुछ दानेदार पदार्थ है जो जीवन का मूल द्रव्य समझा जाता है। प्राणियो और उद्भिदो के सूक्ष्म घटक इसीके होते है। आहारग्रहण, वृद्धि, स्वेच्छा गति, सवेदन आदि व्यापार इसमे पाए जाते हैं। रासायनिक विश्लेपण द्वारा यह कललरस आक्सिजन, हाइड्रोजिन, नाइट्रोजन और कारबन के विलक्षण अण्वात्मक योग से सघटित पाया जाता है। जल और लवण का भी इसमे मेल रहता है। पर सयोजक मूल द्रव्यो को जान लेने पर भी मनुष्य कललरस नहीं बना सका है।
एक गाढा चिपचिपा पदार्थ जो अडॉ की नर्दी, जीवो के रक्त आदि मे रहता है। यह आक्सिजन, कारबन, नाइट्रोजन और हाइड्रोजन और कुछ गधक के मेल से बना होता है।
ऐसी शक्ति का अस्तित्व नही प्रतिपादित किया है जिसका कुछ भौतिक आधार न हो। प्रकृति से परे किसी आध्यात्मिक जगत् का पता नहीं लगा है।
और प्राकृतिक व्यापारो के समान मनोव्यापार (या आत्मव्यापार) भी परमतत्त्व या मूलप्रकृति के अटल और सर्वव्यापक नियम के अधीन है। एकघटक अणुजीवो तथा दूसरे अत्यंत क्षुद्रकोटि के जीवो मे जो मनोव्यापार देखे जाते है-जैसे उनका संक्षोभ, उनकी संवेदना, उनकी प्रतिक्रिया*, उनकी आत्मरक्षण प्रवृत्ति इत्यादि-वे घटक के भीतर के कललरस की क्रिया के अनुसार अर्थात् वंशपरंपरा और स्थितिसामंजस्य द्वारा उपस्थित भौतिक और रासायनिक विकारों के अनुसार ही होते है। यही बात मनुष्य तथा दूसरे उन्नत प्राणियों के उन्नत मनोव्यापारो के
- क्षुद्र जीवो के शरीर पर बाहरी संपर्क या उत्तेजन से उत्पन्न क्षोभ प्रवाह के रूप मे कललरस के अणुओ द्वारा भीतर कद्र मे पहुँचता है और वहाँ से प्रेरणा के रूप मे बाहर की ओर पलट कर शरीर में गति उत्पन्न करता है। वस्तु-सपर्क के प्रति यह एक प्रकार की अचेतन क्रिया है जो ज्ञानकृत वा इच्छाकृत नही होती, केवल कललरस के भौतिक और रासायनिक गुणों के अनुसार होती है, जैसे छूने से लजालू की पत्तियों का सिमटना, उँगली रखने से क्षुद्र कीटो का अग मोडना इत्यादि। चेतना-विशिष्ट मनुष्य आदि बड़े जीवो मे भी यह अचेतन प्रतिक्रिया होती है। उनमे क्षोम अतर्मुख सवेदनसूत्रो द्वारा भीतर की ओर जाता है पर मस्तिष्क तक नही पहुँचता बीच ही से मेरुरज्जु या किसी और स्थान से पलट पडता है। आँख के पास किसी वस्तु के आते ही पलकें आप से आप, बिना इच्छा या संकल्प के, गिर पड़ती हैं।
संबंध मे भी कही जा सकती है क्यों कि वे ऊपर कहे हुए क्षुद्र मनोव्यापारों ही से क्रमशः स्फुरित हुए हैं। उनमे जो पूर्णता आई है वह अधिक मात्रा मे समन्वय होने के कारण उन व्यापारो की विशेष संगति और योजना के कारण जो पहले पृथक पृथक् थे। सारांश यह कि क्षुद्रकोटि के मनोव्यापारो और उन्नत कोटि के मनोव्यापारो मे--मनुष्यबुद्धि और पशुबुद्धि मे-केवल न्यूनाधिक का भेद है, वस्तुभेद नही।
प्रत्येक विज्ञान का पहला काम यह है कि जिस वस्तु के सबंध में उसे अन्वेषण करना हो उसकी स्पष्ट परिभाषा या व्याख्या कर ले। पर मनोविज्ञान के सबंध मे यह प्रारंभिक कार्य अत्यंत कठिन है। सब से विलक्षण बात यह है कि मनोविज्ञान के संबंध में आज तक नए पुराने दार्शनिको ने जो मत प्रकट किए हैं उनका परस्पर विरोध देख कर बुद्धि चकरा जाती है। आत्मा क्या है? इद्रियानुभव और भावना में क्या अंतर है? मन मे कोई बात किस प्रकार उपस्थित होती है? बुद्धि और विचारो में क्या अंतर है। मनोवेगो ( राग, द्वेष, क्रोध आदि ) का वास्तविक रूप क्या है?
अंतःकरण की इन समस्त वृत्तियो का शरीर से क्या संबंध है? इन अनेक प्रश्न के तथा इसी प्रकार के और प्रश्नो के जो उत्तर दार्शनिको ने दिए हैं वे परस्पर विरुद्ध हैं। यही नही, एक ही वैज्ञानिक वा दार्शनिक ने पहले कुछ और विचार प्रकट किया, पीछे और। इस प्रकार मनोविज्ञान भानमती का पिटारा बन गया है। जितनी गड़बड़ी इस विज्ञान मे दिखाई देती है उतनी और किसी मे नहीं।
कुछ दृष्टांत लीजिए। जरमनी के सब से प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने पहले अपनी युवावस्था मे यह स्थिर किया कि परोक्षवाद् के तीन बड़े विषय-—ईश्वर, आत्मस्वातंत्र्य और आत्मा का अमरत्व--शुद्ध बुद्धि के निरूपण से असिद्ध है। पीछे वृद्धावस्था मे उसने यह कहा कि ये तीनो बाते व्यवसायात्मिका बुद्धि के स्वयंसिद्ध निरूपण है और अनिवार्य है। इसी प्रकार विरचो और रेमंड नामक प्रसिद्ध जरमन वैज्ञानिको ने पहले बहुत दिनो तक भूतातिरिक्त शक्ति, शरीर और आत्मा की पृथक भावना आदि का घोर विरोध किया, पर पीछे उन्होने चेतना को भूतातिरिक्त व्यापार कहा।
अंत.करण की वृत्तियो की, विशेषतः चेतना की, परीक्षा के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानप्रणाली मे कुछ फेरफार करना पड़ता है। वैज्ञानिक अनुसंधान बहिर्मुख दृष्टि से होता है अर्थात् उसमे मन ( अपने से भिन्न ) बाह्य विषयो का निरीक्षण और विचार करता है। मनोव्यापारो के अनुसंधान मे हमे इस बहिर्मुख निरीक्षण के अतिरिक्त अंतर्मुख निरीक्षण या आत्मनिरीक्षण भी बहुत अधिक करना पड़ता है। इस स्वानुभूति या आत्मनिरीक्षण मे मन अपना ही अर्थात् अपने ही व्यापारो का चेतना के दर्पण मे निरीक्षण करता है। * अधि--
- Pure reason
- Practical reason
- काट आदि प्रत्यक्षवादी दार्शनिको ने स्वानुभूति या आत्मनिरीक्षण असभव कहा है। वे उसके सबंध मे यह बाधा उपस्थित करते हैं---"निरीक्षण करने के लिए तुम्हारी बुद्धि को अपनी क्रिया रोकनी
कांश मनोविज्ञानी केवल इसी आत्म-निश्चय या अहंकारवृत्ति
का अनुसरण करके चले हैं, जैसे डेकोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि "मैं सोचता हूँ इस लिए मैं हूँ।" अतः पहले इस आत्मनिरीक्षण प्रणाली पर कुछ विचार करके तब हस दूसरी (वाह्य निरीक्षण प्रणाली) की व्याख्या करेगे।
इन दो तीन हजार वर्षों के बीच आत्मा के संबंध मे जितने सिद्धांत उपस्थित किए गए है सब इसी अंतर्मुख प्रणाली के अनुसार स्वानुभूति या आत्म-निरीक्षण के आधार पर। अपनी आत्मा मे जिस प्रकार के अनुभव हुए उनकी संगति और आलोचना द्वारा किए हुए निश्चय ही दार्शनिक प्रकट करते रहे है।
बात यह है कि मनोविज्ञान के एक प्रधान अंग का विचार, विशेष कर चेतना के धर्म आदि का निरूपण, केवल इसी एक
पडेगी और उसी क्रिया का तुम निरीक्षण किया चाहते हो। यदि तुम क्रिया रोकते हो तो निरीक्षण करने के लिए कोई वस्तु ही नहीं रह जाती"। यह बाधा तो आधिभौतिक मनोविज्ञानक्षेत्र की हुई जिसमे जैसे अतःकरण की ओर सब वृत्तियों का निरूपण होता है वैसेही चेतना का भी। भारतीय दार्शनिकों ने भी मन की युगपत् क्रिया असभव बतलाई है, अर्थात् मन एक ही समय एक साथ दो व्यापारो मे प्रवृत्त नही हो सकता, पर उन्होंने सब व्यापारो के द्रष्टा आत्मा को मन या अत:करण से मिन्न माना है। अध्यात्म या पराविद्या के क्षेत्र मे भी आत्मबोध के संबध मे इस कठिनाई का सामना पढ़ा है। चैतन्य वा आत्मा ही ज्ञाता, द्रष्टा वा विषयी है अतः अपने ज्ञान के लिए उसे ज्ञेय, दृश्य वा विषय होना पड़ेगा। पर न विषयी विषय हो सकता है, न विषय
प्रणाली से हो सकता है। मस्तिष्क की यह वृत्ति (चेतना ) विशेष रूप की है। इसके कारण जितने दार्शनिक भ्रम हुए है उतने और किसी वृत्ति के कारण नही। मन की इस स्वनिरीक्षण क्रिया को ही मनोविज्ञान के निरूपण का एक मात्र साधन समझना, जैसा कि बहुतेरे दार्शनिको ने किया है, बड़ी भारी भूल है। मन के बहुत से व्यापारो का, जैसे इंद्रियो और वाणी की क्रिया आदि का, निरूपण उसी रीति से हो सकता है जिस रीति से शरीर के और व्यापारो का, अर्थात् पहले तो भीतरी अवयवो की सूक्ष्म विश्लेषणपरीक्षा से और फिर उनके आश्रय से होनेवाले व्यापारो के जीवविज्ञानानुकूल निरीक्षण से। अतः बिना इस प्रकार के बाह्य निरीक्षण के केवल आत्म-निरीक्षण द्वारा निश्चित मनोव्यापार-संबंधिनी बाते पक्की नही
विषयी। शंकर स्वामी अपने भाष्य में कहते है--युष्मदस्मत्प्रत्यय- गोचरयो विषयविषयिनो स्तम:प्रकाशवरुद्धस्वभावयोरित्तरेतर भावा- नुपपत्तौ सिद्धायाम् .."।
हर्बर्ट स्पेसर ने भी यही कहा है---A thing cannot at the same instant be both subject and object of thought, and yet the Substance of Mind must be this before it can beknown
शंकराचार्य ने तो यह कह कर उक्त बाधा दूर की कि चैतन्य वा आत्मा 'कूटस्थनित्यचैतन्यज्योति' है, वह ज्ञानस्वरूप है उसे ज्ञेय होने की आवश्वकता नहीं। पर हर्बर्ट स्पेसर आदि पश्चिमी तत्व- वेत्ताओं ने इसी विरोध को लेकर आत्मा, परमात्मा आदि को अज्ञेय ठहराया और सशय की स्थिति में रहना ही ठीक समझा।
समझी जा सकतीं। पर वाह्यनिरीक्षण की पूर्णता के लिए शरीरविज्ञान, अंगविच्छेदशास्त्र, शरीराणुविज्ञान*, गर्भविज्ञान और जीवविज्ञान इत्यादि का यथावत् ज्ञान होना चाहिए। मनोविज्ञानबेत्ता कहलानेवालो मे से अधिकांश का नरतत्त्वशास्त्र की आधार स्वरूपिणी इन विद्याओ मे कुछ भी प्रवेश नहीं होता। अतः वे अपनी आत्मा के गुण धर्म की विवेचना करने के भी अयोग्य है। एक और बात ध्यान मे रखने की यह है कि इन मनोविज्ञान-वेत्ताओ की अंत करण एक सभ्यजाति के उन्नत अंतःकरण का नमूना है जो अनेक पूर्ववर्ती अवस्थाओ मे वंशपरंपराक्रम से होता हुआ वर्तमान उन्नत अवस्था को प्राप्त हुआ है। अतः उसके गुण धर्म ठीक ठीक समझने के लिए असंख्य क्षुद्र कोटि के पूर्वरूपो का विचार आवश्यक है। यह मै मानता हूँ कि आत्मनिरीक्षण प्रणाली परम आवश्यक है, पर साथ ही और दूसरी प्रणालियो ( वाह्यनिरीक्षण आदि ) की सहायता भी निरंतर अपेक्षित है *।
आधुनिक काल मे ज्यो ज्यो मनुष्य का ज्ञान बढ़ता गया और भिन्न भिन्न विज्ञानो की अनुसंधानप्रणाली पूर्णता कों पहुँचती गई त्यो त्यो यह इच्छा बढ़ती गई कि उन विज्ञानो के निरूपण बिलकुल ठीक ठीक नपे तुले हो, उनमे रत्ती भर
- Histology
† Anthropology
- जो लोग समझते हैं कि ऑख मूँद कर ध्यान या समाधि लगाने से भूत, भविष्य, वर्तमान तीनो काल की बाते सूझने लगती है उन्हे इस पर ध्यान देना चाहिए।
का भी बल न पड़े, अर्थात् व्यापारो का निरीक्षण जहाँ तक हो सके प्रत्यक्षानुभव के रूप मे हो और जो नियम निरूपित किए जायँ वे जहाँ तक हो सके ठीक ठीक और स्पष्ट हो जैसे कि गणित के होते है। पर इस प्रकार का नपा तुला ठीक ठीक निरूपण कुछ थोड़े से शास्त्रो मे ही संभव है, विशेषत् उन विद्याओ मे जिनमे परिमेय ( गिनती या माप के योग्य ) परिमाण का विचार होता है, जैसे गणित मे तथा ज्येतिष, कलाविज्ञान, भौतिकविज्ञान, और रसायनशास्त्र के बहुत से अशो से। इसीसे ये सब विद्याएँ "ठीक नपी तुली विद्याएँ" कहलाती है। पर समस्त भौतिक विद्याओं को बिल्कुल ठीक और नपी तुली समझ कर उन्हे इतिहास, तर्क, आचारशास्त्र आदि से सर्वथा भिन्न कोटि मे रखना भूल है। भौतिक विज्ञान को बहुत सा अंश ऐसा है जिसकी बातो को हम इतिहास की बातो से अधिक ठीक और नपी तुली नही कह सकते। यही प्राणिविज्ञान और उससे सवद्ध मनोविज्ञान के सबंध मे भी कहा जा सकता है। जब कि मनोविज्ञान शरीरविज्ञान की ही एक अंग है तब उसका निरूपण भी उसी प्रणाली से होना चाहिए जिस प्रणाली से शरीरविज्ञान का होता है । अस्तु, मनोविज्ञान मे पहले तो हमे प्रत्यक्षानुभव प्रणाली का अनुसरण कर के जहाँ तक हो सके इंद्रिय, संवेदनसूत्र, मस्तिष्क आदि की क्रियाओं का निरीक्षण और परीक्षा करनी चाहिए, उसके पीछे फिर मन के व्यापारो का आत्मनिरीक्षण करके उनके नियमो को तर्क द्वारा स्थिर करना चाहिए। पर यह समझ रखना चाहिए कि इस प्रकार के
नियम गणित के नियमो के समान ठीक ठीक नाप तौल के साथ सर्वत्र नहीं स्थिर किए जा सकते। शरीरविज्ञान में केवल इंद्रियो के व्यापारी का निरूपण गणित की रीति से कुछ हो सकता है, मस्तिष्क के और व्यापारो का नहीं।
प्राणिविज्ञान के एक छोटे से अंग का गणित की रीति से कुछ प्रतिपादन हो सका है और उसका नाम मनोभूतविज्ञान ( Psycho-Physics ) रक्खा गया है। इस विज्ञान के प्रतिष्ठाता फेक्नर और वेवर नामक वैज्ञानिको ने पहले यह पता लगाया कि सब प्रकार के इंद्रियानुभव बाहरी विषयसंपर्क की उत्तेजना पर निर्भर है और जिस हिसाब से विषयसपर्क की उत्तेजना घटती या बढ़ती है उसी हिसाब से इंद्रियसंवेदन भी घटता या बढ़ता है। उन्होने स्थिर किया कि कम से कम इतनी मात्रा की उत्तेजना होगी तभी इंद्रियसंवेदन होगा, और प्राप्त उत्तेजना मे इतनी मात्रा का अंतर पड़ेगा तब संवेदन मे कुछ अंतर जान पड़ेगा। दर्शन, श्रवण, स्पर्श (दबाव) संवेदनों के विषय मे यह निर्दिष्ट नियम है कि उनमे अंतर उत्तेजना के संबंध के अंतर के हिसाब से पड़ता है। अस्तु, फेक्नर ने अपने मनोभूतविज्ञान का एक प्रधान नियम स्थिर किया कि संवेदना की वृद्धि संख्योत्तर क्रम ( जैसे २,४,६,८,१० ) से होती है और उत्तेजना की गुणोत्तर क्रम से ( जैसे २,४,८,१६, ३२ ) * । पर
- मान लीजिए कि ऑख पर पहले एक दरजे का प्रकाश पड़ा फिर तुरंत १०० दरजे का अर्थात् उससे सौ गुना प्रकाश पड़ा और
फेक्नर के ये भौतिक निरूपण सर्वांश में स्वीकृत नही हुए है। मनोभूत-विज्ञान से जैसी सफलता की आशा की गई थी वैसी नहीं हुई। वह आगे नहीं बढ़ सका। उसका विस्तार बहुत ही थोड़ा है। उससे इतना अवश्य सिद्ध हुआ है कि कम से कम आत्मा के एक व्यापार पर भौतिक नियम घटाए जा सकते हैं। पर कहना यही पड़ता है कि मनोव्यापारी को नापने तौलने का प्रयत्न निष्फल हुआ है, उससे कुछ विशेष परिणाम नहीं निकला है। विज्ञान का लक्ष्य तो यही होना चाहिए कि सर्वत्र भौतिक नियमो का परिपालन दिखलाया जाय, पर यह सर्वत्र साध्य नही है। अतः जीवसृष्टि, मनोव्यापार आदि के संबध में तारतम्यिक
हमे एक विशेष अतर जान पड़ा। अब यदि एक दरजे के स्थान पर २ दरजे का प्रकाश पहले पड़े तो फिर २०० दरजे का प्रकाश पडने से, अर्थात् दो का सौ गुना प्रकाश पड़ने से, उतना ही अतर जान पडेगा। इसी प्रकार ३ और ३०० मे वही अतर जान पड़ेगा। तात्पर्य्य यह कि पहली उत्तेजना जितनी गुनी अधिक होगी दूसरी के भी उतनी ही गुनी अधिक होने से उतना ही अंतर जान पडेगा। १५ रत्ती का बोझ यदि हाथ पर ( हाथ स्थिर और किसी वस्तु के आधार पर रहे) रक्खा जाय तो फिर उस पर एक रत्ती और रखने से बोझ मे कुछ अतर न जान पडेगा। जब पॉच रत्ती और रक्खा जायेगा तब जान पड़ेगा। अब यदि पहले ३० रत्ती का बोझ रक्खा जाय तो फिर पॉच रत्ती और रखने से अंतर न जान पडेगा, दस रत्ती और रखने से जान पड़ेगा। गुरुत्व और शब्द-सवेदना में ३-४ का अतर पड़ने से भेद मालूम होता है, पेशी के तनाव में १५-१६, दृष्टि मे १००-१०१ का।
( परंपरा मिलान करने की ) और गर्भविधान-निरीक्षण प्रणाली ही विशेष उपयोगी है।
मनुष्य और दूसरे उन्नत जंतुओं (जैसे कुत्ते, बंदर आदि) के मनोव्यापारो मे जो विलक्षण सादृश्य है वह सव पर प्रकट है। प्राचीन दार्शनिक मनुष्य की आत्मा और पशु की आत्मा मे कोई 'वस्तुभेद' नही समझते थे, केवल मात्राभेद समझते थे। ईसाई मत के कारण योरप मे लोग मनुष्य की अमर आत्मा और पशु की नश्वर आत्मा मे भेद मानने लगे। इस भेद पर डेकार्ट आदि द्वैतवादी दार्शनिको ने और भी लोगों का विश्वास जमा दिया। डेकार्ट सन् ( १६४३ ) कहता था कि केवल मनुष्य ही को वास्तविक आत्मा है, मनुष्य ही मे संवेदन और स्वतंत्र इच्छा प्रयत्न आदि होते है। पशु केवल जड़ मशीन के तुल्य है, उनमे किसी प्रकार की संवेदना या इच्छा प्रयत्न आदि नही है * । डेकोर्ट के पीछे योरप में बहुत दिनो तक लोगो की यही धारणा रही।
उन्नीसवीं शताब्दी के पिछले भाग में जीवसृष्टिविज्ञान और शरीरविज्ञान की उन्नति के साथ पशुओ के मनोव्यापारो की ओर भी तत्ववेत्ताओ का ध्यान गया। मूलर ने अपने शरीर विज्ञान के गूढ़ अन्वेषणो द्वारा पशुबुद्धि-परीक्षा का मार्ग सुगम कर दिया। डारविन के पीछे उसके विकाशसिद्धांत का प्रयोग मनोविज्ञान के क्षेत्र मे भी किया गया।
- न्याय और वैशेषिक ने इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि को आत्मा का लिंग या लक्षण माना है। बुंट जरमनी के सत्र से बड़े मनोविज्ञानवेत्ता है। और दार्शनिको से उनमे यह विशेषता है कि उन्हे प्राणिविज्ञान, अगविच्छेदशास्त्र और शरीरव्यापार-विज्ञान का भी पूरा पूरा अभ्यास है। उन्होने भौतिक विज्ञान और रसायन के नियमो का बहुत कुछ प्रयोग शरीरविज्ञान और उससे संबद्ध मनोविज्ञान के क्षेत्र मे करके दिखाया है। १८६३ मे उन्होने अपना "मानव और पाशव मनोविज्ञान पर व्याख्यान" प्रकाशित किया और सिद्ध किया कि मुख्य मुख्य मनोव्यापार "अचेतन आत्मा" से होते हैं। बुंट ने ( मस्तिष्क के ) उन पुरज़ो को दिखाया जो आत्मा के अचेतन पट पर वाह्य विषयसंपर्क से उत्पन्न उत्तेजना के प्रभावो को अंकित करते है। सब से बड़ा काम बुट ने यह किया कि उन्होने बेगसंबंधी भौतिक नियम पहले पहल मनोव्यापारो के क्षेत्र मे घटाए और मनस्तत्व के प्रतिपादन मे शरीरगत विद्युद्विधान की बहुत सी बातो का प्रयोग किया।
तीस वर्ष पीछे (१८९२ मे ) बुंट ने जब अपने ग्रंथ का दूसरा परिवर्तित और संक्षिप्त संस्करण निकाला तब उसमे अपना सिद्धांत एक दम बदल दिया। पहले संस्करण मे जो महत्त्व के सिद्धांत निरूपित किए गए थे वे सब परित्यक्त कर दिए गए और अद्वैत भाव के स्थान पर द्वैतभाव स्थापित किया गया। बुंट ने इस दूसरे संस्करण की भूमिका मे साफ़ कहा है कि---पहले संस्करण मे जो भ्रम मुझ से हुए थे उनसे मैं मुक्त हो गया। कुछ दिनो पीछे जब मैने विचार किया तब मालूम हुआ कि पहले जो कुछ मैने कहा था वह
सब युवावस्था का अविवेक था, वह मेरे चित मे बराबर खटकता रहा और मै जहाँ तक शीघ्र हो सके उस पाप से मुक्त होने के लिए राह देखता रहा।" इस प्रकार बुंद के ग्रंथ के दो संस्करण मे किए हुए मनस्तत्त्वनिरूपण एक दूसरे के सर्वथा विरुद्ध हैं। पहले संस्करण के निरूपण तो सर्वथा भौतिक हैं और अद्वैतवाद लिए हुए हैं और दूसरे संस्करण के निरूपण आध्यात्मिक और द्वैतभावापन्न है। पहले मे तो मनोविज्ञान को बुंट ने एक भौतिक विज्ञान मान कर उसका निरूपण उन्ही नियमो पर किया है जिन नियमो पर शरीरविज्ञान के और सब अंगो का होता है। पर तीस वर्ष पीछे उन्होने मनोविज्ञान को अध्यात्मिक विषय कहा और उसके तत्वो और सिद्धांतो को भौतिक विज्ञान के तत्त्वो और सिद्धांतो से सर्वथा भिन्न बतलाया। अपनी मन शरीर-संबंधी व्याख्या मे उन्होने कहा है कि प्रत्येक मनोव्यापार को कुछ न कुछ सहवर्ती भौतिक ( या शारीरिक ) व्यापार अवश्य होता है, पर दोनो व्यापार सर्वथा स्वतंत्र है, उनमें कोई प्राकृतिक ( कार्य कारण आदि ) संबध नही। बुंट ने जो इस प्रकार शरीर और आत्मा को पृथक् बतला कर द्वैतवाद का डंका बजाया उससे दार्शनिक मंडली मे बड़ा आनंद फैला। द्वैतवादी दार्शनिक यह देख कर कि इतना बड़ा और प्रसिद्ध वैज्ञानिक पहले विरुद्ध मत प्रकट करके पीछे अनुकूल मत प्रकाशित कर रहा है एक स्वर से कहने लगे कि मनोविज्ञान की उन्नति हुई। पर लगातार चालीस वर्ष के अध्ययन के उपरांत अब भी मैं उसी 'अविवेक' में पड़ा हूँ! लाख
चेष्टा करने पर भी उससे मुक्त नहीं हो सका हूँ। अतः मै जोर के साथ कहता हूँ कि जिसे बुंट ने अपनी युवावस्था का
'अविचार' कहा है वही सच्चा विचार है, वही सच्चा ज्ञान है। उस सच्चे विचार का समर्थन बुड्ढे दार्शनिक बुंट के मत के विरुद्ध भै बराबर करता रहूँगा।
बुंट, कांट, विरशो, रेमंड, बेयर इत्यादि का इस प्रकार अपने सिद्धांतों को बदलना ध्यान देने योग्य है। युवावस्था मे तो ये योग्य तत्त्ववेत्ता जीवविज्ञान के संपूर्ण क्षेत्र मे अत्यत विस्तृत अन्वेषण करते रहे और सब तत्वों की एक मूल प्रकृति ढूंढ़ने के प्रयत्न मे लगे रहे, पर पीछे बुढ़ापा आने पर उसे पूर्णतया साध्य न समझ इन्होने अपना उदेश्य ही परित्यक्त कर दिया—अपना रंग ही बदल दिया। इस परिवर्तन का कारण लोग यह कह सकते है कि युवावस्था मे बुद्धि के अपरिपक्व होने के कारण इन्होने सब बातो की ओर पूरा पूरा ध्यान नही दिया था, पीछे बुद्धि के पारिपक्व होने पर और अनुभव बढ़ने पर इन्हे अपना भ्रम मालूम हुआ और इन्होंने वास्तविक ज्ञान का मार्ग पाया। पर यह क्यो न कहा जाय कि युवावस्था मे अन्वेषण-श्रम की शक्ति अधिक रहती है, बुद्धि अधिक निर्मल और विचार अधिक स्वच्छ रहता है, पीछे बुढ़ाई आने पर जैस और सब शक्तियाँ शिथिल हो जाती है वैसे ही बुद्धि भी सठिया जाती है, जीर्ण हो जाती है। जो कुछ हो, पर वैज्ञानिको का यह सिद्धांत-पारिवर्तन मनोविज्ञान में मनन करने योग्य विषय है। इससे यह सूचित होता है कि जीवों के और व्यापारो के समान मनोव्यापार
या आत्मव्यापार भी अपना रूप बदलते रहते हैं-अर्थात्
आत्मा भी सदा एकरूप नहीं रहती।
भिन्न भिन्न श्रेणियो के जीवो के मनोव्यापारो को परस्पर मिलान करनेवाली विद्या को तारतम्यिक मनोविज्ञान कहते है। इसके लिए यह आवश्यक है कि जिस प्रकार जीवसृष्टि विज्ञान * मे जीवो की ऊँची नीची परंपरा का क्रम स्थिर है उसी प्रकार मनोव्यापारो की ऊँची नीची परंपरा का क्रम भी स्थिर किया जाय। ऐसा होने से ही हम समझ सकते है कि किस प्रकार एकघटक अणुजीव के क्षुद्र व्यापारो से ले कर मनुष्य के उन्नत मनोव्यापारो तक एक अखंडित श्रृंखला बँधी हुई है। मनोव्यापारो का यह श्रेणी-भेद मनुष्य की भिन्न जातियो मे भी परस्पर देखा जाता है। एक अत्यंत असभ्य जाति के जगली मनुष्य की बुद्धि मे और एक अत्यंत सभ्य जाति के मनुष्य की बुद्धि मे बड़ा भारी भेद होता है। इसी भेदपरपरा के अन्वेषण के विचार से असभ्य बर्बर जातियो की जॉच की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है, मनोविज्ञान के तत्वो के निरूपण के लिए भिन्न भिन्न मनुष्य जातियो का विवरण बड़े काम को माना जाने लगा है।
मनोविज्ञान मे आत्मा के क्रमविकाश का निरीक्षण बहुत जरूरी है। इसके द्वारा जितनी जल्दी हम मिथ्या धारणाओ ओर भ्रमो को हटा कर आत्मवृत्तियो के यथार्थ रूप का आभास पा सकते हैं उतनी जल्दी और किसी प्रणाली के द्वारा नही। विकाश के दो रूप मै पहले बतला चुका हूँ-गर्भ
- Zoology
विकाश और जातिावकाश। आत्मा का गर्भविकाश या स्फुरणक्रम देखने से यह पता चलता है कि किस क्रम से
एक व्यक्ति की आत्मा गर्भकाल से लेकर बराबर वृद्धि को प्राप्त होती जाती है और किन नियमो के अनुसार उसका विधान होता है। शिशु का अंतःकरण किस प्रकार क्रमश पुष्ट और उन्नत होता जाता है मातापिता, शिक्षक आदि अत्यंत प्राचीन समय से देखते आ रहे है, पर उनके चित्त मे आत्मा की पूर्णता, अमरता आदि की जो धारणा बँधी चली आ रही है उससे उनका देखना और न देखना बरावर हो जाता है। पर अब इधर कुछ दिनो से बालक की आत्मा के विकाशक्रम का विचार होने लगा है। इस विषय पर पुस्तके भी लिखी गई है।
पहले कहा जा चुका है कि जीवसृष्टि मे गर्भविकाश और जातिविकाश को क्रम एक ही है। डारविन ने जीवो की भिन्न भिन्न योनियो के विकाश की परंपरा का क्रम दिखा कर उसी क्रम से मनोवृत्तियो के विकाश का होना भी दिखाया है। उसने अनेक प्रमाणो द्वारा सिद्ध किया है कि जंतुओ की अंतःप्रवृत्ति भी जीवो की और और बातो के समान वृद्धिपरंपरा के नियमाधीन है। विशेष विशेष जीवो मे अंतःप्रवृत्ति की जो विशेषता देखी जाती है वह स्थिति सामंजस्य या अवस्थानुरूप परिवर्तन के कारण होती है। यह विशेषता पैतृक परंपरा द्वारा बराबर आगे की पीढ़ियो मे चली चलती है। जीवो की अंतःप्रवृत्ति का निर्माण और संरक्षण भी उसी प्रकार ग्रहण-सिद्धांत (देखिए-प्रकरण ५) के नियमानुसार होता है जिस प्रकार और शारीरिक शक्तियो का। डारविन ने कई पुस्तके लिख कर दिखाया है कि "मनोविकाश"
संवधी वे ही नियम समस्त जीव-सृष्टि पर घटते हैं--क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या उद्भिद्। जिस प्रकार भिन्न भिन्न जीवो की एक मूल से उत्पत्ति देखने से समस्त जीवसृष्टि की एकता प्रमाणित होती है उसी प्रकार अणुजीव से लेकर मनुष्य तक मनस्तत्व की एकता भी सिद्ध होती है।
रोमेंज ने डारविन के मनोविज्ञान को और प्रवर्द्धित किया। उसने दो ग्रंथ विकाशक्रमबद्ध मनोविज्ञान पर लिखे जो अपने ढंग के निराले हुए। पहला ग्रंथ जंतुओं के मनोविकाश पर है। उसमे उसने क्षुद्र जंतुओं के संवेदन-व्यापार और अंत प्रवृत्ति से लेकर उन्नत जीवों की चेतना और बुद्धि तक की श्रृंखलावद्ध परपरा दिखाई है। दूसरे ग्रंथ में उसने मनुष्य के अंतकरण का विकाश और उसकी शक्तियों का उद्भव दिखाया है। उसमे पूर्णरूप से सिद्ध किया गया है कि मनुष्य और पशु के अत:करण वा आत्मा मे कोई तत्त्वभेद नहीं है। मनुष्य मे संकल्प विकल्पात्मक विचार और प्रत्याहार आदि करने की जो शक्ति है वह दूध पिलानेवाले मनुष्येतर जीवों के अकल्पनात्मक कोटि के अंत:संस्कारो से ही क्रमशः स्फुरित और विकसित हुई है। मनुष्य की बुद्धि, वाणी, और आत्मबोध आदि की उन्नत शक्तियाँ किंपुरुष वनमानुस आदि पूर्वजो की मानसिक शक्तियों से उन्नत होते होते उद्भूत हुई हैं। मनुष्य की अंत करण-शाक्तं और दूसरे जीवों की अंत.करण-शक्ति मे केवल मात्राभेद है, तत्वभेद नही। शक्ति वही है, पर मनुष्य मे वह अधिक है और दूसरे जीवा मे कम।
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